
भारत अपनी संस्कृति और सामाजिक विविधता के लिए विश्व भर में जाना जाता है, जितने राज्य उतने रंग, उतनी विविधता। भारत के पूर्वोत्तर में स्थित राज्यों में ये विविधता अपने अधिकतम रूप में हमारे सामने आती है। सिक्किम पूर्वोत्तर का प्राकृतिक छटा से भरपूर एक छोटा सा राज्य है। एक ऐसा राज्य जिसकी भौगोलिक सीमा कई देशों की सीमा से लगी हुई है। सिक्किम, नेपाल की पश्चिमी सीमा सिंगली ला, उत्तर -पूर्व में चीनी तिब्बत के छोह ला और दक्षिणी भाग पश्चिम बंगाल से लगा हुआ है। संसार की दूसरी सबसे बड़ी चोटी कंचनजंगा के पदचिन्ह इस राज्य को छूते हैं। 16 मई 1975 में भारत—का बाईसवा राज्य बनकर इसने भारत के भौगोलिक क्षेत्र को विस्तार दिया। यह भारत के लघुतम राज्यों में से एक है, जिसकी जनसंख्या भी न्यूनतम है और क्षेत्रफल की दृष्टि से यह भारत में गोवा के बाद दूसरा छोटा राज्य है।
भारत विभिन्न जातियों का संगम स्थल है और इसी की सबसे पुरजोर प्रतिध्वनि सिक्किम की भूमि में प्रतिफलित होती है,—सिक्किम में निवास करने वाली जातियों में लेप्चा मूल निवासी माने जाते हैं। उनके साथ भूटियाऔर नेपाली जातियाँ यहाँ निवास करती हैं। नेपाली जाति के अंतर्गत कई जाति और जनजातियाँ शामिल हैं। सिक्किम में लगभग सोलह सत्रह जातियाँ निवास करती हैं। स्थानीय लोगों के अलावा सिक्किम में सरकारी नौकरी, व्यापार और सेना से सम्बद्ध देश के विभिन्न भागों से भारी संख्या में लोग यहाँ बसते हैं। हिन्दू, बौद्ध, सिख, ईसाई, मुस्लिम, दुनिया में विकसित सभी धार्मिक संप्रदाय के लोग सिक्किम में हैं, परन्तु साम्प्रदायिक वैमनस्य की स्थिति कतई देखने को नहींं मिलती।—
सिक्किम कहने से लेप्चा, भूटिया, लिम्बू जातियों का ध्यान सबसे पहले—आती हैं, यही वो प्राचीन जातियाँ हैं जो सिक्किम के मूल निवासी के रूप में जाने जाते हैं । इनके प्राचीन समय से ही यहाँ होने का और महत्वपूर्ण योगदान का ऐतिहासिक प्रमाण मिलता है। सिक्किम में लेप्चा, भूटिया और लिम्बू के पश्चात नेपाली जातियों का आगमन हुआ है, जिसकी संख्या राज्य की जनसंख्या का 80 प्रतिशत है।—नेपाली जाति के भीतर कई उपजातियां आती हैं जिनमें गुरुंग, तामंग, नेवार, मगर, राई, लिम्बू, सुनुवार, शेरपा, कुलुंग, थामी, भुजेल, माझी जातियाँ आती हैं। इनमें गुरुंग, तामंग, शेरपा जातियाँ भी बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं। एक बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म को मानने वाले इस प्रान्त में रहते हैं। लगभग राज्य के 28% लोग बौद्ध धर्म को मानते हैं।
सिक्किम के लोग बहुत सरल सहज स्वभाव के होते हैं। धर्म और उससे जुड़े संस्कारों का निर्वाह सभी अनुयायियों और भक्तों के द्वारा अपने सामर्थ्य के अनुसार किया जाता है। महात्मा बुद्ध के साथ बोधिसत्वों को भी यहाँ लोग पूजते हैं, जिनमें गुरु पद्मसंभव का विशेष महत्त्व है। बौद्ध धर्मावलम्बी अपने परिवार में से एक सदस्य को बौद्ध भिक्षु बनाने का प्रयास करती हैं क्योंकि वे मानते हैं कि धर्म उनके इहलौकिक जीवन—में ही नहींं बल्कि मृत्यु के बाद के जीवन में भी मदद करता है। सिक्किम में लगभग 75 बौद्धमठ हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि