स्वामी योगात्मानन्द, वेदान्त सोसायटी आफ प्रोविडेन्स, अमेरिका

स्वामी योगात्मानन्द वेदान्त सोसाइटी आफ प्रोविडेन्स के मंत्री एवं अध्यक्ष हैं। ये 1976 में रामकृष्ण मिशन में शामिल हुए और 1986 में संन्यास की दीक्षा ली। 20 वर्ष तक रामकृष्ण मिशन नागपुर, में कार्य करने के उपरांत रामकृष्ण मिशन शिलांग मेघालय, के अध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहे। तदुपरांत आप सन् 2001के ग्रीष्म ऋतु में अमेरिका में वेदांत सोसायटी आफ प्रोविडेन्स के मंत्री के पद पर आए।

स्मृतियों के झरोखे में बासन्ती हवा ने बादलों की पाती भेज रामकृष्ण मिशन शिलांग द्वारा प्रकाशित अंतर्राष्ट्रीय ई पत्रिका ‘का जिंग्शई अर्थात ज्योति’, द लाइट के लिए कुछ शब्द-मुक्ताओं को पिरोने का दायित्व दिया है। आज स्मृतियों के पन्ने पलटता हूँ और वर्तमान से अतीत में जा मेघालय की राजधानी शिलांग में अपने प्रथम दिवस की अनुभूतियों को आपके साथ आत्मसाथ करता हूँ।
गुरुवार, दि. २९ फरवरी १९९६ (जो कि चार सालों में एक ही बार आनेवाली तारीख़ है)। सुबह करीब ९ बज रहे थे। नागपुर, रामकृष्ण मठ के प्रकाशन विभाग के कार्यालय में मैं कुछ १५ – २० मिनट पेहले पहुचाँ था; और भी एक या दो मठवासी संन्‍यासी आ गये थे, कुछ वेतन भुक्त कर्मचारी भी मौजूद थे। कई दैनिक गतिविधियाँ – पुस्तकों की छपाई, प्रूफ रीडिंग कई लोगों से पत्रव्यवहार, इत्यादि – जारी थी, कि बेलुर मठ से फोन आया। श्रद्धेय आत्मस्थानानन्द जी, जो उन दिनों जनरल सेक्रेटरी थे, मुझ से बात करना चाहते थे। “साष्टांग प्रणाम, महाराज”, मैंने कहा।
वैसे तो इस प्रकार के फोन की अपेक्षा कुछ दिनों से थी ही। नागपुर के मठ से मेरा तबादला लगभग निश्चित ही था; किन्तु सिवा मेरे, इसकी भनक वहाँ अन्य किसी को भी नहीं थी। जब श्रद्धेय आत्मस्थानानन्द जी ने बताया कि मुझे शिलाँग के आश्रम का मुख्य बनाकर भेजा जा रहा है, तो मैं बिल्कुल चौंक गया। क्या कहूँ, क्या ना कहूँ, कुछ भी नहीं सूझ रहा था। दो – तीन मिनट बात हुई, कुछ और समाचार देकर उन्होंने फोन रख दिया।


