बेहिसाब जिन्दगी

ओ जिन्दगी देखा है मैंने अक्सर,
तू नहीं चलती हिसाब से,
परोस देती है ,
दुःख – सुख बेहिसाब
बेतरतीब,
लाखों नम आँखें,
कृशकाय जर्जर
क्षुधित उदर
आँखों की कोटरें
याचित पूँजीपतियों के द्वार
मूँगफली बांटते
दुःख पीड़ा से
बेपरवाह
मुस्कुराते, खिलखिलाते
व्यवस्था चलाते
मृत शरीर का
बोल लगाते, घोषणा करते
छीन उनकी जिंदगी
ए ज़िन्दगी, तू क्यों है
इतनी बेहिसाब?

मूल खासी संस्कृति – उद्भव एवं विकास


डॉ अनीता पंडा
मूल खासी समुदाय अपनी संस्कृति, आस्था, मिथक, लोकगीतों आदि में बहुत धनी रहे हैं। डॉ पी. चौधुरी ने अपनी पुस्तक ‘The Antiquity of Khasi – Jaintia People’, ए.रॉय ने बंगाली मासिक पत्रिका 1993 में लिखा है – खासी समुदाय की अपनी असंख्य कहानियाँ, मिथक, लोककथाएँ उनके समाज में प्रचलित हैं, जो बहुत रुचिकर और विस्तृत हैं। अगर उन्हें सुनाया जाए तो ये कथाएँ पूरी रात भर सुनाई जा सकती हैं। इनका वर्णन इतना खुबसूरत है और घटनाएँ इतनी क्रमबद्ध हैं कि ये मनुष्य के दिल और दिमाग को छू जाती हैं। इन कहानियों और लोककथाओं द्वारा यह कल्पना की जा सकती है कि संभवतः खासी समुदाय में भी अपना साहित्य रहा होगा परन्तु दुर्भाग्यवश आज उसका कोई नामोनिशान नहीं है
खासी समुदाय में पहाड़ियों, पर्वतों, नदियों, जलप्रपातों, फूलों आदि के इर्द-गिर्द कहानियां बुनने और रिकार्ड रखने की परम्परा रही है लेकिन इन मिथकों तथा लोककथाओं में समयानुसार परिस्थिति के अनुरूप परिवर्तन भी आता रहा है। ऐसे में ये कथाएँ वास्तविकता से दूर भी लगती हैं। खासी लोक कथाओं का विश्लेषण और अध्ययन उनके पौराणिकता का एक भाग है, जिसने खासी धर्म, रीति-रिवाज और खासी संस्थाओं आदि को काफी प्रभावित किया है। इतने वर्षों के बाद भी आज तक वे इसे पूरी तरह से मानते आ रहे हैं। इनमें विशेष बात यह है कि ये खासी समुदाय की विचारधारा, धर्म, नैतिकता और सामाजिक तथा उनकी जीवन-शैली पर आधारित है ।
खासी समुदाय के पूर्वजों के अनुसार – आरम्भ में पृथ्वी पर कोई नहीं रहता था। ईश्वर, जो कि जगत का निर्माता है, उसने ‘का राम-ऐव’ (पृथ्वी) और उनके पति ‘उ बासन’ को बनाया। वे दोनों बहुत सुख पूर्वक रहते थे। उनके सुखी जीवन में उन्हें अकेलापन अक्सर सताता था क्योंकि उनका कोई संतान नहीं था। समय बीतता जा रहा था। वे अपने अकेलेपन से ऊब गए। ‘का राम-ऐव’ दिन-रात सृष्टि के निर्माता ईश्वर से प्रार्थना करती कि उसे वारिस चाहिए, जो उसके वंश को आगे बढ़ा सके। ‘का राम-ऐव’ की सच्ची प्रार्थना ईश्वर ने स्वीकार कर ली और उन्हें पांच संतानें प्रदान किये। ये संतानें थीं – सूर्य, चाँद, पानी, हवा और आग। इनमें सूर्य पहली संतान तथा आग आखिरी संतान थी। आग, आखिरी संतान होने के कारण उस पर घर के सारे काम और देखभाल करने की जिम्मेदारी थी ।
