श्रदेय स्वामी सर्वगतानन्द

– सामी योगात्मानन्द, प्रॉविडेन्स, USA

गतांक के आगे

पाठकों को शायद स्मरण होगा (या न भी होगा, क्यों कि ‘कि जिंग्शेई/ज्योति की वह संख्या प्रकाशित हो कर अब छः महीने बीत चुके हैं) कि पिछली किश्त में मैंने स्वामी सर्वगतानन्द जी का उल्लेख किया था और लिखा था कि उनके सम्बन्ध में बाद में कभी चर्चा करूँगा। वे श्रीरामकृष्ण के अंतरंग पार्षद स्वामी अखंडानन्द के मन्त्रदीक्षित शिष्य थे। जैसे कि पहले बता चुका हूँ कि जब 20 जून 2009 की मध्यरात्रि के बाद मैं बोस्टन हवाई अड्डे से वहाँ की वेदान्त सोसायटी में पहुँचा, तो वे मेरे स्वागत के लिए अपने कमरे में जागते हुए बैठे थे। इस क्षण के बाद फिर करीब 8 साल तक उनका सहवास मुझे मिलता रहा। मेरे लिए यह बड़ा ही शिक्षाप्रद अवसर था। उस समय उनकी आयु लगभग नवासी(89) वर्ष की थी। शरीर में दुर्बलता और कई प्रकार की बीमारियाँ थीं किन्तु मन तभी भी सशक्त था। विचार और वाणी में स्पष्टता और शक्ति थी। उनके मुख पर सदा शान्ति और प्रसन्नता रहती थी।

उन्हीं के साथ रविवार २४ जून के दोपहर के चार बजे बोस्टन से प्रॉव्हिडन्स चला आया। मेरी व्यवस्था जिस कमरे में की गई थी, (आज भी मैं उसी कमरे में रहता हूँ) उसके बिलकुल सामने ही उनका कमरा था, जिसके साथ आगंतुकों के साथ मिलने का कक्ष भी जुड़ा हुआ था। मैंने देखा कि दिनभर कई भक्त उनसे मिलने हेतु वहाँ आया करते थे। कितने ही भक्त पूजनीय सर्वगतानन्द जी की सेवा के लिए वहाँ मौजूद रहते थे। प्रायः वे मुझे बुलाकर सब के साथ मेरा परिचय करा देते थे।

दो दिन बाद स्वामी त्यागानन्द जी भी बोस्टन से प्रॉव्हिडन्स पहुँचे। उनसे पुराना मित्रतापूर्ण संपर्क था। हमारी संन्यास-विधि एक ही साथ हुई थी। मेरे अमेरिका आने के करीब डेढ़ साल पहले वे बोस्टन आश्रम में कार्यारम्भ कर चुके थे और जैसा कि रिवाज था, वे प्रॉव्हिडन्स के आश्रम में भी सभी नियमित व्याख्यान दिया करते थे। अमरीका में किस प्रकार रहना चाहिए, व्याख्यान इत्यादि कैसे देने होंगे? भक्त- स्वयंसेवक, आश्रम का कार्यकारी मण्डल उन सब के साथ मिल-जुलकर किस प्रकार आश्रम का संचालन करना होगा इस विषयों पर उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला। उनके साथ मित्रतापूर्ण बातचीत, मिलना-जुलना, सलाह- मशविरा लेना आज भी जारी है। हम तीनों संन्यासी- सर्वगतानन्दजी, त्यागानन्द और मैं एक साथ व्याख्यान कक्ष के साथ प्रायः जुड़े हुए रसोई-भोजन-घर में नाश्ता, भोजन इत्यादि करते थे। अब रसोई-भोजन घर वहीं से नीचे तहखाने में (Basement में) स्थानांतरित हुआ है। इस स्थानांतरण की कहानी पू. सर्वगतानन्द जी से सम्बन्धित है और उनके चरित्र पर प्रकाश डालती है।

वह सितंबर का महीना था- मुझे प्रॉव्हिडन्स आश्रम का कार्यभार सम्हाले दो महीनों से कुछ अधिक समय बीता था।

वहाँ की वेदान्त सोसायटी के भवन का निरीक्षण करना और कैसे विविध कार्यकलाप वहाँ चलते हैं जैसे- साफ-सफाई, कपड़े धोना, बाज़ार से नित्य प्रयोजनीय चीजें खरीदना, मंदिर को सजाना इन सबकी व्यवस्था कैसे होती है? ये सब मोटे तौर पर समझ में आ गया था। एक सुधार करना मैंने आवश्यक महसूस किया। रसोई घर और भोजन कक्ष को प्रार्थना/ प्रवचन कक्ष के करीब से हटाकर तहखाने में स्थानांतरित करना।

जब मैंने पू. सर्वगतानन्द जी से इस विषय में बात की तो उन्होंने पूरी तौर से मेरा समर्थन किया और कहा कि प्रार्थना/प्रवचन कक्ष इस प्रकार एक दूसरे से सटकर नहीं होने चाहिए। जब इस भवन का पुनर्निर्माण कार्य चल रहा था, तो वे बीमार थे और उस पर ध्यान नहीं दे पाए कि वास्तुकार (Architect) ने इस प्रकार दोनों को एक-दूसरे से सटकर रखा है। अब सारा निर्माण-कार्य संपूर्ण होने के बाद उन्हें भी ये नागवार मालूम हो रहा है। इसी वजह से लाइब्रेरी और पुस्तक-ब्रिक्री के लिए कोई स्थान ही नहीं रहा है। उन्होंने तुरन्त वेदान्त सोसायटी के तत्कालीन सचिव विल एयटन (Will Ayton) को बुलाया और पूछा कि क्या यह स्थानांतरित करना सम्भव होगा? उन्हें यह बात प्रथम पसंद नहीं आयी। इस स्थानांतरण में कितने व्यवधान है, इसकी चर्चा उन्होंने की। परन्तु जब हम दोनों ने मिलकर पूरे तहखाने का निरीक्षण किया, तो वे इस बात पर सहमत हो गए। कम से कम भोजन-कक्ष नीचे ले जाना कठिन नहीं होगा इस बात को उन्होंने स्वीकार किया।

जब काम शुरु किया तो प्रथमतः कई भक्तों को वह पसंद नहीं आया। अनेक भक्तों को लगा कि मैं अभी नया आया हूँ और मनमानी कर रहा हूँ। कुछ भक्तों ने सीधे पू. सर्वगतानन्दजी के पास शिकायत की। एक महिला ने मेरे सामने ही उनसे कहा कि वे मुझे आदेश दें कि मैं यह काम बन्द करूँ और भोजन-कक्ष जहाँ था, वहीं रहने दूँ। तब उन्होंने उत्तर में कहा, “यहाँ इसको[=मुझे]  यहाँ के प्रमुख के रूप में मुख्यालय ने भेजा है। मैंने ही उसे यहाँ के प्रमुख के रूप में बुलाया है और तुम सब उसकी बात मानकर चलो। मैं भी उसकी बात मानकर चलता हूँ। भोजन-कक्ष नीचे जाने की बात तो मैं भी चाहता था। ” उनका कथन सुनकर मैंने उन्हें श्रद्धा से प्रणाम करते हुए कहा कि ये आप क्या कह रहे हैं? आपको मेरी बात मानकर चलने की बिलकुल आवश्यकता नहीं है। अगर मैं कुछ ठीक नहीं कर रहा हूँ, ऐसा आप को लगे, तो आप तुरन्त मुझे मना करें। आप से परामर्श कर और आप की अनुमति लेकर ही मैं सब कुछ करना चाहूँगा – भले ही औपचारिक रूप से मैं इस आश्रम का प्रमुख हूँ ।

 इस प्रसंग से उनकी रामकृष्ण संघ के प्रति जो अटूट निष्ठा थी, वह अभिव्यक्त होती है। मनुष्य का मन अज्ञान वश चलती आ रही पुरानी व्यवस्था में आसक्त हो जाता है। उस व्यवस्था के कारण तकलीफ होने के बावजूद भी वह उसमें परिवर्तन करने से इन्कार कर देता है। यह एक स्वाभाविक मानसिक स्थिति की जडता है या पूर्वाग्रह, जिसके कारण हमारी प्रगति नहीं हो पाती। पू. सर्वगतानन्द जी जिनकी अवस्था उस समय नवासी (89) साल की थी, इस स्थितिशीलता के परे थे। केवल भोजन-कक्ष की ही बात नहीं, उन्होंने मेरे हर उचित कदम का उत्साह से समर्थन किया और जो उन्हें अनुचित या अनावश्यक प्रतीत हुआ उसे न करने की भी सलाह दी। उनकी निष्ठा, निर्भयता, भक्ति, भक्तों के प्रति आत्यंतिक प्रेम और सहानुभूति के कितने ही उद्बोधक किस्से हैं।

ईस्वी १९३४ के नवम्बर में सर्वगतानंद जी मुंबई में स्वामी अखण्डानंदजी से मिले। उम्र थी 22 वर्ष की। आन्ध्र प्रदेश के मूल निवासी थे, किन्तु मुम्बई में एकाउंट्स की नौकरी कर रहे थे। (प्रॉव्हिडन्स में जब मैं आया तो उन्होंने वहां के अकाउंट के काम के बारे में मुझे अच्छी, उपयुक्त जानकारी दी।) जब अखण्डानंदजी ने इस नवयुवक से पूछा की ‘जीवन से क्या चाहते हो?’ तब उसने उत्तर दिया कि विवेकानंद जी के मोक्ष- लाभ और साथ ही साथ जनसेवा का आदर्श उन्हें बड़ा अच्छा लगता है।

फिर अखण्डानन्दजी ने इस युवक को (नारायण उनका नाम था) रामकृष्ण मिशन के कनखल / हरिद्वार स्थित अस्पताल में जाने को कहा और वहाँ के प्रमुख स्वामी कल्याणानन्द जी को इस विषय में एक पत्र भी भेज दिया और मुंबई से कनखल तक नंगे पाँव पैदल जाने को कहा। लगभग १७०० कि.मी. की दूरी पैदल तय करके वे करीब ढाई महीने के बाद कनखल पहुँचे और वहीं से उनके त्यागपूर्ण, सेवाभावी संन्यास जीवन का शुभारंभ हुआ। कनखल सेवाश्रम के उनके प्रारंभिक जीवन का बड़ा ही स्फूर्तिदायी वर्णन ‘You Will be a Paramahamsa नामक लघु ग्रंथ में उपलब्ध है।

रामकृष्ण संघ के कनखल, कराची (अब पाकिस्तान में है) , बेलूर मठ, विशाखापटनम् आदि आश्रमों में कार्य करने के उपरान्त उन्हें बोस्टन- प्रॉव्हिडन्स इन दोनों आश्रमों में मैं स्वामी अखिलानन्द जी के सहयोगी के रूप में कार्य करने हेतु भेजा गया। १९५४ में वे यहाँ आए। १९६१ में अखिलानन्दजी के निधन के पश्चात वे दोनों आश्रमों के प्रमुख नियुक्त किए गए। २००९ के मई में उनका निधन हुआ। अपने ५५ वर्ष के दीर्घ  अमरीका वास के दौरान वे मात्र दो बार भारत गए थे। प्रथम १९६२ में, खामी अखिलानन्द जी की अस्थियाँ विसर्जन करने हेतु और फिर 2002-03 में परम पूज्य रंगनाथागन्दजी से मिलने के लिए आये। तब वे रामकृष्ण संघ के परमाध्यक्ष थे और सर्वगतानन्द से उनका घनिष्ट, सौहार्दपूर्ण संपर्क था। उनके बॉस्टन-प्रॉव्हिडन्स रहते समय कई बार रंगनाथागन्दजी वहाँ आये थे।

अपने प्रेमपूर्ण, सरल व्यवहार, वेदान्त-ग्रन्थों के साथ ही साथ ख्रिस्तान , मुस्लिम और अन्य धर्मों का भी गहरा अध्ययन, आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि जैसे सद्‌गुणों के कारण पू. सर्वगतानन्द जी वहाँ की भक्तमंडली में अत्यधिक सम्मान प्राप्त कर चुके थे। मैंने प्रत्यक्ष देखा कि इस ढलती उम्र में भी उनका जनसंपर्क विस्तृत और अंतरंग था।

उनमें तीक्ष्ण विनोद-बुद्धि थी। रोजाना बोल-चाल में भी उनके आसपास का वातावरण हास्यपूर्ण रहता था। इस से सब के मन का दुःख और तनाव दूर हो जाता था। इस के चंद उदाहरण में यहाँ पेश कर रहा हूँ।

 बोस्टन-प्रॉव्हिडन्स के आसपास मौसम कैसा होता है? मेरे इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने वहाँ का एक प्रचलित कथन अपने हास्यपूर्ण ढंग से उद्‌धृत किया। कहा जाता है कि ‘यदि तुम सोच रहे हो कि मौसम अच्छा है, तो थोड़ी देर रुक जाओ। यदि समझ रहे हो कि मौसम बड़ा खराब है, तब भी थोड़ा-सा रुक जाओ’। ” तात्पर्य है कि मौसम तुरन्त बदलता रहता है। इसी सन्दर्भ मैं में एक और उनका हास्यपूर्ण कथन बताता हूँ। इस बात पर था कि ‘यहाँ कौन से दिन कैसा तापमान होगा इस बारे मैं अटकले लगाने का कोई मतलब नहीं होता। केवल इतना कहा जा सकता है कि एक जुलाई को वह कभी भी शून्य फॅ. (-१८ c) नहीं होता और एक जनवरी को कभी भी १०० फ. (3८.८ c) होता नहीं; इस के बीच में कई प्रकार का चढ़ना-उतरना हो सकता है’।

एकबार सन् 2003 में मई के महीने में हिमवृष्टि हो रही थी। जब मैंने इस सम्बन्ध में आश्चर्य व्यक्त किया, तो वे बोले, “In May it may rain, it may snow, it may be dry or it may be humid; it may be quite hot or quite cold or may be just moderate. Since anything may happen, so the month gets the name May?”

