अबोध

सविता दास सवि

मेरी आंखें जब करती हैं
तुम्हारी आँखों तक यात्रा
समय का सूक्ष्म कण लेकर
यूँ तो पूरी हो जाती है यात्रा
फिर भी
एक दृष्टि में मानों
मौन के सारे दस्तावेज़ लिए
धरती-आकाश में व्याप्त
शून्य के बीच
हवा की नमीं लिए
सूरज की ऊष्मता
और पृथ्वी के इतिहास में
जन्मे पहले प्रेमी की
सारी कामनाएं दृष्टि
में लेकर तुम्हारी
पलकों के चौखट पर
पहुंच जाती है,
चकित हो जाती हूँ
कितनी सम्पन्न हैं
ये आँखें तुम्हारी
फिर भी मेरी आत्मा के
आधे हिस्से से ख़ुद को
सम्पूर्ण बनाने के लिए
बने रहते हो हमेशा
एक अबोध याचक।

अरहर की दाल

– आचार्य ओम नीरव

“देखो दादी, मैंने कितने डोड़ा बीन डाले?” संजू ने विहँस कर कहा। उसकी दादी भी प्रसन्न हो गयी। खेतों में गन्ना कट जाने के बाद जहाँ-तहाँ सूखे गन्ने के टुकड़े अर्थात डोड़े सानू की दादी बीन ले जाती थी और उन्हें चूल्हे में जलाकर खाना बनाती थी। “अब घर चलो दादी, भूख लगी है” संजू ने कहा तो उसकी दादी ने प्यार से उसके माथे का पसीना पोछ दिया। डोड़े का एक-एक गट्ठर सिर पर रख कर दोनों घर की ओर चल दिये। घर जाकर दादी ने झप्पर पर फैली बेल से एक लौकी तोड़ी। लौकी की शब्जी बनायी और रोटियाँ सेंकने लगी। संजू ने लौकी की शब्जी देख कर कहा-

“रोज-रोज वही लौकी-तुरई। कभी दाल बनाओ न दादी।” संजू की बात सुन कर दादी भावुक हो गयी। फिर सँभल कर बोली- “कल बाजार से गेहूँ बेच कर अरहर की दाल ले आना, फिर दाल बना दूँगी।”

                “अच्छा दादी” संजू ने संतुष्ट होकर कहा।

संध्या-काल वह अपने सखा करीम के घर पहुँच गया। उस समय कटोरे में बड़े-बड़े खिले हुए बासमती चावलों के साथ पीली-पीली अरहर की दाल सान कर करीम खा रहा था। संजू ललचाई हुई दृष्टि से देखने लगा।  करीम की माँ से यह छिपा न रहा, वह संजू से बोली- “खाओगे बेटा? परस दूँ? … लेकिन तुम्हारी दादी से डरती हूँ। उनको पता चला कि तुमने मुसलमान के घर खाया है तो बहुत नाराज होंगी।”

“दादी को नहीं बताऊँगा, अम्मी।” संजू ने सहज भाव से कह दिया। दाल-चावल का कटोरा पलक झपकते आ गया और वह करीम के साथ खाने लगा। बीच में रुक कर दरवाजे की ओर देखने लगा।

                करीम की माँ ने पूछ लिया- “क्या हुआ बेटा?”

                “दरवाजा बंद कर दो अम्मी। कहीं दादी न आ जायें।”

ओमप्रकाश मिश्र  सम्प्रति प्रज्ञालोक सृजन संस्थान मोहमदी, खीरी, उत्तर प्रदेश के संस्थापक संरक्षक हैं । जे. पी. इंटर कॉलेज मोहमदी खीरी उत्तर प्रदेश में 1971 से 2003 तक प्रवक्ता और 2003 से 2008 तक प्रधानाचार्य रहे। काव्य-कृति ‘जय विज्ञानं’ के लिए इंडिया बुक ऑफ अवार्ड्स द्वारा ‘अचीवमेंट अवार्ड’ से पुरस्कृत ।

अकुलाहट

“अरे ऋषभ! मेरी बीपी वाली दवा तो ले आओ, एक-आध दिन में ख़त्म हो जाएगी।”

कहते हुए दिनेश अपने नौकर ऋषभ के कमरे तक पहुॅंचा ही था कि फ़ोन पर ऋषभ को बात करता  सुनकर ठिठक गया । वह किसी से जोर से कह रहा था-

उसने मोबाइल को गौर से देखा तथा कान के और पास ले जाकर पूछा-

“उई छुटकऊ के साथ एम्बुलेंस मा हैं? उनका गाॅंव से निकले छह घंटा हुई गए? ऊई हड़ताल के चक्कर मा रस्ते मा फॅंसे हुइहैं?

कहते-कहते ऋषभ की आवाज काॅंपने लगी! सिसकते हुए वो आगे बोला-

“छुटकऊ का फोनऊ बन्द बतावत है? हाय मोर बप्पा! उनका राम बचावै” कहते हुए ऋषभ चीख कर रो पड़ा!

“का कहत हौ भैया? बाऊजी के आक्सीजन लगै की नौबत रही?”

और इधर दिनेश न्यूज़ रीडर की दूर से आती हुई आवाज सुनकर स्तब्ध रह गया कि-

 “ड्राइवरों की अचानक हुई हड़ताल के कारण पूरे देश में लगे भयंकर जाम के हटने के कोई आसार नहीं दिख रहे हैं!”

रश्मि ‘लहर ‘ रश्मि संजय श्रीवास्तव सम्प्रति  भारतीय गन्ना अनुसंधान  संस्थान, लखनऊ मेंं निजी सचिव हैं। पच्चीस से अधिक साझा काव्य संकलन, लघुकथा, कहानी संग्रह में रचनाऍं और लघुकथाऍं प्रकाशित

माँ का बँटवारा

सीमा सिंह स्वस्तिका असम

बहू सासू माँ का इलाज कराने के लिए चेन्नई ले गई थी। किडनी जनित रोगों के इलाज के बाद डॉक्टर ने और भी कुछ टेस्ट कराए। जिसमें पता चला की सासू मां की आंखों में मोतियाबिंद भी है। पत्नी ने तुरंत पति को फोन करके पूछा कि अब क्या किया जाए?

पति का जवाब था, “और क्या करना है? तुम जिस काम के लिए गई थी वह हो चुका है। मां को लेकर तुम तुरंत घर वापस आओ।”

“बाकी और भी दो बेटे हैं उनके। कुछ उनके लिए भी छोड़ दो।”

सीमा सिंह राय संप्रति शिक्षण और पत्रकारिता में रत हैं। ईनकी कई कहानी संग्रहों का अनुवाद प्रकाशित हैं और कविताएँ, आलेख आदि विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं ।

सैंडविच

डॉ अन्नपूर्णा बाजपेयी ‘आर्या’

“सुनो कुछ पैसे अकाउंट में ट्रांसफर कर दो, भैया की बेटी शैली की सगाई है गिफ्ट ले जाना है उसके लिए !” लतिका ने किचेन से ही सोमेश से कहा।

“हम्मम!” सोमेश ने हुंकारी भरी।

इसी बीच पूजाघर से नंदा जी भी बोल पड़ीं, “बेटा आज मेरा अपॉइंटमेंट है डेंटिस्ट के यहां, आज वो दांत का सेट लगा देगा। बड़ी तकलीफ होती है खाना खाने में ! चल मैं तैयार होकर आती हूं। नब्बे हजार का खर्चा आएगा डॉक्टर बोला था। “

“नब्बे हजार!! मां मेरी तनख्वाह ही पचहत्तर हजार है। आपने इतने मंहगे दांत क्यों लगवाए। वो तो सस्ते वाले भी लग जाते!” वो झल्ला उठा।

“पापा ! फीस कब जमा करोगे , जब नाम कट जायेगा तब! एक हफ्ते से कॉलेज वाले आपको मैसेज भेज रहे हैं । ” बेटी ने भी जुमला उछाला।

उसने मैसेज बॉक्स चेक किया , “ओह!ये कैसे नहीं देखा!”

मन ही मन बुदबुदाया।

अपने अकाउंट का बैलेंस चेक किया और बेटी की फीस जमा कर दी। मुसकुराते हुए बोला, “हो गई जमा, अब नाम नहीं कटेगा मेरी प्रिंसेज!”

लतिका अभी भी इंतजार में ही थी कि सोमेश ने मेरी बात का कोई उत्तर नहीं दिया। उसने नाश्ता बनाते हुए फिर कहा, “सोम! मेरी बात नहीं सुनी क्या तुमने? शैली की इंगेजमेंट में आ तो रहे हो न!”