पांच संतानों को पाकर ‘का राम-ऐव’ बहुत खुश थी। उसे अपने फलते-फूलते परिवार पर गर्व था। अब धरती पर सूरज, हवा और पानी था। अत: वृक्ष उगे, सुन्दर-सुन्दर फूल खिले, भांति-भांति के फल लगे। सारी प्रकृति ही सुन्दर दिखाई देने लगी। ‘का राम-ऐव’ धरती पर कई मौसम और उनके विभिन्न रंगों आदि को देखकर प्रफुल्लित थी। यह देखकर कुछ समय बाद ‘का राम-ऐव’ ने ईश्वर से विनती की कि वे दया करके किसी को भेजें, जो संसार पर शासन करे और उसे अनुशासित करे। ईश्वर को ‘का राम-ऐव’ के अनुरोध में सच्चाई नज़र आई और उन्होने वादा किया कि वह उसकी इच्छा अवश्य पूरी करेंगे ।
खासी मतानुसार उस समय स्वर्ग में सोलह परिवार ईश्वर के साथ सुख, शान्ति और भाईचारे के साथ रहते थे। ‘का राम-ऐव’ की इच्छा पूर्ति के लिए स्वर्ग में एक विशाल सभा का आयोजन किया गया कि संसार पर शासन करने की जिम्मेदारी किसे सौंपी जाए?
इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के बाद यह निर्णय लिया गया कि स्वर्ग में ईश्वर के साथ रहनेवाले सोलह परिवारों में से सात परिवार, जो ‘की ह्न्यू त्रेप हन्यू स्कुम’ या ‘सात झोपड़ियाँ और सात घोंसले’ कहलाते थे, वे धरती पर जाएँ, खेती करें और उसे आबाद करें।
वे ईश्वर के आदेशानुसार धरती पर जाएँ और माँ की तरह ही धरती के विकास और उन्नति के लिए कार्य करें। वे प्रशासनिक दृष्टि से हर चीज़ की देखभाल करें। इस प्रकार ईश्वर ने ह्न्यू त्रेप हन्यू स्कुम और पृथ्वी को आशीर्वाद दिया। साथ ही यह कहकर अपनी बात समाप्त की कि अगर लोग स्वयं सही रास्ते पर चलेंगे; सच्चाई के रास्ते पर रहेंगे तो ईश्वर उनके साथ रहेंगे। उनके और स्वर्ग के बीच बिना किसी बाधा के आना-जाना होगा। वे एक पेड़ के द्वारा ‘जिन्किंग क्स्येर’ अर्थात् सोने की सीढ़ी जो ‘उ साॅपेतब्नेंग चोटी पर स्थित है, उससे स्वर्ग में आ-जा सकेंगे ।
सात झोपड़ियाँ अपना वचन निभाते हुए शांति और भाईचारे के साथ स्वर्ण युग में रहने लगे। उस समय स्वर्ग में निवास करने वाले नौ परिवारों और पृथ्वी के सात परिवारों के बीच सम्पर्क था और ईश्वर स्वयं भी धरती पर अक्सर आते-जाते रहते थे। वे उनसे मानव भाषा में ही बात करते थे। धीरे-धीरे कुछ समय बाद जीवन की हर दिन की व्यस्तता के कारण ये सात परिवार अपने दिए गए वचनों से दूर होते गए और उन पर कम ध्यान देने लगे। एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति ने इस स्थिति का लाभ उठाया क्योंकि उसे मानव के ऊपर ईश्वर और सच्चाई का राज करना अच्छा नहीं लगता था। अत: वह पृथ्वी और स्वर्ग से जोड़ने वाली सीढ़ी को काटने में सफल हो गया। परिणामस्वरूप धरती पर रहने वाले सात परिवार हमेशा के लिए बिछड़ गए। इस प्रकार ईश्वर के प्रभाव से भी हमेशा के लिए दूर हो गए। ईश्वर ने उनसे मानव-भाषा में फिर कभी बात नहीं की। ईश्वर को अपनी रचना अर्थात् मनुष्यों पर बहुत दया आई। यद्यपि वह उनसे इंसानी भाषा में बात नहीं कर सकते थे परन्तु वे उनसे अपने संकेतों आदि द्वारा बात करते थे ।
