शिलाँग के मेरे संस्मरणों की तीसरी किस्त में मैं ‘विवेकानन्द कल्चरल सेंटर (VCC)’, जो उन दिनों ‘क्विन्टन हॉल’ के नाम से ही सर्वपरिचित था, उसके सम्बन्ध में कुछ रोचक, गौरतलब तथ्य लिखने जा रहा हूँ। प्रथम किस्त में ही मैंने सूचित किया था कि रामकृष्ण मिशन के मुख्यालय ने मुझे इस कार्य को प्राथमिकता देने का आदेश दिया था।
शिलाँग पहुँचने के चंद दिन बाद ही मैंने इस सम्बन्ध में उपलब्ध फाइलो को गौर से पढ़ाई शुरू कर दी थी। अन्य बहुत से जरुरी प्रशासनिक कार्य, व्याख्यान, यात्राएँ, अन्य शहरों से आगंतुक निवासी भक्त-गणों की व्यवस्था, दैनंदिन पत्रव्यवहार इसी में भी बहुत सा समय व्यतीत होता था। और फिर यहां की ठण्ड, लोगों की रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज़ इत्यादी से परिचित होने में थोड़ी प्रारम्भिक कठिनाई हो रही थी। इसीलिए कार्य धीमी गति से चल रहा था। श्रद्धेय रघुनाथानंद जी के साथ भी उस सम्बन्ध में परामर्श करता था। क्विन्टन हॉल की न्यायालयीन लड़ाई से जड़ित कई भक्त और कार्यकर्ता गण के साथ भी चर्चा चलती थी। इनमें प्रमुख रूप से उल्लेखनीय नाम हैं – एड्. बिष्णु बाबू दत्त, एड्. सनतकुमार राय, दिलीप सिंग, बासू सिंग और क्विन्टन हॉल का कार्यभार देखने वाले स्वामी समचित्तानन्द जी।
एक महत्वपूर्ण बात समझ में आई : शिलाँग के साधारण लोगों के मन में जो धारणा बन चुकी थी कि शिलाँग शहर के मध्य भाग में, कई दृष्टि से किसी मौके के इस क्विन्टन हॉल की जमीन तथा वास्तु का जनसेवा हेतु कुछ भी उपयोग नहींं किया जा रहा है। कानून के द्वारा रामकृष्ण मिशन ने उसे अपनी प्रॉपर्टी तो बना ली है, किन्तु इसका कोई उचित उपयोग नहींं हो रहा है।
वहाँ के जनसाधारण की इस धारणा में परिवर्तन लाना जरूरी था। यह संस्था उनकी सेवा के लिए, उनकी भलाई के लिए है इसका एहसास स्थानिय लोगों के बीच जगाना बड़ा जरूरी था। यह नियम सर्वथा ही उपयुक्त है; शिलाँग जैसे क्षेत्रों में (जहाँ स्थानिय आदिवासी खासी – जयंतिया – गारो समुदाय का रामकृष्ण मिशन के साथ भावनात्मक नाता कम था) तो यह अनिवार्य ही था। यदि जनसाधारण का विरोध हो, तो प्रशासकीय दृष्टि से क्विन्टन हॉल का हस्तांतरण पूरा हो तो भी सर्वथा स्थानिय लोग और उनके राजकीय नेता कई मुश्किलें खड़ी कर सकते थे।
इसीलिए वहाँ नि:शुल्क डिस्पेन्सरी, ग्रंथालय, कोचिंग क्लास, संगणक-प्रशिक्षण ये सारे कार्य प्रारम्भ करने का निर्णय लिया गया। आश्रम की संचालक मंडली (Managing Committee) में भी इस निर्णय की चर्चा हुई और सभी ने इस विषय में सहमति जताई। जब संचालक मंडली की रिपोर्ट रामकृष्ण मिशन के मुख्यालय में पहुंची तो वहाँ से इस निर्णय पर आपत्ति उठायी गयी। उनका कथन था कि वह स्थान केवल स्वामी विवेकानन्द जी के स्मारक के रूप में संरक्षित हो, वहाँ पर उपर्युक्त किसी प्रकार का कार्य नहींं चलाया जाये। मैंने इसपर अपना स्पष्टीकरण दिया, जो उन्हें उचित लगा और फिर मुख्यालय से सानंद सम्मति-पत्र भी भेजा गया।
