सी. टी. संगमा
मेघालय के गारो जिले के दक्षिण-पूर्वी पहाड़ियों में बाल्पक्रम पठार में राष्ट्रीय उद्यान और वन्य पशु अभयारण्य है। इसकी ऊँचाई समुद्रतल से 2,831 फीट है। यह ऊपर से मेज की तरह सपाट है और दक्षिण गारो पहाड़ियों के मुख्यालय बाघमारा से लगभग 90 किलोमीटर की दूरी पर है। यहाँ का सूर्योदय और सूर्यास्त का दृश्य अद्भुत होता है। इसके उत्तर में रोंगचेन पठार और दक्षिण में छोटी-छोटी पहाड़ियाँ हैं, जहाँ से बांग्लादेश दिखाई देता है।
सन 1988 में बाल्पक्रम पहाड़ी को राष्ट्रीय उद्यान ओए वन्य पशु अभ्यारण्य घोषित किया गया था। स्वर्गीय प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने इसका उद्घाटन किया था। तब से जैव विविधताओं के कारण इसने लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। इस छोटे से पठार पर भिन्न-भिन्न प्रजाति के दुर्लभ पशु-पक्षी, जीव-जंतु, पेड़-पौधे और जड़ीबूटियाँ मिलती हैं। इनमें से कुछ ऐसी दुर्लभ जड़ीबूटियाँ हैं जो चिकित्सा के लिए बहुत उपयोगी हैं। दुःख की बात यह है कि इनमें से कई जड़ीबूटियाँ समाप्त हो रहीं हैं। नि:संदेह यह स्थान वैज्ञानिकों, बनस्पतियों और प्रकृतिवादियों के लिए आकर्षण का केंद्र है क्योंकि यह शोध के लिए उपयुक्त स्थान बन गया है लेकिन गारो जनजाति में इस जगह को लेकर अपना दृष्टिकोण और अपनी मान्यताएँ हैं।
यहाँ तक कि स्थानीय लोग का मानना है कि बाल्पक्रम की दुर्गम घाटियों में कुछ ऐसे स्थान हैं, जहाँ चट्टानों की छतों से पानी के बूँदें टपकती हैं। इनमें रोग-निवारण क्षमता है। जिसका पता कुछ समय पूर्व चला। यह बात तब सामने आयी, जब एक पक्षाघात से पीड़ित रोगी पूर्णतया स्वस्थ हो गया। वह रोगी लम्बे समय से इस बिमारी के कारण बहुत कष्ट में था। उसके परिवार वालों ने दवाइयों के साथ-साथ उसका देशी इलाज भी करवाया परन्तु उसे कोई लाभ नहीं हुआ। उसकी दशा देखकर उन लोगों ने सोचा – क्यों न अलग तरीके से इलाज करवाया जाए ? अत: वे लोग उसे बाल्पक्रम पठार पर ले गए, जहाँ से वे खड़ी ढलान से रस्सियों के सहारे नीचे उतरे। वह इलाका बहुत उबड़-खाबड़ और बहुत ही कठोर था। रास्ते में कई मोड़ मिले; वे चलते गए और कैसे पहुँचे? उन्हें पता ही नहीं चला। खोजते-खोजते उन्हें उस गुप्त स्थान का पता चल ही गया, जहाँ से बर्फ के समान ठंडी पानी की बूंदें टपक रहीं थीं। रोगी को अच्छी तरह से सहारा देकर उस स्थान पर बैठाया गया। वह उस स्थान पर बिना हिले-डुले काफी देर तक बैठा रहा। अचानक बर्फ की तरह ठंडी एक बूँद उसके सिर के दाहिनी गिरी। वह लगातार हिलाने लगा और तुरंत की हिंसक-सा हो गया। थोड़ी देर बाद वह बेहोश हो गया और उसका सारा शरीर ऐंठ गया। उसके बाद वह पूरी तरह से ठीक हो गया और खुद चलता हुआ अपने घर लौटा। इस पठार में लगभग 50 ऐसे स्थान हैं जो पौराणिकताओं और विचित्र रहस्यों से भरे पड़े हैं, जो अवर्णनीय हैं। अब तक तीन व्यक्ति, जो पक्षाघात की बीमारी से पीड़ित थे, वे स्वस्थ हो गए हैं। हालाँकि इन तीन व्यक्तियों का नाम, पता आदि किसी को ज्ञात नहीं है। इसके सत्यापन हेतु इनकी खोज करना आवश्यक है।