आठवी शताब्दी में गुरु पद्मसंभव ने सिक्किम का दौरा किया था और उनके प्रयास से ही सिक्किम में बौद्ध धर्म का प्रचार संभव हुआ। ऐसी किंवदंती बौद्ध धर्मावलम्बियों में प्रचलित है कि गुरु पद्मसंभव के आगमन से पूर्व सिक्किम की धरती मनुष्य के रहने योग्य नहींं था । प्रेतात्माओं ने इस भूमि को अपना गढ़ बना रखा था, मनुष्य समाज इनकी उपस्थिति से बहुत पीड़ित हुआ करती थी। सिक्किम वासी गुरु रिम्बुछी अर्थात् गुरु पद्मसंभव के ऋणी हैं क्योंकि उनके प्रयास से प्रेतात्माओं को वश में किया गया। गुरु पद्मसंभव ने अपनी तांत्रिक शक्ति के माध्यम से सभी प्रेतात्माओं को अपने अधीन किया और यहाँ से प्रस्थान करने से पूर्व सभी प्रेतात्माओं को इस भूमि के संरक्षण का दायित्व सौंप गए। एक एक—प्रेतों के लिए विशेष क्षेत्रों का निर्धारण किया गया। जैसे किसी को पहाड़ों का देवता, किसी को वन जंगल, ऐसे अनेकों क्षेत्रों में उनके कर्म क्षेत्र का विभाजन कर उनकी हिंसक शक्ति को नियंत्रित करने का प्रयास किया गया। अब वे देवता की स्थिति में आ गए।—यहाँ की स्थानीय जनजाति अपने पर्व त्यौहारों में किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों में उन संरक्षक देवताओं को स्मरण करती हैं, उन्हें सेर्केम (चढ़ावा, भेंट) चढ़ाती हैं। वर्ष में एक बार अपने उन संरक्षक (ज़िब्दा) देवताओं को प्रसन्न करने के लिए पूजा-पाठ, दान दक्षिणा का काम—करते हैं। परिवार में जब किसी व्यक्ति की तबियत ख़राब होती है, तब—सबसे पहले उन्हीं देवताओं की पूजा की जाती है तत्पश्चात ही अस्पताल में उस बीमारी का इलाज आरम्भ होता है।
महायान बौद्ध धर्म का आगमन सिक्किम में आठवी शताब्दी में गुरु पद्मसंभव के द्वारा हुआ था, उस समय सिक्किम में नामग्याल वंश के छोगयाल (राजा) का शासन था।—छोगयाल के संरक्षण में कई बौद्ध मठ और स्तूपों का निर्माण किया गया। उस समय बौद्ध धर्म को सिक्किम का राजधर्म भी घोषित किया गया था। महायान बौद्ध धर्म की सभी शाखाओं न्यिंगमापा, काग्युपा, साक्यापा और गेलुक्पा को मानने वाले यहाँ निवास करते हैं,—सिक्किम में कई बौद्ध साहित्य उपलब्ध हैं। यहाँ की स्थानीय जनजातियों के जीवन में धर्म का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है । उनके सभी पर्व, उत्सव धर्म पर केन्द्रित हैं। इनके द्वारा मनाए जानेवाला पर्व—“गुरु रिम्बुछी ठुनकर छिछु”—तिब्बती केलेंडर के छठे महीने की 10 तारीख़ को “महा गुरु पद्मसंभव” के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। इसमें मठों और घरों में पूजा-पाठ होते है, गुरु पद्मसंभव की भव्य मूर्ति को उठाए भक्त गण रैली निकालते हैं और लोग बड़े उत्साह के साथ इसमें भाग लेते हैं। वे इस भव्य मूर्ति के दर्शन भर से—समझते हैं कि गुरु का आशीर्वाद उन्हें प्राप्त हो गया है।—“पांग लाब्सोल” एक अनोखा पर्व है। यह पर्व भूटिया और लेप्चा भाईचारे और मैत्री संधि से संबंधित है। जो 13 शताब्दी में पर्वत कंचनजंगा को साक्षी मानकर लेप्चा प्रमुख थेकोंग थेक और भूटिया प्रमुख खये बुम्सा के मध्य संपन्न हुई थी। “फुम्छु”—पर्व तिब्बती केलेंडर के प्रथम महीने के 14वें दिन मनाया जाता है। यह भी एक धार्मिक पर्व है। “ल्हाबाब थिंचे”, “थूको छिजी”, “सागा दावा” – इन सभी पर्वों का सम्बन्ध भी बौद्ध धर्म से संबंधित है। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि इनके उत्सव और खुशियों में सदैव धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।—मठों में बसने वाले गुरुओं का दर्शन किया जाता है। घरों में बौद्ध भिक्षुओं को आमंत्रित कर पूजा अर्चना और देवताओं को प्रसाद चढ़ाया जाता है। इन्हीं धार्मिक पर्वों में विशेष अवसर पर छाम नृत्य का भी आयोजन किया जाता है।
छाम नृत्य का संबंध बौद्ध अनुयायियों से संबंधित—है।—इन नृत्यों में नर्तक के द्वारा चेहरे में विशेष तरह का मास्क पहना जाता है। प्रतीकों के रूप में इन मास्क का प्रयोग होता है। इन नृत्यों के माध्यम से वे अपने जीवन और मृत्यु संबंधित धारणाओं को अभिव्यक्त करते हैं। कईयों के लिए यह नृत्य आज भी रहस्यमय हैं।
मास्क नृत्य मठों में संपन्न होता है। जितने भी बड़े बौद्ध मठ हैं, उनमें मास्क नृत्य का आयोजन होता है। इसके आयोजन में बहुत श्रम लगता है। राज्य के दूर दराज के क्षेत्रों से लोग बड़े उत्साहित होकर इसमें सम्मिलित होते हैं, यहाँ तक कि विदेशों से भी बौद्ध धर्मावलम्बी इन आयोजनों में भाग लेते हैं। दिन भर होने वाले इन रंगारंग कार्यक्रम का लोग आनंद लेते हैं। छोटे और युवाओं को इस नृत्य के प्रति उत्साह का कारण मनोरंजन हो सकता है, पर यह मास्क नृत्य असल में—भक्तोंको शिक्षित करने का एक माध्यम है।—
मास्क नृत्य (छाम)
छाम का शाब्दिक अर्थ धार्मिक नृत्य है। यह विशेष अवसर पर बोद्ध मठों में बोद्ध भिक्षुओं द्वारा किया जाने वाला नृत्य—यह एक तांत्रिक योग अनुष्ठान और ध्यान की प्रक्रिया है, जो मन और शरीर को एकाग्रता की और ले जाती है।—उसी एकाग्रता में नृतक को अपने देवताओं को पहचानना होता है, उन्हें अपने मानस बिम्ब में उतारना होता है और उनकी हाव भाव और प्रकृति को जनसभा के समक्ष—प्रदर्शित करना पड़ता है। इस नृत्य में शरीक होने वाले नृतकों के मास्क में बने चेहरे देवता और राक्षस दोनों के होते हैं। ध्यान से देखे तो इन—में बने चेहरों को कुछ चेहरे भगवान के चेहरों के समान, शांत, स्वच्छ और महिमा से मंडित होते हैं वहीँ कुछ चेहरे भयानक, क्रोध से युक्त होते हैं और कुछ चेहरे जानवरों के बने रहते है। इनमें जो शांत है उनकी प्रभामंडल में आभा है और जो क्रोधित हैं उनके चेहरे के आस पास क्रोध के चिह्न के रूप में चेहरे की चारों और आग का गोला है। वर्ष में दो बार छाम का मंचन मठों में किया जाता है। बोद्ध भिक्षु कई सप्ताह पहले से इसकी तैयारी में लग जाते हैं।—भिक्षु हफ़्तों तक ध्यान करते हैं, मनुष्य की सुरक्षा करने वाले देवताओं की कल्पना होती है और उनका आह्वान करते हैं। छाम के मंचन वाले दिन वे खुद को देवताओं के रूप में मंचित करते हैं।—नृत्य के समय पवित्र मन्त्रों का जाप होता है और ऐसी मान्यता है कि इससे निर्मित भव्य वातावरण में इकट्ठी भीड़ और उसके आस पास के इलाकों की नकारत्मक शक्तियां खिंची चली आती हैं, जिसको वश में करने का कार्य भी इस नृत्य की अगुवाई करने वाले करते हैं।