 एक समय हम दोनों को प्रॉव्हिडन्स से बोस्टन जाना था। साथ में और भी कुछ भक्त थे। निर्धारित सम‌य पर तैयार होकर जब मैं उनके कमरे में गया, तो एक भक्त की सहायता लेकर वे धीरे-धीरे पोशाक पहन रहे थे।

मुझे देखकर उन्होंने कहा, “अरे भाई! कुछ समय लगेगा। बूढ़े व्यक्ति को अधिक समय लगता है, रुक जाओ। बूढ़े  शख्स के लिए यमराज को भी इंतजार करना पड़ता है।” यह कहकर वे हँस पड़े। कुछ मिनटों बाद हम रवाना हो गये।

जब कोई कहता है कि वह ईश्वर पर विश्वास करता है, तो वे एक प्रचलित अमेरिकन उक्ति हँसकर कहते थे। We believe in God, others have to pay cash। अर्थात् केवल ईश्वर को उधारी पर माल दिया जाएगा (क्योंकि हम ईश्वर पर विश्वास रखते हैं) और सभी को दिन नगद पैसा देकर खरीदना पड़ेगा। तात्पर्य है कि कोई वस्तु किसी को उधार नहीं मिलेगी।

अमरीका में एक बड़ी सेवा- संस्था चलती है, जिस जिसका नाम है “Meals on Wheels” जो लोग वृद्धावस्था या अपंगता या बीमारी के कारण न बाहर जा सकते हैं, न खाना पका सकते हैं, उनकी सेवा में यह संस्था उपयुक्त भोजन बनाकर गाड़ी से पहुँचा देती है। ये संस्था अपने सराहनीय कार्य के कारण बड़ी लोकप्रिय  है। सर्वगतानन्दजी  ‘Meals Wheels’ को लेकर एक कहानी सुनाते थे।

एक बार चूहों के प्रतिनिधि मण्डल ने ईश्वर से समय लेकर मुलाकात की। ईश्वर से उन्होंने विनय किया कि उन्हें सब समय बिल्लियों के डर से भागना पड़ता है, फलस्वरूप उनके पैर अत्यंत थक जाते हैं और उन्हें बड़ा दर्द होता है। अतः यदि परमात्मा उनके पैरों के नीचे चक्के लगा दे, तो काम सहज हो जाएगा। दयालु ईश्वरने तुरन्त वह व्यवस्था कर दी। अब बिना कष्ट के वे दौड़ लगाने लगे। जब बिल्लियों ने यह देखा, तो उन्हें आनन्द के साथआश्चर्य हुआ। उन्होंने ईश्वर को धन्यवाद देकर कहा, “वाह! आज आपने आपने ‘Meals on wheels’ अर्थात ‘चक्कों पर भोजन’ भेज दिया है।”

मैंने जैसे पहले बताया था, प्रॉव्हिडन्स में मेरा कमरा ठीक सर्वगतानन्दजी के कमरे के सामने था। एक रात मेरे सो जाने के उपरान्त मैंने मेरे कमरे में फोन की घण्टी सुनी। सुनने के बाद भी मुझे उठकर फोन लेने  की इच्छा नहीं हुई, फोन की घन्टी भी बन्द हुई। कुछ सेकेण्ड के बाद दरवाजे पर दस्तक सुनी। उठकर दरवाजा खोला, तो देखा पू॰ सर्वगतानन्दजी हाथ में फोन पकड कर खड़े थे-“‘ये लो तुम्हारा फोन-भारत से आया है”, इतना कहकर उन्होंने मेरे हाथ में फोन दिया और चले गये। फोन एक भारत के परिचित भक्त का था, जो समझ नहीं रहा था कि यह  बातचीत करने का सही समय नहीं है। आधी रात बीत चुकी है। जब मैंने उसे समझाया कि एक नब्बे साल के पूजनीय संन्यासी को उसने कष्ट दिया है, तो लज्जित होकर उसने क्षमायाचना की। मेरे लिये यह एक बड़ी सीख थी – इतने वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, तपोवृद्ध संन्यासी आधी रात को बिस्तर से उठकर, फोन लेकर मेरे कमरे तक चले आये। (चलना  उनके लिए दिन-ब-दिन कठिन होता जा रहा था)। उनसे ४१ साल कम उम्र वाला मैं, मेरे कमरे के भीतर ही फोन उठाने के लिए बिस्तर से उठने में भी आलस्य कर रहा था।

उनके सेवाभाव के ऐसे कितने ही उदाहरण देखने का सौभाग्य  मुझे प्राप्त हुआ है। कितने ही लोग उनसे मिलने के लिए  दूर-दूर से आते थे। ढलती उम्र, और कई बीमारियाँ इसके बावजूद स्वयं के भोजन, विश्राम आदि का ख्याल न करते हुए वे सबका  स्वागत कर उनकी समस्याओं का समाधान कर और उन्हें शान्ति प्रदान करते थे।

प्रॉव्हिडन्स और बोस्टन में उन्होंने विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के साथ सौहार्दपूर्ण संपर्क स्थापित किया था। केवल यही नहीं, कई ईसाई और यहूदी धर्माचार्य भी उन्हें बड़ा सम्मान देते थे। मैं देखा कि एक  कैथॉलिक  पुरोहित  “फादर सेण्ट गोडार्ड” जो कैथॉलिक  समाज के एक विद्वान, सत्-चरित्र धर्मगुरु के रूप में विख्यात थे, वे भी पू. सर्वगतानन्दजी के पास प्रायः आया करते थे।  वे कई साल पहले पू. सर्वगतानन्दजी को जब उनकी  उम्र इतनी अधिक नहीं थी, अपने चर्च में और कॉन्वेण्ट   में आध्यात्मिक मार्गदर्शन हेतु ले जाते  थे। स्त्री-पुरुष, धनी-गरीब, हिंदू-ईसाई – यहूदी – मुस्लिम, सभी से वे समान रूप से प्रेम करते थे। पू. स्वामी कल्याणानंदजी (जो कि कनखल सेवाश्रम के संस्थापक-प्रमुख और विवेकानंद जी के मन्त्र शिष्य थे) से उन्हें जो सेवा की शिक्षा प्राप्त हुई उसका वर्णन उन्होंने पूर्वोल्लिखित ‘तुम परमहंस बनोगे’ इस पुस्तक में बहुत ही मर्मस्पर्शी शब्दों में किया है। कल्याणानंदजी से उन्होंने सीखा कि मनुष्य की सेवा उनमें ईश्वर देखकर करनी होगी। सेवा में कम या ज्यादा  ऐसा कुछ नहीं होता।

मैंने कई बार उनके मुख से कनखल के आश्रम का एक प्रसंग सुना है। कल्याणानन्द  जी ने कई संन्यासियों के आपसी बातचीत में सुना, “हम ने सर्वस्व त्याग किया है, और पू॰ कल्याणानंदजी के प्रेमपूर्ण मार्गदर्शन में आनंद से दिन गुजार रहे हैं।” बात सुनकर कल्याणानदी ने उनसे कहा, … “तुम ने ऐसा कौन-सा त्याग  किया है? तुम्हारे माता-पिता, भाई-बहन, मकान, धन इसका ?  वह सब क्या कभी तुम्हारा था कि तुमने उसका त्याग दिया? … अहंकार और स्वार्थ का त्याग करो और प्रेम से सबकी सेवा करो। नारायण (सर्वगतानंदजी का पूर्व नाम)  निःस्वार्थ, प्रेमपूर्ण सेवा यही हमारा घोष-वाक्य (motto ) है।’ पू. सर्वगतानंदजी पर इस प्रसंग का गहरा असर हुआ था।

२००६ साल से उनका प्रॉव्हिडन्स में रहना कम हो गया। भारी शरीर के दुर्बल और रोग-ग्रस्त होने के कारण के बोस्टने के आश्रम में ही रहते थे। मैं सप्ताह में एक बार या जैसा सम्भव हो, उन्हें मिलने बोस्टन जाता था। उनका व्यवहार तब भी प्रेमपूर्ण रहता था। उन्हीं दिनों उनके व्याख्यानों पर आधारित ‘श्रीकृष्ण योग’ और दो विशालकाय खण्डों में ‘राजयोग’ ये दो मूल्यवान ग्रन्थ प्रकाशित हुए।

शरीर की दुर्बलता बढ़ती जा रही थी पर मन की सुदृढ़ता वैसी ही थी। जीवन पर्यंत मानव-सेवा का मूल मंत्र ले कर्म-पथ की यात्रा करते हुए   ३ मई २००९ में उन्होंने पंचभूत काया ने अंतिम साँस ली। वे व्यष्टि से समष्टि में समा गये।

पुनःश्च

स्वामी योगात्मानन्द वेदान्त सोसाइटी आफ प्रोविडेन्स अध्यक्ष हैं। ये 1976 में रामकृष्ण संघ के सदस्य के रूप में शामिल हुए और 1986 में संन्यास की दीक्षा ली। 20 वर्ष तक रामकृ ष्ण मिशन नागपुर, में कार्य करने के उपरांत रामकृ ष्ण मिशन शिलांग मेघालय, के अध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहे। तदपरांत आप सन् 2001के  ग्रीष्म ऋतु में अमेरिका में वेदांत सोसायटी आफ प्रोविडेन्स के मंत्री के पद पर आए। वेदांत और आध्यात्मिकता पर उनके उपदेश और प्रवचन यूट्यूब पर काफी लोकप्रिय है।

शिलांग के ‘खुबलेई’ से प्रॉव्हिडन्स के ‘हैलो’ तक

अक्टूबर १९९९ में, मुझे रामकृष्ण मिशन के मुख्यालय से एक आदेश मिला:

“अमेरिका के पूर्वी तट पर प्रॉव्हिडन्स नाम के छोटे से नगर में रामकृष्ण संघ का एक पुराना आश्रम है- ‘वेदान्त सोसायटी ऑफ प्रॉव्हिडन्स’। वहाँ कई दशकों से कार्यभार सम्हाल रहे पूजनीय स्वामी सर्वगतानन्दजी अब ८८ साल के हैं और पिछले ३-५ वर्षों से अनुरोध कर रहे कि अब उनके स्थान पर अन्य किसी को कार्यभार सौंपा जाए। इसके लिए मुख्यालय ने आपको चुना हैI”

 उन्होंने कई संन्यासियों के नाम सुझाए थे, जिन में मेरा नाम भी था। चूँकि मेरी कभी उनके साथ मुलाकात नहीं हुई थी, यह स्पष्ट था कि किसी से मेरे बारे में सुनकर उन्होंने मेरा नाम उस सुझाव-सूची में रखा था। (यदि मेरे साथ प्रत्यक्ष परिचय होता तो वे ऐसी गलती कभी नहीं करते)। उन दिनो परम पूजनीय स्वामी रंगनाथानन्दजी रामकृष्ण संघ के परमाध्यक्ष थे। चूँकि मैने शायद ही कभी अंग्रेजी में व्याख्यान दिए थे, मेरे मन में वहाँ जाने में कुछ दुविधा थी। उन्होंने मुझे उत्साह देते हुए कहा कि ‘वह बड़ा अच्छा स्थान है और जब Providence (सबका भरण-पोषण करने वाले परमात्मा) तुम्हें बुला रहा है, तो तुम ‘ना’ कैसे कह सकते हो?’