तब तक ऑफिस से बॉस का कॉल आ गया। लपक कर फोन उठाया और एलर्ट मोड में बैठ गया ।  “जी सर ! यस सर ! मैं अभी ही निकलता हूं !” कह कर फोन रखा और लतिका को बोला, “लतिका मुझे आज ही बड़ौदा निकलना है इट्स वेरी अर्जेंट! मैं तुम्हारे साथ शैली की इंगेजमेंट में नहीं आ पाऊंगा।”

और अपना सामान पैक करने लगा । बॉस का हुक्म था अभी निकलना है। लतिका का मुँह लटक गया वह भुनभुनाती हुई नाश्ते की प्लेट सोमेश के सामने ले जाकर पटक दी।

“नहीं जाना है मत जाओ ! कब जाते हो मेरे मायके के किसी भी प्रोग्राम में! हमेशा बहाना तैयार रहता है। यहां इनके घर वालों की चाकरी करते जिंदगी चोकर हो गई। अभी देखो अम्मा के लिए नब्बे हजार भी निकल आयेंगे लेकिन क्या मजाल जो मेरे मायके वालों के लिए दमड़ी भी निकले।”

लतिका फट पड़ी थी।

सोमेश ने चुपचाप अपना सामान लगाया तब तक अम्मा की बड़बड़ाने की आवाज कानों में रस घोलने लगी।

इन सबसे वह अंदर ही अंदर कहीं  बहुत आहत हो रहा था , सबने अपनी तो कही पर किसी ने उसकी न सुनी।

एक शेर गुनगुनाते हुए नाश्ते की प्लेट उठा ली, ” मेरे टूटने का कारण वह जौहरी ही है जिसे ज़िद थी कि मुझे और तराशा जाए।”

अन्नपूर्णा बाजपेई: अप्रैल 2013 मे शोभना वेल्फेयर सोसाइटी द्वारा ब्लॉग रत्न से सम्मानित, मार्च 2014 मे मुक्तक गौरव से सम्मानित , मई 2014 मे मुक्तक शिल्पी से सम्मानित, अगस्त 2014 मे अखंड भारत पत्रिका द्वारा वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई साहित्य गौरव सम्मान, सितंबर 2014 मे भाषा सहोदरी हिन्दी द्वारा साहित्य ज्ञान गौरव से सम्मान से सम्मानित। संप्रति अध्यापन कार्य से निवृत्त , अब स्वतंत्र लेखन, साहित्य सेवा एवं समाज सेवा में रत है। देशबंधु , नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान, पुष्प सवेरा समाचार पत्र आदी में ईनकी कहानियाँ, लघु कथाएँ , आलेख एवं कई रचनाएँ प्रकाशित ।

श्रदेय स्वामी सर्वगतानन्द

– सामी योगात्मानन्द, प्रॉविडेन्स, USA

गतांक के आगे

पाठकों को शायद स्मरण होगा (या न भी होगा, क्यों कि ‘कि जिंग्शेई/ज्योति की वह संख्या प्रकाशित हो कर अब छः महीने बीत चुके हैं) कि पिछली किश्त में मैंने स्वामी सर्वगतानन्द जी का उल्लेख किया था और लिखा था कि उनके सम्बन्ध में बाद में कभी चर्चा करूँगा। वे श्रीरामकृष्ण के अंतरंग पार्षद स्वामी अखंडानन्द के मन्त्रदीक्षित शिष्य थे। जैसे कि पहले बता चुका हूँ कि जब 20 जून 2009 की मध्यरात्रि के बाद मैं बोस्टन हवाई अड्डे से वहाँ की वेदान्त सोसायटी में पहुँचा, तो वे मेरे स्वागत के लिए अपने कमरे में जागते हुए बैठे थे। इस क्षण के बाद फिर करीब 8 साल तक उनका सहवास मुझे मिलता रहा। मेरे लिए यह बड़ा ही शिक्षाप्रद अवसर था। उस समय उनकी आयु लगभग नवासी(89) वर्ष की थी। शरीर में दुर्बलता और कई प्रकार की बीमारियाँ थीं किन्तु मन तभी भी सशक्त था। विचार और वाणी में स्पष्टता और शक्ति थी। उनके मुख पर सदा शान्ति और प्रसन्नता रहती थी।

उन्हीं के साथ रविवार २४ जून के दोपहर के चार बजे बोस्टन से प्रॉव्हिडन्स चला आया। मेरी व्यवस्था जिस कमरे में की गई थी, (आज भी मैं उसी कमरे में रहता हूँ) उसके बिलकुल सामने ही उनका कमरा था, जिसके साथ आगंतुकों के साथ मिलने का कक्ष भी जुड़ा हुआ था। मैंने देखा कि दिनभर कई भक्त उनसे मिलने हेतु वहाँ आया करते थे। कितने ही भक्त पूजनीय सर्वगतानन्द जी की सेवा के लिए वहाँ मौजूद रहते थे। प्रायः वे मुझे बुलाकर सब के साथ मेरा परिचय करा देते थे।

दो दिन बाद स्वामी त्यागानन्द जी भी बोस्टन से प्रॉव्हिडन्स पहुँचे। उनसे पुराना मित्रतापूर्ण संपर्क था। हमारी संन्यास-विधि एक ही साथ हुई थी। मेरे अमेरिका आने के करीब डेढ़ साल पहले वे बोस्टन आश्रम में कार्यारम्भ कर चुके थे और जैसा कि रिवाज था, वे प्रॉव्हिडन्स के आश्रम में भी सभी नियमित व्याख्यान दिया करते थे। अमरीका में किस प्रकार रहना चाहिए, व्याख्यान इत्यादि कैसे देने होंगे? भक्त- स्वयंसेवक, आश्रम का कार्यकारी मण्डल उन सब के साथ मिल-जुलकर किस प्रकार आश्रम का संचालन करना होगा इस विषयों पर उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला। उनके साथ मित्रतापूर्ण बातचीत, मिलना-जुलना, सलाह- मशविरा लेना आज भी जारी है। हम तीनों संन्यासी- सर्वगतानन्दजी, त्यागानन्द और मैं एक साथ व्याख्यान कक्ष के साथ प्रायः जुड़े हुए रसोई-भोजन-घर में नाश्ता, भोजन इत्यादि करते थे। अब रसोई-भोजन घर वहीं से नीचे तहखाने में (Basement में) स्थानांतरित हुआ है। इस स्थानांतरण की कहानी पू. सर्वगतानन्द जी से सम्बन्धित है और उनके चरित्र पर प्रकाश डालती है।

वह सितंबर का महीना था- मुझे प्रॉव्हिडन्स आश्रम का कार्यभार सम्हाले दो महीनों से कुछ अधिक समय बीता था।

वहाँ की वेदान्त सोसायटी के भवन का निरीक्षण करना और कैसे विविध कार्यकलाप वहाँ चलते हैं जैसे- साफ-सफाई, कपड़े धोना, बाज़ार से नित्य प्रयोजनीय चीजें खरीदना, मंदिर को सजाना इन सबकी व्यवस्था कैसे होती है? ये सब मोटे तौर पर समझ में आ गया था। एक सुधार करना मैंने आवश्यक महसूस किया। रसोई घर और भोजन कक्ष को प्रार्थना/ प्रवचन कक्ष के करीब से हटाकर तहखाने में स्थानांतरित करना।

जब मैंने पू. सर्वगतानन्द जी से इस विषय में बात की तो उन्होंने पूरी तौर से मेरा समर्थन किया और कहा कि प्रार्थना/प्रवचन कक्ष इस प्रकार एक दूसरे से सटकर नहीं होने चाहिए। जब इस भवन का पुनर्निर्माण कार्य चल रहा था, तो वे बीमार थे और उस पर ध्यान नहीं दे पाए कि वास्तुकार (Architect) ने इस प्रकार दोनों को एक-दूसरे से सटकर रखा है। अब सारा निर्माण-कार्य संपूर्ण होने के बाद उन्हें भी ये नागवार मालूम हो रहा है। इसी वजह से लाइब्रेरी और पुस्तक-ब्रिक्री के लिए कोई स्थान ही नहीं रहा है। उन्होंने तुरन्त वेदान्त सोसायटी के तत्कालीन सचिव विल एयटन (Will Ayton) को बुलाया और पूछा कि क्या यह स्थानांतरित करना सम्भव होगा? उन्हें यह बात प्रथम पसंद नहीं आयी। इस स्थानांतरण में कितने व्यवधान है, इसकी चर्चा उन्होंने की। परन्तु जब हम दोनों ने मिलकर पूरे तहखाने का निरीक्षण किया, तो वे इस बात पर सहमत हो गए। कम से कम भोजन-कक्ष नीचे ले जाना कठिन नहीं होगा इस बात को उन्होंने स्वीकार किया।