नर्तक इस अवसर पर ऊपर से नीचे तक रेशम का चमकीला परिधान पहनते हैं, उस पर सभी के चेहरों में भिन्न भिन्न मास्क या मुखौटा लगा होता है। कई बार नृत्यों में नर्तक के हाथ में उस देवता और राक्षस से—सम्बन्धित विशेष आनुष्ठानिक वाद्य यंत्र और अस्त्र होता है । कई बोद्ध भिक्षु हाथों में धार्मिक अनुष्ठान में बजाया जाने वाला वाद्य बजाते हैं जिसमें बाँसुरी जैसे यंत्र के साथ ढोल, ड्रम जैसे कई वाद्य यंत्र होते हैं। इन सबके एक साथ बज उठने से माहौल में—रौनक आ जाती है। यह वाद्य यंत्र जहाँ नर्तक के लिए एक लय और ताल उत्पन्न—करती है, वहीँ वातावरण में मौजूद नकारत्मक उर्जा को अपनी आवाज से—पवित्र करने का काम भी साथ ही साथ होता जाता है।
नृत्य करने से पूर्व लामाओं द्वारा आटे का एक मानव पुतला बनाया जाता है और नृत्य के माध्यम से आस पास के माहौल से जो नकारत्मक शक्तियां—आती हैं उन्हें उसी पुतले में आकर्षित किया जाता है और नृत्य में अगुवाई करने वाले छाम मास्टर उन बुरी शक्तियों को शान्ति और मुक्ति का रास्ता दिखाते हैं। नृत्य के अंत में उस पुतले को काटकर बुराई के अंत की घोषणा होती है। यह छाम प्रदर्शन कई दिनों तक चलता है। इकट्ठी जन सभा इस नृत्य को देखकर एक सकारत्मक उर्जा के साथ अपने घरों में लौटते हैं।
छाम के सम्बन्ध में कहा जाता है कि मूल छाम में पैरों का काम कम रहता था, अपनी आनुष्ठानिक वेशभूषा में लामा मठों के प्रांगण में जटिल मुद्राएँ बनाकर धीरे धीरे चला करते थे । पहले छाम का प्रदर्शन जनसामान्य के समक्ष नहींं होता था,—बोद्ध भिक्षुओं को भी इससे अलग रखा जाता था परन्तु बाद के दिनों में जनसामान्य के समक्ष इसकी प्रस्तुति की परंपरा आरम्भ हुई। नृत्य के माध्यम से वे महाकाल और गुरुओं का स्मरण करते है, उन्हें इस आयोजन पर निमंत्रण भेजते हैं , और उनको प्रसन्न करने की चेष्टा होती है ताकि सिक्किम प्रदेश और यहाँ बसने वाले सभी—पर देवताओं की सदैव कृपा बनी रहे।
एक प्रश्न स्वाभाविक है कि छाम नृत्य का आरम्भ कब और कहाँ हुआ होगा ? यह नृत्य एशिया महाद्वीप के कई देशों में किया जाता है, जहाँ बोद्ध धर्मावलम्बी हैं । इनमें तिब्बत, भूटान, भारत और नेपाल है। ‘छाम’ शब्द तिब्बती मूल का है जिसका अर्थ है नृत्य । इस नृत्य के सम्बन्ध में एक किवदंती प्रचलित है, राजा त्रिशोंग देत्सेन के निमंत्रण पर भारतीय संत गुरु पद्मसंभव ने तिब्बत के साम्ये मठ में 760-770 के आस पास छाम नृत्य का प्रदर्शन किया था, उस समय साम्ये मठ का निर्माण किया जा रहा था, जबकि उसके निर्माण में बुरी आत्माओं के द्वारा कई—बाधा किए जा रहे थे। दिन भर मठ के निर्माण का कार्य होता और रात्रि में वह तहस नहस हो जाता। इससे तंग आकर राजा ने गुरु पद्मसंभव को निमन्त्रण दिया। पद्मसंभव ने अपने तांत्रिक मुद्राओं से छमारा देवता का आह्वान करते हुए छाम नृत्य किया। कुछ सूत्रों का मानना है कि साम्ये में गुरु पद्मसंभव के द्वारा की गयी छाम नृत्य के पश्चात तिब्बत के अन्य मंदिरों में भी धीरे धीरे यह परंपरा आरम्भ हुई।
