किताबें फर्राटेदार पढ़ जाना

अपराध से कम न था माई के लिए

कहती-हड़बड़-तड़बड़ बांचने से

झुरा जाते हैं शब्द,मर जाते हैं भाव

बिना रुके-थमे पढ़ जाना

सरासर अपमान है-अक्षरों का

शब्दों को हिक्क भर निहारती थी माई

शब्दों को शब्द कहना अज्ञानता थी उसके लिए

मन ही मन शब्दों से

न जाने किस भाषा में बतियाती

अर्थ से बहुत वजनी थे एक-एक शब्द

पांच लाइनें पढ़ जाना

पांच नदियाँ डूबकर पार करना था,

पूरी किताब पढ़ जाने की हिम्मत

माई चाहकर भी न जुट पायी

न जाने किस मोड़ पर

भीतर जमे बादल बरस पड़ें

मुंह से बोलते समय

रोवाँ-रोवाँ बज उठते थे शब्द

किताबों से पेश आने का सलीका

धुर चौकीदार से बढ़कर था

वक्त की क्या मजाल

जो जम जाय,धूल-धक्कड़ की शक्ल में

माई के रहते हुए

पन्नों पर हाथ फेरती

मानो पांव छू लिया हो

साक्षात विचारों की आत्मा का

किताबें बिना पढ़े ही

ज्ञान के बारे में माई का अंतर्ज्ञान

सदैव अज्ञात ही रहा हमसे।