जब काम शुरु किया तो प्रथमतः कई भक्तों को वह पसंद नहीं आया। अनेक भक्तों को लगा कि मैं अभी नया आया हूँ और मनमानी कर रहा हूँ। कुछ भक्तों ने सीधे पू. सर्वगतानन्दजी के पास शिकायत की। एक महिला ने मेरे सामने ही उनसे कहा कि वे मुझे आदेश दें कि मैं यह काम बन्द करूँ और भोजन-कक्ष जहाँ था, वहीं रहने दूँ। तब उन्होंने उत्तर में कहा, “यहाँ इसको[=मुझे]  यहाँ के प्रमुख के रूप में मुख्यालय ने भेजा है। मैंने ही उसे यहाँ के प्रमुख के रूप में बुलाया है और तुम सब उसकी बात मानकर चलो। मैं भी उसकी बात मानकर चलता हूँ। भोजन-कक्ष नीचे जाने की बात तो मैं भी चाहता था। ” उनका कथन सुनकर मैंने उन्हें श्रद्धा से प्रणाम करते हुए कहा कि ये आप क्या कह रहे हैं? आपको मेरी बात मानकर चलने की बिलकुल आवश्यकता नहीं है। अगर मैं कुछ ठीक नहीं कर रहा हूँ, ऐसा आप को लगे, तो आप तुरन्त मुझे मना करें। आप से परामर्श कर और आप की अनुमति लेकर ही मैं सब कुछ करना चाहूँगा – भले ही औपचारिक रूप से मैं इस आश्रम का प्रमुख हूँ ।

 इस प्रसंग से उनकी रामकृष्ण संघ के प्रति जो अटूट निष्ठा थी, वह अभिव्यक्त होती है। मनुष्य का मन अज्ञान वश चलती आ रही पुरानी व्यवस्था में आसक्त हो जाता है। उस व्यवस्था के कारण तकलीफ होने के बावजूद भी वह उसमें परिवर्तन करने से इन्कार कर देता है। यह एक स्वाभाविक मानसिक स्थिति की जडता है या पूर्वाग्रह, जिसके कारण हमारी प्रगति नहीं हो पाती। पू. सर्वगतानन्द जी जिनकी अवस्था उस समय नवासी (89) साल की थी, इस स्थितिशीलता के परे थे। केवल भोजन-कक्ष की ही बात नहीं, उन्होंने मेरे हर उचित कदम का उत्साह से समर्थन किया और जो उन्हें अनुचित या अनावश्यक प्रतीत हुआ उसे न करने की भी सलाह दी। उनकी निष्ठा, निर्भयता, भक्ति, भक्तों के प्रति आत्यंतिक प्रेम और सहानुभूति के कितने ही उद्बोधक किस्से हैं।

ईस्वी १९३४ के नवम्बर में सर्वगतानंद जी मुंबई में स्वामी अखण्डानंदजी से मिले। उम्र थी 22 वर्ष की। आन्ध्र प्रदेश के मूल निवासी थे, किन्तु मुम्बई में एकाउंट्स की नौकरी कर रहे थे। (प्रॉव्हिडन्स में जब मैं आया तो उन्होंने वहां के अकाउंट के काम के बारे में मुझे अच्छी, उपयुक्त जानकारी दी।) जब अखण्डानंदजी ने इस नवयुवक से पूछा की ‘जीवन से क्या चाहते हो?’ तब उसने उत्तर दिया कि विवेकानंद जी के मोक्ष- लाभ और साथ ही साथ जनसेवा का आदर्श उन्हें बड़ा अच्छा लगता है।

फिर अखण्डानन्दजी ने इस युवक को (नारायण उनका नाम था) रामकृष्ण मिशन के कनखल / हरिद्वार स्थित अस्पताल में जाने को कहा और वहाँ के प्रमुख स्वामी कल्याणानन्द जी को इस विषय में एक पत्र भी भेज दिया और मुंबई से कनखल तक नंगे पाँव पैदल जाने को कहा। लगभग १७०० कि.मी. की दूरी पैदल तय करके वे करीब ढाई महीने के बाद कनखल पहुँचे और वहीं से उनके त्यागपूर्ण, सेवाभावी संन्यास जीवन का शुभारंभ हुआ। कनखल सेवाश्रम के उनके प्रारंभिक जीवन का बड़ा ही स्फूर्तिदायी वर्णन ‘You Will be a Paramahamsa नामक लघु ग्रंथ में उपलब्ध है।

रामकृष्ण संघ के कनखल, कराची (अब पाकिस्तान में है) , बेलूर मठ, विशाखापटनम् आदि आश्रमों में कार्य करने के उपरान्त उन्हें बोस्टन- प्रॉव्हिडन्स इन दोनों आश्रमों में मैं स्वामी अखिलानन्द जी के सहयोगी के रूप में कार्य करने हेतु भेजा गया। १९५४ में वे यहाँ आए। १९६१ में अखिलानन्दजी के निधन के पश्चात वे दोनों आश्रमों के प्रमुख नियुक्त किए गए। २००९ के मई में उनका निधन हुआ। अपने ५५ वर्ष के दीर्घ  अमरीका वास के दौरान वे मात्र दो बार भारत गए थे। प्रथम १९६२ में, खामी अखिलानन्द जी की अस्थियाँ विसर्जन करने हेतु और फिर 2002-03 में परम पूज्य रंगनाथागन्दजी से मिलने के लिए आये। तब वे रामकृष्ण संघ के परमाध्यक्ष थे और सर्वगतानन्द से उनका घनिष्ट, सौहार्दपूर्ण संपर्क था। उनके बॉस्टन-प्रॉव्हिडन्स रहते समय कई बार रंगनाथागन्दजी वहाँ आये थे।

अपने प्रेमपूर्ण, सरल व्यवहार, वेदान्त-ग्रन्थों के साथ ही साथ ख्रिस्तान , मुस्लिम और अन्य धर्मों का भी गहरा अध्ययन, आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि जैसे सद्‌गुणों के कारण पू. सर्वगतानन्द जी वहाँ की भक्तमंडली में अत्यधिक सम्मान प्राप्त कर चुके थे। मैंने प्रत्यक्ष देखा कि इस ढलती उम्र में भी उनका जनसंपर्क विस्तृत और अंतरंग था।

उनमें तीक्ष्ण विनोद-बुद्धि थी। रोजाना बोल-चाल में भी उनके आसपास का वातावरण हास्यपूर्ण रहता था। इस से सब के मन का दुःख और तनाव दूर हो जाता था। इस के चंद उदाहरण में यहाँ पेश कर रहा हूँ।

 बोस्टन-प्रॉव्हिडन्स के आसपास मौसम कैसा होता है? मेरे इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने वहाँ का एक प्रचलित कथन अपने हास्यपूर्ण ढंग से उद्‌धृत किया। कहा जाता है कि ‘यदि तुम सोच रहे हो कि मौसम अच्छा है, तो थोड़ी देर रुक जाओ। यदि समझ रहे हो कि मौसम बड़ा खराब है, तब भी थोड़ा-सा रुक जाओ’। ” तात्पर्य है कि मौसम तुरन्त बदलता रहता है। इसी सन्दर्भ मैं में एक और उनका हास्यपूर्ण कथन बताता हूँ। इस बात पर था कि ‘यहाँ कौन से दिन कैसा तापमान होगा इस बारे मैं अटकले लगाने का कोई मतलब नहीं होता। केवल इतना कहा जा सकता है कि एक जुलाई को वह कभी भी शून्य फॅ. (-१८ c) नहीं होता और एक जनवरी को कभी भी १०० फ. (3८.८ c) होता नहीं; इस के बीच में कई प्रकार का चढ़ना-उतरना हो सकता है’।

एकबार सन् 2003 में मई के महीने में हिमवृष्टि हो रही थी। जब मैंने इस सम्बन्ध में आश्चर्य व्यक्त किया, तो वे बोले, “In May it may rain, it may snow, it may be dry or it may be humid; it may be quite hot or quite cold or may be just moderate. Since anything may happen, so the month gets the name May?”

