वही साहित्य श्रेष्ठ माना जाता है जिसमें सत्यं, हितं, एवं प्रियं का सहज सन्निवेश हो । सत्यं, हितं, एवं प्रियं को ही क्रमशः सत्यं शिवं एवं सुन्दरम् की संज्ञा से अभिहित किया जाता है । सामान्यतः यह माना गया है कि साहित्य के सभी गुण इन तीनों में समाहित है । सत्यं से ही साहित्य में स्वाभाविकता आती है। हितं (शिवं) इस तत्व में लोक-रक्षण की भावना निहित है और जिन विशिष्टताओं के कारण साहित्य अपने पाठकों को आकृष्ट कर अपने में उलझाएँ रखता है उसका प्रियं (सुंदरम्) गुण है । कृति की श्रेष्ठता इन तीन तत्वों के समन्वय में होती है। ऐसी श्रेष्ठ कृतियों में उभरा हुआ चरित्र आदर्श और अमर चरित्र की पंक्ति में समाहित होता है । ऐसे चरित्रों में लोक-रक्षण की भावना सुन्दरं ही नहीं शिवं भी हो, प्रियं ही नहीं हितकर भी होनी चाहिए । जैसे महादेव ने हलाहल प्राशन कर संपूर्ण संसार को अमृत सौन्दर्य दिया जिसके मूल में लोक-सृष्टि का रक्षण कल्याण एवं मंगलकामना ही रही है। समाज में ऐसी मनोवृत्ति वाले चरित्र हिमनग की भांति मानव के अंतस में उभरते हैं ।

‘अमर’ शब्द का संबंध अंशत: अमृत से है। सामान्यतः भारतीय जन-मानस की यह धारणा है कि अमृत सेवन से अमरत्व प्राप्त होता है, जिससे मनुष्य कालजयी बनता है । समुद्र मंथन में निकले अमृत को प्राशन कर राहु-केतु भी देवताओं की पंक्ति में जा बैठे अर्थात् अमर हो गए । साहित्यिक दृष्टि से पौराणिक सन्दर्भ में अमरत्व अलौकिकता को समेटे हुए हैं, तो भौतिक (लौकिक) जगत् के सन्दर्भ में यही अमरत्व उदात्त जगत् के सन्दर्भ में यही अमरत्व उदात्तता की और संकेत करता है। इसप्रकार अमर चरित्र कहने से हमारे सामने सचरित्र, उदात्त एवं कालजयी चरित्र की छवि उभरती है ।

परिवर्तन सृष्टि का शाश्वत नियम है । परिणामस्वरूप साहित्य में भी स्थल-काल सापेक्ष परिवर्तन होता रहता है । वैश्वीकरण के इस युग में अमर चरित्र की संकल्पना में काफी मात्रा में परिवर्तन हुआ है। आज अमर चरित्रों में उन सभी चरित्रों को समाहित किया जाता है, जो आदर्श या उदात्त नहीं प्रत्युत तामसी वृत्ति से चरित्र के संखलन के कारण वितेषणा, दारेषणा और लोकेषणा का शिकार होकर खलनायक के रूप में सामने आते हैं और आदर्श चरित्रों के प्रतिकूल दिखाई देते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि आज खलनायक या खलनायिका को भी अमरता की श्रेणी में रखा जाने लगा है । मात्र प्रसिद्धि ही इस अमरता की पृष्ठभूमी है । ये चरित्र अपने कृत्यों-कुकृत्यों से प्रसिद्ध हो जाते हैं और स्थल-काल सापेक्ष निरंतर उभरते हैं। जैसे ‘राम’ तथा ‘पांडवों’ के सन्दर्भ आते ही क्रमश: ‘रावण’ और ‘दुर्योधन’ का चरित्र भी उभर आता है। क्योंकि ‘रावण’ का ‘रावणत्व’ में तथा ‘दुर्योधन’ का ‘दुर्योधनत्व’ के विरोध में ही क्रमश: ‘राम’ का ‘रामत्व’ और ‘पांडवों’ का ‘पांडवत्व’ है । अर्थात् ‘असत्’ पर ‘सत्’ की, ‘अधर्म’ पर ‘धर्म’ की विजय दिखाई देती है । आजकल हिंदी साहित्य में अमर चरित्रों की एक और श्रेणी दिखाई देती है । इनमें उन चरित्रों का समावेश होता है जो जीजिविषा हेतु संघर्षरत है, जो शोषण के प्रति जाग्रत हैं, जो अन्याय और अत्याचार के विरोध में आवाज उठाने की क्षमता रखतें हैं। इतना ही नहीं वे पीड़ित, शोषितों के प्रति सहानुभूति से पेश आकर शोषणकर्ताओं के प्रति कड़ा रुख अपनाकर संघटित होकर संघर्ष तो करते ही हैं, साथ ही संघटित होने पर बल देते दिखाई देते हैं। इसके पीछे जन-सामान्य के कल्याण एवं मंगलकामना की भावना प्रमुख होती है। ऐसे चरित्र भले ही लौकिक हो किन्तु वे अपने आदर्श कार्य के कारण अलौकिकता को प्राप्त करते दिखाई देते हैं