सन २००० के मार्च में मेरी शिलांग से छुट्टी हुई। तभी मेरे शिलांग में चार वर्ष पूर्ण हो गये थे। १९९९ के नवम्बर में मेरा पासपोर्ट भी बन गया था। वीजा पाने का प्रयास जारी था। उसमें बहुत समय लग गया। करीब १५ महीने मैं भारत के कई आश्रमों और तीर्थस्थानों- में भ्रमण करता रहा। सन २००१ के मई महीने में वीजा मिल गया और फिर ठीक ३१ मई को मैं मुम्बई से इंग्लैण्ड, हॉलैंड, जर्मनी, फ्रान्स, स्वित्झर्लण्ड में प्रवास करते हुए अमेरिका पहुँच गया। इसको इत्तेफ़ाक़ कहूँ कि – स्वामी विवेकानन्द भी ३१ मई को मुंबई से अमेरिका के लिए चल दिए थे। वह २१ जून की प्रभात थी। प्रात:काल के  १ बजे (1 am) में बोस्टन के वेदान्त सोसायटी में पहुँच गया। सर्वगतानन्दजी मेरा इन्तजार कर रहे थे। श्रीरामकृष्ण के अंतरंग पार्षद स्वामी अखण्डानंदजी के वे शिष्य थे। १९५४ से वे बोस्टन और प्रॉव्हिडंस के बेदान्त सोसायटी का कार्यभार सम्हाल रहे थे। इस महापुरुष के सम्बन्ध में बहुत कुछ शिक्षाप्रद बातें क्रमशः समझ में आयी; उसकी चर्चा बाद में कभी करूँगा। करीब दो बजे सो गया; कमरा काफी गरम था पर प्रायः पुलिस या फायर ब्रिगेड, ट्रक्स बड़े ज़ोर से कर्णकर्कश ध्वनी करते हुए पास के बड़े रास्ते से गुज़र रहे थे। इस के कारण मैं बिल्कुल सो नहीं पाया। दिन निकलने पर ध्यान -जप आदि के बाद नास्ता करने गया। वहाँ सैंटा बार्बरा कॉन्व्हेन्ट से आयी प्रव्राजिका ब्रह्मप्राणा (इन दिनो वे  वेदान्त सेंटर ऑफ नॉर्दन टेक्सास का कार्यभार सम्हालती हैं) से मेरी भेंट हुई। वे चंद दिनों के लिए बोस्टन में आई थीं और वहाँ स्वामी विवेकानन्द से सम्बंधित स्थान देखना चाहती थीं। उनके साथ मेरी भी यह तीर्थयात्रा हुई। एक भक्त – जोसेफ (संक्षेप में ‘जो’) ड्वायर – जो कुछ घण्टों पहले मुझे एयरपोर्ट से बोस्टन बेदान्त सोसायटी ले आए थे, वे ही अब हमें उन स्थानों पर गाड़ी से ले जाने वाले थे। वे एक बड़े ही अच्छे गायक और संगीतज्ञ थे। क्रमशः उनसे अधिक घनिष्ठ परिचय हुआ। हम दोपहर के २ बजे के बाद वहाँ से मिकले।

***

अमेरिका के सम्बन्ध में कितनी ही बातें कई विषयों पर सुनता आया था। भारत के लोगों में यह धारणा कई दशकों से जड़े जमाकर बैठी है कि इस देश में सर्वत्र विलासिता है, गरीबी का बिल्कुल नामो निशान तक भी नहीं। कुछ दिनों में ही समझ में आया कि विलासिता,  अमीरी होने के बावजूद, यहाँ पर भी अधिकांश लोगों को गरीबी से जूझना पड़ता है। अमरीकी समाज का स्त्री-पुरुषों के परस्पर सम्बन्धों के विषय में भी बिलकुल अलग नज़रिया है। यह भी सुनता आया था, मध्यमवर्गीय सुशिक्षित  हिन्दू समाज के नज़रिये से यह भिन्न होने के बावजूद भी इन में नैतिकता कम हो ऐसी कोइ बात नहीं। और सुना था – यहाँ वेदान्त / हिन्दू  दर्शन और स्वाभी विवेकानन्द के प्रभाव के विषय में। कई लोगों की राय है कि यह प्रभाव बड़ा ही विस्तारित है और गहरा भी। अन्य लोगों का कहना था कि प्रभाव कोई बड़ा नहीं है; सामान्य अमरीकी लोगों ने न वेदान्त का नाम सुना है, न ही श्रीरामकृष्ण- विवेकानन्द का।

जो भी हो, हम लोग इन स्थानों के दर्शन हेतु निकल पड़े। सर्वप्रथम गए विश्वविख्यात हार्वर्ड विश्वविद्यालय। वहाँ विवेकानन्दजी ने जिस हॉल पर व्याख्यान दिया था उसे देखा। ३३ वर्ष बाद उस कमरे में एक साइन बोर्ड लगाया गया, जिसमे विवेकानन्दजी के वहाँ व्याख्यान के बारे में लिखा है। उस दिन हम लौट आये।

दूसरे दिन हमलोग वाल्डन पॉन्ड देखने गये। नयनरम्य वनराजी से घिरा यह अति मनोरम सरोवर है; किन्तु यहाँ हमारे जाने का उद्देश्य अलग था। यह स्थान  हेन्री डेविड थोरो से सम्बन्धित है। थोरो भारतीय औपनिषद दर्शन से बहुत प्रभावित हुए थे। उन्नीस वी  शताब्दी के मध्योत्तर में अमरीका के उत्तर-पूर्व भाग में Transcendentalist Movement नाम से एक दार्शनिक संप्रदाय शुरू हुआ था। Transcendentalist का तात्पर्य है कि सतही तौर पर जो भासमान होता है उसके परे जो नित्य तत्व है उसे पकड़ना। राल्फ वाल्डो इमर्सन, मार्गरेट फुबर, अमोस ब्रॉनसन अल्कोट्, थॉरो इ. कई विख्यात कवि और दार्शनिक इस सम्प्रदाय के अग्रणी थे। विवेकानन्द जी ने जो वेदान्त के बीज बोए उसके लिए जमीन तैयार करने का काम इन ट्रान्सेंडेटालिस्ट लोगों ने किया। कई दशकों पहले थॉरो (हेनरी डेविड थॉरो) का नाम पढ़ा था। इस स्थान में उन्होंने अपने निवास हेतु एक छोटा सा लकड़ी का कमरा बनवाया था। उस कमरे को बाहर से और भीतर से देखकर विशेष आनन्द हुआ।

रविवार के दिन सुबह बोस्टन आश्रम में एक विद्वान भक्त का सुंदर प्रवचन हुआ। पू. सर्वगतानन्दजी के लिए इसे उनके कमरे से ही सुनने की व्यवस्था की गई थी, उन्होंने मुझे भी वहीं से सुनने के लिए कहा। इस रविवार के व्याख्यान कार्यक्रम को यहाँ Sunday Service कहा जाता है। इस के उपरान्त Soup lunch (सूप भोजन) हुआ और फिर हम सब एक गाड़ी में सवार होकर प्रॉव्हिडन्स शहर के लिए निकल पड़े। और करीबन सवा घण्टे में प्रॉव्हिडंस पहुँच गए।

इस रविवार को बोस्टन और प्रॉव्हिडन्स में कितने ही भक्तों के साथ परिचय हुआ। इन में कुछ भारतीय मूल के थे, परन्तु बहुत से अमेरिकन मूल के थे। यहाँ आने के पहले भी मैंने ऐसे भक्तों को श्रीरामकृष्ण, माँ सारदा, स्वामी विवेकानन्द और वेदान्त के प्रति लगाव होने की बहुत कहानियाँ सुनी थी। आज उसका प्रत्यक्ष अनुभव पाकर विशेष आनंद हुआ। इनमें से प्रायः सभी ने श्रीरामकृष्ण माँ सारदा – विवेकानन्द और वेदान्त का अच्छा अध्ययन किया था। इसलिए उनकी भक्ति केवल एक परंपरा- पालन या धर्म का औपचारिक आचरण न होकर मूल आध्यात्मिक जीवन का प्रामाणिक प्रकाश था।

यहाँ के रीतिरिवाज, मिलने-जुलने-खान-पान इत्यादि नियम (Manners etiquettes) सीखना मेरे लिए एक प्राथमिकता थी। सभी भक्त आनन्दपूर्वक मेरी गलतियों को प्रेम और विनम्रता से सुधार देते थे। इन्हीं दिनों स्वामी विवेकानन्द जी से सम्बन्धित स्थानों के दर्शन का अनायास सुअवसर प्राप्त हुआ। इन में सारा बुल का निवासस्थान (जहाँ विवेकानन्दजी कई दिनों तक रहे और स्वामी अभेदानन्द, सारदानन्द जैसे उनके गुरु बन्धुओंका भी यहाँ वास हुआ। बाद में सारा बुल ने परमानन्दजी को बोस्टन में वेदान्त का केंद्र प्रारंभ करने हेतु इस भवन में आमंत्रित किया।), एनीस्क्वाम (Annisquam) – जहाँ विवेकानन्दजी का प्रथम व्याख्यान हुआ और जहाँ से उन्हें शिकागो के धर्मसभा में सहभागी होने के लिए आवश्यक प्रशस्ति पत्र प्राप्त हुआ, सेलेम (Salem), जहाँ स्वामीजी कुछ दिन रुक थे और कुछ व्याख्यान भी दिए – इत्यादि स्थानों का समावेश था। विवेकानन्द- चरित्र में मैंने इन सब स्थानों के सम्बन्ध में पढ़ा था। किन्तु इन स्थानों को मैं अपनी आखों से कभी देख सकूँगा ऐसा स्वप्न में भी कभी नहीं सोचा था। इन के दर्शन-स्पर्शन से शरीर-मन बिलकुल रोमांचित हो गया।

इन्हीं दिनों एक विशेष ग्रंथ पढ़ने को मिला और उसके रचयिताओं से प्रत्यक्ष परिचय भी हुआ। भारत में रहते समय इस ग्रंथ को देखा तो था, किन्तु पढ़ा नहीं था। ग्रंथ का नाम था, ‘The Gift unopened’ (नहीं खुला उपहार) लेखिका का नाम एलेनोर स्टार्क। इनसे और इनके पति से इन दिनों मुलाकात हुई। दोनों उमर में पचहत्तर पार कर गए थे, किन्तु मुखमण्डल पर एक आध्यात्मिक आनंद और शान्ति छायी हुई थी।

इस ग्रंथ में यह दिखाया गया था कि विवेकानन्द ने अमेरिका के लिए जो अति मूल्यवान तोहफा दिया है, उसे अव तक पूर्णरूप से खोला नहीं गया है। इस ग्रंथ से एक उद्धरण देकर इस लेख का समापन कर रहा हूँ। यदि भगवान की इच्छा हो तो यहाँ के कुछ और उद्बोधक संमरण अगली किस्त में लिखुंगा ।

लेखिका एलेनोर स्टार्क, स्वामीजी के अमेरिका में आगमन को ‘अमेरिका की चतुर्थ क्रांती’ कहती हैं ।

“America has passed through three great revolutions: the first was a struggle  for independence as a new nation from the tyranny of unheeding power; the second was a civil war, an internal revolution… the third was an industrial revolution, which freed men & women from heavy labor and opened world- markets, but which did not bring about corresponding advances in the consciousness of man….

“This book proposes to tell of an advent on the American scene of a voice from the East, which in a few short years sowed the seeds of a regeneration of a great people. At the turn of the century an unheralded and quiet revolution took place across the land. A message, a gift was given to the American people in words of such universal wisdom and power that those who heard them at the time found their lives changed and their spirits freed…”  Intro. (xix)

यहाँ पिछले बाइस वर्षों से इस गंभीर सत्य का साक्षात अनुभव कर रहा हूँ।

स्वामी योगात्मानन्द वेदान्त सोसाइटी आफ प्रोविडेन्स के मंत्री एवं अध्यक्ष हैं। ये 1976 में रामकृ ष्ण मिशन में शामिल हुए और 1986 में सं न्यास की दीक्षा ली। 20 वर्ष तक रामकृ ष्ण मिशन नागपुर, में कार्य करने के उपरांत रामकृ ष्ण मिशन शिलांग मेघालय, के अध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहे।