 एक समय हम दोनों को प्रॉव्हिडन्स से बोस्टन जाना था। साथ में और भी कुछ भक्त थे। निर्धारित सम‌य पर तैयार होकर जब मैं उनके कमरे में गया, तो एक भक्त की सहायता लेकर वे धीरे-धीरे पोशाक पहन रहे थे।

मुझे देखकर उन्होंने कहा, “अरे भाई! कुछ समय लगेगा। बूढ़े व्यक्ति को अधिक समय लगता है, रुक जाओ। बूढ़े  शख्स के लिए यमराज को भी इंतजार करना पड़ता है।” यह कहकर वे हँस पड़े। कुछ मिनटों बाद हम रवाना हो गये।

जब कोई कहता है कि वह ईश्वर पर विश्वास करता है, तो वे एक प्रचलित अमेरिकन उक्ति हँसकर कहते थे। We believe in God, others have to pay cash। अर्थात् केवल ईश्वर को उधारी पर माल दिया जाएगा (क्योंकि हम ईश्वर पर विश्वास रखते हैं) और सभी को दिन नगद पैसा देकर खरीदना पड़ेगा। तात्पर्य है कि कोई वस्तु किसी को उधार नहीं मिलेगी।

अमरीका में एक बड़ी सेवा- संस्था चलती है, जिस जिसका नाम है “Meals on Wheels” जो लोग वृद्धावस्था या अपंगता या बीमारी के कारण न बाहर जा सकते हैं, न खाना पका सकते हैं, उनकी सेवा में यह संस्था उपयुक्त भोजन बनाकर गाड़ी से पहुँचा देती है। ये संस्था अपने सराहनीय कार्य के कारण बड़ी लोकप्रिय  है। सर्वगतानन्दजी  ‘Meals Wheels’ को लेकर एक कहानी सुनाते थे।

एक बार चूहों के प्रतिनिधि मण्डल ने ईश्वर से समय लेकर मुलाकात की। ईश्वर से उन्होंने विनय किया कि उन्हें सब समय बिल्लियों के डर से भागना पड़ता है, फलस्वरूप उनके पैर अत्यंत थक जाते हैं और उन्हें बड़ा दर्द होता है। अतः यदि परमात्मा उनके पैरों के नीचे चक्के लगा दे, तो काम सहज हो जाएगा। दयालु ईश्वरने तुरन्त वह व्यवस्था कर दी। अब बिना कष्ट के वे दौड़ लगाने लगे। जब बिल्लियों ने यह देखा, तो उन्हें आनन्द के साथआश्चर्य हुआ। उन्होंने ईश्वर को धन्यवाद देकर कहा, “वाह! आज आपने आपने ‘Meals on wheels’ अर्थात ‘चक्कों पर भोजन’ भेज दिया है।”

मैंने जैसे पहले बताया था, प्रॉव्हिडन्स में मेरा कमरा ठीक सर्वगतानन्दजी के कमरे के सामने था। एक रात मेरे सो जाने के उपरान्त मैंने मेरे कमरे में फोन की घण्टी सुनी। सुनने के बाद भी मुझे उठकर फोन लेने  की इच्छा नहीं हुई, फोन की घन्टी भी बन्द हुई। कुछ सेकेण्ड के बाद दरवाजे पर दस्तक सुनी। उठकर दरवाजा खोला, तो देखा पू॰ सर्वगतानन्दजी हाथ में फोन पकड कर खड़े थे-“‘ये लो तुम्हारा फोन-भारत से आया है”, इतना कहकर उन्होंने मेरे हाथ में फोन दिया और चले गये। फोन एक भारत के परिचित भक्त का था, जो समझ नहीं रहा था कि यह  बातचीत करने का सही समय नहीं है। आधी रात बीत चुकी है। जब मैंने उसे समझाया कि एक नब्बे साल के पूजनीय संन्यासी को उसने कष्ट दिया है, तो लज्जित होकर उसने क्षमायाचना की। मेरे लिये यह एक बड़ी सीख थी – इतने वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, तपोवृद्ध संन्यासी आधी रात को बिस्तर से उठकर, फोन लेकर मेरे कमरे तक चले आये। (चलना  उनके लिए दिन-ब-दिन कठिन होता जा रहा था)। उनसे ४१ साल कम उम्र वाला मैं, मेरे कमरे के भीतर ही फोन उठाने के लिए बिस्तर से उठने में भी आलस्य कर रहा था।

उनके सेवाभाव के ऐसे कितने ही उदाहरण देखने का सौभाग्य  मुझे प्राप्त हुआ है। कितने ही लोग उनसे मिलने के लिए  दूर-दूर से आते थे। ढलती उम्र, और कई बीमारियाँ इसके बावजूद स्वयं के भोजन, विश्राम आदि का ख्याल न करते हुए वे सबका  स्वागत कर उनकी समस्याओं का समाधान कर और उन्हें शान्ति प्रदान करते थे।

प्रॉव्हिडन्स और बोस्टन में उन्होंने विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के साथ सौहार्दपूर्ण संपर्क स्थापित किया था। केवल यही नहीं, कई ईसाई और यहूदी धर्माचार्य भी उन्हें बड़ा सम्मान देते थे। मैं देखा कि एक  कैथॉलिक  पुरोहित  “फादर सेण्ट गोडार्ड” जो कैथॉलिक  समाज के एक विद्वान, सत्-चरित्र धर्मगुरु के रूप में विख्यात थे, वे भी पू. सर्वगतानन्दजी के पास प्रायः आया करते थे।  वे कई साल पहले पू. सर्वगतानन्दजी को जब उनकी  उम्र इतनी अधिक नहीं थी, अपने चर्च में और कॉन्वेण्ट   में आध्यात्मिक मार्गदर्शन हेतु ले जाते  थे। स्त्री-पुरुष, धनी-गरीब, हिंदू-ईसाई – यहूदी – मुस्लिम, सभी से वे समान रूप से प्रेम करते थे। पू. स्वामी कल्याणानंदजी (जो कि कनखल सेवाश्रम के संस्थापक-प्रमुख और विवेकानंद जी के मन्त्र शिष्य थे) से उन्हें जो सेवा की शिक्षा प्राप्त हुई उसका वर्णन उन्होंने पूर्वोल्लिखित ‘तुम परमहंस बनोगे’ इस पुस्तक में बहुत ही मर्मस्पर्शी शब्दों में किया है। कल्याणानंदजी से उन्होंने सीखा कि मनुष्य की सेवा उनमें ईश्वर देखकर करनी होगी। सेवा में कम या ज्यादा  ऐसा कुछ नहीं होता।

मैंने कई बार उनके मुख से कनखल के आश्रम का एक प्रसंग सुना है। कल्याणानन्द  जी ने कई संन्यासियों के आपसी बातचीत में सुना, “हम ने सर्वस्व त्याग किया है, और पू॰ कल्याणानंदजी के प्रेमपूर्ण मार्गदर्शन में आनंद से दिन गुजार रहे हैं।” बात सुनकर कल्याणानदी ने उनसे कहा, … “तुम ने ऐसा कौन-सा त्याग  किया है? तुम्हारे माता-पिता, भाई-बहन, मकान, धन इसका ?  वह सब क्या कभी तुम्हारा था कि तुमने उसका त्याग दिया? … अहंकार और स्वार्थ का त्याग करो और प्रेम से सबकी सेवा करो। नारायण (सर्वगतानंदजी का पूर्व नाम)  निःस्वार्थ, प्रेमपूर्ण सेवा यही हमारा घोष-वाक्य (motto ) है।’ पू. सर्वगतानंदजी पर इस प्रसंग का गहरा असर हुआ था।

२००६ साल से उनका प्रॉव्हिडन्स में रहना कम हो गया। भारी शरीर के दुर्बल और रोग-ग्रस्त होने के कारण के बोस्टने के आश्रम में ही रहते थे। मैं सप्ताह में एक बार या जैसा सम्भव हो, उन्हें मिलने बोस्टन जाता था। उनका व्यवहार तब भी प्रेमपूर्ण रहता था। उन्हीं दिनों उनके व्याख्यानों पर आधारित ‘श्रीकृष्ण योग’ और दो विशालकाय खण्डों में ‘राजयोग’ ये दो मूल्यवान ग्रन्थ प्रकाशित हुए।

शरीर की दुर्बलता बढ़ती जा रही थी पर मन की सुदृढ़ता वैसी ही थी। जीवन पर्यंत मानव-सेवा का मूल मंत्र ले कर्म-पथ की यात्रा करते हुए   ३ मई २००९ में उन्होंने पंचभूत काया ने अंतिम साँस ली। वे व्यष्टि से समष्टि में समा गये।

पुनःश्च

स्वामी योगात्मानन्द वेदान्त सोसाइटी आफ प्रोविडेन्स अध्यक्ष हैं। ये 1976 में रामकृष्ण संघ के सदस्य के रूप में शामिल हुए और 1986 में संन्यास की दीक्षा ली। 20 वर्ष तक रामकृ ष्ण मिशन नागपुर, में कार्य करने के उपरांत रामकृ ष्ण मिशन शिलांग मेघालय, के अध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहे। तदपरांत आप सन् 2001के  ग्रीष्म ऋतु में अमेरिका में वेदांत सोसायटी आफ प्रोविडेन्स के मंत्री के पद पर आए। वेदांत और आध्यात्मिकता पर उनके उपदेश और प्रवचन यूट्यूब पर काफी लोकप्रिय है।

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक -उपनिषदों का संदेश

पुस्तक -उपनिषदों का संदेश
लेखक -स्वामी रंगनाथानन्द
चतुर्थ पुनर्मुद्रण 29- 9 -2017
प्रकाशक- स्वामी ब्रह्मास्थानन्द
धन्तोली( नागपुर )

मूल्य ₹200

 ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय  पूर्णमेवाव शिष्यते !!