ये सारे कार्य क्रमश: शुरू होने लगे। दूसरी ओर हस्तांतरण का मसला हल करने हेतु संचालक मंडली की एक उपसमिती बनायी गयी। इस सम्बन्ध में पुराना पत्र व्यवहार देखा तो एक आवेदन-पत्र मिला, जो एक साल पहले कलेक्टर को भेजा गया था, और जिसका कोई जवाब उनकी तरफ से प्राप्त नहींं हुआ था। यहाँ एक अजीब बात जानकार लोगों ने बताई, जिसे सुनकर मैं तो हैरान हो गया। कलेक्टर का दफ्तर यह नहींं चाहता था कि यह कार्य आगे बढ़े; इसलिए हमारे पत्र का उन्होंने उत्तर “दिया” किन्तु हमें “भेजा” नहींं ! सुनने में आया कि ऐसा हथकंडा प्राय: अपनाया जाता है, जिससे मामला आगे ही न बढ़े। अब क्या किया जाए?
उपसमिति के सदस्य बासु सिंग इस कार्यशैली से परिचित थे। जब हमने कहा कि क्यों न हम उस दफ्तर जाकर वहाँ के अधिकारी से हमारे पत्र का उत्तर माँगे, तो बासु सिंग समेत सभी ने कहा कि इससे मामला बिगड़ जाएगा। वहाँ वे अधिकारी केवल टालमटोल करेंगे, क्योंकि ये सारा वे जानबूझकर कर रहे हैं। मेघालय की सरकार रामकृष्ण मिशन से कानूनी लड़ाई तो हार गयी, परन्तु अब प्रशासनिक स्तर पर वह रोड़े पैदा कर इस प्रॉपर्टी का हस्तांतरण रोक सकती थी। जबतक हस्तांतरण नहींं होता, तब तक रामकृष्ण मिशन वहाँ न कोई निर्माण कार्य कर सकता था, न उसे किसी भी काम के लिये प्रशासन की अनुमति मिल सकती थी।
और फिर? सरकार की धारणा थी कि अनुपयोगी दिखाकर उस प्रॉपर्टी को रामकृष्ण मिशन से छीन सकेगी। मुझे यह सारा क्रमशः समझाया गया। सभी ने कहा कि इस सम्बन्ध में जल्दबाजी करना ठीक नहींं होगा; चतुराई से आगे बढ़ना होगा। १९९६ के अप्रैल महीने से लेकर मेरी दैनंदिनी (Diary) में कई बार इस का उल्लेख मिलता है।
यहाँ पाठकों को इस समूचे अध्याय की कुछ रोचक पृष्ठभूमि अति संक्षेप में बता दूँ। १९०१ के अप्रैल में स्वामी विवेकानन्द उस इलाके के चीफ कमिशनर सर हेनरी कॉटन के अतिथि के रूप में शिलाँग आए थे। उनका स्वास्थ्य तब ठीक नहींं था; ज्वर, खांसी, अस्थमा इन का प्रकोप बढ़ गया था। इसलिए वे सार्वजनिक व्याख्यान देना टाल रहे थे। परन्तु वहाँ के सारे भक्त और प्रतिष्ठित नागरिकों के अनुरोध पर शनिवार दि. २७ अप्रैल १९०१ को इसी क्विन्टन हॉल में उन्होंने व्याख्यान दिया। स्वयं सर हेनरी कॉटन सभाध्यक्ष के रूप में उपस्थित थे। यही स्वामीजी के जीवन का अन्तिम सार्वजनिक व्याख्यान था और क्विन्टन हॉल का शुभारम्भ भी।
