गतांक से आगे

उन्होंने अंग्रेजों द्वारा कैद किये गये बंदियों को छुड़ा दिया।
इस प्रकार काफी समय से सुलग रही विद्रोह की आग भड़क उठी। इन सफलताओं की खबर जंगल की आग की तरह फैलने लगी। हजारों की संख्या में युवक स्वतंत्रता के संघर्ष में कूद पड़े। तिरोत सिंग ने योद्धाओं की टोली को डेविड स्कॉट को पकड़ने चेरापूँजी भेजा। परन्तु चेरापूँजी के राजा दुवान सिंग ने अंग्रेजों का साथ दिया और चुपचाप उन्हें गुप्त मार्ग से सिलहट भेज दिया।
इस उथल-पुथल का समाचार गुवाहाटी और सिलहट पहुंचने पर बड़ी संख्या में ब्रिटिश सैनिकों को खासी पहाड़ियों की सीमा पर भेजा गया। खासी मुखियों का ख्याल था कि अंग्रेजों को मार भगाना कठिन न होगा। उनका विचार था कि यद्यपि अंग्रेज मैदानों में शक्तिशाली हैं पर पहाड़ियों में उन्हें परास्त करना मुश्किल नहीं होगा। पहाड़ों के दुर्गम रास्ते और घने जंगलों में युद्ध करना अंग्रेजों के लिये मुश्किल होगा। तिरोत सिंग ने अंग्रेजों का मुकाबला करने के लिए कुछ गैर-पारम्परिक तरीकों का प्रयोग कियां उन्होंने नौंग्ख्लाव से रिहा किये गये कैदियों को दूत के रूप में पड़ोसी राज्यों में भेजा। ये दूत असम के राजा कानता, भूटान के भेट और अरुणाचल के सिंहको के पास उनके सहयोग के लिये भेजे गये। अंग्रेजों की सैनिक शक्ति के आकलन के लिये भी कुछ गुप्त दूतों को गुवाहाटी तथा अन्य स्थानों पर भेजा गया।11
विद्रोह खासी पहाड़ियों तक सीमित न रहा। वह पश्चिम की ओर गारो पहाड़ियों तक भी पहुंचा। गोआलपाड़ा जिले में भी विद्रोह की चिंगारियाँ भड़क उठीं। तिरोत सिंग चतुर कूटनीतिज्ञ थे और जानते थे कि असमियों में भीतर ही भीतर अंग्रेजों के खिलाफ असंतोष है और इस असंतोष को जरा सी हवा देते ही पूरा का पूरा असम विद्रोह की आग में जलने लगेगा। उनका अनुमान सही था। असम में खासी पहाड़ियों में हो रही घटनाओं की खबर फैलते ही असम के मैदानों में राजस्व की वसूली को रोक दिया गया। सरकारी टैक्स कलेक्टरों के साथ बदसलूकी की गयी। राजमार्ग पर डकैतियाँ होने लगीं जो अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती देने वाली थीं।
इस बीच खासी पहाड़ियों की सीमा पर संघर्ष चलता रहा। यह पहला मौका था जब सुसंगठित खासी योद्धाओं से अंग्रेजों का पाला पड़ा था। ये संघर्ष लगभग तीन महीने तक चलते रहे। विख्यात इतिहासकार के. एम. मुंशी तिरोत सिंग द्वारा छापामार (गुरिल्ला) युद्ध शैली के कुशल प्रयोग पर लिखते हैं ‘‘तिरोत सिंग और उनके साथी, 10, 000 के आसपास की सैन्य शक्ति के साथ अंग्रेजों से बचते रहे, पर कभी-कभी मैदानों पर धावा बोल देते, जिससे पूरे असम में खतरे की घंटी बजने लगती और दहशत सी फैल जाती। 12