ओम शांति: शांति:

 पूर्ण से ही सब कुछ निकला हुआ पूर्ण है। पूर्ण से ही पूर्ण लेकर भी शेष हमेशा पूर्ण ही रह जाता है। विश्व की परिसीमा में सभ्यता और संस्कृति ने अपनी अस्मिता को कई बार लेखन से, तो कई बार पठन और पाठन से सुरक्षित रखा। भारत देश की सहभागिता को जैसे देवत्व का वरदान है। यह अनोखा देश है, जिसे समय-समय पर आक्रमणकारियों और चुनौतियों का सामना करना पड़ा। इसके बाद भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी में ज्ञान संचित रहा।

लेखन प्रथा कब शुरू हुई?इसका पक्का प्रमाण नहीं है। पहले भोजपत्र फिर ताड़ पत्र आगे चलकर मनुष्य के क्रमिक विकास के साथ ,वाचन शैली का रिकॉर्ड होना ,लेखन शैली का प्रिंट मीडिया तक पहुँचना – यह एक प्रकार की क्रमिक व्यवस्था है।मानसिक विकास ने कितनी तरक्की की भला इसका मापक यंत्र कौन बना पाया? देवभूमि भारतवर्ष का मानचित्र भी बदलता गया, कितनी सभ्यताओं, भाषा ,जाति, धर्म की गवाह रही। यह मिट्टी किस-किस तरह के दुख-दर्द का साक्षी बनी। भारतीय धर्म ग्रंथों की महिमा अतुलनीय है। जिसमें  महायोगी शिव अनंत कोटि ब्रह्मांड के स्वामी, महापालक विष्णु की कितनी ही कथाएँ वेद, उपनिषद् , कल्प-कल्प, छंद, निरुक्त ,ज्योतिष के ऊपर उनके भेद – प्रभेद चौंसठ कलाओं, आयुर्वेद, अर्थशास्त्र और लोककार्य अर्थात् जीवन के अनेक संस्कार जन्म से मृत्यु तक वर्णित है।

 इनके अनुसार पाँचों तत्व, ज्ञानेंद्रिय, कर्मेंद्रिय, आत्मा  स्थिर होकर स्वयं में ही संचरण करती है। उपनिषद् अर्थात् गुरु के समीप रहकर ज्ञान प्राप्त करना है। प्रस्तुत ग्रंथ में ईशोपनिषद, कठोपनिषद,केनोपनिषद का सार तत्व आदरणीय स्वामी रंगनाथानन्द जी ने हम साधारण जनों की सुविधा हेतु उपलब्ध कराया है। उपनिषद कहते हैं ‘हे मानव!! तेजस्वी बनो!! दुर्बलता को त्यागो, (विवेकानंद साहित्य पंचम भाग पृष्ठ 132)’

रामकृष्ण मठ एवं रामकृष्ण मिशन के त्रयोदश अध्यक्ष श्रीमद् स्वामी रंगनाथानन्द जी महाराज यह पुस्तक आधुनिक आवश्यकता और आधुनिक चिंतन की दृष्टि से उपनिषदोक्त आत्मतत्व की व्याख्या की है। स्वामी जी ने पुस्तक अंग्रेजी में लिखा ‘द मैसेज ऑफ़ द उपनिषद’।

इस पुस्तक में ईशोपनिषद और केनोपनिषद का हिंदी अनुवाद डॉक्टर जगदीश प्रसाद शर्मा ने किया और कठोपनिषद का हिंदी अनुवाद आदरणीय श्री ओम बियाणी जी ने किया इसके लिए धन्यवाद ।

‘दूरबोध (टेलीपैथी) का हो सकना कुछ वैज्ञानिक अस्वीकार करते हैं। कहने वालों का तर्क है कि किसी प्रकार की ऊर्जा विनिमय के बिना सूचना एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक नहीं जा सकती। जैसे हम यदि किसी से कुछ कहें तो शब्द तरंगों और स्नायविक उत्पत्ति के बिना उत्पत्ति के लिए ऊर्जा का प्रयोग करना आवश्यक है। दूरबोध में ऊर्जा-विनिमय के लिए कोई स्थान नहीं है इसलिए दूर-बोध की सत्ता ही नहीं है( पृष्ठ 323) विज्ञान, रास्ते में रुककर संतुष्ट नहीं होता उसका स्वभाव है वह दोनों ही प्रकार के अनुभव वस्तुनिष्ठ और आत्मनिष्ठ को तब तक खोजता है जब तक वह अपने अनुभव का भेद न समझ ले । प्रसिद्ध भौतिक शास्त्री अरविन श्रोडिंगर कहते हैं, (व्हाट इस लाइफ पृष्ठ 91)’

“चेतना का अनुभव कभी अनेक में नहीं होता है केवल एक में होता है चेतना एक वचन है जिसका बहुवचन अज्ञात है। वह केवल एक ही वस्तु के भिन्न पहलुओं का अनुक्रमण मात्र है, जो वंचना से उत्पन्न होता है। वेदांत की कुछ गूढ़ उक्तियाँ इस साक्षात्कार के चरम बिंदु का प्रकटीकरण हैं।”

सर्वं खलु इदं ब्रह्म (पृष्ठ 331) यह सब विश्व ब्रह्म सर्वसाधारण के लिए ही तो मंत्रों ने स्वयं अपना रूप पिघला लिया है। स्वामीजी ने आसान से आसान शब्दों में प्रस्तुत भी किया है । शब्द, मनिषियों के टोकन मात्र है वह उनके द्वारा हिसाब चुका लेते हैं। संकेत चिन्ह हैं किंतु मूर्खों के लिए वहाँ रुपया है (पृष्ठ 202) केनोपनिषद में कहा गया है(2.4) ‘आत्मना विन्दते वीर्य विद्यया विन्दतेऽमृतम——

मनुष्य आत्मा द्वारा महान वीर्य प्राप्त करता है और साक्षात्कार द्वारा अमृततत्व’ (पृष्ठ 202)। वर्तमान में मनुष्य के समक्ष उपलब्धता बढ़ गई है। वह देख नहीं पा रहा है। तीर्थ यात्रा पर जाना है, तो सबसे पहले हेलीकॉप्टर की सुविधा, वाई-फाई नेटवर्क और ठहरने की व्यवस्था में ही रुचि दिखाती है। ईश्वरमय होना और ईश्वरमय दिखना बहुत ही ज्यादा अंतर है। गणित विषय में ग्राफ का पेपर सभी लोगों के समझ में नहीं आता है, कुछ लोग ही हैं, जो गणित में भी उपदेश और उपदेश में जीवन का गणित समझ पाते हैं। मार्ग हजारों हैं, कहाँ पहुँचना है? पता भी है तो सोचना क्या है?

