विक्रम वीर थापा
भारतवर्ष में ऋषि-मुनियों ने जन्म लेकर अपने आध्यात्मिक चिंतन-मनन से रजनीगंधा के सौरभ की तरह आध्यात्मिकता को सुरभित किया। वेदों और पुराणों आदि की रचना कर इस भूमि में आध्यात्मिकता की सरिता बहाकर भारत को ही नहीं वरन विश्व को आध्यात्मवाद से सिंचित किया। सनातन धर्म भारत भूमि पर प्राचीन काल से ही अपना सीना ताने सगर्व खड़ा है। सनातन धर्म और हिन्दू धर्म में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। उपनिवेशवादियों ने इसे मिटाने के लिए षडयंत्र रचे परन्तु वे विफल रहे क्योंकि इसे अक्षुण्ण रखने के लिए हमारे संतों ने अतीत में निरंतर प्रयास किया।
महर्षि दयानंद सरस्वती ने ‘आर्य समाज’ की स्थापना की। वे वेदों के प्रकाण्ड पंडित थे यद्यपि मूर्तिपूजा के विरोधी थे। उनका ध्येय बस सनातन धर्म अर्थात् ‘आर्य समाज’ को भारतवर्ष में जीवित रखना था, विश्वव्यापी बनाना नहीं। वास्तविक अर्थों में सनातन धर्म या हिन्दू धर्म विश्वव्यापी तब बना जब वेदांत दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान स्वामी विवेकानंद ने ‘विश्व धर्म सभा’, शिकागो में 11 सितम्बर 1893 में अपना कालजयी वक्तव्य हिन्दू धर्म के परिप्रेक्ष्य में दिया था। वक्तव्य में ‘अमेरिकी बहनों और भाइयों’ इन शब्दों को अद्यपर्यन्त विश्व स्मरण करता है।
वे मूर्ति पूजा को महत्त्व देते थे। अस्पृश्यता और जातिवाद से दूर वे मानवतावाद में विश्वास और आस्था रखते थे। इसका ज्वलंत उदाहरण हैं -भगिनी निवेदिता, जो ईसाई लड़की थीं और उनका नाम मार्गरेट एलिजाबेथ था। वे ब्रिटिश-आयरिश थीं। स्वामी विवेकानंद ने उन्हें भगिनी के रूप में स्थान दिया। फलस्वरूप इनके द्वारा स्थापित ‘रामकृष्ण मिशन’ आज तक पश्चिमी देशों में सुचारू रूप से संचालित हो रहा है।
भारत में ही नहीं वरन विश्व की महान विभूति स्वामी विवेकानंद का तैलचित्र ‘रामकृष्ण मिशन, शिलांग’ के अनुग्रह से चित्रांकित करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। यह तैलचित्र सन 2002 के अप्रैल माह में ‘रामकृष्ण मिशन विवेकानंद कल्चरल सेंटर, कुइंटन रोड, शिलांग’ में लगी है। इस तैलचित्र का निर्माण मैंने कैसे किया, इसका वर्णन मैं संक्षेप में कर रहा हूँ और साथ ही शिलांग के लिखित एवं अलिखित इतिहास का भी उल्लेख कर रहा हूँ जिससे आपको शिलांग के बारे में जानकारी प्राप्त हो।
19 फरवरी 1824 में 8 गोरखा रायफल्स की पहली बटालियन कैप्टन पैट्रिक डजन ने बांग्लादेश के सिलहट नामक स्थान में स्थापित किया। इस पलटन का नाम ‘16 सिलहट लोकल इन्फ्रेंट्री बटालियन’ था। उस समय भारत में ईष्ट इंडिया कंपनी का शासन काल था। कालान्तर में इस पलटन के नाम में समय-समय पर परिवर्तन होता रहा और बाद में यह 1/8 जी. आर. के नाम से प्रसिध्द हुआ। परमवीर चक्र विजेता मेजर धन सिंह थापा इसी बटालियन के थे। सन 1980 के दशक तक यह पलटन 58 गोरखा ट्रेनिंग सेंटर, शिलांग के अधीन थी। अब इस बटालियन को मैकानाइज़्द में सम्मलित किया गया है। इसका नाम है – 3 बटालियन मैकानाइज़्द इन्फैंट्री रेजीमेंट (1/8 गोरखा रायफल्स) ।