रामकृष्ण मिशन शिलांग की साठवीं वर्षगांठ समारोह

स्वामी योगात्मानन्द

संस्मरणों की इस किश्त में मैं शिलाँग रामकृष्ण मिशन की साठवीं वर्षगांठ समारोह के आयोजन सें सम्बन्धित कुछ रोचक तथ्य लिखने जा रहा हूँ। यह आश्रम १९३७ में स्थापित हुआ था; १९९७ साल में इसकी साठवीं वर्षगांठ समारोह मनाने का विचार १९९६ के नवम्बर से ही साधु-भक्तों के बीच जोर पकड़ रहा था। इस विषय में कई संन्यासी और भक्तों, सहयोगीयों के साथ चर्चा होती थी। इस कार्यक्रम का बड़े पैमाने पर आयोजन करने हेतु सभी में बड़ा उत्साह था।
वैसे तो शिलाँग में आये हुए मुझे मात्र सात-आठ महीने हुए थे उसपर इस स्तर का बड़ा आयोजन। जिसमें कई ज्येष्ठ संन्यासी विशेषतः, जो इस आश्रम से घनिष्ठ रूप से जुड़े थे, और कई क्षेत्रों में कार्यरत थे, आनेवाले थे। इसके अतिरिक्त इस आश्रम से करीबी सम्बन्ध रखने वाले अनेक भक्तों का समागम भी अपेक्षित था। इसे किस प्रकार संपन्न किया जाए? इसके बारे में मैं अनभिज्ञ था। ऐसे आयोजन के लिए आवश्यक धन कैसे जुटाया जाए? यहाँ यह भी एक बड़ी समस्या थी। पाठकों को यहाँ विदित करा दूँ कि इस आश्रम के लिए स्थानीय भक्तों या शुभचिन्तकोंके द्वारा दान कम दिन ही मिलता था। आश्रम के सेवाकार्य पूर्णरूप से शासकीय अनुदान से संचालित होते थे। फिर मंदिर, खान-पान, उत्सव आदिके लिए भक्तों के द्वारा मिलने वाला दान किसी प्रकार पर्याप्त होता था।
किसी अन्य कार्य – कोई बड़ा उत्सव हो या कुछ निर्माण या मरम्मत का कार्य हो, धन जुटाना एक समस्या थी। वहाँ भक्तों में कम ही लोग धनवान कहे जा सकते थे। और व्यक्तिगत रूप से मुझे इस कार्य का कोई अनुभव नहीं था। अन्य साधु – भक्तों से सलाह मशवरा करने के उपरान्त तय किया गया कि इस समारोह के उपलक्ष्य में एक स्मारिका का प्रकाशन किया जाय। इसमें विज्ञापन देने के लिए कई स्थानीय या बाहरी प्रतिष्ठानों से अनुरोध किया जा सकेगा और इसके जरिये कुछ धन मिल सकेगा। स्मारिका में कुछ अच्छे लेख भी छपाये जाएँगे, जिसके द्वारा इस आश्रम के इतिहास और पुराने संन्यासी और भक्तों के मूल्यवान संस्मरण पाठकों के लिए प्रस्तुत किए जा सकेंगे। इस सुझाव पर सभी ने सहमति दर्शायी।
इसी बीच विवेकानन्द संस्कृति-केंद्र (Vivekananda Cultural Centre – क्विण्टन हाल) के अत्यावश्यक मरम्मत का और आश्रम में भक्तों और आगंतुकों के लिए शौचालय के निर्माण का कार्य भी चल रहा था। इस शहर में जल की बहुत बड़ी समस्या थी; जिसका जिक्र मैंने प्रथम किस्त में किया था। आश्रम की गतिविधियाँ चलाने हेतु आवश्यक जल की पूर्ति कैसे करें, यह समस्या आश्रम के प्रारम्भ से ही विद्यमान थी। शिलाँग में बड़ी मात्रा में बारिश होती है – इसे देखकर इस जल के संग्रह से इस समस्या का हल निकल सकेगा, ऐसा एहसास मुझे था। इस विषय में भी लोगों से चर्चा हो रही थी; और इसकी योजना और नक्शा भी बन रहा था। इस कार्य के लिए भी बड़े धन की आवश्यकता थी।
जब साठवीं वर्षगांठ समारोह का चिन्तन चल रहा था और किन विशिष्ठ ज्येष्ठ और महनीय संन्यासियों को निमंत्रण किया जाय इसपर चर्चा हो रही थी, तब श्र. स्वामी विश्वनाथानान्द जी, जो उन दिनों निकटस्थ चेरापुंजी आश्रम के प्रमुख थे और बड़े ही विचारशील और सहदय थे, उन्होंने एक अति महत्त्वपूर्ण परामर्श दिया, जो आज भी मेरे लिए एक दिशा दर्शक तत्त्व के रूप में बना हुआ है। वे मुझसे काफी ज्येष्ठ और वरिष्ठ थे, और विनम्र स्वभाव के बावजूद अपना मन स्पष्ट रूप से कह देते थे। उन्होंने कहा – ‘जब इतने बड़े पैमाने पर आयोजन कर रहे हो तो सर्वप्रथम बेलुड़ मठ जाकर परम पूजनीय प्रेसिडेंट महाराज के समक्ष इस बात को रखो, उनसे परामर्श लो, आशीर्वाद लो; फिर व्हाइस प्रेसिडेंट, जनरल सेक्रेटरी आदि सभी को इस संकल्प से अवगत कराओ, उनसे मार्गदर्शन और आशीर्वाद प्राप्त करो और फिर आगे बढ़ो।’ ‘कच्चा काम मत करो’ – इस वाक्य को वे बारबार दोहरा रहें थे। यह तो निश्चित रूप से प्रथम, प्रधान बात थी। इसी समय पू. स्वामी गहनानन्द जी से फोन पर किसी अन्य प्रसंग को लेकर बात हुई। उन दिनों वे रामकृष्ण संघ के व्हाइस प्रेसिडेंट थे और शिलाँग आश्रम से उन्हें विशेष लगाव था। वे कई वर्षों तक यहाँ कार्यरत थे; इस आश्रम की उन्नती में उनका बड़ा योगदान था। जब साठवीं वर्षगांठसमारोह के बारे में उन्हें बताया तो उन्होंने मुझे अगरतला आकर उनसे मिलने के लिए कहा। वे भक्तों को मंत्रदीक्षा प्रदान करने हेतु अगरतला आ रहे थे। उनका आदेश शिरोधार्य कर मैं आश्रम की जीप लेकर ड्राइवर के साथ अगरतला की यात्रा के लिए निकला। २१ जनवरी १९९७ को, करीमगंज आश्रम में एक रात रुककर, अगरतला आश्रम पहुँचा। उन्होंने मिलने के लिए देर रात का समय दिया।
‘देखो – शिलाँग के आश्रम का सम्बन्ध पुराने असम राज्य से है। (असम का बाद में ७ राज्यों में विभाजन हुआ)। इसीलिए इस साठवीं वर्षगांठ महोत्सव में वहाँ के सभी साधु-भक्तों को आमंत्रित करना चाहिए। कार्यक्रम ६ – ७ दिनों तक पूरे उत्साह के साथ होना चाहिए। एक दिन भक्त-सम्मलेन हो, एक दिन Tribal Welfare Conference होगी, एक दिन सर्व-धर्म सम्मलेन होगा, एक दिन शास्त्रीय संगीत का आयोजन होगा…. ’ वे इस कार्यक्रम में मौजूद रहेंगे; उन्होंने समारोह की तारीख (संभावित) भी बतायी – मई ६ से १२। उनका आशीर्वाद पाकर शिलाँग लौट आया।
इसके बाद फरवरी के २७ – २८ तारीख को बेलुड़ मठ में परम पूजनीय प्रेसिडेंट भूतेशानन्द जी से मिला। उन्हें इस महोत्सव की खबर दी। वे १९३७ से कई वर्षों तक शिलाँग आश्रम के प्रमुख रहे थे। उन्होंने ढेर सारे आशीर्वाद दिया। उनके स्वास्थ्य के दृष्टि से शिलाँग की यात्रा करना उनके लिए कई कतई संभव नहीं था। फिर भी मैंने उनसे इस महोत्सव में आने का अनुरोध किया। विनोदप्रिय भूतेशानन्द जी ने कहा, ‘अरे, मुझे इन सेवकों ने पूरा बन्दी बना दिया है; अपनी इच्छा से मैं कहीं भी नहीं जा सकता। तुम इन सेवकों से बात करो…। ’
इसी दौरान पू. लोकेश्वरानन्द जी से भी भेंट की। उन्होंने तुरन्त इस महोत्सव में आने का अभिवचन दिया। पूज्य प्रमेयानान्द जी ने भी आने का आश्वासन दिया। कलकत्ते में और भी कुछ काम था। उन्हें समाप्त कर मैं शिलाँग पहुँच गया।
समारोह का आयोजन अब जोर से चलने लगा। धन भी थोड़ा-थोड़ा आ रहा था। मेघालय के मुख्य सचिव श्री दिलीप कुमार गंगोपाध्याय जी ने पूरा सहयोग देने का वचन दिया और उसे पूरा भी किया। North East Electric Power Co. (NEEPCO) के एक प्रधान अधिकारी पी. के. चटर्जी ने भी स्मारिका में एक बड़ा विज्ञापन देने के साथ और भी सहयोग – गाडी-ड्राइवर, गेस्ट हॉउस आदि – देने का वादा किया। दैनिक ‘Shillong Times’ के सम्पादक श्री मानस चौधरी जी ने भी कई प्रकार की सहायता करने का आश्वासन दिया; उनका जनसम्पर्क बहुत अच्छा था और इस क्षेत्र की खासी – जयन्तिया जन जातियों में इस समारोह का प्रचार करने हेतु उनका सहयोग मूल्यवान रहा।
स्मारिका के मुद्रण में विलम्ब हो रहा था और छपाई का स्तर भी अच्छा नहीं था। मुद्रण जब किसी प्रकार पूरा हुआ तो देखा कि उसमें गलतियों की भरमार है। अब कुछ सुधार करने का समय नहीं था। दुसरे दिन से ही समारोह शुरू होने जा रहा था। मई के ३ तारीख से ही कई ज्येष्ठ संन्यासियों का आगमन होने लगा। ५ मई को पू. गहनानन्द जी महाराज उनके समस्त सहयोगी संन्यासी ब्रह्मचारी वृन्द के साथ पधारे। ६ मई को १६२ भक्तों को उन्होंने मन्त्रदीक्षा प्रधान की। सुदूर क्षेत्रों से बड़ी संख्या में भक्तों का भी शुभगमन हो रहा था। कई कार्यक्रम भी एक साथ चल रहे थे – पूजा, भजन, व्याख्यान इत्यादि। दुसरे दिन सुबह भी करीब सौ लोगों की मन्त्रदीक्षा हुई और फिर शाम को मुख्य कार्यक्रम था – जिसमे वहाँ के राज्यपाल महोदय M. M. Jacob और गृहमंत्री राबर्ट लिंगडोह भी थे। आश्रम का सभागृह पूरा भरा था – करीब ४५० – ५०० तक श्रोतागण थे।
८ मई को आदिवासी जनकल्याण के विषय में एक कार्यशाला (workshop) विवेकानंद कल्चरल सेंटर में आयोजित किया गया। आदिवासी क्षेत्रों में कार्यरत रामकृष्ण मिशन के कई संन्यासी और कुछ अन्य ज्ञानी लोगों ने अपने विचार रखे और अच्छे खासे प्रश्नोत्तर भी हुए। दुःख की बात यह थी कि ऐसे उपयुक्त बोधपूर्ण कार्यशाला में श्रोताओं की अच्छी उपस्थिति नहीं थी।
९ मई को कई सन्माननीय अतिथीगण पहुँचे, अगले दिन के सर्वधर्म सम्मलेन के लिए। इन महानुभावों में से कई लोगों के निवास की व्यवस्था शासकीय अतिथि-गृह में की गई थी, जो कि मेघालय सरकार के प्रमुख सचिव दिलीप कुमार गंगोपाध्याय जी ने उपलब्ध करा दिया था।
शुक्रवार ९ मई को सुबह ९ बजे के आसपास एक भूकम्प हुआ। कुछ समय के लिए बिजली गुल हो गयी। कई आगंतुकों को बड़ा भय हुआ। किन्तु पंद्रह मिनिट के उपरांत सब नार्मल हुआ। इसी दिन विवेकानन्द कल्चरल सेंटर में भक्त-सम्मलेन का आयोजन हुआ था जिसमें कई वरिष्ठ संन्यासियों के सुंदर, मार्गदर्शक व्याख्यान हुए। इनमें गोकुलानन्द, जितात्मानन्द, अमरात्मानन्द, प्रमेयानान्द आदि थे। भक्ति संगीत भी बहुत अच्छा था। बड़ी संख्या में भक्तों ने इसका लाभ उठाया। इसी दिन श्रद्धेय लोकेश्वरानन्द जी का शुभगमन हुआ। गुवाहाटी से शिलाँग की यात्रा के दौरान गाड़ी खराब हो जाने के कारण उन्हें बड़ा ही कष्ट हुआ। फिर भी वे प्रसन्नवदन थे। अन्य कई माननीय भक्तगण भी उसी दिन पहुँचे।
शनिवार को सर्वधर्म-सम्मलेन हुआ। मेघालय के शासकीय सभागृह में इसका आयोजन हुआ था। यह कार्यक्रम अतीव बोधप्रद श्रवणीय तथा संस्मरणीय हुआ। विशेष उल्लेख करने योग्य थे बलबीर सिंह जी और स्वामी लोकेश्वरानन्द जी के व्याख्यान। रविवार ११ मई को युवा सम्मलेन हुआ। बड़े ही उत्साह के साथ और बड़ी संख्या में युवकों ने इसमें हिस्सा लिया। फिर दोपहर के बाद लीला -गीती। भक्तिसंगीत का सुंदर कार्यक्रम हुआ। इसके बाद के दो दिन प्रख्यात शास्त्रीय गायक उस्ताद रशीद खान का सुरीला गायन हुआ। इस प्रकार यह पूरे ७ दिन का (७ से १३ मई) कार्यक्रम अच्छी तरह सम्पूर्ण हुआ। इस के आयोजन में कई प्रकार की त्रुटियाँ रही, फिर भी श्रीरामकृष्ण देव की कृपा से मोटे तौर पर वह सफल हुआ।
स्वामी योगात्मानन्द वेदान्त सोसाइटी आफ प्रोविडेन्स के मंत्री एवं अध्यक्ष हैं।

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क्विन्टन हॉल से विवेकानन्द कल्चरल सेंटर की यात्रा