वे सातों परिवार इस विषय में कुछ नहीं किया केवल ईश्वर की आज्ञा का पालन करते रहे, वे बस टालमटोल करते रहे। कुछ समय बाद सपेटब्नेंग (पर्वत की चोटी) से पांच किलोमीटर दूर डेंगेई पीक / चोटी पर एक पेड़ उग आया। वह पेड़ कुछ ही समय में तेज़ी से बढ़ गया। उसकी शाखाएँ चारो ओर फैल गईं और इसकी पत्तियों ने पूरी धरती को ढक लिया। ऐसा लगने लगा कि दूसरी बनस्पतियाँ उसकी छाया में नहीं पनप सकेंगी। उस समय सारमो और सोराफिन नामक दो जिम्मेदार व्यक्ति डेंगेई चोटी की ढाल पर खेती कर रहे थे। उन्होंने इस घटना की जानकारी दरबार को दिया। उनकी बात सुनकर दरबार ने निर्णय लिया कि पेड़ को तुरंत कटवा दिया जाए क्योंकि अगर देर हो गईं, तो उस पेड़ की जड़ें और भी मज़बूत हो जाएँगी और उसकी शाखाएँ इतनी फ़ैल जाएँगी कि काटना मुश्किल हो जायेगा। उन्होंने अपनी कुल्हाड़ी और दराती धार की और पेड़ काटना शुरू किया। दिनभर कठोर परिश्रम करने के बावजूद वे उस पेड़ का छोटा हिस्सा ही काट पाए। यह देखकर दरबार ने यह निर्णय लिया कि हर परिवार से कम से कम एक आदमी आएँगे और पेड़ काटने में मदद करेंगे। दूसरे दिन हर घर से एक-एक व्यक्ति पेड़ काटने चल पड़ा। जब वे उस स्थान पर पहुँचे, तो आश्चर्यचकित हो गए क्योंकि उस पेड़ पर कटने के कोई निशान नहीं थे। इसके बाद भी उन्होंने फिर से पूरे दिन काम किया परन्तु अगले दिन भी वैसा ही हुआ। वे परेशान और भयभीत हो गए ।
जब वे आपस में बातचीत कर रहे थे कि दूसरे दिन क्या किया जाए, तो उस समय एक छोटा पक्षी ‘रेन बर्ड ’(phret) वहाँ आया। सबका उदास चेहरा देखकर उसने एक वृद्ध व्यक्ति से उनकी उदासी का कारण पूछा। पूरी बात जानकर रेन बर्ड ने कहा – मैंने चीता से सुना है कि जब डेंगेई बड़ा हो जाएगा और इसकी शाखाएँ चारो ओर फैल जाएँगी, इसकी पत्तियाँ और मोटी हो जाएँगी, तब चारो ओर गहरा अँधेरा छा जाएगा। तब मैं चारो ओर घूम सकूँगा और इन्सानों को कह सकूँगा। अत: रात में बाघ इस पेड़ पर पड़े कटने के निशान को चाट लेता है, जिससे यह पेड़ फिर से वैसा का वैसा हो जाता है। इसलिए तुम लोग कितनी भी कोशिश कर लो, इसे नहीं काट सकते। तुम लोग अपना काम करते रहो और घर जाने से पहले अपनी कुल्हाड़ी और दराती को कटे हुए भाग पर उल्टा करके रखना। उसकी धार सामने की ओर होनी चाहिए। जब बाघ उसे चाटने की कोशिश करेगा, तो उसकी जीभ कट जाएगी और वह फिर से चाटने की कोशिश नहीं कर सकेगा ।
अत: रेन बर्ड की सलाह से लोगों ने फिर से पेड़ काटना आरम्भ किया। उस रात हमेशा की तरह बाघ आया और उसने कटे हुए निशान को चाटना आरम्भ किया, तो उसकी जीभ धारदार हथियार से कट गई और वह दर्द से चिल्लाता हुआ जंगल की ओर चला गया परन्तु उस समय से उसने मनुष्य से बदला लेने की प्रतिज्ञा की। इस घटना के बाद से उसे जब भी मौका मिलता है, वह उस पर आक्रमण करता है।