इसके कई वर्षों बाद यह हॉल आग में जल जाने के कारण पुननिर्मित किया गया। फिर कई दशकों के बाद वह अवैध तरीके से सिंघानिया टॉकीज ने अपने कब्जे में ले लिया। वह फिर सिंघानिया सिनेमा हॉल बन गया। क्विन्टन मेमोरियल ट्रस्ट ने लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद सिनेमा हॉल को फिर अपने कब्जे में ले ही लिया था। जब क्विन्टन हॉल ट्रस्ट फिर उसे अपने हाथों में ले ही रहा था कि मेघालय की सरकार ने एक प्रशासनिक अधिसूचना (administrative notification) जारी करते हुए इसे अपने कब्जे में ले लिया।
इस अवैधानिक कब्जे के खिलाफ क्विन्टन मेमोरियल ट्रस्ट ने कोर्ट में मामला दाखिल किया। ट्रस्ट ने यह प्रॉपर्टी रामकृष्ण मिशन को दान करने का अपना मकसद भी अपने आवेदन में अंतर्भूत किया। न्यायालय ने ट्रस्ट के पक्ष में निर्णय दिया; मेघालय सरकार ने इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, किन्तु वहाँ भी उसकी हार हुई। इस समस्त मामले का विस्तृत विवरण देना इस लेख का उद्देश नहींं है, इच्छुक पाठकगण ‘Quinton Memorial Hall vs Special Commissioner, East Khasi Hills’ को गूगल खोज कर पढ़ सकते हैं।
ये समूची जानकारी यहाँ केवल इसलिए दे रहा हूँ ताकि पाठकों को यह समझ में आये कि मेघालय की सरकार को इस प्रॉपर्टी से हाथ धोना बिल्कुल ही रास नहींं आया था और अब कुछ प्रशासनिक हथकंडों का और कुछ अनैतिकता का आश्रय लेकर वह रामकृष्ण मिशन के कार्य में बाधां पहुँचाने पर उतारू हो गयी थी। इस में सरकार का कुछ विशेष लाभ नहींं था, केवल उसकी नजर जिस प्रॉपर्टी पर थी, वह उसके न मिलने का गुस्से के रूप में प्रकट हो रहा था।
सरकार का कहना था कि हस्तांतरण (Mutation) के लिए हमे उनसे अनुमति प्राप्त करनी होगी। हमारा पक्ष इसके खिलाफ था। क्यों ? इसकी चर्चा इसी लेख में बाद में करूँगा। यहाँ हमलोग सोच रहे थे कि हमारे पत्र का DC के दफ्तर ने जो उत्तर दिया होगा (जो हमें प्राप्त न हो, इसकी व्यवस्था की गयी थी) उसे किस प्रकार प्राप्त किया जाय। कुछ खोज-बीन के बाद बासू सिंग को पता चला कि उनका एक परिचित DC के दफ्तर में नौकरी करता है! उसकी सहायता से कोशिश की जाए। और हाँ – बासू सिंग सफल हो गए। अपेक्षा के अनुरूप इस उत्तर में मांग की थी कि हमें मेघालय शासन की अनुमति के लिये आवेदन करना होगा, यही हस्तांतरण का नियम है।