 बुद्धदेव मगध (वर्तमान बिहार) की राजधानी में शिष्यों सहित ठहरे थे। उनका शिष्य थेरा (वरिष्ठ) अस्साजी प्रातः कालीन भिक्षाटन के लिए निकला था। दूसरी एक साधक की टोली है जिसका नायक परम नास्तिक गुरु संजय और सारि पुत्र मुग्गल्लान नामक प्रमुख सदस्य थे। दोनों का व्यक्तित्व अनोखा था और उनके अपने-अपने तर्क भी अनोखे और अकाट्य थे। दोनों ने निश्चित किया था कि जिसे पहले ज्ञान की प्राप्ति का एहसास हो वह दूसरे को बतायेगा।

उपनिषदों में कठोपनिषद में प्रस्तुत की गई मृत्यु के देवता यम और ऋषि पुत्र नचिकेता के संवाद के बारे में विभिन्न धारणाएँ भी हैं और वह लोगों को बहुत रुचिकर लगती है क्योंकि वह जीवन के कई आयामों से जुड़ा हुआ है। पुत्र अपने पिता से सवाल करता है और पिता यज्ञ-कार्य में व्यस्त है, इसलिए वह बोल देते हैं कि मैं तुम्हें यम को दूँगा। इतना बोलने भर से उनकी आज्ञा को स्वीकार करके नचिकेता बालक का यमराज की खोज में निकल पड़ना, यमराज के साथ मिलना और वहाँ आशीर्वाद के स्वरूप में वरदान प्राप्त करना, ये घटनाएँ घटती हैं। यमराज ने नचिकेता को तीन वरदान दिए साथ ही अपनी तरफ से भी उन्होंने सुंदर रंगों वाली एक माला भी उपहार स्वरूप प्रदान किया और अग्नि विद्या सिखाई, जो नचिकेत अग्नि के नाम से आज भी जानी जाती है। पर जैसे ही नचिकेता आत्मज्ञान की याचना की,  यमराज हिचकीचाने लगे। जीवन के गूढ़ रहस्य को जानने के लिए ग्रंथ का स्वयं अध्ययन कर आस्वादन लेना बहुत जरूरी है।

‘न जातु काम: कामानाम् उपभोगेन् शाम्यति।

हविषा कृष्णवत्मैव भूय एवाभिवर्धते।।

‘भोग द्वारा काम कभी शांत नहीं होते वह उसके द्वारा केवल अधिक प्रज्वलित होते हैं जैसे घृत में अग्नि’( पृष्ठ है 275)

‘श्रेय और प्रेय मुख्य रूप से ज्ञान के दो मार्ग बताए गए हैं’। (पृष्ठ 283)

पृष्ठ -पृष्ठ हम यात्रा करते जाते हैं और अनेक वेद के उद्धरण के साथ विदेशी विद्वानों की पुस्तकों के रहस्य हमारे उपनिषदों की टीकाओं के माध्यम से प्रस्तुत किये गये हैं। ओंकार जो समस्त सत्य का प्रतीक है, सूचक है।

‘सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति

तपांसि सर्वाणी च यद्वदन्ति

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति

त़त्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्

‘सारे वेद जिस लक्ष्य का वर्णन करते हैं, समस्त तपों को जिसकी प्राप्ति के साधन कहते हैं , जिसकी इच्छा से मुमुक्षु जन ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उस पद को मैं तुमसे संक्षेप में कहता हूँ। ऊँ यही वह पद है’( पृष्ठ 360)

शंकराचार्य कहते हैं ऊँ ध्वनि में भी अर्थ निहित है। इसमें इतनी योग्यता है कि गहरे उतरते जाओ, प्रकाशित होकर प्रकाश में समा जाओगे। कई जन्मों का पूर्ण फलता है तो ही अंगुष्ठ मात्र पुरुषोऽन्तरात्मा(पृष्ठ 518) के प्रति कहीं कुछ समर्पण भाव जागृत होता है। स्वामी रंगनाथानन्द जी की ज्ञान शक्ति, अपनी संस्कृति के प्रति भक्ति, समर्पण अतुलनीय है। उन्हें हृदय से प्रणाम।

तूलिका श्री संप्रति- ऑक्जिलियम कन्वट हाई स्कूल, बड़ौदा में हिदी संकृत की अध्यापिका के रूप में कार्यरत हैं। इन्हे अखिल भारतीय साहित्यकार अभिनंदन समिति मथुरा द्वारा राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय कवि सम्मान प्राप्त हैं और बड़ौदा से प्रकाशित हिदी  त्रैमासिक पत्रिका नारी अस्मिता में समीक्षक हैं।

रामकथा में शूर्पणखा

रामायण भारतीय अस्मिता का अनूठा ग्रंथ है। रामायण शब्द बाल्मीकि की निजी उ‌द्भावना है। आदिकवि की आर्ष भावना के अनुसार रामायण केवल रामकथा नहीं है बल्कि वह प्रमुखतः राम का अयन है। ‘अयन’ शब्द का तात्पर्य गतिशीलता से है, जो राम के सम्पूर्ण जीवन वृत्तान्त से उद्घाटित होता है अर्थात् राम के जीवन में गति ही गति है। वास्तव में रामायण केवल राम का अयन नहीं है, बल्कि रामा (सीता) का भी अयन है। राम व सीता की समन्वित जीवन शैली रामायण में वर्णित है। हिन्दी साहित्य के पुरोधा कवि गोस्वामी तुलसीदास राम के अनन्य भक्त थे। उन्होंने राम के जीवन वृतान्त पर आधारित एक महत्वपूर्ण ग्रंथ की संरचना की – ‘रामचरित मानस’। यह सर्वविदित है कि रामचरितमानस केवल ग्रंथ नहीं बल्कि वह हिन्दू धर्म का पवित्र दस्तावेज है। इसमें तुलसीदास ने जीवन के विविध रंगों का समायोजन किया है जहाँ पग-पग पर धर्म, संस्कृति, कला व लोक जीवन है। जहाँ सम्बन्धों व भाई-भाई को प्रेम प्रगाढ़ता चरम सीमा पर है। जहाँ रिश्तों की सही पहचान है। ऊँच-नीच के भेद-भाव को मिटाकर केवल प्रेम की गंगा प्रवाहित है। जहाँ छल, धोखा व अधर्म पर धर्म व प्रेम की विजय दिखायी गयी है।

मुख्यतः रामकथा भारतीय साहित्य, संस्कृति और कला का जीवन है। भारतीय जनमानस की आस्था, उसके विश्वास का सत्य, जीवन का शिवत्व एवं सामाजिक चिंतन का चिरंतन सुंदरम् उसी में नित रूप धरता है। रामचरित मानस में तुलसीदास जी ने राम के जीवन की अनेक घटना क्रमों से जोड़ते हुये एक आदर्श रूप प्रस्तुत किया है जिसमें अनेक पुरुष व स्त्री पात्रों की अहम् भूमिका रही है। रामचरित मानस की कथा सात काण्डों में वर्णित है। मानस के सभी पात्र अपने अभिनय में खरे उतरते हैं। मानस के प्रमुख स्त्री पात्रों में सीता, कैकेयी, कौशल्या, सुमित्रा, अहिल्या, अनसूया, शबरी, मन्दोदरी, त्रिजटा और शूर्पणखा है। सीता मानस् की नायिका है।

वह समस्त सद्‌गुणों की आदर्श प्रतिमा तथा समस्त विभूतियों की साकार मूर्ति हैं। इसके ठीक विपरीत शूर्पणखा मानस की खलनायिका है। वह सीता की प्रतिद्वन्द्वी है क्योंकि राम का जीवन उससे प्रभावित होता है। सीता का प्रेम राम के प्रति उपासना भावना से युक्त है जबकि शूर्पणखा के प्रेम में केवल वासना का आकर्षण है क्योंकि वह तो राम के मोहिनी मूरति से प्रभावित होती है। तुलसीदास जी ने स्त्री धर्म के संदर्भ में कहा है कि शरीर, वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना बस यह एक ही धर्म है, एक ही व्रत है और एक ही नियम है क्योंकि पति का अपमान करने वाली स्त्री यमपुर में अनेक प्रकार के दुःख पाती है।

“ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना।।

एकइ धर्म एक व्रत नेमा। काय वचन मन पति पदप्रेमा।।”[1]

सीता का चरित्र स्त्रियों के लिए सौभाग्यसूचक है। राम उन्हें प्राणों के समान प्रिय हैं। शूर्पणखा का चरित्र राम के जीवन घटना क्रम को बदल देता है। यह परिवर्तन राम को अप्रत्याशित दिशा की ओर ले जाता है। जिस प्रकार कुटिल बुद्धि मन्धरा की दुष्विचार से प्रभावित होकर दशरथ की सबसे प्रिय रानी कैकेयी की अपने पुत्र भारत के संदर्भ में राजमोह की लालसा जाग्रत हो जाती है और रामको चौदह वर्ष का वनवास दिलाकर अयोध्या से अलग करती है। इसी प्रकार शूर्पणखा का पंचवटी में अचानक का आगमन और राम-लक्ष्मण का सहज सात्विक परिहास राम-रावण के वैर का बीजारोपण करता है और राम से सीता को अलग कर देता है। राम के जीवन की दोनों घटनायें  रामचरितमानस को अप्रत्याशित किन्तु अभीष्ट दिशा में ले चलती है। इस दृष्टि से शूर्पणखा प्रसंग रामकथा को गति प्रदान कर महत्वपूर्ण योग देता है।

रामचरितमानस का चौथा काण्ड ‘अरण्य काण्ड’ महत्वपूर्ण काण्ड है। पिता दशरथ द्वारा वनवास दिये जाने पर राम, लक्ष्मण व सीता सहित वन-वन भटकते हुए अनेक राक्षसों का वध करते आगे बढ़ते जा रहे थे।