शिलाँग के मेरे संस्मरणों की तीसरी किस्त में मैं ‘विवेकानन्द कल्चरल सेंटर (VCC)’, जो उन दिनों ‘क्विन्टन हॉल’ के नाम से ही सर्वपरिचित था, उसके सम्बन्ध में कुछ रोचक, गौरतलब तथ्य लिखने जा रहा हूँ। प्रथम किस्त में ही मैंने सूचित किया था कि रामकृष्ण मिशन के मुख्यालय ने मुझे इस कार्य को प्राथमिकता देने का आदेश दिया था।
शिलाँग पहुँचने के चंद दिन बाद ही मैंने इस सम्बन्ध में उपलब्ध फाइलो को गौर से पढ़ाई शुरू कर दी थी। अन्य बहुत से जरुरी प्रशासनिक कार्य, व्याख्यान, यात्राएँ, अन्य शहरों से आगंतुक निवासी भक्त-गणों की व्यवस्था, दैनंदिन पत्रव्यवहार इसी में भी बहुत सा समय व्यतीत होता था। और फिर यहां की ठण्ड, लोगों की रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज़ इत्यादी से परिचित होने में थोड़ी प्रारम्भिक कठिनाई हो रही थी। इसीलिए कार्य धीमी गति से चल रहा था। श्रद्धेय रघुनाथानंद जी के साथ भी उस सम्बन्ध में परामर्श करता था। क्विन्टन हॉल की न्यायालयीन लड़ाई से जड़ित कई भक्त और कार्यकर्ता गण के साथ भी चर्चा चलती थी। इनमें प्रमुख रूप से उल्लेखनीय नाम हैं – एड्. बिष्णु बाबू दत्त, एड्. सनतकुमार राय, दिलीप सिंग, बासू सिंग और क्विन्टन हॉल का कार्यभार देखने वाले स्वामी समचित्तानन्द जी।
एक महत्वपूर्ण बात समझ में आई : शिलाँग के साधारण लोगों के मन में जो धारणा बन चुकी थी कि शिलाँग शहर के मध्य भाग में, कई दृष्टि से किसी मौके के इस क्विन्टन हॉल की जमीन तथा वास्तु का जनसेवा हेतु कुछ भी उपयोग नहींं किया जा रहा है। कानून के द्वारा रामकृष्ण मिशन ने उसे अपनी प्रॉपर्टी तो बना ली है, किन्तु इसका कोई उचित उपयोग नहींं हो रहा है।
वहाँ के जनसाधारण की इस धारणा में परिवर्तन लाना जरूरी था। यह संस्था उनकी सेवा के लिए, उनकी भलाई के लिए है इसका एहसास स्थानिय लोगों के बीच जगाना बड़ा जरूरी था। यह नियम सर्वथा ही उपयुक्त है; शिलाँग जैसे क्षेत्रों में (जहाँ स्थानिय आदिवासी खासी – जयंतिया – गारो समुदाय का रामकृष्ण मिशन के साथ भावनात्मक नाता कम था) तो यह अनिवार्य ही था। यदि जनसाधारण का विरोध हो, तो प्रशासकीय दृष्टि से क्विन्टन हॉल का हस्तांतरण पूरा हो तो भी सर्वथा स्थानिय लोग और उनके राजकीय नेता कई मुश्किलें खड़ी कर सकते थे।
इसीलिए वहाँ नि:शुल्क डिस्पेन्सरी, ग्रंथालय, कोचिंग क्लास, संगणक-प्रशिक्षण ये सारे कार्य प्रारम्भ करने का निर्णय लिया गया। आश्रम की संचालक मंडली (Managing Committee) में भी इस निर्णय की चर्चा हुई और सभी ने इस विषय में सहमति जताई। जब संचालक मंडली की रिपोर्ट रामकृष्ण मिशन के मुख्यालय में पहुंची तो वहाँ से इस निर्णय पर आपत्ति उठायी गयी। उनका कथन था कि वह स्थान केवल स्वामी विवेकानन्द जी के स्मारक के रूप में संरक्षित हो, वहाँ पर उपर्युक्त किसी प्रकार का कार्य नहींं चलाया जाये। मैंने इसपर अपना स्पष्टीकरण दिया, जो उन्हें उचित लगा और फिर मुख्यालय से सानंद सम्मति-पत्र भी भेजा गया।
ये सारे कार्य क्रमश: शुरू होने लगे। दूसरी ओर हस्तांतरण का मसला हल करने हेतु संचालक मंडली की एक उपसमिती बनायी गयी। इस सम्बन्ध में पुराना पत्र व्यवहार देखा तो एक आवेदन-पत्र मिला, जो एक साल पहले कलेक्टर को भेजा गया था, और जिसका कोई जवाब उनकी तरफ से प्राप्त नहींं हुआ था। यहाँ एक अजीब बात जानकार लोगों ने बताई, जिसे सुनकर मैं तो हैरान हो गया। कलेक्टर का दफ्तर यह नहींं चाहता था कि यह कार्य आगे बढ़े; इसलिए हमारे पत्र का उन्होंने उत्तर “दिया” किन्तु हमें “भेजा” नहींं ! सुनने में आया कि ऐसा हथकंडा प्राय: अपनाया जाता है, जिससे मामला आगे ही न बढ़े। अब क्या किया जाए?
उपसमिति के सदस्य बासु सिंग इस कार्यशैली से परिचित थे। जब हमने कहा कि क्यों न हम उस दफ्तर जाकर वहाँ के अधिकारी से हमारे पत्र का उत्तर माँगे, तो बासु सिंग समेत सभी ने कहा कि इससे मामला बिगड़ जाएगा। वहाँ वे अधिकारी केवल टालमटोल करेंगे, क्योंकि ये सारा वे जानबूझकर कर रहे हैं। मेघालय की सरकार रामकृष्ण मिशन से कानूनी लड़ाई तो हार गयी, परन्तु अब प्रशासनिक स्तर पर वह रोड़े पैदा कर इस प्रॉपर्टी का हस्तांतरण रोक सकती थी। जबतक हस्तांतरण नहींं होता, तब तक रामकृष्ण मिशन वहाँ न कोई निर्माण कार्य कर सकता था, न उसे किसी भी काम के लिये प्रशासन की अनुमति मिल सकती थी।
और फिर? सरकार की धारणा थी कि अनुपयोगी दिखाकर उस प्रॉपर्टी को रामकृष्ण मिशन से छीन सकेगी। मुझे यह सारा क्रमशः समझाया गया। सभी ने कहा कि इस सम्बन्ध में जल्दबाजी करना ठीक नहींं होगा; चतुराई से आगे बढ़ना होगा। १९९६ के अप्रैल महीने से लेकर मेरी दैनंदिनी (Diary) में कई बार इस का उल्लेख मिलता है।
यहाँ पाठकों को इस समूचे अध्याय की कुछ रोचक पृष्ठभूमि अति संक्षेप में बता दूँ। १९०१ के अप्रैल में स्वामी विवेकानन्द उस इलाके के चीफ कमिशनर सर हेनरी कॉटन के अतिथि के रूप में शिलाँग आए थे। उनका स्वास्थ्य तब ठीक नहींं था; ज्वर, खांसी, अस्थमा इन का प्रकोप बढ़ गया था। इसलिए वे सार्वजनिक व्याख्यान देना टाल रहे थे। परन्तु वहाँ के सारे भक्त और प्रतिष्ठित नागरिकों के अनुरोध पर शनिवार दि. २७ अप्रैल १९०१ को इसी क्विन्टन हॉल में उन्होंने व्याख्यान दिया। स्वयं सर हेनरी कॉटन सभाध्यक्ष के रूप में उपस्थित थे। यही स्वामीजी के जीवन का अन्तिम सार्वजनिक व्याख्यान था और क्विन्टन हॉल का शुभारम्भ भी।
इसके कई वर्षों बाद यह हॉल आग में जल जाने के कारण पुननिर्मित किया गया। फिर कई दशकों के बाद वह अवैध तरीके से सिंघानिया टॉकीज ने अपने कब्जे में ले लिया। वह फिर सिंघानिया सिनेमा हॉल बन गया। क्विन्टन मेमोरियल ट्रस्ट ने लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद सिनेमा हॉल को फिर अपने कब्जे में ले ही लिया था। जब क्विन्टन हॉल ट्रस्ट फिर उसे अपने हाथों में ले ही रहा था कि मेघालय की सरकार ने एक प्रशासनिक अधिसूचना (administrative notification) जारी करते हुए इसे अपने कब्जे में ले लिया।
इस अवैधानिक कब्जे के खिलाफ क्विन्टन मेमोरियल ट्रस्ट ने कोर्ट में मामला दाखिल किया। ट्रस्ट ने यह प्रॉपर्टी रामकृष्ण मिशन को दान करने का अपना मकसद भी अपने आवेदन में अंतर्भूत किया। न्यायालय ने ट्रस्ट के पक्ष में निर्णय दिया; मेघालय सरकार ने इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, किन्तु वहाँ भी उसकी हार हुई। इस समस्त मामले का विस्तृत विवरण देना इस लेख का उद्देश नहींं है, इच्छुक पाठकगण ‘Quinton Memorial Hall vs Special Commissioner, East Khasi Hills’ को गूगल खोज कर पढ़ सकते हैं।
ये समूची जानकारी यहाँ केवल इसलिए दे रहा हूँ ताकि पाठकों को यह समझ में आये कि मेघालय की सरकार को इस प्रॉपर्टी से हाथ धोना बिल्कुल ही रास नहींं आया था और अब कुछ प्रशासनिक हथकंडों का और कुछ अनैतिकता का आश्रय लेकर वह रामकृष्ण मिशन के कार्य में बाधां पहुँचाने पर उतारू हो गयी थी। इस में सरकार का कुछ विशेष लाभ नहींं था, केवल उसकी नजर जिस प्रॉपर्टी पर थी, वह उसके न मिलने का गुस्से के रूप में प्रकट हो रहा था।
सरकार का कहना था कि हस्तांतरण (Mutation) के लिए हमे उनसे अनुमति प्राप्त करनी होगी। हमारा पक्ष इसके खिलाफ था। क्यों ? इसकी चर्चा इसी लेख में बाद में करूँगा। यहाँ हमलोग सोच रहे थे कि हमारे पत्र का DC के दफ्तर ने जो उत्तर दिया होगा (जो हमें प्राप्त न हो, इसकी व्यवस्था की गयी थी) उसे किस प्रकार प्राप्त किया जाय। कुछ खोज-बीन के बाद बासू सिंग को पता चला कि उनका एक परिचित DC के दफ्तर में नौकरी करता है! उसकी सहायता से कोशिश की जाए। और हाँ – बासू सिंग सफल हो गए। अपेक्षा के अनुरूप इस उत्तर में मांग की थी कि हमें मेघालय शासन की अनुमति के लिये आवेदन करना होगा, यही हस्तांतरण का नियम है।
