डॉ.मधुकर देशमुख

 भट्टियां तेरे कारखाने की जलाने में 
 मैं खुद जला हूँ।
 महल तेरे बनाने में
 मैं खुद जला हूँ।
 रोशन तुझे कराने में, 
 मैं खुद जला हूँ।
 चिराग तेरा जलाते- जलाते
 रखा मैंने खुद को अँधेरे में।
 देश को आत्मनिर्भर बनाने में
 हर जुल्म सहे मैंने।
 समाज की इन बंदिशों से 
 टूट कर चूर हो गया हूँ मैं…
 जीवन में संघर्ष करते- करते
 बिखर गया हूँ मैं।
 परिवार को खुश रखूँ, 
 पेटभर खाना खिलाऊँ
 ये सपना मैंने भी तो पाला था।
 तो क्या बुरा किया था. ..?
 पर नहीं बुझाई पेट की आग तुमने…!!
 समय अब आ गया है…
 हिम्मत न हारने का
 अब भी हिम्मत रखता हूँ
 जेठ के इस तपती धुप में
 परिवार का बोझ उठाने की।
 अब भी हिम्मत रखता हूँ
 जिस मिटटी में जन्म लिया
 उस मिटटी का कर्ज चुकाने की।
 अब भी हिम्मत रखता हूँ
 चलने की… 
 चलूंगा… चलता रहूँगा…
 अपनी मंजिल तक
 पर अब न रूकूंगा. ..
 पीछे मुड़कर न देखूंगा, 
 अब मैं चल पड़ा हूँ. ..
 अपनी मिटटी का कर्ज चुकाने. ..
 माँ-बाप की सेवा करने
 चलते - चलते अगर मिट भी गया
 तो समझूँगा; मेरे जैसा खुशनसीब और कोई नहीं…
 पर पीछे मुड़कर ना देखूंगा…!!
 बावजूद इसके
 अगर लौट सका तो…
 तेरा शहर बसाने अवश्य लौटूंगा 
 पर पीछे मुड़कर न देखूंगा…!! 

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