ध्यातव्य है कि बाल्पक्रम न केवल गारो जनजाति के लिए ही अपितु हिन्दुओं के लिए पवित्र स्थान है। ऐसा माना जाता है कि बाल्पक्रम वह स्थान है, जो हिन्दू पौराणिकता से भी जुड़ा है। श्री एच.ए.मराक ने अपनी विवरणिका शीर्षक “बाल्पक्रम” में लिखा है कि हिन्दुओं के कई पौराणिक स्थानों में भगवान शिव ठाकुर का एक निवास स्थान यहाँ था और लिंग के रूप में वह पत्थर महादेव नदी की घाटी में थी। इनका यह भी विश्वास है कि बाल्पक्रम एक पवित्र पर्वत था। जहाँ संजीवनी बूटी उगती थी, जो जीवन की रक्षा करती है। जब लक्ष्मण लंका में मेघनाद से युध्द करते समय गंभीर रूप से घायल हो गए थे और उनके प्राण संकट में पड़ गए, तब वैद्यराज सुषेन के कहने पर लक्ष्मण के प्राण बचाने के लिए हनुमान जी को संजीवनी बूटी सूर्यास्त से पहले लाने के लिए कहा गया। पुराण के अनुसार हनुमान जी ने पूरे विश्व क्व चक्कर लगाया परन्तु उन्हें संजीवनी कहीं नहीं दिखाई दी। अंत में बाल्पक्रम के पहाड़ में उन्हें संजीवनी बूटी जंगलों में दिखाई दी। उस समय सूर्य डूबने लगा था और समय बहुत कम बचा था। अत: शीघ्र ही उन्होंने पहाड़ का ऊपरी भाग तोड़ लिया और मूर्च्छित राजकुमार को बचाने के लिए वापिस लौट आए। इसी कारण बाल्पक्रम की पहाड़ी का ऊपरी भाग एक सपाट मेज या पठार के समान हो गया।
डॉ जुरियस एल. आर. मराक, संग्रहालय वैज्ञानिक, निदेशक क़ला, संस्कृति, मेघालय सरकार के अनुसार रामायण में वर्णित ‘गंधमादन पर्वत’ और कहीं नहीं बल्कि गारो पहाड़ियों में बाल्पक्रम चोटी है। पुराने ज़माने में हिन्दू तीर्थयात्री दूसरे देशों और पड़ोसी देशों से यहाँ वर्ष में एक बार श्रध्दा से आते थे। कुछ वर्ष तक मयमनसिंह के राजवंश (आज बांग्लादेश में) शाही परिवार साल में एक बार यहाँ तीर्थ के लिए आते थे और कुछ दिनों के लिए यहाँ रुकते थे।
इसके अतिरिक्त यहाँ कुछ ऐसे साक्ष्य मिलते हैं जिससे यह ज्ञात होता है कि यहाँ कभी हिन्दू धर्म के अनुयायी रहते थे। आज जहाँ आस-पास कोई हिन्दू परिवार नहीं रहता है, ऐसी जगह में महेशखोला मंदिर गारो, खासी पहाड़ियों और बांग्लादेश के बीच स्थित है। इस वीराने में हिन्दू मन्दिर का होना कई सवाल पैदा करता है। वहाँ बहने वाली पाँच समानांतर नदियाँ, जो कि बाल्पक्रम में बहती हैं, उनमें से चार नदियों के नाम हिन्दू धर्म से सम्बंधित हैं। उन चार नदियों के नाम हैं – महादेव नदी, जो महादेव भगवान पर आधारित, महेशखोला नदी – भगवान महेश पर आधारित, उसके बाद गणेशवारी नदी, जो शिव के पुत्र गणेश पर आधारित और कनाई नदी, जो नागों के देवता नाग कन्या पर आधारित है। इनमें से केवल एक नदी है जिसका नाम स्थानीय नाम “चिमिते” है। यह ना’वा के नाम से भी जानी जाती है, इसका अर्थ है – देव नदी। इससे यह अनुमान लगा सकते हैं कि वहाँ किसी समय हिन्दू रहते थे या पूजा करते थे और यह एक पवित्र क्षेत्र माना जाता रहा होगा।
