भारत की स्वाधीनता संग्राम में शहीद होनेवाले असम के पहले शहीद थे पियली फूकन। पियली फूकन की फांसी हुई थी 14 सितंबर, सन 1830 में ।

Assam District Gazettears Sibsagar District  के एक चेप्टर में पियली फूकन के बारे में सन 1830 में स्वाधीनता के लिए ब्रिटिशों के विरुद्ध युद्ध करने का उल्लेख है।

Determined to liberate the country from foreign domination before it was too late, Numali of the Dihingia Buragohain family, in collaboration with another dianitary of the old realm  Peoli Borphukan, son of Badon Chandra Borphukan  made in 1830 a large scale preparation for a massive armed attack  on the British  so as to expel them from Assam.”

ब्रिटिशों  के विरुध्द पहला विद्रोह किया था गोमोधर कोंवर ने। गोमोधर कोंवर ने सशस्त्र विद्रोह किया और तरातली के युद्ध  में ब्रिटिशों के हाथों पराजित हो तिरुपहाड़ के भीतर सुरक्षित स्थान में आश्रय लिया था। ब्रिटिशों को जब पता चला तो उन्होंने गोमोधर को राजा बनाने का झांसा देकर  धोखे से बंदी बनाकर घाटी के रंगपूर जेल में रखा ।

गोमोधर की यह हालत देखकर  विद्रोह का नेतृत्व लेने के लिए आगे बढ़ आए रोंगाचिला के दुवरा वंशज पियली बरफूकन।

पियली फूकन मेें साहस,  देशप्रेम, कर्तव्य निष्ठा, कूटनीति और आत्माभिमान कूट-कूट कर भरा था। लोगों में जोश भरने की काबिलियत भी रखते थे। उन्होंने किसी को भी कोई  काम करने का आदेश नहीं दिया। हर कोई अपने दायित्व को समझ अपना कर्तव्य करने लगे। पियली के साथ युद्ध में साथ देने आए कछारी, मिचिंग,  खामति, चिंग्फो, चुतीया, मटक आदि अनेक जनजातीय और संप्रदाय के लोग। मटक के बड़े सेनापति का बेटा खाछि चियेम सिकत् सिंग, चिंग्फो गाम वाकुम आदि प्रत्यक्ष रुप से पियली के साथ थे। यह सब देखकर गोमोधर  कोंवर के सैनिक जो  ब्रिटिशों के साथ हुए युद्ध के बाद अस्त्र-शस्त्रों के साथ नगा पहाड़ में  छुपे हुए थे , वो सब आकर पियली कें संग जुड़ गए।

गेलेकी के तिरुपथार के शिविर का दायित्व था हरनाथ पानीफूकन पर। इसके अलावा हरनाथ को जबका के खारघर के शिविर में अस्त्र-शस्त्रों के तैयारी का भार भी सौंपा गया। गोरे अफसरों के वहां पियली के जासूस थे जो सारी खबरे दिया करते थे। अजला कोंवर नाम का एक युवक गोरे साहब के वहां रसोइया था। वह और गदाधर कोंवर नाम का एक युवक दुश्मनों की खबरे नियमित रुप से पियली को दिया करते थे।

हरनाथ पानीफूकन ने पहाड़ी जातियों के साथ स्वाधीनता संग्राम को लेकर संपर्क बनाया। एकदिन ब्रिटिश सैनिक ने संदेहवश हरनाथ को पकड़ लिया और  युद्ध के षड्यंत्र का भेद खुल गया। हरनाथ के बंदी होने की खबर से सब को लगा कि युद्ध का समय आ गया है, और सब तैयार हो गए। 

रोंगाचिला के खेतों में खेती कर के रसद का इंतजाम किया गया । तिरुपहाड़ में युद्ध के लिए लोहे से अस्त्र-शस्त्र बनाने के लिए कारखाना बनाया गया। तिरुपहाड़ के भीतर अस्त्र-शस्त्र से लैस हो युद्ध के लिए प्रशिक्षण दिया जाता और अभ्यास किया जाता था। गोरों  के विरुद्ध  नगा,आबर, खामति आदि जातियों को साथ लेकर चलने का निर्णय अति दूरदर्शी सोच का वाहक था।

इस विद्रोह को जनवरी सन 1829 को शुरू करने का निर्णय लिया गया। इस विद्रोह में पियली के साथ थे धनंजय गोंहाई, रुपचंद कोंवर, बम चिंग्फो, नूमली गोंहाई, नूमली गोंहाई की बेटी लाहोरी आईदेओ, चिकन ढेकियाल फूकन, जिऊराम दुलिया बरुवा, मोइना खारघरिया फूकन, बेनुधर कोंवर,  देउराम दिहिंगिया, रूपचंद्र कोंवर, चुरण कोंवर, ब्रजनाथ कोंवर के अलावा भी कोई  दो सौ नगा युवाओं ने सहयोग दिया था। देश के हर श्रेणी के लोगों ने इस विद्रोह में साथ दिया था। यहां के लोक-गीतों में भी इसका प्रसंग मिलता है।

लोकगीत का अनुवाद—- खामटि, नगाटि
गारो, खाछियाटि
संग डफला मिरि
रंगाचिला वन में
बड़ी मिटिंग में आए
तय करने कैसे
वध करेंगे फिरंगी का!
रंगाचिला वन में
किसने बजाई शिंगा*
भात खाते सुना
अचल वन को
लोग चल पड़े
गमन के शोर से
चले पता !
रिकिटि मिरिकिटि
हिरिंग रिंग रिंग
पर्वत पर की घिटिंग टिंग
आ दे हम आवाज दे!