हिंदी साहित्य पर एक नजर डालने से पता चलता है कि कबीर जैसे महान संत की कार्य- प्रणाली इसका प्रमाण है। कबीर ने अपने जीवनकाल में धर्म-निरपेक्ष और मानवता का समर्थन किया, सांप्रदायिकता से ऊपर उठकर सामजिक अन्याय, अत्याचार, शोषण, अंधविश्वास, कुरीतियों एवं सभी कुप्रथाओं का कड़ा विरोध किया, जिसके फलस्वरूप कबीर, महात्मा कबीर बने । अब्दुल बिस्मिल्लाह का ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास पर कबीर के ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ का अर्थात् ब्रह्मा, जीव और जगत् का दार्शनिक प्रभाव दिखाई देता है। विषय विकारों के मखमली लिहाफ में लिपटे जगत् में कर्तव्य-अकर्तव्य, क्रिया-प्रतिक्रया के चक्र में घूमता हुआ जीव ‘ब्रह्म’ अर्थात् परम तत्व मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है। उसी ब्रह्म की ओर जिसने जीवात्मा को जीवन रूपी ताने-बाने से बीनी हुई चदरिया ओढ़कर इस मायावी जगत् में भेजा है । कबीर के इसी दार्शनिक चिंतन का प्रभाव परोक्ष रूप से उपन्यास पर परिलक्षित होता है । मानव ( मतीन का चरित्र) अर्थात् जीव का जीवन, जीवन की विविध गतिविधियों, उतार-चढाओं के ताने-बाने से बुना हुआ जगत् अर्थात् समाज में निरंतर संघर्षशील रहता है । इसका लक्ष्य केवल ‘ब्रह्म’ अर्थात् अपना लक्ष्य, आदर्श, सच्चाई, शोषण मुक्ति आदि को प्राप्त करना रहा है । स्पष्टत: यह कहा जा सकता है कि उपन्यास के प्रमुख चरित्र ‘मतीन’ पर अप्रत्यक्ष रूप से कबीर दर्शन का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है जो संपूर्ण उपन्यास में मतीन के जीवन दर्शन के रूप में प्रतिबिंबित हुआ है। इस विशिष्ट जीवन दर्शन के द्वारा उपन्यासकार अब्दुल बिस्मिल्लाह ने पथ-प्रदर्शन का कार्य करते हुए मतीन के माध्यम से बुनकरों के विद्रोह और जीवन के मुक्ति संघर्ष के जीवंत दस्तावेज प्रस्तुत कर बदलते भाव-बोध को दर्शाने का सफल प्रयास किया है वर्तमान की युवा पीढी प्रत्येक क्षेत्र में बदलते परिवेश और जीवन-सन्दर्भों के प्रति सजग दिखाई देती है। आज की पीढी को परंपरा की लीक पर चलना स्वीकार नहीं है क्योंकि जीवन की हर समस्या उनके लिए प्रश्नचिन्हं बन जाती है ।

‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास में बुनकरों के मुक्ति संघर्ष का जीवंत दस्तावेज प्रस्तुत है । प्रस्तुत उपन्यास में बुनकरों की अभावग्रस्त और रोग जर्जर दुनिया में हम मतीन, अलीमुन और नन्हें इकबाल के सहारे प्रवेश करते हैं जहां उपस्थित है रऊफ चाचा, नजबुनिया, नसीबन बुआ, रेहाना, कमरून, लतीफ़, बशीर और अल्ताफ जैसे अनेक चरित्र, जो टूटते हुए भी हालात से समझौता करना नहीं चाहते । बावजूद इसके उनसे लड़ना और उन्हें बदलना चाहते हैं और मजबूत है । वे अंतत: अपनी इस चाहत को जनाधिकारों के प्रति जागरुक अगली पीढ़ी के इकबाल को सौंप देते हैं । इस प्रक्रिया में लेखक ने शोषण के उस पुरे तंत्र को भी बड़ी बारीकी से बेनकाब किया है जिसके एक छोर पर है गिरस्ता और कोठीवाल, तो दूसरे छोर पर भ्रष्ट राजनितिक हथखंडे और सरकार की तथाकथित कल्याणकारी योजनाएं हैं। साथ ही बुनकर-बिरादरी के आर्थिक शोषण में सहायक उसी की अस्वस्थ परंपराओं, सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक जड़वाद और साम्प्रदायिक नजरिये को भी अनदेखा नहीं किया है

उपन्यास का नायक मतीन है, जो पेशे से बुनकर है । बुनकर शोषण के शिकार हैं । मतीन बुनकरों पर हो रहे अन्याय, अत्याचार और शोषण के विरूद्ध आवाज उठाता है लेकिन शोषकों द्वारा उसकी आवाज दबाई जाती है । शोषण के विरुद्ध उसके प्रयास असफल हो जाते हैं किन्तु अपनी बिरादरी पर हो रहे अन्याय अत्याचार के खिलाफ अपने समाज को सचेत और जागृत करने में मतीन सफल हो जाता है । मतीन के व्यक्तित्व का एक पहलू यह भी है कि पराजित होने के बाद, उसकी लड़ने की इच्छाशक्ति और अधिक प्रबल हो जाती है ।

मतीन के माता-पिता बचपन में खो जाते हैं; इसलिए वह अत्यंत कम उम्र में ही रोजी-रोटी के लिए काम करना शुरू कर देता है । मतीन एक सामान्य बुनकर के रूप में पाठकों के समक्ष उभरता है । जैसे-जैसे वह अपने काम में कुशल हो जाता है वैसे ही वह अन्य बुनकरों के समान शोषण की दोहरी चक्की में पिसता जाता है। एक ओर गिरस्त तो दूसरी ओर कोठीवालों द्वारा शोषण का शिकार हो जाता है । अर्थाभाव के कारण वह अपनी खुद की कतान नहीं खरीद सकता इसलिए दूसरों की बानी पर ही बीनने के लिए मजबूर होता है । मतीन गिरस्त हाजी साहब से कतान लेता है यहीं से उसका जीवन हाजी साहब जैसे सेठ पर निर्भर रहने लगता है। कड़ी मेहनत करने पर उसे एक हप्ते बाद मात्र नब्बे रुपये मिलते हैं। इसमें भी कई प्रकार की कटौतियां होती हैं जैसे – “गिरस्त जो है साड़ी  में ऐब दिखाता है ।” प्रका. २००३ : पृ. क्र. १७) पत्नी अल्मुनिया क्षयरोग (टीबी) से ग्रसित है । पत्नी के इलाज के लिए हो रहे खर्च के कारण खाने के लाले पड़े है । इसलिए दुबारा हाजीसाहब जैसे सेठ से ऋण लेना पड़ता है । मतीन जीवनभर कर्ज में डूबा रहता है । उसका जीवन केवल ऋण चुकाने में ही व्यतीत होता है । ऐसी परस्थिति में भी मतीन अपने बेटे को पढ़ा-लिखाकर बड़ा बाबू बनाना चाहता है क्योंकि उसे ऐसा लगता है कि बेटा अगर पढ़-लिखकर बड़ा बाबू बनेगा तो अपना जीवन ऋणमुक्त होकर समाज की उन्नत्ति और कल्याण के काम आयेगा ।