जब तिरोत सिंग को अहसास हुआ कि इस बार अंग्रेज पूरी तैयारी के साथ सिलहट की सीमा पर हमला करने वाले हैं तो उन्होंने मोन भट और जिडोर सिंग की सहायता से पूरी सेना की कमान संभाल ली। सिलहट की सीमा पर जहाँ स्वयं तिरोत सिंग अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे, वहीं कामरूप में खीन कौंगोर, जरैन सिंग तथा अन्य सरदार अंग्रेजों से जूझ रहे थे। इन्हीं संघर्षों में अंग्रेज अफसर बीडन भी मारे 7 गये। तिरोत सिंग को जब पता चला कि खासी सैनिक नौग्ख्लाव की तरफ वापस आ रहे हैं तो वे तुरन्त नौंग्ख्लाव की ओर आये। नौंग्ख्लाव के नीचे ख्री नदी के पास तिरोत सिंग घायल हो गये। तब सैनिक उन्हें एक गुफा में ले गये जो अब तिरोत की गुफा के नाम से जानी जाती है।13 इस दौरान अंग्रेजों ने नौंग्ख्लाव में प्रवेश किया और युद्ध शुरू होने के तीन महीने बाद 2 जुलाई 1829 को नौंग्ख्लाव पर कब्जा कर लिया।
तिरोत सिंग ने जिस तरह खासी सरदारों को संगठित किया अंग्रेज अधिकारियों ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। नौंग्ख्लाव पर कब्जे के बाद मैरंग, नौंगरामइ और आसपास के गाँवों में विद्रोह और संघर्ष हुए। अंग्रेजों ने बेरहमी से गाँवों को लूटा और जलाया। आँधी-तूफान से भरे मौसम में युद्ध चलता रहा। मौसमाई और मामलुह में सबसे कठिन संघर्ष हुए। मामलुह के किले पर जीत हासिल करने में अंग्रेजों को एक महीने का समय लग गया।
गुफा में घायल तिरोत सिंग को सभी क्षेत्रों में हो रहे संघर्षों की खबरें मिल रही थीं। पर वे हताश नहीं थे। मिलियम के सिएम बोर मानिक की सहायता से उन्होंने आपातकालीन बैठक बुलाई जिसमें उनके विश्वस्त अधिकारी जिडोर सिंग, मोन भट, लारशोन जराइन, खीनकौंगोर, मन सिंग तथा अन्य लोग शामिल हुए। इस बैठक में एक नयी रणनीति बनायी गयी तथा अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध करने का निर्णय किया गया जो आने वाले चार वर्षों तक चलता रहा।
चेरापूँजी के सिएम ने अंग्रेजों के साथ एक संधि की थी जिसके अंतर्गत चेरापूँजी के नजदीक सइत्सोफेन में कुछ भूमि अंग्रेजों को दे दी गयी। डेविड स्कॉट ने योजनाबद्ध ढंग से अपने एजेंटों को संधि प्रस्ताव के साथ विभिन्न खासी राज्यों में भेजना शुरू किया। कुछ खासी सिएमों को मजबूरी में इन संधि प्रस्तावों को मानना पड़ा क्योंकि वे आर्थिक नाकेबन्दी से त्रस्त थे और अपने गाँवों की और तबाही नहीं चाहते थे। तिरोत सिंग और उनके निष्ठावान साथियों ने युद्ध को जारी रखा। गुरिल्ला छापामार विधि का प्रयोग करते हुए वे अंग्रेजों के ठिकानों पर हमला करते रहे। जंगलों और आसपास के क्षेत्रों में हो रहे इन हमलों से अंग्रेजों को भारी क्षति होती रही।
चेरापूँजी में अपना केन्द्र बनाने के बाद डेविड स्कॉट ने पहला काम यह किया कि तिरोत सिंग को शान्ति और समझौता का प्रस्ताव भेजा। उसने कहा कि वह तिरोत सिंग से स्थायी और शक्तिपूर्ण समझौते के लिये बातचीत करना चाहता है। पर तिरोत सिंग नौंग्ख्लाव समझौते के कटु अनुभव को भूले नहीं थे। वे दुबारा अंग्रेजों की कूटनीतिक चालाकियों का शिकार नहीं होना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अंग्रेजों के शान्ति प्रस्तावों को अनदेखा करते हुए अपना संघर्ष जारी रखा।