लगातार कई दिनों तक पेड़ काटते-काटते और रात में धारदार हथियार को कटी हुई जगह पर रखते हुए उन्होंने अंततः पेड़ को पूरी तरह नीचा कर लिया। डेंगेई चोटी में क्रेटर की तरह एक गढ्ढा बना हुआ है। मिथक के अनुसार यह वही जगह है जहाँ पर पेड़ खड़ा था। इस प्रकार मनुष्य अपनी युक्ति से पेड़ को सफलतापूर्वक नीचा करके बहुत प्रसन्न हुआ परन्तु यह काम बिना ईश्वर के सम्भव नहीं हो सकता था। अत: उसने उनका आभार प्रकट करने के लिए पृथ्वी के सभी प्राणियों के लिए नृत्य का आयोजन किया।

मेघालय की लोक कथाओं और मिथकोंमें राम कथा का प्रसंग

डॉ अनीता पंडा

श्रीराम कथा में ऐसी दर्शन और भावुकता की स्त्रोतस्विनी प्रवाहित होती है, जो सम्पूर्ण मानव समुदाय को भक्ति-भाव से आप्लावित कर देती है। श्रीराम केवल अयोध्या के राम नहीं अपितु जन-जन के राम हैं। तभी तो रसमयी राम कथा ने देववाणी से विभिन्न भाषों से होती सुदूर जनजातीय संस्कृति एवं आस्था तक की यात्रा तय किया है। “सियाराम मय सब जग जानि, करहू प्रणाम जोरि जुग पानी।” यह समस्त जग सिया राम मय है, दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए रामकथा सागर से किंचित मौक्तिक-कण मेघालय के जनजातीय क्षेत्र से प्राप्त करने का प्रयास मात्र है। जय श्रीराम!
जैसा कि सर्वविदित है कि राम कथा भारत की विविध भाषाओँ में लिखी गई। यहाँ तक की देश की सीमाओं को पार का विदेशों में भी मर्यादा पुरुषोत्तम राम के प्रसंग एवं साक्ष्य मिलते हैं। देववाणी संस्कृत से लेकर लोक भाषों एवं बोलियों में राम कथा का प्रसंग प्राप्त होता है। राम कथा के संदर्भ में मुख्य रूप से संस्कृत में ‘रामायण’ और तुलसीदास कृत ‘रामचरित मानस’ ज्यादा चर्चित एवं लोकप्रिय हैं। वाल्मीकि के राम ऐतिहासिक तथा मानवीय रूप है जबकि तुलसी के राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। राम कथा में निहित मूल्य प्रासंगिक है। कारण, आज की विषम परिस्थितियों में अपने नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों को समावेशित करने के लिए यह एक ऐसी राम कथा की धारा है, जो शक्ति, शील और सौन्दर्य से पूर्ण निराश मन को आशा का संचार करती है।
भक्ति आन्दोलन के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो “श्रीमद्भागवत” की रचना से पहले ही दक्षिण भारत में भक्ति धारा प्रवाहित थी, जो कालान्तर में भारत में फ़ैल गई। दक्षिण के आलवार और नायनर भक्तों का प्रभाव सम्पूर्ण भक्ति साहित्य पर पड़ा। “श्रीमद्भागवत” में व्यास महर्षि ने भक्ति के मुख से यह कहलवाया है कि मैं द्रविड़ प्रदेश में उत्पन्न हुई, कर्नाटक में बड़ी हुई; महाराष्ट्र में कुछ दिन निवास करने के पश्चात गुजरात में वृध्दा हुई।