बाल्पक्रम के उत्तर-पश्चिम से थोड़ी दूर पर सनितमंग या विमोंग की पहाड़ियों पर हिन्दुओं की श्रध्दा है। वे इसे भगवान शिव के घर कैलाश के नाम से पुकारते हैं। श्री हेल्सिंग एस. संगमा ने ईसा पूर्व गारो पहाड़ियों के जनजातियों पर पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) के हिन्दुओं का ऐतिहासक एवं सांस्कृतिक प्रभाव का वर्णन किया है। श्री देवानसिंग एस. रोंगमुत्हू ने गारो जनजातियों की सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक दृष्टिकोण के प्रति अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि बाल्पक्रम और उसके आस-पास का क्षेत्र मादी-रोंग-कुची (महादेव नदी का स्त्रोत) में प्राचीन गारो समुदाय रहता था। मादी-रोंग-कुची बहुत ही उन्नत और समृध्द क्षेत्र था। यह उस समय की बात है जब स्वर्ग और पृथ्वी अलग-अलग नहीं थे और धरती पर साधारण मनुष्य का नहीं अपितु देवताओं का निवास था।
हिन्दू विश्वास के समान गारो समुदाय की मान्यता के अनुसार जीवन-चक्र अनन्त है और आत्माएँ अजर-अमर हैं। उनका पुनर्जन्म होता है। मृत्यु के बाद और जन्म के पूर्व जीव आत्मा के रूप में रहती हैं। इनकी मान्यता के अनुसार जीवन-मृत्यु एक अनन्त काल तक चलने वाला एक चक्र है। बाल्पक्रम मृत आत्माओं का घर है, जहाँ आत्माएँ पुनर्जन्म लेने के पहले अस्थायी रूप से रहती हैं। जब किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो वह इस धरती पर आत्मा के रूप रहता है। इसे स्थानीय बोली में में.मंग (Me.Mang) कहते हैं, जिसका अर्थ है – मृत व्यक्ति की आत्मा। साधारणतया आत्माएँ बाल्पक्रम की ओर जाती हैं, जो आत्माओं का अस्थायी पड़ाव है। जहाँ आत्माएँ कुछ समय रहने के बाद पुनर्जन्म लेती हैं। वे अपने पूर्व जन्म के कर्मानुसार मनुष्य या किसी रूप में जन्म लेते हैं। जन्म लेने से पहले ये आत्माएँ क्योंकि वे अदृश्य रहती हैं अत: उनकी बात कोई नहीं समझ सकता है। आत्माओं के रूप में इस क्षेत्र में चारो ओर घूमती हैं परन्तु मनुष्यों को दिखाई नहीं देती हैं। दुनिया जो कुछ भी होता है, वे देख सकती हैं परन्तु बता नहीं सकती हैं। श्रीमद्भगवतगीता के द्वितीय अध्याय, सांख्ययोग में श्री कृष्ण आत्मा के पुनर्जन्म को व्याख्यायित करते हुए कहते हैं –
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।। 28।। (सांख्ययोग)
अर्थात् हे भारतवंशी ! समस्त प्राणी जन्म से पहले अप्रकट रहते हैं, बीच में (स्थितिकाल में) प्रकट होते हैं और मरने के बाद पुन: अप्रकट हो जाते हैं। अत: इसमें शोक करने की क्या बात है। इसी प्रकार आत्मा के अजर-अमर होने, शरीर के नाशवान होने एवं कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पुनर्जन्म लेने की अवधारणा प्राचीन गारो मान्यता सनातन दर्शन के साथ अपने संबंधों सुदृढ़ बनाती है, जो सुदूर पूर्वोत्तर के राज्य मेघालय के गारो पहाड़ियों की गारो जनजातीय आस्था को मुख्यधारा से जोड़ती है।