शुक्रवार दि. मार्च २२, १९९६। प्रातः ११ बजे नागपुर से मेरी यात्रा प्रारंभ हुई – हावड़ा मेल से। दूसरे दिन बेलुड़ मठ-स्थित रामकृष्ण मठ – मिशन के मुख्यालय में पहुँच कर शिलाँग आश्रम का कार्यभार सम्हालने का अधिकार – पत्र व अन्य आवश्यक कागजाद लिये। दूसरे दिन प्रेसिडेंट महाराज परमपूज्य भूतेशानन्द जी महाराज से मुलाकात हुई। वे शिलाँग आश्रम के प्रथम प्रमुख थे। उन्होंने भूरि-भूरि आशीर्वाद दिया। अन्य वरिष्ठ सन्यासी, जो कि शिलाँग आश्रम में पहले कार्यरत थे उनसे भी परामर्श लिया। और सोमवार २५ मार्च को आकाश मार्ग से गुवाहाटी पहुँच गया। वहाँ शिलाँग आश्रम से स्वामी हृदानन्द जी हवाई अड्डे पर आये थे। रास्ते में रुखकर कामाख्या-पीठ का दर्शन कर और गुवाहाटी के नितान्त-सुंदर आश्रम मे रात बिताकर दूसरे दिन सुबह शिलाँग के लिये हम रवाना हुए। मैं, हृदानन्द जी और ड्राईवर। रास्ते में एक गणेश मंदिर में दर्शन किया। आनेवाले लगभग चार सालों में शिलाँग – गुवाहाटी – शिलाँग की अनगिनत यात्राएँ हुई, प्रायः हर बार यहाँ गणेश जी के दर्शन कर ही आगे बढ़ना होता था। ठीक सुबह ११.२५ को गाड़ी शिलाँग आश्रम में पहुँच गयी। श्रद्धेय रघुनाथानन्द जी (आश्रम प्रमुख जो मुझे कार्यभार सौप देने वाले थे), श्रद्धेय गणनाथानन्द जी, समचित्तानन्द जी और कई साधु-बर्ह्मचारियों ने हृदयपूर्वक स्वागत किया।
तो इस प्रकार २६ मार्च १९९६ को मेरा शिलाँग जीवन प्रारम्भ हुआ। हाँ, एक और बात तो लिखना भूल ही गया था। शिलाँग में और गुवाहाटी से शिलाँग आते समय जो सुरम्य पर्वतों के बीच से गाडी चलती है, वहाँ की प्राकृतिक सुंदरता का वर्णन तो मैंने कई प्रत्यक्ष-दर्शियों से सुना था किन्तु ‘सुनना’ और प्रत्यक्ष देखना इस में कितना अंतर होता है! वह दृश्य अद्भुत था विशेष कर जब गाड़ी उमियाम (बड़ा पानी) से गुजर रही थी तो अनिमेष दृष्टि से उस सुंदरता का पान कर रहा था फिर आने वाले चार वर्षोँ में न जाने कितने बार उस दृश्य को अतीव आनन्द से, कितने ही रंगों में देखा।
शिलाँग आश्रम का मंदिर तथा परिसर भी अति सुंदर और साफ़-सुथरा था।
मुझे उसी कमरे में रहना था, जहाँ परम पूज्य भूतेशानन्द जी से लेकर सभी आश्रम-प्रमुख निवास करते थे। उस कमरे से लगे बरामदे में मैं, रघुनाथानन्द जी तथा अन्य सब बैठकर सामान्य बातचीत कर रहे थे। मुझे एक कटोरी में कुछ प्रसाद दिया गया। आनंद से उसे खाकर मैं हाथ-मुँह धोने के लिये बाथरूम में गया – और…
शिलाँग पहुँचने से पहले बेलुर मठ में कई पुराने संन्यासियों ने वहाँ की समस्याएँ बतायी थीं। पूज्य प्रमेयानन्द जी ने विशेष आग्रह के साथ कहा था कि वहाँ सारे इलाके में, विशेषकर अपने आश्रम में, पानी की बहुत बड़ी समस्या है; देखो यदि तुम उसके लिये कुछ कर सको तो बहुत अच्छा होगा। जब मैं अब शिलाँग के बाथरूम में पहुँचा तो वहाँ किसी नल से पानी नहीं आ रहा था। एक महाराज जी जल्दी से कहीं से थोड़ा पानी लाए। पूज्य प्रमेयानन्द जी के कथन का मेरे पहुँचते ही प्रमाण मिल गया। इस समस्या का हल करना मेरी प्राथमिकता बन गई ।