मेघालय प्रशासन के कुपित होने का और भी एक कारण था। जब यह प्रॉपर्टी रामकृष्ण मिशन ने दान के रूप में प्राप्त की थी तो उसका पंजीकरण (Registration) कराना होता है। साधारण तौर पर यह शिलाँग के पंजीकरण दफ्तर में ही कराया जाता है। किन्तु मेघालय की सरकार उसे यदि नकार दें तो ? इस संभावना को देखते हुए रामकृष्ण मिशन के कानूनी विशेषज्ञों ने इसका एक पर्याय संविधान से खोज निकाला। वह यह था कि पंजीकरण जहाँ प्रॉपर्टी है वहाँ या भारत के चार महानगर – दिल्ली – मुम्बई – चेन्नई – कलकत्ता – इनमें से किसी भी एक स्थान पर किया जा सकता है। मेघालय प्रशासन का रुख देखते हुए रामकृष्ण मिशन कोई ख़तरा मोल लेना नहींं चाहती थी; इसीलिए कानून की इस सहूलियत को आधार बनाकर प्रॉपर्टी का पंजीकरण, बजाय शिलॉंग के कलकत्ता में किया गया।
इससे प्रशासन कितना तिलमिला गया था इसकी कुछ झलक मुझे बाद में D.C. और रेव्हेन्यू सेक्रेटरी जैसे अधिकारियों से बात करते समय मिली।
जो भी हो, D.C. के पत्र का उत्तर देते हुए हमारे विधिज्ञ सनत कुमार राय की सलाह के अनुसार हमने उत्तर दिया कि रामकृष्ण मिशन सरकार से कतई अनुमति नहींं माँगेगी; क्योंकि इसका तात्पर्य होगा कि सरकार का अनुमती न देने का अधिकार भी हम स्वीकार करते हैं।
यह पत्र लेकर मैं D.C. के दफ्तर मैं स्वयं गया था। D.C. साहब ने हमारा उत्तर पढ़ने के बाद कुछ वक्त मांगा और फिर चंद दिनों में उनका उत्तर मिला कि हमारा पत्र यथोचित निर्णय और कार्यवाही के लिए रेह्वेनयू सेक्रेटरी के पास भेज दिया गया है।
हमारे अन्य एक विधिन, बिष्णु बाबू दत्त, जिनका क्विंटन मेमोरियल ट्रस्ट के सरकार-विरुद्ध मामला जीतने में विशेष योगदान रहा, उन्होंने D.C. के इस प्रकार के कृति की सम्भावना पहले से ही जतायी थी, और कहा था कि यह हमारे लिए सरकार के खिलाफ मामला करने का सुनहरा मौक़ा होगा। जो निर्णय D.C. स्वयं लेने का अधिकार रखते हैं, उसे वरिष्ठ अधिकारी के पास भेजना गलत है, और फिर कोर्ट में ही हमें प्रापर्टी के हस्तांतरण का आदेश मिल सकेगा।
इसी बीच एक खुशखबर आयी कि रामकृष्ण मिशन के भक्त श्री दिलीप कुमार गंगोपाध्याय मेघालय सरकार के प्रधान सचिव (Chief Secretary) के रूप में नियुक्त हुए हैं। प्रधान सचिव होने के कारण प्रशासन में उनका अधिकार तो था ही; साथ ही साथ अपने मधुर स्वार्थ-रहित स्वभाव और चुस्त, कर्तव्यदक्ष, अनुशासन-प्रिय कार्यशैली के कारण वे सभी का सम्मान प्राप्त कर चुके थे। १९९६ के अक्टूबर में दुर्गा पूजा के समय वे आश्रम आये थे, तभी उनके साथ पहली मुलाक़ात हुई थी। फिर कभी किसी काम से या कभी एक भक्त के रूप में उनके साथ मिलना जुलना होता था, कभी उनके दफ्तर में, कभी आश्रम में, कभी बाहर किसी अन्य कार्यक्रम में और एक-आध बार उनके निवास स्थान पर भी। उनके साथ मेरा संपर्क उनकी सेवानिवृत्ति के बाद भी बना रहा, मेरे अमरीका आने के बाद भी, जब वे कोलकत्ता में रहते थे, तब भी उनके निवास स्थान पर उनसे मुलाक़ात हुई थी।
स्वामी समचित्तानंद जी , जो उन दिनों क्विंटन हॉल का कार्यभार संभालते थे, वे नवम्बर में उनसे मिलने सचिवालय गए और क्विन्टन हॉल के हस्तांतरण की समस्याओं से उन्हें अवगत कराया। उन्होंने आश्वासन दिया कि वे इसकी पूरी जानकारी लेकर उचित कार्यवाही करेंगे। हस्तांतरण शीघ्र ही हो जाएगा ऐसा भी उन्होंने कहा। इसके दो-तीन दिन बाद मेरी डायरी में लिखा है कि उनसे मेरी फोनपर बातचीत हुई और उन्होंने क्विन्टन हॉल के काम के साथ आश्रम के अन्यान्य कार्यों में भी पूरा सहयोग देने का वादा किया – एक भक्त के तौर पर और प्रशासकीय अधिकारी के रूप में भी। मुझे यह कहने में ज़रा भी संकोच नहींं कि यह वादा उन्होंने पूर्णरूप से निभाया।
इस के बाद मैं व्याख्यानों के दौरों में और आश्रम के चिकित्सालय के विस्तार के कार्य में व्यस्त रहा। गंगोपाध्याय महोदय को भी कई बार दिल्ली जाना पड़ा। इसके बाद १९९७ के प्रारम्भ से ही मैं और हमारे साधु-कर्मचारी-स्वयंसेवी आश्रम के षष्ट्यब्दि-पूर्ति (Diamond Jubilee) के आयोजन में व्यस्त हो गए। इस विशेष समारोह का ब्यौरा आगे के किसी किस्त में सम्भव हो तो लिखूंगा।
जून १९९७ के प्रारम्भ में D.C. का पत्र, जिसमे उन्होंने इस मामले को रेह्वेनयू सचिव के पास निर्णय के लिए अग्रेषित किया था, मैंने प्रधान-सचिव के कार्यालय में भेजकर इस पर निर्णय चर्चा के लिए उनसे समय (appointment) मांगी थी। वहाँ से फोन आया कि गुरूवार, ५ जून १९९७ को ४ बजे मुलाकात का समय ठीक किया है, जिसमे प्रधान सचिव, रेह्वेनयू सचिव और कुछ कार्यालयीन कर्मचारी भी रहेंगे।
यह समाचार मैंने इस कार्य से जड़ित हमारे दोनों विधिज्ञों को दिया और उनसे अनुरोध किया कि वे दोनो, या कम से कम एक मेरे साथ चले तो शायद अधिक अच्छा होगा। दोनों ने कहा कि, ‘नहींं, इससे लाभ नहींं, नुक्सान ही होगा क्योंकि ऐसे अधिकारी जब वकीलों को देखते हैं तो उन्हें संदेह होता है कि कहीं ये वकील हमें अदालत में न फंसा दे’। इसीलिए सनत कुमार राय ने हमें अच्छी तरह सिखाकर केवल मुझे ही वहाँ जाने के लिए कहा। उन्होंने यह भी परामर्श दिया कि ‘यदि वे लोग कहेंगे कि हस्तांतरण के लिए सरकार की अनुमति कानून द्वारा आवश्यक है, तो उनसे पूछना कि क़ानून की किस धारा के किस बिंदू में यह लिखा है, इसका संदर्भ उनके पास है क्या?’
बस, निर्धारित समय पर मैं वहाँ पहुँच गया। प्रमुख सचिव गंगोपाध्याय जी ने मुझे रेह्वेनयू सेक्रेटरी (पेरियट उनका नाम) से मिला दिया और कहा कि वे मसले को जल्द सुलझाने की कोशिश करें। फिर मैं रेह्वेनयू सचिव के कक्ष में उनके साथ ही गया। हमारे वार्तालाप का सारांश यहां दे रहा हूँ।
वे : पहला सवाल है कि आपने पंजीकरण शिलांग में न करवाकर कलकत्ते में क्यों किया?
मैं : रामकृष्ण मिशन का मुख्यालय कलकत्ते के पास है, हमारे पंजीकरण पर स्वाक्षरी करने वाले भी वहीं आसपास रहते हैं, और क़ानून इसकी अनुमति देता है।
वे : हाँ, पर कानून की यह बात अपवादात्मक स्थिति के लिए है।
मैं : ऐसा तो कानून में लिखा नहींं है।
वे : अच्छा तो छोड़िये उस बात को। आपको प्रशासन की अनुमति लेना एक कानूनी आवश्यकता है, आपको एक छोटा सा फॉर्म हस्ताक्षर करना है।
मैं : क्या आप मुझे उस कानून का संदर्भ और उद्धरण दे सकेंगे ? हम लोग भी कानून मानकर ही चलना चाहते हैं।
वे : हाँ, ऐसा कानून तो है; मुझे थोड़ा समय दो; कल शाम तक मैं उसे आपको दे सकुँगा।
उनको धन्यवाद देकर मैं चला आया और मैंने सनत बाबू को सारी बात बता दि। उन्होंने कहा कि देखे वे क्या संदर्भ देते हैं – जहाँ तक उनकी जानकारी है, ऐसा कोई कानून नहींं है। बस दूसरे ही दिन पेरियट साहब ने वह ‘कानून’ का संदर्भ और उद्धरण एक कागज़ पर दे दिया।
जब मैंने वह सनत बाबू को दे दिया, तो गौर से देखने के बाद उन्होंने हँसते हुए कहा कि ये कोई ‘कानून’ नहींं है, ये उनके प्रशासनिक नियमों में से है; अदालत में उसका कोई मूल्य नहींं। फिर उन्होंने समझाया ‘कानून’ और प्रशासनिक ‘नियम’ इन में क्या भेद है। कानून वह है जो विधि मंडल (Legislative Assembly) में सम्मत किया जाता है, फिर उसपर राज्यपाल (Governor) की स्वाक्षरी और मुहर लग जाती है और उसे सरकारी पत्रिका (Gazzette) में प्रकाशित किया जाता है, तब कहीं उसे कानून की संज्ञा प्राप्त होती है। प्रशासनिक नियम, प्रशासन का अन्दरुनी मामला है, उससे जनता का संबंध नहींं होता, जनता के ज्ञान का वह साधन नहींं है (Not instrument of public information)। ‘वाह! कैसा अच्छा समझाया आपने’ मैंने उनसे कहा। फिर उन्होंने पत्र में और एक महत्त्वपूर्ण कारण लिखने को कहा : ‘ये प्रॉपर्टी हमें अदालत के उस निर्णय से मिली है, जिस मामले में मेघालय की सरकार भी एक पक्षकार (party) थी। तो अब यदि हमें उसी सरकार से अनुमति माँगनी होगी, जो इस मामले में हार गयी है, तो ये न्यायालय की अवमानन होगी। फिर सरकार से अनुमति माँगने का तात्पर्य यह हुआ कि सरकार का अनुमति न देने के अधिकार को भी हम स्वीकार करते हैं। हम यह नहींं चाहते हैं। अब सरकार का यह दायित्व बनता है कि वह हस्तांतरण को अविलम्ब कर दे।’
उनके कथनानुसार मैंने रेह्वेनयू सचिव के नाम से पत्र बनाया, जिसकी प्रतिलिपि प्रधान सचिव को भी दी। जब मैं स्वयं इस पत्र को लेकर पेरियट जी से मिला (वे विधान IAS और LLB थे) तो पत्र पढ़कर वे बिलकुल चौंक गये। उनके पास कोई जवाब नहींं था।
इसके थोड़े दिन बाद ही हस्तांतरण की प्रक्रिया पूर्ण हो गयी। क्विन्टन हॉल के पुनर्निर्माण का पथ प्रशस्त हो गया।

