
देखा था कभी
सुदूर पहाड़ की
बेहद ख़ूबसूरत पहाड़ी औरतें
उनकी ललाई एवं लुनाई में
गया था खो आसक्त मन
पर एक अलग ही रूप देख
अब भी स्तब्ध हूँ
हिम की ख़ूबसूरती को
बसाए हुए दिल में
हिम पर खेल लौट रही थी
और सामने ही अपने अश्वों की
रास थामे दोनों हाथों की कठोरता से
एक पहाड़ी औरत
पथरीली ढलाऊँ पर
उतरती गई झट धड़ाधड़
यायावरों के साथ
दोपहर तक के कठोर श्रम के बाद
पलक झपकते ओझल तीनों
बुला रहा था शायद उसे
कोई बीमार, वृद्ध, अशक्त
स्कूल से लौटा उसका लाल
या फिर खेतों की हरियाली
इंतज़ार सेब बगान का
अभी भी मेहनत के नाम
लिखने को बचा था
बहुत सारा काम
उस ख़ूबसूरत युवती का,
बदल देने को भविष्य
पहाड़ों का
अबकी जाना पहाड़ तो
उसका चेहरा, चेहरे की रंगत
लावण्य का पैमाना
उसकी देह न देखना
बस, देखना केवल
जड़ सम कठोर पैर,
उसकी खुरदुरी हथेलियाँ!