अनेक स्थानों पर उन्होंने मुनिजनों का आश्रय लिया। अपने वनवास की इस यात्रा में वे पंचवटी नामक स्थान पर पहुँचते हैं। पंचवटी ‘नासिक’ का बहुत ही सुन्दर स्थान है। चारों तरफ हरे-भरे वृक्ष युक्त हरियाली व गोदावरी नदी की कल-कल ध्वनि किसी के मन को मोहित कर सकती है। पंचवटी का दृश्य बड़ा ही मनोरम व हृदयंगम है। राम, लक्ष्मण व सीता सहित वहाँ कुटिया बनाकर वनवास का समय व्यतीत करते हैं एवं पंचवटी की महत्ता को द्विगणित करते हैं। इस प्रसंग में तुलसी दास जी ने राम की महिमा का गान किया है-

“बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकामा, तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा विश्राम।।”[2]

राम का मर्यादित व उदात्त अलौकिक व्यक्तित्व सीता की मोहिनी, सुकोमला रूप सौन्दर्य व लक्ष्मण की पौरूष व्यक्तित्व किसी को भी आकर्षित कर सकता था। शूर्पणखा का प्रवेश अरण्य काण्ड में होता है। यहाँ से राम की कथा में एक नया मोड़ आता है। गोदावरी के पवित्र सरित्प्रवाह में स्नान कर सीता, राम और लक्ष्मण पंचवटी की सुन्दर छाया में सुनहरी घड़ियाँ व्यतीत करते रहते हैं तभी आकस्मिक ढंग से शूर्पणखा का प्रवेश होता है। एक दिन सुबह के समय शूर्पणखा दण्डकवन में घूमते हुए राम के अद्वितीय सौन्दर्य को देखकर मुग्ध हो जाती है और अपनी जिज्ञासा और वासना को संतुष्ट करने के लिये पंचवटी के आश्रम में पहुँच जाती है-

“सूपनखा रावन कै बहिनी। दुष्ट हृदय दारून जस अहिनी ।।

पंचबटी सो गई एक बारा। देखि बिकल भई जुगल कुमारा।।”[3]

शूर्पणखा रावण की एक बहिन थी, जो नागिन के समान भयानक और दुष्ट हृदय की थी। वह एक बार पंचवटी में गयी और दोनों राजकुमारों को देखकर विकल (काम से पीड़ित) हो गयी। राम के सौन्दर्य से आकर्षित होकर वह विवाह का प्रस्ताव रखती है-

“रुचिर रूप घरि प्रभु पहिं जाई। बोली बचन बहुत मुसकाई ।।

तुम्ह सम पुरुष न मो समनारी। यह संजोग विधि रचा बिचारी।।”[4]

शूर्पणखा अपने राक्षसी रूप से सुन्दर रूप में परिवर्तित कर प्रभु राम के पास जाकर मुस्कराते हुये बोलती है कि न तो तुम्हारे समान कोई पुरुष है, न मेरे समान स्त्री। विधाता ने यह संयोग (जोड़ा) बहुत विचार कर रचा है। शूर्पणखा राम से कहती है मैंने तीनों लोकों की खोज कर देख लिया है कि मेरे योग्य पुरुष (वर) जगत भर में नहीं है इसी कारण मैं अबतक कुमारी अर्थात् अविवाहित हूँ, परन्तु तुम्हें (राम को) देखकर यह चित्त कुछ ठहरा है. अतः मैं तुम्हें अपना वर बनाना चाहती हूँ। इस पर राम सीता की ओर देखकर शूर्पणखा को लक्ष्मण के पास भेजते हैं कि वह कुमार हैं। तब वह लक्ष्मण के पास जाती है। लक्ष्मण उसे शत्रु की बहिन समझकर एवं प्रमु की ओर देखकर कोमल वाणी से बोलते हैं-

“सुदरि सुनु मैं उन्ह कर दासा। पराधीन नहि तोर सुपासा ।। [5]

प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा। जो कछु करहिं उनहि सब छाजा ।।” लक्ष्मण कहते हैं कि मैं तो उनका दास हूँ एवं पराधीन हूँ अतः तुम्हें सुख न होगा। प्रभु समर्थ हैं व कोसलपुर के राजा हैं वे जो कुछ करें सब उचित है। अतः तुम्हारे लिये मेरे बड़े भाई राम ही सर्वथा योग्य हैं और तुम भी उनके लायक हो। उनकी छोटी पत्नी बनने में कोई बुराई नहीं है। लक्ष्मण बड़े चतुराई से यह कहते हैं कि वह तो सीता से अधिक सुन्दर योग्य और सुपात्र है। शूर्पणखा दोनों भाइयों की चतुराई को समझ नहीं पाती है और सचमुच में स्वयं को सीता से अधिक सुन्दर समझती है। वह फिर राम राम के पास पहुँच जाती है –

“पुनि फिरि राम निकट सो आई। प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई ।।

लछिमन कहा तोहि सो बरई। जो तृन तोरि लाज परिहरई ।।”[6]

तब राम फिर से उसे लक्ष्मण के पास भेजते हैं इस पर लक्ष्मण जी ने कहा – तुम्हें वही बरेगा जो लज्जा को तृण तोड़कर (अर्थात् प्रतिज्ञा करके)

त्याग देगा (अर्थात् जो निपट निर्लज्ज होगा)। तब शूर्पणखा क्रुद्ध होकर राम जी के पास जाती है और उनके समक्ष अपना भयंकर रूप प्रकट करती है जिसे देखकर सीता भयभीत हो जाती हैं तब तत्काल राम जी लक्ष्मण जी को इशारा करते हैं। राम का इशारा पाकर लक्ष्मण जी ने बड़ी फुर्ती से उसको (शूर्पणखा को) बिना नाक-कान की कर दिया अर्थात् लक्ष्मण शूर्पणखा के नाक-कान काट देते हैं। एक प्रकार से वे रावण को चुनौती दे देते हैं-

“लछिमन अति लाव सो नाक कान बिनु कीन्हि।
ताके कर रावन कहें मनौ चुनौती दीन्हि।।”[7]

शूर्पणखा लक्ष्मण द्वारा किये गये इस कृत्य से अत्यंत अपमानित होकर और बावली हो जाती है। नाक-कान कटने की असह्य वेदना के साथ वह रोती-बिलखती,

चीखती-चिल्लाती फिर जंगल में उसी स्थान पर वापिस अपने भाइयों खर-दूषण के पास चली जाती और और बीती हुई पूरी घटना क्रम को सुनाती है। इस पर खर-दूषण क्रोधयुक्त राक्षसों की सेना तैयार कर राम से युद्ध करने के लिए तत्पर हो जाते हैं।

शूर्पणखा मुख्य रूप से राम-लक्ष्मण के सौन्दर्य से आकर्षित तो होती है परन्तु स्त्री होने के नाते वह सीता के सुकोमल रूप सौन्दर्य से भी बहुत प्रभावित होती है और यही भावना ईर्ष्या का रूप धारण करती है। राम और लक्ष्मण से अपमानित होने पर अब वही ईर्ष्या प्रतिहिंसा बन जाती है। अतः उसका क्रोध राम व लक्ष्मण से अधिक सीता के प्रति अधिक है। इसी कारण वह अपने भाइयों से बदला लेने के संदर्भ में सीता को भी समाप्त करने की बात कहती हैं क्योंकि तभी उसके अन्दर की वेदना शांत होगी।

अपनी बहन के अपमान का बदला लेने के लिए खर-दूषण राक्षसों की भयानक सेना लेकर राम से युद्ध करने के लिए पहुँच जाते हैं जहाँ राम उन राक्षसों से अकेले युद्ध करते हैं। लक्ष्मण सीता की रखवाली करते हैं। राम की शरवर्षा के भीषण प्रकोप के सामने कोई नहीं टिक पाता और सब के सब समाप्त हो जाते हैं। खर-दूषण का विध्वंस देखकर शूर्पणखा जाकर रावण को भड़काती है। वह अत्यंत क्रोधित हो कहती है कि तूने देश और खजाने की सुधि ही भुला दी –

“करसि पान सोवसि दिनु राती। सुधि नहिं तव सिर पर आराती।
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा ।।”

अतः रावण के दरबार में जाकर शूर्पणखा सारा वृत्तान्त रावण को इस प्रकार सुनाती है जिससे उसके मन में राम के प्रति द्वेष और सीता के प्रति प्रेम समान रूप से उत्पन्न हो जाये। शूर्पणखा बात-चीत में बड़ी चतुर व निपुण है। अपनी इसी विशेषता से वह रावण के समक्ष यह स्पष्ट करती है कि राम व लक्ष्मण दोनों भाई कोई साधारण पुरुष नहीं है बल्कि वे असाधारण व्यक्तित्व वाले हैं। इनके कारण  जंगल राक्षसों से रहित होता जा रहा है। खर-दूषण का वध इसका ज्वलन्त प्रमाण है। रावण मन ही मन विचार करता है कि यह निश्चित रूप से सत्य है। शूर्पणखा बात-चीत में सीता के अद्वितीय सौन्दर्य का चित्रण कर रावण के मन में सीता के प्रति प्रेम की भावना भी जाग्रत कर देती है।-