जब अंग्रेजों ने समझ लिया कि तिरोत सिंग अब उनके झांसे में नहीं आने वाले हैं, तो उन्होंने ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति अपनाई। उन्होंने तिरोत सिंग के नजदीकी मित्रों में फूट डालने की कोशिश की। अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध सफल रहा था, परन्तु तिरोत सिंग जानते थे कि अंग्रेजी सेना के खिलाफ लम्बे समय तक युद्ध को जारी रखना व्यावहारिक नहीं होगा। वह यह भी जानते थे कि इससे लोगों का मनोबल टूटने लगेगा। उन्होंने अपने विश्वस्त साथियों मोनभट, जिडोर सिंग, ख्रीन कोंगोर, मन सिंग और लोरशोन जराइन के साथ गुप्त बैठक की। जो खासी राज्य अंग्रेजों के कब्जे में आ गये थे 8 उनको फिर से व्यवस्थित और सुसंगठित करने और अंग्रेजों से मुक्त करने के लिए योद्धाओं को भेजा गया। साथ ही अंग्रेजों के साथ खासियों के संघर्ष का दूसरा चरण शुरू हुआ।
इस युद्ध में खासी महिलाओं की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही। घरेलू मोर्चे पर अनगिनत कष्टों का सामना करने के साथ ही इन महिलाओं ने युद्ध में पुरुषों का हर कदम पर साथ दिया। युद्ध में उनका मुख्य काम रसद पहुंचाना था। एक बार का फन नौंग्लाइट नाम महिला ने जिसने अपने पिता और भाई का इस युद्ध में खो दिया था, मैरंग और नौग्रमइ के पास देशी फलों और जड़ी-बूटियों को मिलाकर तेज शराब बनाई और अंग्रेज सैनिकों को पिलाकर पूरी बटालियन का सफाया करवाया। एक अन्य घटना में का फेट सिएम तथा उनकी सहेलियों ने नौंग्ख्लाव में अंग्रेज सैनिकों के साथ भोजन करते समय प्रहरियों को मरवाकर दरवाजों को खोल दिया और खासी वीरों ने पूरी छावनी का सफाया कर दिया। इस युद्ध में खासी स्त्रियों के अदम्य साहस, जिजीविषा, त्याग और कठोर परिश्रम की गाथाएँ आज भी लोकप्रिय हैं।
29 जनवरी 1931 को रमब्रइ के सुसंगठित और प्रशिक्षित योद्धा कामरूप के पास तिरोत सिंग की सेना से आ मिले। राजा सुनता सिंग के नेतृत्व में गारो योद्धाओं का एक समूह भी तिरोत सिंग की सेना से मिल गया। डेविड स्कॉट को पूरे बोरदुआर की चिंताजनक स्थिति के विषय में तुरन्त सूचना दी गयी। डेविड स्कॉट ने 1831 में भारत सरकार को भेजी गयी रिपोर्ट में तिरोत सिंग की सेनाओं के घातक हमलों का वर्णन किया है। काफी कठिनाई के बाद कैप्टन ब्रोडी के नेतृत्व में बोरदुआर और आसपास के क्षेत्रों पर ब्रिटिश सेना दुबारा कब्जा कर सकी। कैप्टन ब्रोडी तब बोको की ओर आगे बढ़ा और एक के बाद एक नौंगस्टाइन, जिर्नगम, जिरंग और लौंगमारू आदि क्षेत्रों की सेनाओं को पराजित किया।
1831 में डेबिड स्कॉट की मृत्यु के बाद ग्रेक्रोफ्ट ने उनके स्थान पर एजेंट का कार्यभारत ग्रहण किया। उन्हें सूचना मिली कि नौंगिर्नेन के पास खासी सेनाओं को संगठित और प्रशिक्षित किया जा रहा है। उन्होंने कैप्टेन लिस्टर और लेफ्टिनेंट इंगलिस को खासी पहाड़ियों की दक्षिणी सीमा के पास भेजा। कठिन संघर्ष के बाद अंग्रेजों ने इन क्षेत्रों पर दुबारा कब्जा जरूरी किया लेकिन उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी।