उत्पन्ना द्राविडेचाहं कर्नाटे वृद्धिमागता।
स्थिता किन्चिन्महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णामता। ।
कबीर ने भी इसी तथ्य को स्वीकारते हुए कहा है –
भक्ती द्रविड़ उपजी, लाए रामानंद।
परगट किया कबीर ने, सात द्वीप नौ खण्ड। ।
हिंदी का भक्ति साहित्य यह प्रमाणित करता है कि भक्ति अपने कथन के डेढ़ हजार साल बाद पूरे युवा उत्साह के साथ उत्तर भारत में आई और उसने अपने भव्य भावधारा से उसने जन सामान्य को मन्त्र-मुग्ध कर लिया। भक्ति इस निर्मल रसमयी धारा ने हिंदी भाषी प्रदेशों को आप्लावित किया और गौडीय-वैष्णव संतों द्वारा असम के संत शंकरदेव और उनके शिष्य माधवदेव को भावमग्न करती हुई सुदूर पूर्वोत्तर भारत को अपने रंग में रंग लिया। मेघालय भी इससे अछूता न रहा। यहाँ राम कथा के प्रसंग प्रतीक के रूप में तथा मिथकों, लोक कथाओं के रूप में मिलता है।
प्रागैतिहासिक काल में मौन-खमेर बोलने वाले खासी और जैंतिया पहाड़ियों में खासी और पनार के रूप में स्थापित किया। मेघालय राज्य में मुख्य रूप से खासी, गारो और जैंतिया भाषा और बोली है परन्तु इन भाषाओँ को बोलने वाले बड़ी संख्या में असम राज्य के निवासी हैं। इनमें से खासी भाषा मेघालय के खासी और जैंतिया पहाड़ियों पर रहने वाली खासी-जैंतिया जनजातियों द्वारा बोली जाती है। गारो पहाड़ियों में रहने वाले गारो आदिवासियों की भाषा गारो है। इनका स्वधर्म, परम्परा एवं संस्कृति थी। स्वतंत्रता के संघर्ष के पश्चात सन् 1757 में खासी-जैंतिया तत्पश्चात गारो क्षेत्र अंग्रेजों के आधिपत्य में आ गया और मिशनरी का प्रभाव इनके मूल आस्था पर प्रहार किया परिणामस्वरूप तेजी धर्मांतरण हुआ। साथ ही इस क्षेत्र में ब्रिटिश शासकों ने इनके पारम्परिक रीति-रिवाज एवं अनुष्ठानों पर रोक लगा दिया था। कालांतर में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के उपरांत शिक्षित युवा वर्ग में अपनी मूल संस्कृति एवं रीति-रिवाजों आदि के प्रति जागरूकता आई। ‘बाबू जीबोन रॉय’ की अध्यक्षता में सोलह खासी युवकों सहित २३ नवम्बर १८९९ में अपने मूल संस्कृति और परम्पराओं के पुनर्जीवन हेतु ‘सेंग सामला खासी’ संस्था की स्थापना की। बाबू जीवन रॉय, खासी भाषा के पहले विद्वान थे जिन्होंने रामायण का खासी भाषा में अनुवाद किया। इसी प्रकार एल. एस. पॉल और सुलेनट लैमार ने राम कथा का अनुवाद भारतीय संस्कृति में अमूल्य योगदान दिया।