मेघालय प्रशासन के कुपित होने का और भी एक कारण था। जब यह प्रॉपर्टी रामकृष्ण मिशन ने दान के रूप में प्राप्त की थी तो उसका पंजीकरण (Registration) कराना होता है। साधारण तौर पर यह शिलाँग के पंजीकरण दफ्तर में ही कराया जाता है। किन्तु मेघालय की सरकार उसे यदि नकार दें तो ? इस संभावना को देखते हुए रामकृष्ण मिशन के कानूनी विशेषज्ञों ने इसका एक पर्याय संविधान से खोज निकाला। वह यह था कि पंजीकरण जहाँ प्रॉपर्टी है वहाँ या भारत के चार महानगर – दिल्ली – मुम्बई – चेन्नई – कलकत्ता – इनमें से किसी भी एक स्थान पर किया जा सकता है। मेघालय प्रशासन का रुख देखते हुए रामकृष्ण मिशन कोई ख़तरा मोल लेना नहींं चाहती थी; इसीलिए कानून की इस सहूलियत को आधार बनाकर प्रॉपर्टी का पंजीकरण, बजाय शिलॉंग के कलकत्ता में किया गया।
इससे प्रशासन कितना तिलमिला गया था इसकी कुछ झलक मुझे बाद में D.C. और रेव्हेन्यू सेक्रेटरी जैसे अधिकारियों से बात करते समय मिली।
जो भी हो, D.C. के पत्र का उत्तर देते हुए हमारे विधिज्ञ सनत कुमार राय की सलाह के अनुसार हमने उत्तर दिया कि रामकृष्ण मिशन सरकार से कतई अनुमति नहींं माँगेगी; क्योंकि इसका तात्पर्य होगा कि सरकार का अनुमती न देने का अधिकार भी हम स्वीकार करते हैं।
यह पत्र लेकर मैं D.C. के दफ्तर मैं स्वयं गया था। D.C. साहब ने हमारा उत्तर पढ़ने के बाद कुछ वक्त मांगा और फिर चंद दिनों में उनका उत्तर मिला कि हमारा पत्र यथोचित निर्णय और कार्यवाही के लिए रेह्वेनयू सेक्रेटरी के पास भेज दिया गया है।
हमारे अन्य एक विधिन, बिष्णु बाबू दत्त, जिनका क्विंटन मेमोरियल ट्रस्ट के सरकार-विरुद्ध मामला जीतने में विशेष योगदान रहा, उन्होंने D.C. के इस प्रकार के कृति की सम्भावना पहले से ही जतायी थी, और कहा था कि यह हमारे लिए सरकार के खिलाफ मामला करने का सुनहरा मौक़ा होगा। जो निर्णय D.C. स्वयं लेने का अधिकार रखते हैं, उसे वरिष्ठ अधिकारी के पास भेजना गलत है, और फिर कोर्ट में ही हमें प्रापर्टी के हस्तांतरण का आदेश मिल सकेगा।
इसी बीच एक खुशखबर आयी कि रामकृष्ण मिशन के भक्त श्री दिलीप कुमार गंगोपाध्याय मेघालय सरकार के प्रधान सचिव (Chief Secretary) के रूप में नियुक्त हुए हैं। प्रधान सचिव होने के कारण प्रशासन में उनका अधिकार तो था ही; साथ ही साथ अपने मधुर स्वार्थ-रहित स्वभाव और चुस्त, कर्तव्यदक्ष, अनुशासन-प्रिय कार्यशैली के कारण वे सभी का सम्मान प्राप्त कर चुके थे। १९९६ के अक्टूबर में दुर्गा पूजा के समय वे आश्रम आये थे, तभी उनके साथ पहली मुलाक़ात हुई थी। फिर कभी किसी काम से या कभी एक भक्त के रूप में उनके साथ मिलना जुलना होता था, कभी उनके दफ्तर में, कभी आश्रम में, कभी बाहर किसी अन्य कार्यक्रम में और एक-आध बार उनके निवास स्थान पर भी। उनके साथ मेरा संपर्क उनकी सेवानिवृत्ति के बाद भी बना रहा, मेरे अमरीका आने के बाद भी, जब वे कोलकत्ता में रहते थे, तब भी उनके निवास स्थान पर उनसे मुलाक़ात हुई थी।