मोनभट और उसकी सेनाएं मौसिनरम की ओर वापस गयीं और वहाँ अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया। फिर शेला, मोडेन और लीबाह में भी विद्रोह हुए। इन युद्धों में हुई हार के बाद खासी सरदारों ने समझ लिया कि वे अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ लम्बी लड़ाई नहीं लड़ सकते। फलस्वरूप एक के बाद एक उन्होंने गवर्नर जनरल के एजेंट रॉबर्टसन का प्रस्ताव स्वीकार करते हुए ब्रिटिश सरकार के साथ समझौता कर लिया।
तिरोत सिंग के अधिकांश योद्धा भूमिगत हो चुके थे। इस बीच अंग्रेजों को पता चला कि तिरोत सिंग को कई स्रोत से आर्थिक सहायता मिल रही है। ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति का पालन करते हुए उन्होंने मोनभट और उसके सहयोगियों को अपनी तरफ मिलाने का प्रयास शुरू किया। तिरोत सिंग को जब इसकी सूचना मिली तो उन्होंने मोनभट से कहा कि वह अंग्रेजों से बातचीत करे और उन्हें मिलाये रखे। शान्ति समझौते के प्रति तिरोत सिंग के नकारात्मक रुख के बावजूद रॉबर्टसन ने उनकी ओर 9 एक बार फिर दोस्ती का हाथ बढ़ाया। पर जब उसने समझ लिया कि जब तक तिरोत सिंग जीवित हैं और खासियों का नेतृत्व कर रहे हैं, तब तक खासियों से समझौता करना संभव नहीं है, तब उसने शक्ति का प्रयोग करना ही उचित समझा। उसने गोआलपाड़ा और मणिपुर से सेना की टुकड़ियाँ मंगवाई। साथ ही आर्थिक नाकेबन्दी भी तेज कर दी। उसका अन्तिम लक्ष्य था खासी पहाड़ियों को यूरोपीय उपनिवेश में तब्दील कर देना।
इसी समय खिरियम राज्य के मुखिया सिंग मानिक सामने आये और ब्रिटिश सरकार तथा तिरोत सिंग के नेतृत्व में खासी मुखियों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने का प्रस्ताव रखा। रार्बटसन ने प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और सभी सैन्य कार्यवाहीयों को स्थगित कर दिया। सिंग मानिक ने दोनों पक्षों के बीच शान्तिपूर्ण समझौते की प्रक्रिया आरंभ कर दी। महीनों के प्रयास के बाद सिंग मानिक अंततोगत्वा सरकारी एजेंट के प्रतिनिधि और तिरोत सिंग के बीच बैठक करवाने में कामयाब हो ही गये। यह बैठक 23 अगस्त 1832 को हुई। यह एक ऐतिहासिक क्षण था। अंग्रेज एजेंट ने तिरोत सिंग द्वारा प्रतिरोध की समाप्ति की शर्त पर शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व की बात की। परन्तु तिरोत सिंग वादों पर भरोसा करने वाले नहीं थे। उन्होंने स्पष्ट रूप से अपने राज्य में से गुजरने वाली सड़क का प्रयोग बन्द करने की मांग की और नौग्ख्लाव का राज्य वापस दिये जाने की भी मांग की। जब सिंग मानिक ने तिरोत सिंग से कहा कि उन्हें अपना राज्य वापस मिल सकता है, बशर्ते वे अंग्रेजों के साथ समझौते पर हस्ताक्षर कर उनका आधिपत्य स्वीकार करें, तिरोत सिंग ने उत्तर दिया कि ‘‘गुलाम राजा के जीवन से आजाद आम इंसान की मौत अच्छी है।’’ यह बेबाक वक्तव्य ऐतिहासिक था। बिना किसी ठोस नतीजे के इस बैठक का अन्त हो गया। 14
