पूर्वोत्तर क्षेत्रों में जब अधिकतर कबीलों के सरदार, प्रमुख एवं राजा एक-एक करके ब्रिटिश सेना के सामने हथियार डाल रहे थे, वहीँ कुछ ऐसे भी रणबाकुरे भी थे, जिन्होंने अपने जीते जी अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार नहीं की अपितु अंतिम समय तक सीमित और पारम्परिक हथियारों से उनका विरोध किया I उनमें हैं  – गारो पहाड़ियों के आदिवासी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तोगन नेंग्मिज़ा तथा जैंतिया पहाड़ी के उ किआंग नांगबाह I इन्होंने आधुनिक हथियारों से सुसज्जित ब्रिटिश सेना का सामना अपने मुट्ठी भर साथियों के साथ किया I 

    सन् 1872 में ब्रिटिश सेना घने जंगलों के बीचोबीच सड़क बना रहे थे, जहाँ गारो आदिवासी रह रहे थे I वे पिछले कई दशकों से गारो विद्रोही आदिवासियों को दबाने की कोशिश कर रहे थे परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिलती थी I जबकि उस समय तक धीरे-धीरे पूरे भारत पर अंग्रेज़ों का अधिकार हो गया था और लगभग सभी कबीलों ने आत्मसमर्पण कर दिया था पर इनमें से कुछ कबीले अपनी आज़ादी के लिए लगातार संघर्ष कर रहे थे I यह 1872 की आज़ादी के लिए अंतिम लड़ाई थी I 

   अंत में ब्रिटिश उपनिवेशकों ने गारो पहाड़ियों पर तीन दिशाओं से आक्रमण करने का निश्चय किया I कॉलोनेल हौघ्तोन (Colonel Houghton) ने अपनी सेना को तीन योग्य जनरल के नेतृत्व में विभाजित कर दिया I ग्वालपारा के डिप्टी कमिश्नर कैप्टन डेविस को बजेंग्दोबा से होकर जाना था ; कैप्टन डल्ली पुलिस अधिकार कछार को सिजू रेवाक से होकर दक्षिण से कैप्टन डब्लू. जे. विल्लिंसोन, डिप्टी कमिश्नर तुरा से आगे जाना था I 

    कैप्टन डल्ली (Dally) युध्दभूमि में पहुँची और उन्हें सिम्सोंग नदी के किनारे मत्छु रोंक क्रेक (Matchu Ronk Krek) पर डेरा डाला I जिस समय ब्रिटिश सिपाही वहाँ पहुँचे, कुछ गारो मुखिया थे, जिन्होंने अपनी जगह देने से इंकार कर दिया I वे अपनी भूमि के लिए हर तरह से संघर्ष करने के लिए तैयार थे I उस समय यह बात गारो मुखियाओं तक पहुँची कि सरकारी सिपाही छेददार भले के साथ आएँ हैं, जो दूर से आग उगलती है I घने जंगलों रहने वाली इस जनजाति ने 

ऐसा हथियार पहले कभी भी नहीं देखा था I अधिकतर मुखिया बहुत घबरा गए क्योंकि उन्हें नहीं पता था कि इस हथियार से खुद को और अपनी मातृभूमि को कैसे बचाएँगे ? उन्होंने आपस में बहुत विचार-विमर्श किया और अंत में अंग्रेजों से तब तक युध्द करने का निर्णय लिया जब तक एक भी गारो जीवित रहेगा पर जीते जी वे अंग्रेजों की आधीनता नहीं स्वीकार करेंगे I अब समस्या यह थी कि आग उगलती स्टील की नलियों का सामना कैसे किया जाए ? विलियम कारे के गारो जंगल बुक “Gowal” के अनुसार उनमें जो सबसे बहादुर था, उसने सोचा कि वह इसका हल निकाल लेगा I केले का तना फैलती आग के आगे टिक सकता है, यह बात उसे पता थी I इसके लिए उसने अपना जलता हुआ लाल लोहे के भाले को केले के तने में डाला तो वह तुरंत ठंडा हो गया I यह देखकर वह बहुत जोश में भर गया I उसे अपने योध्दाओं के लिए युध्द करने का सही तरीका मिल गया I इस बात की जानकारी और लोगो को मिली तो वे भी जोश में भर गए I वह व्यक्ति था, उनका नेता ‘तोगन नेंग्मिन्ज़ा (Togan Nengminza) और उसका साथी गिल्सोंग दल्बोत. (Gilsong Dalbot.)’ I 

     गारो योध्दाओं ने छिपकर आक्रमण करने की योजना बनाई I भोर होते ही पूरे जोश और आत्मविश्वास के साथ वे केले के दो-दो तने लेकर घने जंगलों में रेंगते हुए पहुँचे और शत्रुओं पर टूट पड़े I वे लगातार बढ़ते रहे और बंदूकों की आवाज़ पर ही रुके परन्तु वे घबराए नहीं I शत्रुओं का सामना करते हुए, अपने आप को बचाते हुए वे उनके खेमे में घुस गए I एक सेकेण्ड में बारूदों और गोलियों की बौछार होने लगी I उसका बहादुर मित्र गिल्सोंग दल्बोत. शहीद हो गया I उसे शहीद होते देख योध्दाओं का आत्मबल कम हो गया परन्तु वे हिम्मत नहीं हारे और युध्द करते रहे I तोगन नेंग्मिन्ज़ा भी युध्द करते हुए शहीद हो गया I उसके बाद बचे हुए समूह ने आत्मसमर्पण कर दिया I 

      आज की पीढ़ी इस घटना का इसलिए हँसी उड़ाती है कि देशप्रेमी गारो जनजाति ने ब्रिटिश सेना के आधुनिक अस्त्र-शास्त्र का सामना केले के तने और भाले से किया परन्तु सत्य तो यह है कि घने जंगलों में आज़ादी से रहने वाले आदिवासी बाहरी सभ्यता से बिल्कुल अनजान थे I उन्होंने कभी बन्दूक नहीं देखी 

थी न ही उन्हें पता था कि उसे कैसे चलाया जाता है I उन्होंने सोचा कि बन्दूक एक ऐसा भाला है, जो आग उगलती है और उसे केले के तने के द्वारा रोका जा सकता है I इन सबके पीछे उनके त्याग, बलिदान और देश प्रेम की भावना प्रबल थी I मुट्ठी भर वीरों ने पूरी निडरता और साहस से गुरिल्ला युध्द किया I इसमें कोई संदेह नहीं है कि तोगन नेंग्मिन्ज़ा एक वीर, देशप्रेमी और सच्चे स्वतंत्रता सेनानी थे I जिन्होंने अंतिम साँस तक अंग्रेजों के आधुनिक हथियारों का सामना भाले और केले के तने से किया I मातृभूमि के ऐसे वीर सपूतों को सलाम I

अनीता गोस्वामी की कर्मभूमि सन १९८४ से मेघालय की राजधानी शिलांग रही है। यहाँ की लोक-संस्कृति आदि पर हिन्दी में लेखन तथा हिन्दी के प्रचार-प्रसार हेतु संलग्न हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं से भी जुड़ी हैं।
सम्प्रतिः वरिष्ठ लेखिका, अनुवादक, कवियित्री, समीक्षक एवं, दूरदर्शन मेघालय एवं पूर्वोत्तर सेवा आकाशवाणी, शिलांग में कार्यक्रमों का संचालन। राष्ट्रीय शिक्षक सम्मान २०१५ से सम्मानित। कई साहित्यिक संस्थाओं की अध्यक्षा।