यह पल्टन सिलहट में रहने के पश्चात् सन 1835 से 1866 तक चेरापूँजी में रही। 1867 में शिलांग को मुख्यालय बनाने के लिए इसने शिलांग में प्रवेश किया। इसके प्रवेश करने से एक वर्ष पहले ही असैनिक प्रशासन विभाग शिलांग आ चुका था। साथ ही अंग्रेज अधिकारियों के साथ गोरखा समुदाय सैनिकों के रूप में, शिक्षित बंगाली समुदाय प्रशासन विभाग कार्यालयों में क्लर्क के रूप में, मारवाड़ी समुदाय एवं मुसलमान समुदाय व्यापारियों के रूप में, तथा सिख हरिजन समुदाय के लोग शिलांग में आए ।
उस समय शिलांग घने जंगलों से परिवेष्ठित था। सभी समुदायों ने अंग्रेजों के साथ मिलकर इस जनशून्य, जंगली इलाकों को शनै: शनै: शहर के रूप में विकसित किया। इस स्थान को मात्र शिलांग ही नहीं अपितु ‘स्कॉटलैंड ऑफ द ईस्ट’ के नाम से भी जाना जाता है। ये सभी समुदाय यहाँ के खासी समुदाय से भी घुलमिल गए। मैत्री सम्बन्ध स्थापित हुआ। इस प्रकार इस समुदायों का यहाँ उद्भव हुआ।
बंगाली समाज ने कुइंटन रोड के समीप सन 1890 के दशक में एक क्लब की स्थापना की। इसी क्लब में स्वामी विवेकानंद ने 27 अप्रैल 1901 के दिन शिलांग के उपस्थित जन समुदाय को प्रवचन दिया था। जब वे अपनी माताजी को कामख्या माँ के दर्शन कराने हेतु 1901 के अप्रैल माह के प्रथम सप्ताह में गुवाहाटी आए थे। गुवाहाटी में 17 अप्रैल तक रहे। वे उस समय घोड़ागाड़ी से शिलांग आए थे क्योंकि उस समय शिलांग-गुवाहाटी मार्ग में घोड़ागाड़ी चलती थी।
सन 2002 के मार्च माह के अंतिम सप्ताह में स्वामी एकार्थानंदजी और स्वामी अकल्मषानंदजी मेरे घर पधारे। वे मुझसे स्वामी विवेकानंद का तैलचित्र बनवाना चाहते थे। मैंने सहमति दे दि । ‘रामकृष्ण मिशन विवेकानंद कल्चरल सेंटर’ के स्वामी अच्युतेशानंदजी की कृपा से मुझे स्वामी विवेकानंद का तैलचित्र बनाने का अवसर मिला। वे चाहते थे कि तैलचित्र की पृष्ठभूमि में शिलांग का दृश्य हो। मैंने चित्रांकन शुरू करने के पूर्व, सन 1901 में स्वामी विवेकानंद के शिलांग आगमन का फोटो प्राप्त करने की कोशिश शुरू की।
स्वामी अच्युतेशानंदजी से सामान खरीदने के लिए रूपए मिलने के पश्चात मैं रंग आदि सामग्रियाँ खरीदने के लिए पुलिस बाज़ार चल पड़ा। खरीदने के बाद मैंने दूकानदार से सन 1901 के स्वामी विवेकानंद के शिलांग आगमन के फोटो की बात की। दूकानदार ने मुझे अफजल हुसैन से मिलने की सलाह दी । उनके परदादा शिलांग के पुराने वासी थे। दूकानदार से अफजल हुसैन का पता लेकर मैं उनके घर पहुँचा। अभी वे 83 वर्ष के हैं। बातचीत के दौरान मुझे मनवांछित फोटो तो नहीं मिली पर एक महत्वपूर्ण बात पता चली कि सर्वप्रथम शिलांग-गुवाहाटी मार्ग पर घोड़ागाड़ी चलाने का शुभारम्भ 6 नवम्बर 1887 में गुलाम हैदर और उनके पुत्र कासिम्मुद्दीन द्वारा हुआ। इसी परिवार ने सन 1906 में सर्वप्रथम इस मार्ग पर मोटरगाड़ी चलाने का आरम्भ किया।
जो भी हो, तैलचित्र के लिए रंग, तूलिका, अलसी का तेल अर्थात् लिनसीड ऑयल आदि खरीदने के बाद मैंने 1 अप्रैल में ही ‘रामकृष्ण मिशन विवेकानंद कल्चरल सेंटर’ के खुले प्रांगण में स्वामी विवेकानंद का तैलचित्र चित्रांकन करना आरम्भ किया। खुली जगह पर चित्रांकन करने के कारण मेरे कार्य को कोई भी देख सकता था। मुझे 14 फीट लम्बी और 8 फीट ऊँची आयतन वाली कैनवास में स्वामीजी का तैलचित्र पृष्ठभूमि सहित चित्रांकित करना था। मुझे मनोवांछित फोटो न मिलने के कारण पृष्ठभूमि के दृश्यों के लिए अपनी कल्पना का ही सहारा लेना था।