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शिलाँग मे मेरा प्रथम वार्षिकोत्सव

शिलाँग के संस्मरणों की यह एक किस्त पेश कर रहा हूँ। प्रथम किस्त में केवल वहाँ के पेहले दिन की स्मृतियाँ शब्दबद्ध की थी; इससे ऐसी आशँका न हो कि मैं वहाँ के प्रत्येक दिन की स्मृति एक एक लेख में प्रस्तुत करने जा रहा हू। पाठकों पर इतना अत्याचार करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। इस किस्त में प्रारम्भ के दस दिन की कुछ विशेष स्मृतियों को लिपिबद्ध करने का प्रयास कर रहा हूँ।
जीवन का हर अनुभव कुछ शिक्षा लेकर हमारे पास आता है। मेरे जैसा कोई साधारण व्यक्ति भी पीछे मुड्कर बीते दिनों पर नज़र डालता है तो देखता है कि छोटे छोटे प्रसंग भी बड़ी सीख देने की क्षमता रखते हैं। प्रसंग विस्मृत होने के बावजूद भी उस्से प्राप्त शिक्षा भीतर बनी रहती है।दूसरे दिन से श्रद्धेय रघुनाथानन्द जी और आश्रम के अन्यान्य संन्यासी-ब्रह्मचारी मुझे वहाँ का काम समझाने में लग गये। कई कार्य मेरे लिए बिल्कुल नये थे। नागपुर में रहते समय हिसाब-किताब रखना मैंने कुछ हद तक सीख लिया था, किन्तु वहाँ कोई सरकारी अनुदान नहीँ मिलता था। ऐसे अनुदान का प्रस्ताव ठीक शासकीय पद्धति के अनुरूप बनाना होता था। उसका जमा-खर्च इत्यादि भी, जो सारे सरकारी नियम थे, उसी ढाँचे मे डालने पड़ते हैं। मेरे लिये यह कुछ अजीब सा मामला था, थोडा हास्यपूर्ण भी। उदाहरण के तौर पर – वहाँ साफ सफाई का काम करने वालें दो कर्मचारियों को “लाइब्रेरियन” के नाम से तनखा दिखानी होती थी। इसके पीछे क्या कारण हैं मुझे यथावकाश समझाए गए। कल औपचारिक रूप से कार्यभार ग्रहण करना था।
आश्रम के कई भक्त, संचालन-समिति (Managing Committee) के कुछ सदस्य, कर्मी और स्वयंसेवक मिलने आ रहे थे। कई फ़ोन भी चल रहे थे। यहाँ के भोजन के विशिष्ट गंध से भी परिचित होना मेरे लिए सहज नहीं था। विशेषकर ‘शूटकी’ पकाने की गंध। यद्यपि आश्रम में ‘शूटकी’ शायद ही कभी बनती थी, चारों तरफ से वह गंध (जो मेरे लिए अति दुर्गन्ध थी, अन्य लोगों के लिए वह कोई परेशानी नहीं थी; कुछ ऐसे भी थे कि उस गंध से वे बडे खुश हो जाते थे, मुँह में पानी आ जाता था। इससे यह सिद्ध होता है, कि कोई भी गंध, या कोई भी इन्द्रियानुभव अपने आप में अच्छा- बुरा नहीं होता; हर व्यक्ति की रुचि भिन्न होती है)। नाक को भर देती थी, और फिर भोजन करना एक प्रयास बन जाता था। शिलाँग में रहते रहते ऐसे गंधों से मेरा नासिकेंद्रिय परिचित हो गया। मैं माँस, मछ्ली इत्यादि कुछ नहीं खाता था – मुख से; किन्तु नासिकाद्वार से वह मेरे भीतर प्रविष्ट हो रहा था। ‘घ्राणेन अर्धभोजनम्‌’ यह उक्ति कितनी सार्थक है !
दूसरे दिन, अर्थात गुरुवार, २८ मार्च १९९६ को श्री रामकृष्ण का दर्शन कर मैं और रघुनाथानन्द जी दफ्तर में आए। अन्य साधु – छात्रावास के छात्र भी उपस्थित थे। मैने अनुमति पत्र (Letter of Acceptance) पर हस्ताक्षर किए। अब इस औपचारिक कार्यक्रम से इस आश्रम के सेक्रेटरी का भार रघुनाथानंद जी से मुझपर आ गया। हंसते हुए उन्होंने कहा, “अब बाघ की पूँछ तुम्हारे हाथ देकर मैं मुक्त हो गया।” मुझे इस कथन का तात्पर्य समझ में नहीं आया। तब उन्होंने केरल देश में प्रचलित कहानी सुनायीः
“एक नंबुद्री ब्राह्मण (ये लोग अपनी जिज्ञासु वृत्ति, चतुराई, तीव्र बुद्धि के लिए जाने जाते हैं) जंगल की एक पगडंड़ी से गुजर रहा था तो उसने देखा कि किसी शिकारी ने लगाये हुए पिंजरे में एक बड़ा बाघ फँस गया हैै। कौतूहलवश वहाँ जाकर उसने बाघ को एक टहनी से नोचा। गुस्से में आकर बाघ ने टहनी को खींचा, नंबुद्री ने भी खींचा दोनों की खींचा-तानी मे वह टहनी की अटकनी लगी और पिंजड़ा खुल गया। बाघ बाहर निकल ही रहा था कि बुद्धिमान नंबुद्री ने पिंजडे के बाहर निकली हुई बाघ की पूँछ कसकर पकड़ लिया। अब बाघ बाहर निकल नहीं सकता था। पर कितनी देर वह सारी शक्ति लगाकर पूँछ को पकड़ कर रख सकता था? कुछ थोड़े ही समय में वह थक गया; किन्तु पूँछ छोड़े तो बाघ बाहर निकलेगा और फिर…?
जान की बाजी लगाकर वह पूँछ पकड़े हुए वह बै्ठा था तब उसने पगडंड़ी से गुजरते हुए एक व्यक्ति को देखा और उसे पुकार कर कहने लगा, ‘यह बाघ मेरी पकड़ में आ गया है; बस अब इसे राजा के पास ले जाऊँगा और बहुत बड़ा इनाम पाऊँगा। तुम मेरी थोड़ी मदद करो तो तुम्हें भी कुछ हिस्सा मिलेगा; एक मिनट यह पूँछ पकड़ो, मैं अभी पेशाब करके आता हूँ। ’ उस मूर्ख व्यक्ति ने पूँछ पकड़ते ही नंबुद्री जी तो तेजी से भाग निकले। ” इतना कहकर रघुनाथानंद जी और हम सब हँसने लगे। उन्होँने मुझे बाघ की पूँछ पकड़ा दी है, इसका प्रमाण चंद दिनों में ही मिला। वह प्रसंग बाद में इसी किस्त के अंतर्गत बताऊँगा।
श्रद्धेय रघुनाथानंद जी ने फिर एक सुन्दर सा कोट निकालकर मुझे दिया। ‘मेरे पूर्ववर्ती सचिव देवदेवानंद जी ने दस सालों तक इस कोट का इस्तेमाल किया और फिर मुझे दिया; मैंने भी पिछले दस साल इसका उपयोग किया और अब तुम्हें दे रहा हूँ। मेरी इच्छा है कि तुम भी दस या अधिक साल उसका उपयोग कर फिर अपने उत्तराधिकारी को दे दोगे। ’
उनकी इस इच्छा को मैं पूर्ण नहीं कर सका। मात्र चार सालों के तुरन्त बाद ही मेरा शिलाँग से तबादला हुआ और मेरे उत्तराधिकारी श्रद्धेय स्वामी जगदात्मानंद जी को यह कोट (और बाघ की पूँछ भी) सौंपकर मैं शिलाँग से निकल पड़ा। जगदात्मानंद जी का कद उस कोट की लम्बाई से अधिक ऊँचा था, बाहें भी लम्बी थीं। उस कोट का उपयोग उन्होंने शायद ही कभी किया हो। उनके उत्तराधिकारी श्रद्धेय ब्रह्मदेवानंद जी को उस कोट की कोई जानकारी भी नहीं थी।
शुक्रवार, २९ मार्च १९९६, ठीक सढे नौ बजे संचालन समिती की मीटिंग शुरु हुई। श्री आर. टिं. रिम्बाई, मेघालय के जयंतिया जनजाति के एक प्रमुख व्यक्ति, इस समिती के सम्मानीय अध्यक्ष थे। आने वाले दो-ढाई सालों में उनके साथ मेरा धनिष्ठ संपर्क रहा। मीटिंग में उपस्थित सभी सदस्यों से वार्तालाप हुआ। इन सभी का आंतरिक सहयोग आश्रम की गतिविधियाँ सुचारु रूप से चलाने हेतु आवश्यक था। विगत दो महीनों का लेखा-जोखा और मीटिंग का इतिवृत्त (minutes) सारा रामकृष्ण मिशन के मुख्यालय को भेज दिया गया। श्रद्धेय रघुनाथानंद जी को बिदाई देने का (send-off) बड़ा समारोह करना होगा इसपर भी सभी ने उत्साहपूर्वक सहमति दर्शायी।
रामकृष्ण संघ के परमाध्यक्ष पूज्य भूतेशानन्द जी, उपाध्यक्ष रंगतानन्द जी, गहनानन्द जी इन्हें पत्र लिख्कर आशीर्वाद याचना की।
इसके दूसरे दिन रामकृष्ण मिशन चेरापुंजी (जिसे अब सोरा नाम से जाना जाता है) जाना था। बचपन से ही चेरापुंजी का नाम सुनता आया था – जहाँ दुनिया की सर्वाधिक बारिश होती है। जीप गाड़ी से सुबह निकले; शिलाँग में तो सुनहरी धूप निकल आयी थी। चेरापुँजी तक का लगभग ४० कि. मि. का पहाड़ी रास्ता पूरा करने को पूरा एक घण्टा लगा। शिलाँग से १५ कि. मि. के बाद ही दृश्य बदल जया। बायी और गहरी घाटी से घने बादल भी हमारे साथ मानो चेरापुँजी चल रहे थे। ‘देखो, अब आप की समझ में आएगा कि चेरा में इतनी बारिश क्यों होती है। ये सारे बादल जल से पूर्ण है। इस घाटी से गुजरते हुए वे चेरापुँजी के ऊँचे पहाड़ से टकरा जाते हैं। इतना सारा पानी का वजन लेकर ये बादल पहाड़ चढ़ नहीं पाते तो सारा पानी बारिश के रूप में वहीं फ़ेंक देते हैं’- हमारे एक सहयात्री, जो कि इस प्रदेश में कई साल रह चुके थे, बना रहे थे। उनका यह कथन मेट्रॉलाजी की दृष्टि में कितना वैज्ञानिक था, ये बताना मेरी औकात के बाहर होने पर भी बड़ा ही रोचक प्रतीत हुआ। आनेवाले कई वर्षों में उनका यह कथन मैंने कई बार नवागतों के सामने (कुछ अधिक मिर्च-मसाला डालकर) दोहराया है।
चेरापुँजी के रास्ते पर विभिन्न ग्रामों में रामकृष्ण मिशन, चेरापुँजी द्वारा संचालित कई स्कूल दिखाई पड़े। उन स्कूलों के बच्चे हमारी जीप को (जिसपर रामकृष्ण मिशन, शिलाँग लिखा था) देखते ही ‘खुब्लेई महाराज’ का घोष लगाकर अभिवादन करते थे। हम लोग भी गाड़ी जरा धीमी कर उन्हें ‘खुबलेई शिबून’ कहकर आगे बढते थे। रास्ते में दोनो तरफ कहीं कोयले के और कहीं बालू के ढेर लगे थे। कई ट्रक उन्हें उठाकर विक्रय के लिए अन्य स्थानों पर ले जाते थे। इस सम्बन्ध में पूज्य भूतेशानन्द जी महाराज एक विनोदपूर्ण किन्तु शिक्षाप्रद घटना सुनाया करते थे। उसे बाद के किस्त में लिखूँगा।
चेरापुँजी आश्रम के प्रमुख स्वामी इष्टानन्द जी मेरे साथ ही बेलुड़ मठ स्थित ‘प्रोबेशनर्स ट्रेनिन्ग सेन्टर’ में दो साल थे और हमारी अच्छा मित्रता थी और अभी भी हमारी आपसी मुलाकात और वार्तालाप आज भी जारी है। मेरे अमेरिका आने के कुछ महीने पहले वे भी यहाँ पहुंच गए थे और इन दिनों सेण्ट पीटर्सबर्ग, फ्लोरिडा में स्थित रामकृष्ण मिशन के वेदान्त सेंटर के प्रमुख बने। एक कार्यकुशल संघटक और अच्छे वक्ता के रूप में इस देश में भी सुख्यात हैं। हम दोनों एक-दूसरे से मिलकर बड़े हर्षित हुए। वहाँ का मंदिर, स्कूल, छात्रावास इत्यादि देखकर बहुत आनन्द हुआ। पिछले 20 सालों से से इस आश्रम के स्फूर्तिशाली इतिहास को मैंने गौर से कई बार पड़ा था, और मराठी मासिक पत्रिका ‘जीवन- विकास’ (जिसका प्रकाशन रामकृष्ण मठ, नागपुर से होता था) मैंने उसके विषय में प्रबन्ध भी लिखे थे। वहाँ अब मैं जब प्रत्यक्ष रूप से सब देख रहा था तो कितनेही पवित्र, ‘त्याग और सेवा’ इस स्वामी विवेकानन्द जी के मन्त्र से प्लावित भावतरंग मन में उछलने लगे थे। अच्छा खासा भोजन हुआ। वहाँ की संचालन समिती के एक सदस्य के रूप में मुझे सम्मिलित किया गया। उन की मीटिंग भी सम्पन्न हुई और शाम तक हम लोग शिलाँग आश्रम आ पहुँचा। चेरापुँजी के संस्मरणों को किसी अगली किस्त में लिखूँगा।
इसी बीच मुझे व्याख्यानों के लिए चंडीगढ़ जाना था। शिलाँग में तबादला होने के कई दिन पहले ही यह कार्यक्रम निश्चित हुआ था। ४ अप्रैल को शिलाँग से रवाना हुआ और वहाँ का व्याख्यान इत्यादि कार्यक्रम समाप्त कर १० तारीख को सुबह ७ बजे शिलाँग लौटा तो एक बुरी खबर मेरा इन्तजार कर रही थी।
वहाँ विवेकानन्द कल्चरल सेंटर (क्विण्टन हॉल) में दो लोग निवास करते थे – एक भक्त – स्वयंसेवी और एक वेतन कर्मी (उनके नाम यहाँ नहीं दे रहा हूँ)। इनमें जो वेतन कर्मी था वह मानसिक-पीड़ा से त्रस्त था और स्वयं वो भक्त से सख्त नफरत करता था। पूर्व रात्रि को उसने उस भक्त के मस्तक पर हँसिया से वार किया। वह लहुलहान अवस्था में भागकर जान बचाने में किसी प्रकार सफल हो गया। पुलिस ने उसे अस्पताल में भर्ती किया और हमलावर कर्मी को जानलेवा हमला (Attempt to murder) करने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया।
क्या करूँ मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। ऐसी परिस्थिति से सम्मुखी होने का प्रसंग मेरे जीवन में पहले कभी भी नहीं आया था। आश्रम के मेरे सहकारी साधुओं के लिए भी ऐसी जटिल समस्या का कोई अनुभव नहीं था। एक अच्छा समाचार इतना था कि उस भक्त की हालत ठीक हो रही थी, जीवन को खतरा नहीं था, पर पूर्ण रूप से स्वस्थ होने में अभी काफी समय लगेगा। उस प्रसंग के कारण पुलिस स्टेशन में और वकील लोगों के पास कई बार जाना हुआ। फिर अब विवेकानन्द कल्चरल सेंटर में अब काम कौन करेगा यह भी एक बड़ी समस्या थी। यह हादसा क्यों हुआ और इसमें दोष किसका है इस बारे में भी साधुओं में मतभेद था।
कुछ महिनें के गुजरने के बाद यह समस्या समाप्त तो हुई किन्तु उससे काफी शिक्षा भी मिली। यहाँ इस घटना से सम्बन्धित एक बात लिखना चहता हूँ। जिनसे मैंने कार्यभार स्वीकार किया था वे श्रद्धेय रघुनाथानन्द जी इस सम शिलाँग में ही थे। उनसे जब मैंने इस बारे में सलाह पूछी तो उन्होंने हँसते-हँसते कहा, “हाँ, अब बाघ की पूँछ तुम्हें सौंप दी है; मैं फिर से पकडने की मूर्खता नहीं करूँगा। ”
और उसी दिन आश्रम का वार्षिकोत्सव शुरु होने जा रहा था। किन्तु आज भजन- गान होने वाला था, किन्तु गायक-वादकों का दल – जो दिग्बोई से आनेवाला था- वह नहीं आ पाया – उन लोगों में जो मुख्य थे, उन्हें चुनाव के कारण छुट्टी नहीं मिल पायी। यहीँ आश्रम से सम्बन्धित कुछ गायकों ने भजन किया।
उत्सव में सहभागी होने हेतु काशी से स्वामी शुद्धव्रतानन्द जी और तपनानन्द जी पधारे थे – दोनो रघुनाथानन्द जी के घनिष्ट मित्र थे; वे तीनो १९६० के दशक में शिलाँग आश्रम में लगभग एक ही साथ ब्रह्मचारी के रूप में प्रविष्ठ हुए थे।
शुक्रवार को दोपहर ३.३० को उत्सव का दूसरा कार्यक्रम हुआ। आश्रम के ही एक स्वामीजी ने कुछ और गायक-वादकों के साथ ‘गीति-आलेख्य’ (गीतों के माध्यम से श्री रामकृष्ण के चरित्र का आख्यान) सादर किया। फिर श्रीमती दीपाली चक्रवर्ती, शुद्धव्रतानन्द जी, तपनानन्द जी के सारगर्भित व्याख्यान हुए।
अच्छा भक्त- समागम हुआ था। उत्सव और दो दिन तक चला। बड़े अच्छे व्याख्यान और भजनादि हुए। एक बड़ा कार्यक्रम विवेकानन्द कल्चरल सेंटर में भी हुआ। श्रद्धेय रघुनाथानन्द जी को ‘विदाई पार्टी’ (send-off) भी इन्हीं दिनो दी गयी। शिलाँग आश्रम में मेरा प्रथम व्याख्यान भी हुआ। बहुत सारे भक्तों से वार्तालाप हुआ। प्रायः सभी भक्त मेरे साथ बांगला में और आपस में सिल्हेटी भाषा मे बात करते थे, जिसे समझने में मुझे काफी कठिनाई होती थी।
अगला दिन रविवार, १४ अप्रैल बांगला सालगिराह ‘नोबो बोर्षो’। प्रातः काल से ही भक्तों की बड़ी भीड़ लगी थी। उन सब के साथ मिलना हुआ, परिचय हुआ। सुबह- शाम विवेकानन्द कल्चरल सेंटर में उत्सव का अंतिम दिन मनाया गया। एक विख्यात गायक का सुंदर गायन सुबह हुआ और शाम को कई स्वामीजी लोगों के सुंदर व्याख्यान!
शिलाँग पहुँचकर मुझे केवल १२ दिन हुए थे, (उनमे से ६ दिन चंडीगढ़ की यात्रा मे खर्च हुए) किन्तु लग रहा था कि मैं यहाँ कई बरसों से हूँ।