स्वामी समचित्तानंद जी , जो उन दिनों क्विंटन हॉल का कार्यभार संभालते थे, वे नवम्बर में उनसे मिलने सचिवालय गए और क्विन्टन हॉल के हस्तांतरण की समस्याओं से उन्हें अवगत कराया। उन्होंने आश्वासन दिया कि वे इसकी पूरी जानकारी लेकर उचित कार्यवाही करेंगे। हस्तांतरण शीघ्र ही हो जाएगा ऐसा भी उन्होंने कहा। इसके दो-तीन दिन बाद मेरी डायरी में लिखा है कि उनसे मेरी फोनपर बातचीत हुई और उन्होंने क्विन्टन हॉल के काम के साथ आश्रम के अन्यान्य कार्यों में भी पूरा सहयोग देने का वादा किया – एक भक्त के तौर पर और प्रशासकीय अधिकारी के रूप में भी। मुझे यह कहने में ज़रा भी संकोच नहींं कि यह वादा उन्होंने पूर्णरूप से निभाया।
इस के बाद मैं व्याख्यानों के दौरों में और आश्रम के चिकित्सालय के विस्तार के कार्य में व्यस्त रहा। गंगोपाध्याय महोदय को भी कई बार दिल्ली जाना पड़ा। इसके बाद १९९७ के प्रारम्भ से ही मैं और हमारे साधु-कर्मचारी-स्वयंसेवी आश्रम के षष्ट्यब्दि-पूर्ति (Diamond Jubilee) के आयोजन में व्यस्त हो गए। इस विशेष समारोह का ब्यौरा आगे के किसी किस्त में सम्भव हो तो लिखूंगा।
जून १९९७ के प्रारम्भ में D.C. का पत्र, जिसमे उन्होंने इस मामले को रेह्वेनयू सचिव के पास निर्णय के लिए अग्रेषित किया था, मैंने प्रधान-सचिव के कार्यालय में भेजकर इस पर निर्णय चर्चा के लिए उनसे समय (appointment) मांगी थी। वहाँ से फोन आया कि गुरूवार, ५ जून १९९७ को ४ बजे मुलाकात का समय ठीक किया है, जिसमे प्रधान सचिव, रेह्वेनयू सचिव और कुछ कार्यालयीन कर्मचारी भी रहेंगे।
यह समाचार मैंने इस कार्य से जड़ित हमारे दोनों विधिज्ञों को दिया और उनसे अनुरोध किया कि वे दोनो, या कम से कम एक मेरे साथ चले तो शायद अधिक अच्छा होगा। दोनों ने कहा कि, ‘नहींं, इससे लाभ नहींं, नुक्सान ही होगा क्योंकि ऐसे अधिकारी जब वकीलों को देखते हैं तो उन्हें संदेह होता है कि कहीं ये वकील हमें अदालत में न फंसा दे’। इसीलिए सनत कुमार राय ने हमें अच्छी तरह सिखाकर केवल मुझे ही वहाँ जाने के लिए कहा। उन्होंने यह भी परामर्श दिया कि ‘यदि वे लोग कहेंगे कि हस्तांतरण के लिए सरकार की अनुमति कानून द्वारा आवश्यक है, तो उनसे पूछना कि क़ानून की किस धारा के किस बिंदू में यह लिखा है, इसका संदर्भ उनके पास है क्या?’
बस, निर्धारित समय पर मैं वहाँ पहुँच गया। प्रमुख सचिव गंगोपाध्याय जी ने मुझे रेह्वेनयू सेक्रेटरी (पेरियट उनका नाम) से मिला दिया और कहा कि वे मसले को जल्द सुलझाने की कोशिश करें। फिर मैं रेह्वेनयू सचिव के कक्ष में उनके साथ ही गया। हमारे वार्तालाप का सारांश यहां दे रहा हूँ।
वे : पहला सवाल है कि आपने पंजीकरण शिलांग में न करवाकर कलकत्ते में क्यों किया?