कहा जाता है कि एक सूक्ष्म आवरण (कोहरे की तरह) आत्माओं को संसार से अलग करता है। मान्यता है कि आमतौर पर पशु-पक्षी की आत्माएँ बाल्पक्रम में ही रहती हैं लेकिन खास अवसरों में वे दूसरी जगहों में भी घूमती हैं। कई शिकारियों के अनुभव इस बात की पुष्टि करते हैं। जब वे बाल्पक्रम में शिकार करने जाते हैं तो उनका सामना ऐसी आत्माओं से हुआ, जो चकित करने वाला है। शिकार करने के दौरान जब वे किसी पशु-पक्षी पर निशाना साधते हैं तो पलक झपकते ही वे आँखों के सामने से अदृश्य हो जाती हैं। अगर एक झलक में उन्हें देखें तो वे सामान्य पशु-पक्षी की तरह दिखाई देते हैं। यह अंतर तब पता चलता है जब इन पर निशाना लग जाता है तो इनके शरीर से खून नहीं बहता है।
इन्हें मारा नहीं जा सकता है क्योंकि वे एक पल में जीवित हो जाते हैं या दूसरे पल में अदृश्य हो जाते हैं। मारे गए स्थान पर खून के निशान नहीं मिलते। कहा जाता है कि वे आत्माएँ पशु-पक्षियों की हैं, जिनके शरीर में मांस नहीं होता केवल कंकाल मात्र होता है। सत्य है आत्माओं का रहस्य मानव कल्पना से परे है, जिसे नकारा नहीं जा सकता है। श्रीमद् भगवतगीता में भी श्रीकृष्ण ने सन्देश दिया है –
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वाभविता वा न भूयः।
अजो नित्य: शाश्वतोsयं पुराणों न हन्यमाने शरीरे।। 20।। (सांख्ययोग)
अर्थात् यह आत्मा न कभी जन्म लेती है और न कभी मरती ही है; अथवा ऐसा भी नहीं है कि यह एक बार जन्म लेकर पुनः नहीं जन्म लेती। यह जन्म रहित, नित्य, शाश्वत तथा संतान है; शरीर के नष्ट होने पर भी यह नष्ट नहीं होती। आत्मा एवं पुनर्जीवन सम्बन्धी मूल गारो जनजाति की यह अवधारणा हिन्दू दर्शन के अत्यन्त ही निकट है। दुर्भाग्य से इस समुदाय के लगभग सारे लोगों का धर्म परिवर्तन (ईसाई धर्म) हो चुका है। कहीं-कहीं दूर-दराज के गाँवों में कुछ लोग अपने मूल आस्था का अनुसरण कर रहे हैं और अपनी मान्यताओं के प्रति जागरूकता के प्रति उदासीनता ने इस जनजातीय संस्कृति के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। इस पर गंभीर शोध आपेक्षित है।
प्रस्तुति एवं अनुवाद – डॉ अनीता पंडा

घुमन्तू
ऋता सिंह ‘सर्जना’
‘मुझे तो मानव शरीर चाहिए … ’
प्रयोगशाला में खुशी का माहौल था। क्योंकि नए प्रयोग के बाद पहली बार के लिए उसे दुनिया की सैर करने की आजादी मिली थी। वह एक संक्रमित जीव था, जिसका सबसे ज्यादा पसंदीदा काम था, मानव शरीर में प्रवेश कर दुनिया की सैर करना। उसे न तो रंगभेद से मतलब था, न किसी लिंग भेद से पर उसे तलाश रहती थी बेहद कमजोर और लापरवाह लोगों से क्योंकि वह इसमें आसानी से प्रवेश कर निशाना बना लेने में सक्षम हो जाता है। दुनिया में हाहाकार मचाने में सफल जीव घूमते घामते भारत में भी पहुँच गया। उतावले जीव पर भारत की पहले से ही नजर थी लेकिन उसे नई भूमि में आकर खूब उधम मचाने का मन था। कुछ यात्रियों की मदद से वह आया मगर तभी… उसने महसूस किया –
“अरे यह क्या लोगों को क्या हुआ है? सड़के इतनी सूनसान क्यों है? हमने तो सुना था इस देश में लोगों की बड़ी भीड़ रहती है। पर यहाँ तो लोग दिखाई नहीं दे रहे है! कहाँ दुबक गए? जीव सोचने लगा। उसे कहाँ पता था कि भारत ने चेन तोड़ने की पूरी बंदोबस्त कर लिया है। कुछ पल के लिए निराश होकर जीव कुछ मायूस हो गया मगर थोड़ी दूर पर जाकर उसका चेहरा फिर से खिल उठा। वहाँ कुछ लोग इकट्ठा होकर नारे लगाने में व्यस्त थे।