मास्क नृत्य और छाम का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व और इसकी प्रासंगिकता पर चर्चा की जाएँ तो सिक्किम की बोद्ध अनुयायी छाम नृत्य को देखने की इच्छा रखते हैं और यह नृत्य उनकी आध्यात्मिक तृष्णा को तृप्त करता हैं। सिक्किम के बोद्ध अनुयायियों का विश्वास है कि व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात 49 दिनों तक उसकी आत्मा भटकती रहती है, उसे नया शरीर 49 दिनों के बाद नसीब होता है। इन दिनोंतक मृतक की आत्मा अनेकानेक देवताओं से भेंट करती हैं, और यह देवता था दरअसल उनके अंतर में से निकलता है । बोद्ध अनुयायी कर्म में गहरी आस्था रखते हैं। जो व्यक्ति जीवित अवस्था में सांसारिक बन्धनों की चपेट में जितना उलझा रहता है उसके लिए मौत के बाद का जीवन उतना ही तकलीफ देय होता है। जो जीवन में पुण्य-फल कमाता है, उसे आसानी से नया जीवन मिल जाता है। अगर अपने शरीर से निकलने वाले चेहरे जो वास्तव में ईश्वर हैं उन्हें आत्मा नहींं पहचान पाती और उसके भयानक चेहरे को देखकर भयभीत हो जाती है तो मृतक की आत्मा को और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। बोद्धों में किसी की मौत के बाद 49 दिनों तक “ठिदोल” का पाठ किया जाता है, उसके अनुरूप उसका पालन होने से आत्मा को मुक्ति मिलती है। ठिदोल के पाठ के सम्बन्ध में माना जाता है कि जब कोई लामा उसका पाठ करते हैं तब मृतक के करीबी को उसे सुनना चाहिए क्योंकि मृतक की आत्मा हवा की भांति यहाँ वहाँ विचरण करती है, एक स्थान पर टिकना उसका स्वभाव नहींं होता है । ऐसे में अनजान व्यक्तियों के मध्य वह और ज्यादा भयभीत होता है लेकिन जब कोई करीबी इस पाठ को सुनता है तब उसे बैठा देख मृतक की आत्मा भी करीब आकर पाठ सुनती है। उसमें प्रत्येक बढ़ते दिन के साथ आत्मा को कैसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है उसका वर्णन रहता है ताकि इन सबकी जानकारी से आत्मा उसी अनुरूप व्यवहार कर सके तो उसके मुक्ति का मार्ग आसान होता है। यहाँ मुक्ति का तात्पर्य निर्वाण से नहींं, बल्कि एक नए जीवन की प्राप्ति से है जो उसके कर्म द्वारा निर्धारित होती हैं। इस पाठ के माध्यम से आत्मा को मृत्यु के पश्चात होने वाली परिवर्तनों की जानकारी होती है। इसी में वर्णित होता है कि प्रत्येक बढ़ते दिन के क्रम में कैसे कैसे चेहरे उसके समक्ष आते हैं और वह असल में कौन है ? अगर आत्मा ने कभी जीवित अवस्था में छाम नृत्य को दर्शन किया है तो मृत्यु के पश्चात वह उन्हें पहचान जायेगा। तभी वह देवता उसे मुक्ति मार्ग की ओर ले जाता है।
“ठिदोल” में “शेठो” लाह (देवता ) के बारे में वर्णन मिलता है। शेठो शब्द दो शब्दों का योग है। उनमे “शे” का तात्पर्य शांत और “ठो” से भयानक का आशय निकलता है। “ठिदोल” में कुल सौ देवी देवताओं का उल्लेख है, जिसमें शांत दिखने वाले देवताओं की संख्या 42 है तो क्रोधित देवताओं की संख्या 58 हैं। यूं तो सभी देवता शांत होते हैं पर जब उन्हें उस रूप में नहींं पहचाना जाता, आत्मा अपने को मृत्यु के पश्चात भी मोह माया के बंधन से मुक्त नहींं कर पाती, लोभ और प्रेम के वशीभूत होकर बारम्बार वहीँ लौटती है, तब वही शांत देवताओं का मुखमंडल भयानक मुद्रा धारण करती है। इन सौ देवताओं का उद्भव मृतक के शरीर से ही होता है। “ठिदोल” में वर्णित “शेठो” लाह (देवता) के मास्क बने हैं, जो छाम नृत्य में नर्तकों