(*शिंगा- भैंस के सिंग को बजा कर युद्ध की घोषणा। हिन्दी में रणभैरी भी कहते है ।)

पहले तय किए प्लान के अनुसार  25 मार्च, सन 1830 की शाम युद्ध के आरम्भ का निर्णय लिया गया। इसबार तरातलि के शिविर में घाटि न बनाकर बरफूकन के बाड़ी के दोलबारी*  में शिविर की स्थापना की गई।

गेलेकी  दोल के घाटी से बरफूकन के गली से निकलकर जयसागर पुखुरी* के किनारे घाटी बनाकर वहीं से गोरो के बारुद के गोदाम तथा छावनी में आग लगाकर गोरे पल्टनों को मारने के लिए पहले से तय किए प्लान के अनुसार  25 मार्च, सन 1830 की शाम युद्ध के आरम्भ का निर्णय लिया गया।

गेलेकी  दोल के घाटी से बरफूकन के गली से निकलकर जयसागर पुखुरी* के कि प्लान के मुताबिक  पियली फूकन और जिऊराम दुलिया बरुवा ने अपने सैनिको के साथ एक ही समय में तेल से भीगे सूखे अमड़ा की गुटी में आग लगाकर धनुष-बाण के सहारे बारुद-भंडार में दो तरफ से हमला बोल दिया। ऐसी आग लगी मानों दिन निकल आया हो! चारों तरफ रौशनी छा गई थी।

बहुत समय तक युद्ध चला। बहुत सारे ब्रिटिश सैनिक मारे गये। मगर और बहुत सारे ब्रिटिश सैनिकों के आ जाने से पियली के सैनिकों को निरापद स्थान के लिए दिखौ नदी के पार लौटना पड़ा। वहां पहले से नाव का इंतजाम किया हुआ था। मगर किसी देशद्रोही ने नाव की रस्सियों को काट दिया था जिसके कारण पियली के सैनिक लौट न सके! ऐसे में ब्रिटिश सेना ने गोली चलानी शुरू कर दी। इस गोलीकांड में भबा कोंवर, बेणुधर कोंवर,नूमली गोंहाई ,  चिकन ढेकियाल फूकन, लाहोरी आईदेओ, मोइना खारघरिया फूकन और कई खामटि तथा बहुत सारे नगा युवकों की मौत हो गई। 

इसी समय में नाजिरा और  दिखौमूख  में गोरे सैनिकों के शिविर पर आक्रमण कर के पियली के सैनिकों ने बहुत सारे ब्रिटिश सैनिकों को खत्म किया था । उनके नावों को डूबा दिया था।

आग की रौशनी में पियली बैसाखी के सहारे भागते हुए पकड़े गए और बंदी बना लिए गए। निउविल साहब ने 26 मार्च की सुबह प्रसन्न दत्त, सुबेदार ज़ालिम सिंह, जयपाल सिंह आदि सैनिकों को साथ पीछा करके जिऊराम दुलिया बरुवा,बम चिंग्फो, हरनाथ पानीफूकन, रुपचंद्र कोंवर, देओराम दिहिंगिया फूकन आदि सब को बंदी बना लिया। ब्रजनाथ कोंवर और चुचम  कोंवर मणिपुर भाग गये। धनंजय बरगोंहाई अपने एक बेटे के साथ नगा पहाड़ पलायन कर गए। 14 सितंबर सन 1830 में पियली फूकन को फांसी दे दी गई। शिवसागर पुखुरी के पास उनकी समाधि देखी जा सकती है।

 भावार्थ = *दौल— गुम्बद के साथ बना आराधना का एक मंदिर जैसा भवन। *पुखुरी— पोखर से बड़ा और सरोवर से छोटा जलाशय।

असम से साहित्यकार, लेखक अनुज दुवरा ने प्रांतिक पत्रिका के 1 अक्तूबर 2015 ,में एक मुद्दा उठाया था कि भारत के पहले शहीद मंगल पाण्डे थे या पियली फूकन ! क्यों की मंगल पाण्डे को फांसी सन 1857 की 8 अप्रेल में, अर्थात पियली फूकन की फांसी के 27 साल बाद हुई थी।

डाॅ. (मा) रुनू बरुवा “रागिनी तेजस्वी” अखिल भारतीय साहित्यकार सम्मान, साहित्य रत्न सम्मान, साहित्य श्री सम्मान , साहित्य गौरव सम्मान, मात्सुओ ‘बासो’ सम्मान, सरस्वती सम्मान आदि से सम्मानित डिब्रूगढ़ की प्रतिष्ठित साहित्यकारों हैं।