बुनकर मतीन कड़ी मेहनत से साड़ियाँ बुनकर तैयार करता है लेकिन बदले में क्या मिलता है- “सिर्फ एक लुंगी, भैंस का गोष्त और नंग धडंग जाहिल बच्चे ।” (अब्दुल बिस्मिल्लाह : ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ प्रका. २००३ पृ. क्र. ५४) लगभग सभी बुनकरों की यही स्थिति है इसप्रकार बुनकरों पर हो रहे अन्याय, अत्याचार और शोषण के निवारण हेतु तथा मुक्ति के लिए संघटन (सोसायटी) बनाकर शोषकों का मात्र विरोध करना ही नहीं चाहता बल्कि संघटन के माध्यम से सरकार से अपील कर आर्थिक सहायता हेतु गुहार लगाना चाहता है । मतीन को लागता है कि संघटन के माध्यम से सरकार से गुहार करने पर आर्थिक सहायता मिलेगी तो कतान खरीदकर संघटन के नाम पर साड़ियाँ बुनने का कारखाना आरंभ किया जा सकता है जिससे बुनकरों की आर्थिक स्थिति में सुधार आ सकता है। यह सपना लेकर संघटन आरंभ करने हेतु तीस सदस्य और सदस्य शुल्क जुटाता है । सदस्य शुल्क जुटाने के बाद बैंक पहुँचने पर पता चलता है कि इन लोगों के नाम पर पहले ही फर्जी संघटन गठित हो चुका है। इस सन्दर्भ में बैंक मेनेजर मतीन को सलाह देते हुए कहता है कि  “जनाब अब्दुल मतीन अंसारी साहब, जाइए और चुपचाप अपनी साड़ी बिनिये। फ्राड करना बहुत बड़ा जुर्म है ।” (अब्दुल बिस्मिल्लाह : ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ प्रका. २००३ : पृ. क्र. १०३) फर्जी संघटन बनानेवाले हाजी अमीरल्लाह के खिलाफ लड़ने में मतीन अपने आप को असमर्थ पाता है क्योंकि इन गिरस्तों की बहुत लम्बी पहुँच है ।

इसप्रकार मतीन इस लड़ाई में पराजित होता है । उसका सपना टूट जाता है बावजूद इसके वह बनारस की जिन्दगी से समझौता नहीं करना चाहता और कुछ बेहतर बनने के लिए तथा अच्छी परिस्थिति में काम करने के लिए बनारस छोड़कर मऊ चला जाता है। मऊ आने पर मतीन को पता चलता है कि यहाँ की परिस्थिति और बनारस की परिस्थिति में कोई अंतर नहीं है । अर्थात अन्याय, अत्याचार और शोषण में कोई फर्क नहीं है । इस सन्दर्भ में मतीन का कहना है कि “मऊ और – बनारस में फर्क ही क्या है ? गरीब तो हर जगह एक जैसे है ।” (अब्दुल बिस्मिल्लाह : ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ प्रका. २००३ पृ. क्र. १४४) अतः यह कहना अनुचित नहीं होगा कि बनारस हो या मऊ या फिर देश का कोई और शहर गरीबों पर अन्याय, अत्याचार होता ही रहता है । भारत में मजदूरों का शोषण होना आम बात है, फिर चाहे वह मजदूर कल-कारखानों का हो या फिर खेत में काम करनेवाला हो । इतिहास साक्षी है कि अपने देश में शोषित, पीड़ित, अत्याचारित समाज कितना भी संघर्ष करें देश की सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था इतनी मजबूत है कि वह विजयी नहीं हो सकता ।

‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास का केन्द्रीय पात्र मतीन शोषकों का विरोध करने में अपने आपको असमर्थ पाता है । परिणामतः मतीन मुक्ति संघर्ष की लड़ाई में पराजित होता है । किन्तु फिर भी मतीन के व्यक्तित अपने आपको असमर्थ पाता है । परिणामतः मतीन मुक्ति संघर्ष की लड़ाई में पराजित होता है। किन्तु फिर भी मतीन के व्यक्तित्व की यह ख़ास विशेषता रही है कि कई बार संघर्ष की लड़ाई हारने पर भी मतीन निराशा की गर्त में जीवन जीना नहीं चाहता बल्कि वह बार-बार संघर्ष कर जीत हासील करना चाहता है । कई बार टूटने पर भी मतीन में विद्यमान व्यवस्था के खिलाफ लड़ने की इच्छा -शक्ति जाग्रत होती रहती है ।

‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास बनारस के साड़ी  बुनकरों के कठिन संघर्ष का बयान है । प्रस्तुत उपन्यास केवल बुनकरों के मुक्ति संघर्ष की कथा नहीं है बल्कि देश के समस्त शोषित वर्ग के मुक्ति संघर्ष की यशोगाथा है। उस फिनिक्स पक्षी के सामान शोषित वर्ग नया जीवन जीना चाहता है किन्तु भारतीय व्यवस्था उन्हें उड़ने (जीने नहीं देती यह भारतीय समाज की त्रासदी है। ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास में चित्रित मतीन का संघर्ष बुनकरों के जीवन का अर्थ भी है और सौन्दर्य भी।

सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि, प्रस्तुत उपन्यास का प्रमुख पात्र मतीन अपने त्रासदी भरे जीवन में आदर्श समेटे हुए है जो उसे कालजयी बनाने में सहायता प्रदान करता है । शोषण चक्र में निरंतर पिसते हुए भी मतीन का जीवन के प्रति दृष्टिकोण अत्यधिक सकारात्मक रहा है बावजूद इसके वह आगामी पीढ़ी की चिंता करते नजर आता है। मतीन ने अपने जीवन में कभी सांप्रदायिकता को महत्त्व नहीं दिया । मतीन सांप्रदायिकता के संकुचित दायरे से बाहर आकर एकजुट होकर अराजक सामंती व्यवस्था के प्रति केवल आक्रोश व्यक्त नहीं करता बल्कि शोषण चक्र में पिसते हुए असाहाय्य गरीब मजदूरों, बुनकरों का जीवन संवारने का काम करता हैं, वह एक प्रतिमान के रूप में खड़ा होता है । अतः यह कहना अनुचित नहीं होगा कि मतीन गरीब मजदूरों, बुनकरों को अपने हक के लिए लड़ने की ताकत ही नहीं देता बल्कि उन्हें प्रेरित भी करता है । अपने अधिकार के प्रति उन्हें सचेत ही नहीं करता बल्कि दीपस्तंभ के रूप में खड़ा होता है । अतः मतीन समकालीन पीढ़ी के लिए आदर्श तो है ही साथ ही आनेवाली पीढी के लिए भी आदर्श एवं प्रेरणास्रोत बना रहेगा । अत: यह कहना अनुचित नहीं होगा कि मतीन का जीवन-दर्शन युवा चेतना के लिए पथ-प्रदर्शक का पर्याय है

डॉ. मधुकर देशमुख अध्यक्ष, हिंदी विभाग इंद्रायणी महाविद्यालय के अध्यक्ष हैं। इन्होंने सात खंडों में प्रकाशित कवि महेंद्र भटनागर की कविताओं का संपादन किया है। अनेकों लेख हो सहित इनकी 3 पुस्तकें प्रकाशित हैं।