तैलचित्र निर्माण के लिए रंगों के मिश्रण में लीनसीड ऑयल की एक-दो बूँदें मिलाई जाती हैं जो एक महीने तक नहीं सूखता और कभी-कभी तो इससे भी ज्यादा समय लग सकता है। ऐसे में अगर कोई रंग को स्पर्श कर दे, तो तैलचित्र का सत्यनाश हो जाता है।
27 अप्रैल को ‘रामकृष्ण मिशन विवेकानंद कल्चरल सेंटर’ का उद्घाटन होना था और निर्माण कार्य युध्दस्तर पर चल रहा था। मुझे भी युध्दस्तर पर ही तैलचित्र का चित्रांकन करना था अत: मैंने निश्चय किया कि मैं पन्द्रह दिन के अन्दर ही तैलचित्र चित्रांकित कर लूँगा। और शेष समय मैं में रंग सूखने के लिए रखूँगा। मैं प्रातः 5 बजे ‘रामकृष्ण मिशन विवेकानंद कल्चरल सेंटर’ पहुँच जाता और संध्या 6 बजे तक अनवरत चित्रांकन करता था। तीन दिन के अन्दर मैंने स्वामी विवेकानंद का चित्रांकन पूरा कर लिया। अब पृष्ठभूमि के लिए कल्पना का सहारा लेना था।
तैलचित्र में सूक्ष्म दृश्यों का चित्रांकन करने से अधिक समय लगता है जबकि बड़े दृश्य कम समय में पूर्ण हो जाते हैं। मैंने सोचा कि अगर मैं स्वामी जी के चित्र की पृष्ठभूमि में छोटे-छोटे दृश्यों का चित्रांकन करूँ तो पन्द्रह दिन में पूरा नहीं कर पाऊँगा इसलिए मैंने पृष्ठभूमि में बड़े-बड़े दृश्यों को चित्रित करना आरम्भ कर दिया। ये दृश्य थे – बड़े-बड़े पत्थर, पेड़ और झरने।
साँझ की बेला थी और मैं अपने कर्म में तल्लीन था। लोग मेरे चित्र को मेरे पीछे से देख रहे थे। उसी समय किसी पुरुष के ये शब्दांश मेरे कानों में पड़े- ‘पेंटिंग अच्छी नहीं है…’। सुनते ही मैं स्तब्ध हो गया। लोग तो चले गए परन्तु मेरा मन रुआँसा-सा हो गया। मन ही मन में सोचने लगा कि ‘कहीं यह अपूर्ण तैलचित्र रामकृष्ण मिशन द्वारा अस्वीकृत हुआ तो…?’ और मैं निराश हो गया।
लोगों के जाने के बाद स्वामी अच्युतेशानंदजी मेरे समीप आए और तैलचित्र को निहारते हुए कहा – स्वामीजी के ऊपर पृष्ठभूमि का दृश्य हावी न होने पाए। स्वामीजी दृश्य से बिल्कुल अलग दिखने चाहिए। उनकी बातें सुनकर मेरा मन उदास हो गया और मेरी आँखों में आँसू आ गए। मेरे क्लांत मुँह को देखकर मुझे उत्साहित करने के लिए उन्होंने कहा ‘स्वामी विवेकानंद कहते थे कि जो मनुष्य अपने कर्म में मनोयोग लाता है, वह कभी भी असफल नहीं होगा। थापाजी, आपको भी इस पेंटिंग में प्रकाश लाना है। प्रकाश लाने में परमहंस रामकृष्ण आपकी ज़रूर मदद करेंगे।’
मैंने उनसे कुछ नहीं कहा। मैं वहाँ से घर की ओर चल पड़ा। मेरे कानों में स्वामी अच्युतेशानंदजीके शब्द ‘पेंटिंग अच्छी नहीं है’ गूँज रहे थे जिसके फलस्वरूप मेरे मन-मस्तिष्क में अंतर्द्वंद्व चल रहा था कि मैं तैलचित्र के पृष्ठभूमि के दृश्यों में क्या परिवर्तन करूँ जिससे स्वामी विवेकानंद का स्वरुप उभरकर बाहर आए। इसी अंतर्द्वंद्व में मुझे ज्वर चढ़ गया। आते समय मौखार में मेरी मुलाकात मेरे एक मित्र से हुई। उसे मेरे हालत के बारे में नहीं पता था। मेरे मुँह पर लगे रंग देखकर उसने पूछा, ‘विक्रम, तुम्हारे मुँह पर रंग क्यों लगा है?’