स्वामी योगात्मानन्द वेदान्त सोसाइटी आफ प्रोविडेन्स के मंत्री एवं अध्यक्ष हैं। ये 1976 में रामकृष्ण मिशन में शामिल हुए और 1986 में संन्यास की दीक्षा ली। 20 वर्ष तक रामकृष्ण मिशन नागपुर, में कार्य करने के उपरांत रामकृष्ण मिशन शिलांग मेघालय, के अध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहे। तदुपरांत आप सन् 2001के ग्रीष्म ऋतु में अमेरिका में वेदांत सोसायटी आफ प्रोविडेन्स के मंत्री के पद पर आए।


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शिलाँग में मेरा प्रथम दिन

स्वामी योगात्मानन्द, वेदान्त सोसायटी आफ प्रोविडेन्स, अमेरिका

स्वामी योगात्मानन्द वेदान्त सोसाइटी आफ प्रोविडेन्स के मंत्री एवं अध्यक्ष हैं। ये 1976 में रामकृष्ण मिशन में शामिल हुए और 1986 में संन्यास की दीक्षा ली। 20 वर्ष तक रामकृष्ण मिशन नागपुर, में कार्य करने के उपरांत रामकृष्ण मिशन शिलांग मेघालय, के अध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहे। तदुपरांत आप सन् 2001के ग्रीष्म ऋतु में अमेरिका में वेदांत सोसायटी आफ प्रोविडेन्स के मंत्री के पद पर आए।

स्मृतियों के झरोखे में बासन्ती हवा ने बादलों की पाती भेज रामकृष्ण मिशन शिलांग द्वारा प्रकाशित अंतर्राष्ट्रीय ई पत्रिका ‘का जिंग्शई अर्थात ज्योति’, द लाइट के लिए कुछ शब्द-मुक्ताओं को पिरोने का दायित्व दिया है। आज स्मृतियों के पन्ने पलटता हूँ और वर्तमान से अतीत में जा मेघालय की राजधानी शिलांग में अपने प्रथम दिवस की अनुभूतियों को आपके साथ आत्मसाथ करता हूँ।
गुरुवार, दि. २९ फरवरी १९९६ (जो कि चार सालों में एक ही बार आनेवाली तारीख़ है)। सुबह करीब ९ बज रहे थे। नागपुर, रामकृष्ण मठ के प्रकाशन विभाग के कार्यालय में मैं कुछ १५ – २० मिनट पेहले पहुचाँ था; और भी एक या दो मठवासी संन्‍यासी आ गये थे, कुछ वेतन भुक्त कर्मचारी भी मौजूद थे। कई दैनिक गतिविधियाँ – पुस्तकों की छपाई, प्रूफ रीडिंग कई लोगों से पत्रव्यवहार, इत्यादि – जारी थी, कि बेलुर मठ से फोन आया। श्रद्धेय आत्मस्थानानन्द जी, जो उन दिनों जनरल सेक्रेटरी थे, मुझ से बात करना चाहते थे। “साष्टांग प्रणाम, महाराज”, मैंने कहा।
वैसे तो इस प्रकार के फोन की अपेक्षा कुछ दिनों से थी ही। नागपुर के मठ से मेरा तबादला लगभग निश्चित ही था; किन्तु सिवा मेरे, इसकी भनक वहाँ अन्य किसी को भी नहीं थी। जब श्रद्धेय आत्मस्थानानन्द जी ने बताया कि मुझे शिलाँग के आश्रम का मुख्य बनाकर भेजा जा रहा है, तो मैं बिल्कुल चौंक गया। क्या कहूँ, क्या ना कहूँ, कुछ भी नहीं सूझ रहा था। दो – तीन मिनट बात हुई, कुछ और समाचार देकर उन्होंने फोन रख दिया।


शुक्रवार दि. मार्च २२, १९९६। प्रातः ११ बजे नागपुर से मेरी यात्रा प्रारंभ हुई – हावड़ा मेल से। दूसरे दिन बेलुड़ मठ-स्थित रामकृष्ण मठ – मिशन के मुख्यालय में पहुँच कर शिलाँग आश्रम का कार्यभार सम्हालने का अधिकार – पत्र व अन्य आवश्यक कागजाद लिये। दूसरे दिन प्रेसिडेंट महाराज परमपूज्य भूतेशानन्द जी महाराज से मुलाकात हुई। वे शिलाँग आश्रम के प्रथम प्रमुख थे। उन्होंने भूरि-भूरि आशीर्वाद दिया। अन्य वरिष्ठ सन्यासी, जो कि शिलाँग आश्रम में पहले कार्यरत थे उनसे भी परामर्श लिया। और सोमवार २५ मार्च को आकाश मार्ग से गुवाहाटी पहुँच गया। वहाँ शिलाँग आश्रम से स्वामी हृदानन्द जी हवाई अड्डे पर आये थे। रास्ते में रुखकर कामाख्या-पीठ का दर्शन कर और गुवाहाटी के नितान्त-सुंदर आश्रम मे रात बिताकर दूसरे दिन सुबह शिलाँग के लिये हम रवाना हुए। मैं, हृदानन्द जी और ड्राईवर। रास्ते में एक गणेश मंदिर में दर्शन किया। आनेवाले लगभग चार सालों में शिलाँग – गुवाहाटी – शिलाँग की अनगिनत यात्राएँ हुई, प्रायः हर बार यहाँ गणेश जी के दर्शन कर ही आगे बढ़ना होता था। ठीक सुबह ११.२५ को गाड़ी शिलाँग आश्रम में पहुँच गयी। श्रद्धेय रघुनाथानन्द जी (आश्रम प्रमुख जो मुझे कार्यभार सौप देने वाले थे), श्रद्धेय गणनाथानन्द जी, समचित्तानन्द जी और कई साधु-बर्ह्मचारियों ने हृदयपूर्वक स्वागत किया।
तो इस प्रकार २६ मार्च १९९६ को मेरा शिलाँग जीवन प्रारम्भ हुआ। हाँ, एक और बात तो लिखना भूल ही गया था। शिलाँग में और गुवाहाटी से शिलाँग आते समय जो सुरम्य पर्वतों के बीच से गाडी चलती है, वहाँ की प्राकृतिक सुंदरता का वर्णन तो मैंने कई प्रत्यक्ष-दर्शियों से सुना था किन्तु ‘सुनना’ और प्रत्यक्ष देखना इस में कितना अंतर होता है! वह दृश्य अद्भुत था विशेष कर जब गाड़ी उमियाम (बड़ा पानी) से गुजर रही थी तो अनिमेष दृष्टि से उस सुंदरता का पान कर रहा था फिर आने वाले चार वर्षोँ में न जाने कितने बार उस दृश्य को अतीव आनन्द से, कितने ही रंगों में देखा।
शिलाँग आश्रम का मंदिर तथा परिसर भी अति सुंदर और साफ़-सुथरा था।
मुझे उसी कमरे में रहना था, जहाँ परम पूज्य भूतेशानन्द जी से लेकर सभी आश्रम-प्रमुख निवास करते थे। उस कमरे से लगे बरामदे में मैं, रघुनाथानन्द जी तथा अन्य सब बैठकर सामान्य बातचीत कर रहे थे। मुझे एक कटोरी में कुछ प्रसाद दिया गया। आनंद से उसे खाकर मैं हाथ-मुँह धोने के लिये बाथरूम में गया – और…
शिलाँग पहुँचने से पहले बेलुर मठ में कई पुराने संन्यासियों ने वहाँ की समस्याएँ बतायी थीं। पूज्य प्रमेयानन्द जी ने विशेष आग्रह के साथ कहा था कि वहाँ सारे इलाके में, विशेषकर अपने आश्रम में, पानी की बहुत बड़ी समस्या है; देखो यदि तुम उसके लिये कुछ कर सको तो बहुत अच्छा होगा। जब मैं अब शिलाँग के बाथरूम में पहुँचा तो वहाँ किसी नल से पानी नहीं आ रहा था। एक महाराज जी जल्दी से कहीं से थोड़ा पानी लाए। पूज्य प्रमेयानन्द जी के कथन का मेरे पहुँचते ही प्रमाण मिल गया। इस समस्या का हल करना मेरी प्राथमिकता बन गई ।


शिलाँग में प्रथम दिन ही सायंकाल को ‘विवेकानन्द कल्चरल सेन्टर’ मे जाने के लिये श्रद्धेय रघुनाथानन्द जी के साथ निकला। इसके पहले लाइब्रेरी, लेक्चर हाल, स्टूडेण्ट्स होस्टेल इत्यादि सारा उन्होंने घूम कर दिखाया। (इन में होस्टल, साधू-निवास और रसोई – भोजन – कक्ष अब बड़ा ही विस्तृत और सुंदर बना है; १९९६ में या २००० में – जब मेरा शिलाँग से तबादला हुआ – वह इतना अच्छा नहीं था। ) जाते समय से पहले पाँच मिनट डिस्पेन्सरी देखी (वह भी अब बहुत बड़ी हुई है)। जीप में बैठकर जब हम जा रहे थे, तो श्रद्धेय रघुनाथानन्द जी अपने विनोद-गर्भ, सुंदर शैली में आश्रम के विविध कार्य, उनकी पृष्ठभूमि, आश्रम के समर्पित भक्त, इन सब के सम्बन्ध में जानकारी दे रहे थे।
पुलिस बाज़ार, जहाँ आज ‘विवेकानन्द कल्चरल सेन्टर’ के नाम से विख्यात संस्था है, मानो शिलाँग का केंद्र बिंदु था, हृदय था। उन दिनों ‘विवेकानन्द कल्चरल सेन्टर’ यह नाम कोई नहीं जानता था – उसे ‘क्विण्टन हाल’ कहते थे। पहुँच कर देखा – मकान की स्थिति डाँवाडोल थी और देखने में भी भद्दी। समचित्तानन्द जी – जो वहाँ की गतिविधियाँ देखते थे – हमें सीढ़ी से ऊपर देवघर में ले गये। सीढ़ी लड़खड़ाते हुए मानों कह रही थी – ‘मुझे भी मरम्मत की सख्त जरूरत है।’ तब स्मरण हुआ कि श्रद्धेय आत्मस्थानानन्द जी की उस सूचना का, जो तीन दिन पहले बेलुर मठ में मुझे दी थी। रामकृष्ण संघ के जनरल सेक्रेटरी के नाते उन्होंने बताया था की यद्यपि बरसों की न्यायिक लड़ाई के बाद इस क्विण्टन हाल पर रामकृष्ण मिशन का अधिकार हो तो गया है, परन्तु कुछ प्रशासकीय अवरोधों के कारण वह जायदाद अभी भी हमारे नाम पर दर्ज नहीं हुई है। और इसी कारण उस स्थान का नवीनीकरण/ पुननिर्माण नहीं हो रहा है। मुझे शिलाँग पहुँच कर इस काम को तेजी से आगे बढ़ाना होगा।
वहाँ से लौटते समय श्रद्धेय रघुनाथानन्द जी ने बताया कि स्वामी विवेकानन्द जी के संस्पर्श से पुनीत हुआ यह स्थान, रामकृष्ण मिशन को मिल तो गया है; किन्तु मेघालय की सरकार अभी भी उसे अपने हाथ करना चाहती है। इसीलिये यहाँ का प्रशासन अभी भी इसके पन्जीकरण में कई बाधाएँ डाल रहा है। अब तुम कोशिश करो – कुछ मार्ग ढूँढ निकालो।


क्विण्टन हाल से लौटकर आया और आरती में शरीक हुआ। छात्रवास के बच्चे सुंदर आरती गान कर रहे थे। ४ – ६ भक्त भी उपस्थित थे। एक ‘चकमा’ छात्र – सुजय उसका नाम – बड़ी खूबी से तबला बजा रहा था। सभी छात्रों को संगीत का स्वयंप्रेरित ज्ञान था। आरती के उपरान्त कुछ भक्तों से चंद क्षण वार्तालाप हुआ। मंदिर में श्रीरामकृष्ण देव की मूर्ति रात के मंद प्रकाश में अत्यंत सुंदर दिखाई दे रही थी। रात्रि का भोजन हुआ – तब शिलाँग की ठंड का एक और प्रभाव दिखाई दिया। भोजन परोसते-परोसते ही ठण्डा हो जाता था। क्या करे ? सोचा – अब ऐसा ही भोजन करने अभ्यास बनाना होगा। जैसी रात बढ़ती गयी, ठंड भी बढ़ने लगी। मार्च के अन्त में इतने ठंड की मुझे अपेक्षा नहीं थी। जल्द ही मैंने सामान को खोलकर एक स्वेटर और टोपी पहन लिया और आते समय श्रद्धेय रघुनाथानन्द जी ने जो एक सुंदर ऊनी शाल दी थी (जिसका उपयोग मैं यहाँ अमेरिका में पच्चीस सालों के बाद भी कर रहा हूँ ) उसे ओढ़ लिया। सब साधुओं से कुछ वार्तालाप हुआ और मैं सोने के लिये चला गया।
नींद ठीक से नहीं आ रही थी कारण एक ओर बढ़ती ठंड और दूसरी ओर जोर से चलने वाली हवा की आवाज। सब कुछ नया अनुभव था। चंद दिनों में इस से अभ्यस्त हो गया।
इस प्रकार शिलाँग का प्रथम दिन कई नयी बातें सीखते – सीखते आनन्द पूर्वक गुजर गया। आने वाले चार वर्ष चुनौती पूर्ण थे। उन दिनों की स्मृतियाँ शेष हैं…पुनश्च

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