रुनू बरुवा ‘रागिनी तेजस्वी’

फन्ने खान अपने जमाने का बड़ा ही होनहार तबलावादक था। रिकार्डिंग स्टूडियों में हमेशा उसकी मौजूदगी रहती थी। शायद सफलता का नशा था जो सर चढ़कर बोलने लगा था। बचपन की साथी नजमा जिसे कभी दिलोजान से प्यार करता था और शादी के सपने देखा करता था, अब उससे मिलने या बात करने की भी उसे जरुरत महसूस नहींं होती थी। शराब और शराबी दोस्त ही उसकी ज़िंदगी बन चुके थे। जैसा की ऐसी स्थिति में होता है, उसके साथ भी हुआ। बदतमीजी और शराब की लत की वजह से उसे काम मिलना बंद हो गया। दोस्तों और अपनों से आए दिन लड़ाई -झगड़ा होने लगा। उसके पैसे भी खत्म होने लगे। ऐसी हालत में एक दिन शराब के नशे में उसका एक्सीडेंट हो गया और उसे अपने दोनों पैरों से हाथ धोना पड़ा। दुनिया में अब उसका कोई नहींं था। खाने के लाले पड़ने लगे। तभी उसके जीवन में दीनदयाल आया जो एक लंगड़ा था और उम्र के इस पड़ाव पर अकेले जीवन का बोझ ढो रहा था। लोग बाग आते-जाते उसे कुछ न कुछ देते थे। दीनदयाल ने एक दिन फन्ने खान को दिनभर से भूखे पेट घिसटते देखा। दीनदयाल खाने बैठा ही था, तभी फन्ने को देखकर वह उठा और अपने पास से कुछ पैसे फन्ने को दे डाला। फन्ने खान का चेहरा आँसू से भीग गया। दीनदयाल ने उसे अपने हिस्से का खाना दिया और उसकी कहानी भी सुनी। दीनदयाल को बाँसुरी बजाने का शौक हुआ करता था। उसने अपने बचाए रुपयों से तबला और बाँसुरी खरीद ली। अब दोनों की जोड़ी जहाँ भी बजाने बैठती, लोगों का जमघट हो जाता। धीरे-धीरे दोनों के पास पैसा भी आने लगा। हालत भी सुधरने लगी। अब दोनों मंदिर में भजन गाने वाली टोली के सदस्य हो गए थे। दीनदयाल को जयपुरी पैर लग गए थे और फन्ने खान को ह्वील चेयर। हालांकि फन्ने खान मुस्लिम था मगर वह कहता था कि अगर बिस्मिल्लाह खान मंदिर में बजा सकते थे तो मैं क्यों नहींं! वह शिव भक्त थे और मैं दीनदयाल का!
डाॅ. (मा) रुनू बरुवा “रागिनी तेजस्वी” अखिल भारतीय साहित्यकार सम्मान, साहित्य रत्न सम्मान, साहित्य श्री सम्मान , साहित्य गौरव सम्मान, मात्सुओ ‘बासो’ सम्मान, सरस्वती सम्मान आदि से सम्मानित डिब्रूगढ़ की प्रतिष्ठित साहित्यकारों हैं।