शिलाँग में प्रथम दिन ही सायंकाल को ‘विवेकानन्द कल्चरल सेन्टर’ मे जाने के लिये श्रद्धेय रघुनाथानन्द जी के साथ निकला। इसके पहले लाइब्रेरी, लेक्चर हाल, स्टूडेण्ट्स होस्टेल इत्यादि सारा उन्होंने घूम कर दिखाया। (इन में होस्टल, साधू-निवास और रसोई – भोजन – कक्ष अब बड़ा ही विस्तृत और सुंदर बना है; १९९६ में या २००० में – जब मेरा शिलाँग से तबादला हुआ – वह इतना अच्छा नहीं था। ) जाते समय से पहले पाँच मिनट डिस्पेन्सरी देखी (वह भी अब बहुत बड़ी हुई है)। जीप में बैठकर जब हम जा रहे थे, तो श्रद्धेय रघुनाथानन्द जी अपने विनोद-गर्भ, सुंदर शैली में आश्रम के विविध कार्य, उनकी पृष्ठभूमि, आश्रम के समर्पित भक्त, इन सब के सम्बन्ध में जानकारी दे रहे थे।
पुलिस बाज़ार, जहाँ आज ‘विवेकानन्द कल्चरल सेन्टर’ के नाम से विख्यात संस्था है, मानो शिलाँग का केंद्र बिंदु था, हृदय था। उन दिनों ‘विवेकानन्द कल्चरल सेन्टर’ यह नाम कोई नहीं जानता था – उसे ‘क्विण्टन हाल’ कहते थे। पहुँच कर देखा – मकान की स्थिति डाँवाडोल थी और देखने में भी भद्दी। समचित्तानन्द जी – जो वहाँ की गतिविधियाँ देखते थे – हमें सीढ़ी से ऊपर देवघर में ले गये। सीढ़ी लड़खड़ाते हुए मानों कह रही थी – ‘मुझे भी मरम्मत की सख्त जरूरत है।’ तब स्मरण हुआ कि श्रद्धेय आत्मस्थानानन्द जी की उस सूचना का, जो तीन दिन पहले बेलुर मठ में मुझे दी थी। रामकृष्ण संघ के जनरल सेक्रेटरी के नाते उन्होंने बताया था की यद्यपि बरसों की न्यायिक लड़ाई के बाद इस क्विण्टन हाल पर रामकृष्ण मिशन का अधिकार हो तो गया है, परन्तु कुछ प्रशासकीय अवरोधों के कारण वह जायदाद अभी भी हमारे नाम पर दर्ज नहीं हुई है। और इसी कारण उस स्थान का नवीनीकरण/ पुननिर्माण नहीं हो रहा है। मुझे शिलाँग पहुँच कर इस काम को तेजी से आगे बढ़ाना होगा।
वहाँ से लौटते समय श्रद्धेय रघुनाथानन्द जी ने बताया कि स्वामी विवेकानन्द जी के संस्पर्श से पुनीत हुआ यह स्थान, रामकृष्ण मिशन को मिल तो गया है; किन्तु मेघालय की सरकार अभी भी उसे अपने हाथ करना चाहती है। इसीलिये यहाँ का प्रशासन अभी भी इसके पन्जीकरण में कई बाधाएँ डाल रहा है। अब तुम कोशिश करो – कुछ मार्ग ढूँढ निकालो।


क्विण्टन हाल से लौटकर आया और आरती में शरीक हुआ। छात्रवास के बच्चे सुंदर आरती गान कर रहे थे। ४ – ६ भक्त भी उपस्थित थे। एक ‘चकमा’ छात्र – सुजय उसका नाम – बड़ी खूबी से तबला बजा रहा था। सभी छात्रों को संगीत का स्वयंप्रेरित ज्ञान था। आरती के उपरान्त कुछ भक्तों से चंद क्षण वार्तालाप हुआ। मंदिर में श्रीरामकृष्ण देव की मूर्ति रात के मंद प्रकाश में अत्यंत सुंदर दिखाई दे रही थी। रात्रि का भोजन हुआ – तब शिलाँग की ठंड का एक और प्रभाव दिखाई दिया। भोजन परोसते-परोसते ही ठण्डा हो जाता था। क्या करे ? सोचा – अब ऐसा ही भोजन करने अभ्यास बनाना होगा। जैसी रात बढ़ती गयी, ठंड भी बढ़ने लगी। मार्च के अन्त में इतने ठंड की मुझे अपेक्षा नहीं थी। जल्द ही मैंने सामान को खोलकर एक स्वेटर और टोपी पहन लिया और आते समय श्रद्धेय रघुनाथानन्द जी ने जो एक सुंदर ऊनी शाल दी थी (जिसका उपयोग मैं यहाँ अमेरिका में पच्चीस सालों के बाद भी कर रहा हूँ ) उसे ओढ़ लिया। सब साधुओं से कुछ वार्तालाप हुआ और मैं सोने के लिये चला गया।
नींद ठीक से नहीं आ रही थी कारण एक ओर बढ़ती ठंड और दूसरी ओर जोर से चलने वाली हवा की आवाज। सब कुछ नया अनुभव था। चंद दिनों में इस से अभ्यस्त हो गया।
इस प्रकार शिलाँग का प्रथम दिन कई नयी बातें सीखते – सीखते आनन्द पूर्वक गुजर गया। आने वाले चार वर्ष चुनौती पूर्ण थे। उन दिनों की स्मृतियाँ शेष हैं…पुनश्च

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