मैंने उत्तर दिया, ‘सिंघानिया टाकीज की जगह रामकृष्ण मिशन का जो भवन बन रहा है, वहाँ मैं स्वामी विवेकानंद की पेंटिंग बना रहा हूँ इसलिए बनाते वक़्त मुँह पर रंग लग गया होगा।’
उसने कहा, ‘आते समय मुँह धोकर आना चाहिए था। कपड़ों पर भी रंग लगा हुआ है। तुमको ऐसा देखकर लोग क्या कहेंगे।‘
मुझे उसकी बातें अच्छी नहीं लगीं। एक तो पेंटिंग करते करते मैं थक गया था, दूसरा मानसिक द्वंद्व चल रहा था इसलिए मुझे क्रोध आ गया और मैंने गुस्से में कहा, ‘मुझे शाबासी देने के बजाय तुम मेरे कपड़े, रूप-रंग की चिंता कर रहे हो। मैं स्वामी विवेकानंद की पेंटिंग बना रहा हूँ, यह मेरे लिए बड़ी बात है। अगर मैं अमेरिका में होता तो वहाँ के लोग मेरे पेंटिंग की प्रशंसा करते। मेरा इंटरव्यू लेते और मेरी तस्वीर टाइम्स मैगज़ीन में छपती।’
मेरे मित्र ने कुछ नहीं कहा। मैं घर आया और प्लास्टिक बोतल लेकर एक लीटर मिट्टी का तेल बाज़ार से खरीद लाया। उसके बाद दर्जी के दुकान से बचे हुए बेकार कपड़ों के टुकड़ों को इकट्ठा किया। दोनों चीजों को लेने का यह उद्देश्य था कि प्रातः काल जल्दी उठकर ‘रामकृष्ण मिशन विवेकानंद कल्चरल सेंटर’ पहुँचूँ और कपड़े के टुकड़ों को मिट्टी के तेल में भिगोकर स्वामी विवेकानंद की पेंटिंग की पृष्ठभूमि में चित्रांकित सम्पूर्ण दृश्यों को मिटा सकूँ।
उस रात मैं चिंता से सो नहीं सका और ज्वर और बढ़ गया था। मेरा शरीर तप रहा था। प्रात:काल जल्दी उठकर मैं पाँच बजे ‘रामकृष्ण मिशन विवेकानंद कल्चरल सेंटर’ के गेट के बाहर पहुँचा। उस समय सेंटर में रहने वाला कर्मचारी सो रहा था। गेट के बाहर से चिल्लाकर मैंने उसे उठाया। उसने गेट खोला। मैं प्रांगण में पहुँचा और कपड़ों के टुकड़ों में मिट्टी का तेल लगाकर पृष्ठभूमि में चित्रांकित सम्पूर्ण दृश्यों को मिटा दिया। उसके बाद पेंटिंग के ऊपरी भाग को आकाश की तरह नीला कर दिया। जैसे दूर से क्षितिज में पहाड़ नीला दिखता है, उसी तरह मैंने नीला पहाड़ का चित्रांकन करना आरम्भ किया। इससे स्वामी विवेकानंद का स्वरुप पीछे के दृश्यों से अलग होकर प्रस्फुटित हुआ।
सुबह के सात बज रहे थे। उस समय चौबीस-पच्चीस साल की एक विवाहिता बंगाली महिला दिखाई दी। उस समय मैं चित्रांकन करना छोड़कर, स्वामी विवेकानंद का स्वरुप कैसा दिखाई देता है, यह देखने के लिए तैलचित्र से करीब बीस फीट दूर से अपूर्ण चित्र का अवलोकन कर रहा था। वह महिला भी बड़े मनोयोग से तैलचित्र को देख रही थी। कुछ देर देखने के बाद महिला बोली, ‘आप बहुत बड़े आर्टिस्ट हैं।’