मेघालय की जैंतिया पहाड़ियों की जैंतिया या पनार जनजतियों में राम कथा के दो प्रसंग मिलते हैं। कहते है कि ‘जैंतिया पहाड़ियों में अर्थात् ‘हिमा शेल्ला’ के ‘री वार’ में वा या उम सियेज नदी है। वा या उम का अर्थ पानी है। वहाँ एक स्थान है जिसे ‘सिंगोह उराम’ के नाम से जाना जाता है जिसका अर्थ है – राम का जल। मिथक के अनुसार श्री राम सीता की खोज करते हुए ‘री वार’ आए थे। वे अत्यंत व्याकुल थे। उन्होने स्वयं को शांत करने के लिए इस नदी में डुबकी लगाईं थी। वहाँ एक पत्थर पर एक चूहे और तितली के निशान मिलते हैं। राम कथा से सम्बंधित दूसरा प्रसंग ‘सीता हरण’ से है। कुछ लोगों का मानना है कि जब रावण सीता का हरण करके ले जा रहा था तो सीता ने यहाँ स्वयं को उसकी पकड़ से मुक्त करने प्रयास किया। १ जैंतिया समुदाय के अधिकतर लोग अपना मूल धर्म मानते हैं। आज भी यहाँ परिवार के बड़े बेटे का नाम ‘राम’ और छोटे बेटे का ‘लखन’ और बेटी का नाम ‘दुर्गा’ रखने की परम्परा है। ध्यातव्य है कि “लखन”शब्द अवधी भाषा का है, जो पूर्वोत्तर के जनजातीय क्षेत्र में प्रचलित है। खासी, जैंतिया पहाडियों से होती हुई राम कथा के मिथकीय प्रसंग गारो पहाड़ियों से जुड़ती है। ध्यातव्य है कि गारो पहाड़ियों में स्थित बाल्पक्रम पठार धर्मांतरण के पूर्व गारो जनजातियों और हिन्दुओं के लिए एक पवित्र तीर्थ स्थल था। बाल्पक्रम पठार बाघमारा मुख्यालय से लघभग 50 कि.मी. दूरी पर स्थित है। इसे सन् 1988 में ‘राष्ट्रीय उद्यान और वन्य पशु अभ्यारण्य घोषित किया गया है। यह पठार हनुमान की संजीवनी बूटी की खोज से सम्बंधित है। स्थानीय लोग रामायण के इस प्रसंग को ज्यादा महत्व देते हैं। ‘श्री एच ए मराक के अनुसार – एक समय बाल्पक्रम एक पवित्र पर्वत था। यहाँ संजीवनी बूटी उगती थी, जो जीवन रक्षक थी। स्थानीय लोगों के अनुसार जब लक्ष्मण लंका में मेघनाद से युध्द करते हुए गंभीर रूप से घायल हो गए और वे मूर्च्छित हो गए थे। उनके प्राण संकट में पड़ गए थे, तब लक्ष्मण के प्राण बचाने के लिए लंका के वैद्यराज सुषेन ने हनुमानजी को सूर्योदय से पहले संजीवनी बूटी लेन के लिए कहा। पुराण के अनुसार हनुमानजी ने पूरे विश्व की परिक्रमा किया परन्तु उन्हें संजीवनी बूटी नहीं दिखाई दी। अंत में उन्हें गारो पहाड़ियों में बाल्पक्रम पर्वत पर संजीवनी बूटी दिखाई दी। समय बहुत कम था और सूर्योदय होने वाला था। उन्होंने पहाड़ के ऊपरी भाग तोड़ लिया और मुर्च्छित राजकुमार की रक्षा के लिए शीघ्रता से लौट आए। ’२ इस प्रकार संजीवनी बूटी के उपचार से लक्ष्मण जी स्वस्थ हो गए। स्थानीय लोगों के अनुसार तब से बाल्पक्रम की पहाड़ी का ऊपरी भाग टूटने के कारण यह सपाट मेज या पठार के समान हो गया।
डॉ जुरियस एल. आर. मराक, संग्रहालय वैज्ञानिक, निदेशक क़ला, संस्कृति, मेघालय सरकार के अनुसार रामायण में वर्णित ‘गंधमादन पर्वत’ और कहीं नहीं बल्कि गारो पहाड़ियों में बाल्पक्रम चोटी है। पुराने ज़माने में हिन्दू तीर्थयात्री दूसरे देशों और पड़ोसी देशों से यहाँ वर्ष में एक बार श्रध्दा से आते थे। कुछ वर्ष तक मयमनसिंह के राजवंश (आज बांग्लादेश में) शाही परिवार साल में एक बार यहाँ तीर्थ के लिए आते थे और कुछ दिनों के लिए यहाँ रुकते थे।