जल्दी ही एक दूसरी बैठक बुलायी गयी जिसमें तिरोत सिंग का प्रतिनिधित्व उनके दो मंत्रियों मान सिंह और जीत रॉय ने किया। उन्होंने अंग्रेजों के प्रतिनिधि कैप्टन लिस्टर से कहा कि वे लगातार चलने वाले युद्ध से तंग आ गये हैं। लिस्टर ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे अपने वादे के प्रति प्रतिबद्ध हैं बशर्ते कि तिरोत सिंग के भतीजे रिजोन सिंग को नया सिएम बनाया जाए। अंग्रेजों को मालूम था कि जब तक तिरोत सिंग को रास्ते से नहीं हटाया जाता तब तक उनकी सेना के मनोबल को नहीं उठाया जा सकेगा। इसलिए तीसरी बैठक की शर्त यह रखी गयी कि इसमें तिरोत सिंग उपस्थित नहीं रहेंगे। अंग्रेजों द्वारा रखी गयी शर्तों में से पहली शर्त यह थी कि यदि तिरोत सिंग आत्मसमर्पण कर दें तो सरकार उनकी जान बख्श देगी। उनके उत्तराधिकारी का चुनाव राजाओं के संघ द्वारा खासियों भी परम्परा को ध्यान में रखते हुए किया जायेगा। ब्रिटिश सरकार चेरा से असम तक सड़क बनाने के लिये स्वतंत्र होगी और कहीं भी पुल और गेस्ट हाउस बनाने का भी अधिकार रखेगी।
मध्यस्थ के रूप में सिंग मानिक की भूमिका से अंग्रेज संतुष्ट थे परन्तु तिरोत सिंग के आत्मसमर्पण के प्रश्न पर वार्ता में गतिरोध आ गया। फिर भी सिंग मानिक शान्तिपूर्ण समझौते के लिये आशान्वित थे। शान्तिवार्ता की प्रक्रिया चलती रही और सिंग मानिक ने जिडोर सिएम को वार्ता में शामिल कर लिया। अंग्रेजों ने जिडोर सिएम को इस बात के लिये राजी करने का प्रयास किया कि वे तिरोत सिंग के आत्मसमर्पण में सहायता करें परन्तु जिडोर अपने लोकप्रिय नेता को धोखा देने के लिये तैयार न थे। इस प्रकार शान्तिवार्ता का अन्त हो गया पर रॉबर्टसन ने सैनिक कार्रवाई जारी रखने का आदेश दिया। खासी 10मुखियों ने भी विदेशी आक्रमण का प्रतिरोध करने की तैयारी कर ली। वे जानते थे कि यह करो या मरो की स्थिति है। रॉबर्टसन ने पहाड़ियों की तराई में पुलिस घेराबन्दी को मजबूत बनाया ताकि आर्थिक नाकेबन्दी को और प्रभावी बनाया जा सके। तीन वर्षों की लगातार लड़ाई के बाद लोगों का आर्थिक और सामाजिक जीवन तबाह हो गया था। व्यापार छिन्न-भिन्न हो चुका था और खेती बर्बाद हो गयी थी। लोग इसी उम्मीद के सहारे सभी कष्ट सह रहे थे कि एक दिन तिरोत सिंग और उनके साथी विजयी होंगे और एक बार फिर वे स्वतंत्र जीवन जी सकेंगे। तिरोत सिंग लोगों के मन में अपने प्रति विश्वास को जानते थे और यह भी जानते थे कि लोग उन्हें अपना एक मात्र नेता और मुक्तिदाता मानते हैं। परन्तु युद्ध की निराशाजनक स्थिति ने उन्हें उसके परिणाम के प्रति सशंकित कर दिया था। उनके गुप्तचरों ने उन्हें सूचना दी कि उनके आसपास के खासी राज्यों और बाहर के पहाड़ी राज्यों ने भी अंग्रेजों के आगे समर्पण कर दिया है। सिंग मानिक ने भी तिरोत सिंग को प्रतिरोध की निरर्थक परिणति को लेकर आगाह किया। इससे केवल उनकी प्रिय प्रजा के कष्टों में वृद्धि होनी थी। भारी मन से तिरोत