के द्वारा पहना जाता है। उनको प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया गया है ताकि व्यक्ति मौत के पश्चात की परिस्थितियों से परिचित हो सकें। इसलिए मंदिरों में उन्हें यह ज्ञान देने के मकसद से इन नृत्यों का आयोजन किया जाता है। इसमें “कागे छाम” का महत्त्व बहुत अधिक है क्योंकि इस अवसर पर उन सौ देवताओं के नकाब पहनकर लामा नृत्य करते हैं, जीवित अवस्था में इन्हें देखा जाए तो मृत्यु के पश्चात निकलने वाली उस अनेकानेक देवताओं से मृतक आत्मा भयभीत नहींं होगी बल्कि उसे अपना सहायक जान उसके बताए मार्ग पर चलकर अपने को मुक्त करेगी।
सिक्किम के निवासी बहुत ही सरल सहज स्वभाव के होते हैं। धर्म और धार्मिक कर्मकांडों तथा उसकी परंपरा को पढ़े लिखे लोग भी बिना किसी शंका के व्यहवार में लेते हैं। धर्म और आस्था के नाम पर किसी तरह के सवाल उनके जहन में नहींं आता है। जीवन में विपरीत परिस्थितियां, दुख और कष्ट से देवता उनकी रक्षा करते हैं,—ऐसा लोग आज भी मानते हैं। महामारी के परिस्थिति में भी अपने घरों में पूजा पाठ कर कोरोना के पुतले जलाते, उसे खदेड़ते हुए देख सकते हैं। उनके धार्मिक आस्था में वैज्ञानिक दृष्टि का अभाव मिलता है, परन्तु जब तक उनकी आस्था किसी के लिए कष्टकर न हो, उस पर किसी तरह का प्रश्न अनुचित ही है।
सिक्किम में मास्क नृत्य का आयोजन वर्ष में दो बार होता है। अगस्त सितम्बर माह में मनाया जाने वाला “पांगलाब्सोल” स्थानीय जनजाति लेप्चा और भूटिया के मध्य भाईचारे का पर्व है। सिक्किम में नामग्याल वंश का शासन रहा है, जो भूटिया जनजाति से सम्बन्धित हैं। लेप्चा जाति उपेक्षित न हो इसलिए लेप्चा नेता और भूटिया नेता के मध्य कंचनजंगा को साक्षी मानकर भाईचारे का वचन लिया गया था, जिसमें कहा गया था कि भूटिया और लेप्चा आपस में नाख़ून और मांस की भांति एक दुसरे से जुड़े रहेंगे। इस दिन सभी देवताओं का आह्वान किया जाता है, ताकि राज्य सुख, शान्ति और समृद्धि से संपन्न रहे। “कागे छाम” दशहरे के समय होता है। लोगों में यह विश्वास है कि छाम नृत्यों की प्रस्तुति से एक सकारात्मक प्रभाव वातावरण पर पड़ता है, उससे धरती पर आने वाले बहुत से संकट, से मुक्ति मिलती है, वातावरण का शुद्धिकरण होता है।—वहीँ इन नृत्यों के माध्यम से व्यक्ति के मानस पर जो बिम्ब छप जाते हैं वो उन्हें मृत्यु के बाद के जीवन में काम आता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ.
J.R. Subba, History, Culture and Customs of Sikkim
P.T Gyamtso, The History, Religion, Culture and Traditions Of Bhutia Communities, (Gangtok: Shomon House. 2011).
Indubala Aribam and Devi(ed), Amazing North East Sikkim, vol 7 (New Delhi: Books India Pvt.Ltd.)
K Sarit, K Carisma Lepcha, and Sameera Maithi, The Cultural Heritage Of Sikkim, (New Delhi: Manohar Publisher & Distributors)
डॉ. चुकी भूटिया: सहायक प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, भाषा एवं साहित्य संकाय, सिक्किम विश्वविद्यालय। उनके विशेष अध्ययन में हैं भूटिया समुदाय का लोक साहित्य, नारीवादी अध्ययन और उत्तर पूर्व में हिंदी की स्थिति।