बीते हुए कल की घटनाओं के कारण मुझे उनकी बातों पर विश्वास ही नहीं हुआ। मैंने महिला से पूछा, “आपको कैसे पता कि मैं बड़ा आर्टिस्ट हूँ ! उत्तर में उन महिला ने कहा – ‘लिंसीड आयल से पेंटिंग बनाना बहुत मुश्किल काम होता है। इसके लिए हाथों में कंट्रोल होना चाहिए, नहीं तो आयल की वजह से पेंटिंग का ब्रश फिसलता है। आपके हाथों में कन्ट्रोल है इसलिए स्वामीजी की इतनी सुन्दर पेंटिंग बन गई।’
मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि उन्हें लिंसीड आयल के बारे में कैसे पता है ! मैंने पूछा ‘आप लिंसीड आयल के बारे में इतना कैसे जानती हैं?‘
उन्होंने कहा ‘मैं लाइतुमुखरा में एक प्राइवेट आर्ट स्कूल में पेंटिंग सीखी थी इसलिए मुझे इसके बारे में पता है, लेकिन मुझे लिंसीड आयल से पेंटिंग करनी ठीक से नहीं आती।’
अपने आपको परखने के लिए मैंने फिर पूछा – ‘आप सच बताइए कि क्या यह पेंटिंग सुन्दर बनी है?‘
‘सचमुच सुन्दर बनी है। मैंने अपनी ज़िन्दगी में इतनी अच्छी पेंटिंग इससे पहले नहीं देखी। ऐसा लग रहा है कि स्वामीजी अभी बोलने वाले हैं।’ उन्होंने उत्तर दिया। महिला और मेरे बीच काफी देर तक बातें होती रहीं। बातों-बातों में पता चला कि उसका जन्म शिलांग में हुआ और विवाह सिलचर में। वह अपने बेटे की पढ़ाई के लिए शिलांग में रह रही थी। उनके सुबह-सुबह आने का कारण था की उन्हें वहाँ के पुष्पवाटिका से रामकृष्ण परमहंस की पूजा के लिए फूल लेना था। फूल लेकर वह चली गई पर साथ में मेरा ज्वर भी चला गया।
उनकी उत्साहवर्द्धक बातों से मेरे मन में स्फूर्ति आ गई फलत- मैंने तेजी से चित्रांकित करना आरम्भ किया। उस दिन मैंने दिनभर पूरे उत्साह के साथ पेंटिंग किया। एक सप्ताह के बाद रंग खरीदने के लिए रंग लगे कपड़े और मुँह लेकर पुलिस बाज़ार गया। रंग खरीदने के पश्चात् मैं उस महिला से मिलने उनके घर गया और साथ में अपनी बनाई हुई पशुपतिनाथ (नेपाल) की फ्रेम की हुई पेंटिंग उपहारस्वरूप लेकर गया। मैं उन्हें यह तैलचित्र इसलिए देना चाहता था क्योंकि उनकी प्रेरणादायक बातों ने मेरे मन में उमंग एवं आशा का संचार किया था।
उनसे मुलाकात होते ही मैंने उनसे कहा ‘आपको बुरा तो नहीं लगा मैं रंगों से सने कपड़े पहनकर आया हूँ, और मेरे कपड़े साफ़ भी नहीं हैं। उन्होंने बड़े शालीनता से कहा – ‘आदमी की पहचान कपड़ों से नहीं वरन उनके कार्यों से होती है।‘
सहायक ग्रन्थ –
Huxford, H J, History of the 8th Gurkha Rifles (1952).
3 बटालियन मैकनाइज्ड इन्फैंट्री रेजिमेंट, 1/8 गोर्खा रायफल्स का इतिहास (झाँसी: मुद्रित आर्ट प्रेस, ८१).
Military Hospital Shillong, Centenary Health Bulletin, (20 January 1997).