सिंग ने अपनी प्रजा के दुखों और कष्टों के बारे में विचार किया और अन्त में आत्मसमर्पण करने का फैसला किया। इसके मूल में उनकी प्रजा का हित निहित था। उन्होंने 9 जनवरी 1833 को अपने विश्वस्त मंत्री जीत रॉय को अंग्रेज अधिकारियों से मिलने के लिये भेजा। जीत रॉय ने कैप्टन इंग्लिस को सूचित किया कि उनके स्वामी तिरोत सिंग ने आत्मसमर्पण करने का फैसला किया है और उनका जीवन बख्शा जाए। कैप्टन इंग्लिस के राजी होने पर 13 जनवरी 1833 को लुम मदियांग नामक स्थान पर राजा तिरोत सिंग ने आत्मसमर्पण कर दिया। इस दुखद घड़ी में अपनी प्रिय प्रजा का ध्यान ही उनके लिए सर्वोपरि था।
राजा तिरोत सिंग ने साहसपूर्वक ब्रिटिश सरकार के एजेंट रॉबर्टसन के कोर्ट में अपने ऊपर चलाये जा रहे मुकदमे का सामना किया। रॉबर्टसन ने उनके ऊपर लगाये गये सभी अभियोगों के लिये उनको आजीवन कारावास की सजा सुनाई। बाद में इस पर पुनर्विचार करके उन्हें ढाका में नजरबन्द कर दिया गया। कहते हैं कि जब तिरोत सिंग ढाका पहुंचे तो उनके पास कोई व्यक्तिगत सामान नहीं था। उनके शरीर पर सिर्फ एक कम्बल था। पहले उन्हें ढाका जेल में रखा गया पर बाद में सरकारी आदेश पर उन्हें साधारण कैदी नहीं बल्कि राजबन्दी मानकर 63 रुपये का मासिक भत्ता स्वीकार किया गया और दो नौकर रखने की अनुमति दी गयी। उन्हें अपने जीवन का अन्तिम समय एकान्त में और बन्दी के रूप में बिताना पड़ा। तिरोत सिंग की मृत्यु की तिथि के विषय में पहले विवाद था। परन्तु अब यह निश्चित रूप से माना जाता है कि उनकी मृत्यु 17 जुलाई 1845 को हुई। 16
तिरोत सिंग अन्तिम स्वतंत्र खासी राजा थे। यद्यपि वे एक छोटी सी रियासत के मुखिया थे परन्तु उन्होंने शक्तिशाली अंग्रेजी शासन के विरुद्ध मोर्चा लिया। उनका जीवन पीढ़ियों के लिये लीजेंड बन गया और वे अपने जीवन काल के बाद ‘कल्ट फिगर’ बन गये। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पहले जिन अंग्रेज उच्चाधिकारियों ने उन्हें बर्बर, खून का प्यासा और हत्यारा कहा था, उन्होंने ही बाद में ‘‘उच्च कोटि के देशभक्त’’ के रूप में उनकी चर्चा की। डेविड स्कॉट ने प्रशंसापूर्ण शब्दों में इस महान खासी नेता की चर्चा की थी। यहाँ तक कि लार्ड कर्जन ने 1903 में तिरोत सिंग के साहस और सहनशीलता की प्रशंसा की थी। तिरोत सिंग एक ऐसे वीर पुरुष थे जो अपने आदर्शों के लिये जिए और अपना सर्वस्व इन्हीं 11आदर्शों और मूल्यों के लिये बलिदान कर दिया। त्याग, बलिदान और साहस के सम्पन्न उनका जीवन खासी युवाओं के लिये आदर्श बन गया। उन्होंने ढाका की जेल में बीमारी और मौत को अंगीकार किया पर उन्हें अंग्रेजों के अधीन मामूली मुखिया बनकर रहना स्वीकार नहीं था। अपनी प्रजा और देश के भले के लिए तिरोत सिंग को अंततः अपने आपको अंग्रेजी हुकूमत के हवाले करना पड़ा। पर भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में उनका नाम अमर हो गया
सन्दर्भ

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