“बेवकूफ इंसान! तुमने मुझे अभी तक नहीं पहचाना है। अच्छा है तुम्हारी बेफिक्री ही मेरी जीत है। जब तुम्हें मेरी ताकत की कोई अन्दाज़ा नहीं है, तो मुझे उड़ान भरने में क्या हर्ज है? लड़ो, आपस में मेरा क्या ? मुझे तो मानव शरीर चाहिए… तुम चाहे कोई भी हो। जीव कुटिलता से मुस्कुराया और चुपके से एक नए शरीर में घुस गया।
देउतार मैना (पिता की बेटी)
वाणी बरठाकुर ‘विभा’
जनवरी का महीना, धीरेन्द्र छुट्टी खत्म करके वापस अपनी कार्यरत जगह अरुणाचल जाने के लिए तैयार हो रहा है। तभी चुमकी आकर धीरेन्द्र से कहती है, “देउता, आप फिर घर कब आओगे ?” धीरेन्द्र ने बेटी से कहा, “देखता हूँ , फिर कब छुट्टी मिले। वैसे तो तुम जानते ही हो, हम आर्मी वालों को छुट्टी मिलना इतना आसान नहीं है।”
चुमकी पिताजी के जवाब पर बोल उठी , “ना देउता, आपको इस बार ‘बहाग बिहू’ में आना ही होगा। बहाग बिहू के पाँच दिन बाद मेरा जन्मदिन भी है। इसबार आपके साथ जन्मदिन मनाऊँगी और बिहू भी। आपको आना ही होगा।” धीरेन्द्र भी कान पकड़ कर घुटनों के बल बैठ गया, ठीक है मेरी माँ, इसबार अवश्य आऊँगा और हम सभी एक साथ बिहू और तुम्हारा जन्मदिन मनाएंगे।” धीरेन्द्र चला गया।
फरवरी/मार्च बीत गया, अप्रैल आया। बातों बातों में हमेशा चुमकी सबको कहती कि इसबार बिहू और जन्मदिन वो पिता के संग मनाएगी। वह उस दिन की प्रतीक्षा बहुत उत्साह से कर रही थी क्योंकि उसे जबसे होश आया, उसने कभी भी पिताजी के साथ बिहू और जन्मदिन नहीं मनाया है। एक दिन चुमकी माँ को बोली, “माँ, सब बता रहे हैं कि कल से बहाग बिहू है !” माँ के ‘हाँ’, कहने पर उसने पूछा, “देउता कब आ रहे हैं ?” माँ उसको बताया, “अभी सम्पूर्ण भारत में लाॅकडाउन चल रहा है। ऐसे में तेरे देउता कैसे आएंगे!” चुमकी कहने लगी, “ये लाॅकडाउन क्या है माँ? इसके लिए स्कूल भी नहीं भेज रही हो, बिहू के लिए नए कपड़े भी नहीं दे रही हो। सब कहते हैं, लाॅकडाउन लाॅकडाउन लाॅकडाउन…।” माँ उसे समझाने लगती है, “लाॅकडाउन यानी ताला बंद। कोरोना महामारी फैलने के कारण सबको घर में रहना है, ताकि कोरोना की शृंखला टूटे और लोग बच जाएँ। हम भी इसलिए घर में हैं और तुम भी घर में हो और सम्पूर्ण देशवासी अपने-अपने घरों में हैं।” इसी बीच चुमकी बोलने लगी, “तब तो देउता को भी घर में रहना चाहिए। अभी आप देउता को भी घर बुला लीजिये।” तभी माँ उसे समझाने लगती है, “अगर देउता घर आएंगे तो देश की रक्षा कौन करेगा ?” तभी चुमकी बोली, “हाँ माँ, बिहू और जन्मदिन हर साल आएगा लेकिन हमारा देश चल जाए तो हमारा क्या होगा ?है न माँ !” बेटी को प्यार से गोदी में उठाकर माँ बोली, “इतनी बड़ी बात तुझे किसने सिखाया है ?” चुमकी मुस्कुराते हुए बोली, “देउता तो मुझे अक्सर कहते हैं कि देश चले जाने से हम भी नहीं रहेंगे।” माँ उसे गले लगाकर कहने लगी, “सच में तुम अपनी देउता की सच्ची बहादुर बेटी हो।”
*देउता- पिता
*बहाग बिहू- बैसाख महीने में असम वासी मनाने वाले जातीय उत्सव।

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