इसके अतिरिक्त यहाँ कुछ ऐसे साक्ष्य मिलते हैं जिससे यह ज्ञात होता है कि यहाँ कभी हिन्दू धर्म के अनुयायी रहते थे। आज गारो जनजातियों ने लगभग ९९ प्रतिशत लोगों ने अपना मूल धर्म छोड़ धर्म परिवर्तन (ईसाई धर्म) कर लिया है। ध्यातव्य है कि यहाँ आस-पास कोई हिन्दू परिवार नहीं रहता है, ऐसी जगह में महेशखोला मंदिर गारो, खासी पहाड़ियों और बांग्लादेश के बीच स्थित है। इस वीराने में हिन्दू मन्दिर का होना कई सवाल पैदा करता है। वहाँ बहने वाली पाँच समानांतर नदियाँ, जो कि बाल्पक्रम में बहती हैं, उनमें से चार नदियों के नाम हिन्दू धर्म से सम्बंधित हैं। उन चार नदियों के नाम हैं – महादेव नदी, जो महादेव भगवान पर आधारित, महेशखोला नदी – भगवान महेश पर आधारित, उसके बाद गणेशवारी नदी, जो शिव के पुत्र गणेश पर आधारित और कनाई नदी, जो नागों के देवता नाग कन्या पर आधारित है। इनमें से केवल एक नदी है जिसका नाम स्थानीय नाम “चिमिते” है। यह ना’वा के नाम से भी जानी जाती है, इसका अर्थ है – देव नदी। इससे यह अनुमान लगा सकते हैं कि वहाँ किसी समय हिन्दू रहते थे या पूजा करते थे और यह एक पवित्र क्षेत्र माना जाता रहा होगा।
बाल्पक्रम के उत्तर-पश्चिम से थोड़ी दूर पर सनितमंग या विमोंग की पहाड़ियों पर हिन्दुओं की श्रध्दा है। वे इसे भगवान शिव के घर कैलाश के नाम से पुकारते हैं। श्री हेल्सिंग एस. संगमा ने ईसा पूर्व गारो पहाड़ियों के जनजातियों पर पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) के हिन्दुओं का ऐतिहासक एवं सांस्कृतिक प्रभाव का वर्णन किया है। श्री देवानसिंग एस. रोंगमुत्हू ने गारो जनजातियों की सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक दृष्टिकोण के प्रति अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि बाल्पक्रम और उसके आस-पास का क्षेत्र मादी-रोंग-कुची (महादेव नदी का स्त्रोत) में प्राचीन गारो समुदाय रहता था। मादी-रोंग-कुची बहुत ही उन्नत और समृध्द क्षेत्र था। यह उस समय की बात है जब स्वर्ग और पृथ्वी अलग-अलग नहीं थे और धरती पर साधारण मनुष्य का नहीं अपितु देवताओं का निवास था।
निष्कर्षत: इन मिथकों एवं जनश्रुतियों में वर्णित राम कथा सत्यापन हेतु शोध आवश्यक है।
यह एक आस्था का प्रश्न है, जो समय के गर्त में विषम परिस्थितियों में धूमिल अवश्य हो गईं थी परन्तु राम की भक्तिमय धारा मेघालय के गारो, खासी और जैन्तियाँ पहाड़ियों पर सदैव ही प्रवाहित हो रही थी। इसका मुख्य कारण है मेघालय में तेजी से होता धर्मांतरण। इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता है यह एक ऐसी अनन्त भक्ति की धारा है जिसने पूरे देश को एक सूत्र में पिरो दिया है। अंत में – “हरि अनंत, हरि कथा अनंता”– अर्थात् हरि अनंत है और हरि की कथा भी अनंत है।