मैं : रामकृष्ण मिशन का मुख्यालय कलकत्ते के पास है, हमारे पंजीकरण पर स्वाक्षरी करने वाले भी वहीं आसपास रहते हैं, और क़ानून इसकी अनुमति देता है।
वे : हाँ, पर कानून की यह बात अपवादात्मक स्थिति के लिए है।
मैं : ऐसा तो कानून में लिखा नहींं है।
वे : अच्छा तो छोड़िये उस बात को। आपको प्रशासन की अनुमति लेना एक कानूनी आवश्यकता है, आपको एक छोटा सा फॉर्म हस्ताक्षर करना है।
मैं : क्या आप मुझे उस कानून का संदर्भ और उद्धरण दे सकेंगे ? हम लोग भी कानून मानकर ही चलना चाहते हैं।
वे : हाँ, ऐसा कानून तो है; मुझे थोड़ा समय दो; कल शाम तक मैं उसे आपको दे सकुँगा।
उनको धन्यवाद देकर मैं चला आया और मैंने सनत बाबू को सारी बात बता दि। उन्होंने कहा कि देखे वे क्या संदर्भ देते हैं – जहाँ तक उनकी जानकारी है, ऐसा कोई कानून नहींं है। बस दूसरे ही दिन पेरियट साहब ने वह ‘कानून’ का संदर्भ और उद्धरण एक कागज़ पर दे दिया।
जब मैंने वह सनत बाबू को दे दिया, तो गौर से देखने के बाद उन्होंने हँसते हुए कहा कि ये कोई ‘कानून’ नहींं है, ये उनके प्रशासनिक नियमों में से है; अदालत में उसका कोई मूल्य नहींं। फिर उन्होंने समझाया ‘कानून’ और प्रशासनिक ‘नियम’ इन में क्या भेद है। कानून वह है जो विधि मंडल (Legislative Assembly) में सम्मत किया जाता है, फिर उसपर राज्यपाल (Governor) की स्वाक्षरी और मुहर लग जाती है और उसे सरकारी पत्रिका (Gazzette) में प्रकाशित किया जाता है, तब कहीं उसे कानून की संज्ञा प्राप्त होती है। प्रशासनिक नियम, प्रशासन का अन्दरुनी मामला है, उससे जनता का संबंध नहींं होता, जनता के ज्ञान का वह साधन नहींं है (Not instrument of public information)। ‘वाह! कैसा अच्छा समझाया आपने’ मैंने उनसे कहा। फिर उन्होंने पत्र में और एक महत्त्वपूर्ण कारण लिखने को कहा : ‘ये प्रॉपर्टी हमें अदालत के उस निर्णय से मिली है, जिस मामले में मेघालय की सरकार भी एक पक्षकार (party) थी। तो अब यदि हमें उसी सरकार से अनुमति माँगनी होगी, जो इस मामले में हार गयी है, तो ये न्यायालय की अवमानन होगी। फिर सरकार से अनुमति माँगने का तात्पर्य यह हुआ कि सरकार का अनुमति न देने के अधिकार को भी हम स्वीकार करते हैं। हम यह नहींं चाहते हैं। अब सरकार का यह दायित्व बनता है कि वह हस्तांतरण को अविलम्ब कर दे।’
उनके कथनानुसार मैंने रेह्वेनयू सचिव के नाम से पत्र बनाया, जिसकी प्रतिलिपि प्रधान सचिव को भी दी। जब मैं स्वयं इस पत्र को लेकर पेरियट जी से मिला (वे विधान IAS और LLB थे) तो पत्र पढ़कर वे बिलकुल चौंक गये। उनके पास कोई जवाब नहींं था।
इसके थोड़े दिन बाद ही हस्तांतरण की प्रक्रिया पूर्ण हो गयी। क्विन्टन हॉल के पुनर्निर्माण का पथ प्रशस्त हो गया।

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