“रूप रासि बिधि नारि सँवारि। रति सत कोटि तासु बलिहारी ।

तासु अनुज काटे श्रृति नासा। सुनि तब मगिनि करहिं परिहासा। ।। [8]

 शूर्पणखा के अपमान का बदला लेने के लिए रावण मारीच को मायावी हिरण बनाकर जंगल में भेजता है जहाँ सीता उसे देखकर पाने के लिए आतुर हो जाती हैं फिर राम का उस मृग के पीछे भागना फिर आगे की घटनाक्रम में सीता को अकेले पाकर रावण का साधु वेश में आकर अपहरण करना रामकथा में विस्तार के साथ-साथ उसमें एक नया मोड़ लाता है। सीता को राम से अलग करने के संदर्भ में शूर्पणखा का लक्ष्य पूरा हो जाता है। सत्य और धर्म के सच्चे प्रवर्तक राम की साध्वी सीता परम सत्य का साकार रूप है जिसे पदच्यूत, भ्रष्ट और नष्ट करने में शूर्पणखा कोई कसर नहीं छोड़ती है। शूर्पणखा के चरित्र वर्णन में कहा गया है कि ‘राम की दृष्टि को राम से अलग करने का प्रयास करने वाली शूर्पणखा सत्ता और सत्य के सायुज्य की साधना में बाधा डालने वाली आसुरी शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है। सीता रामाक्षी है तो शूर्पणखा वामाक्षी है। यही दृष्टि-भेद शूर्पणखा के दृष्टि-दोष का कारण बन गया है और इस दोष का फल भी उसे भुगतना पड़ा। सर्वसत्तात्मक स्वामी की सहज सात्विक सुषमा को कलुषित दृष्टिकोण से देखने का यही परिणाम होता है। शूर्पणखा जैसे पात्र का प्रयोजन इसी शिक्षा के प्रसार में है।[9]

फिर यदि भाग्य, विडम्बना की बात की जाय तो कहा जा सकता है कि भवितव्य बहुत प्रबल होता है जो होना है सो होकर रहता है। राम जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम के मन में भी शूर्पणखा से कुछ परिहास करने की इच्छा होती है और लक्ष्मण भी इसी परिहास-प्रियता का पूरा-पूरा लाभ उठाते हैं। पर बेचारी शूर्पणखा इस परिहास और व्यंग्य को बिल्कुल समझ नहीं पाती। वह तो कामातुर थी। कुल मिलाकर सबकी मनोदशा ने प्रसंग को इतना जटिल और नाजुक बना दिया है कि आगे की घटना नियति से निर्धारित विधि से होकर ही रही।”[10]

अतः रामकथा के विस्तार में अरण्य काण्ड के पंचवटी प्रसंग महत्वपूर्ण है जहाँ शूर्पणखा का चरित्र उभर कर सामने आता है। शूर्पणखा कई दृष्टियों से भेद-भावना का सूत्रपात करती है जिसमें प्रथम सोपान है राम को सीता से अलग करना। तत्पश्चात् राम और लक्ष्मण को अपनी ओर आकृष्ट करने का उसका असफल प्रयास और रावण के मन में सीता के प्रति आसक्ति की भावना प्रबल रूप से जाग्रत करने का प्रयास। शूर्पणखा के दो और सोपान है यद्यपि वह अपने प्रयास में पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पाती है क्योंकि कहीं न कहीं उसका ध्येय राम और सीता को मानसिक रूप से अलग करना होता है जो सफल नहीं होता है। रामकथा के आगे घटना प्रसंग इस बात की पुष्टि करते हैं। वाणी और अर्थ, जल और तरंग, चाँद और चाँदनी की तरह एक-दूसरे से घुले मिले एक ही तत्व के दो रूप हैं- सीता और राम। शूर्पणखा का क्षुद्र प्रलोभन राम के मन पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाता और इससे भी अधिक दृढ़ता सीता के निश्चल मन में तब देखी जाती है जब अपार सम्पत्ति का स्वामी रावण अनेक प्रकार के प्रलोभन दिखाकर सीता को अपने वश में करना चाहता है परन्तु उसका प्रयास निष्फल हो जाता है। वह रावण की सारी सम्पत्ति व पराक्रम को तिनके के समान ठुकरा देती हैं क्योंकि उसके हृदय में तो राम की प्रतिमा स्थापित है। निष्ठा की इस पराकाष्ठा का बिल्कुल विपरीत स्वरूप शूर्पणखा के चरित्र में परिलक्षित होता है। सीता की पवित्रता को स्पष्ट व पूर्ण रूप से प्रकट करने के लिए शूर्पणखा बहुत ही उपयोगी सिद्ध होती है, क्योंकि उसका चरित्र उलझा हुआ चंचल और विषय वासिनी नारी के रूप में प्रकट होता है और इसके ठीक विपरीत सीता सुलझी हुई साहसी व अन्तर्मुखी हैं।

शूर्पणखा के व्यक्तित्व में उन्माद, आक्रोश और प्रतिहिंसा का प्रकट रूप है। उसका चरित्र प्रभावशाली व महत्वपूर्ण है एवं रामकथा के विस्तार में योग प्रदान करता है।

प्रो० डॉ० सविता कुमारी झीवास्तव, म प्रोफेसर-हिन्दी क हेमवती नन्दन बहु‌गुणा राजकीय सातकोत्तर महाविद्यालय नैनी प्रयागराज


[1] तुलसीदास,रामचरितमानस, 3.5

[2] तुलसीदास,रामचरितमानस, 3.16

[3] तुलसीदास,रामचरितमानस, 1.3.17

[4] तुलसीदास,रामचरितमानस, 1.3.17

[5] तुलसीदास,रामचरितमानस, 3.17

[6] तुलसीदास,रामचरितमानस, 1.3.17

[7] तुलसीदास,रामचरितमानस, 1.3.17

[8] तुलसीदास,रामचरितमानस, 1.3.22

[9] . डॉ० पांडुरंग राव, रामायण के महिला पात्र , भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली,101

[10] डॉ० पांडुरंग राव, रामायण के महिला पात्र , भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली,102

असम की प्रथम नारी शहीद – मांगरी उराव उर्फ मालती मैम

भारत की सरजमीं को पूरे 200 साल तक अपने अधीन करके हमारे ही लोगों पर न जाने कितने अत्याचार किए। फल स्वरुप भारतीयों के मन में ब्रिटिश के खिलाफ विद्रोह शुरू हुआ। संपूर्ण भारतवर्ष में ब्रिटिश शासन के खिलाफ सबसे पहले आदिवासी समुदाय ने विद्रोह किया था। सन् 1785 में तिलका मांझी और जबड़ा पहाड़ी ब्रिटिश के खिलाफ लड़कर शहीद हुए थे। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का सूत्रपात सिपाही विद्रोह से माना जाता है। लेकिन उससे भी पहले हजार- हजार आदिवासी लोग ब्रिटिश के खिलाफ लड़कर शहीद हुए थे। यह समुदाय केवल संथाल , उराव ही नहीं बल्कि बेचू रावत जैसे ग्वाला संप्रदाय को भी सार्वजनिक रूप से फाँसी दी गई थी।

यह वह दौर था जब असम प्रदेश कांग्रेस स्वतंत्रता आंदोलन में झारखंडी आदिवासी को शामिल करना नहीं चाहते थे। बल्कि चाय श्रमिक स्वयं ब्रिटिश के खिलाफ लड़ रहे थे। यह बात स्वयं अमिय कुमार दास ने भी स्वीकार किया था कि 1921 से पहले कांग्रेस ने कभी चाय बगीचे की आदिवासियों के साथ काम नहीं किया था।

1921 के असहयोग आंदोलन में असम की प्रथम महिला मांगरी उराव उर्फ मालती मेम शहीद हुई थी। जो एक आदिवासी महिला थी। 101 साल पहले शहीद हुई मालती मेम आज भी इतिहास के पन्ने पर गुमनाम है। जबकि 1921 के स्वतंत्रता आंदोलन में पूर्वोत्तर भारत की वह प्रथम महिला हैं, जो शहीद हुई थीं। आज पूरे देश में आजादी का पचहत्तर वर्ष अमृत महोत्सव के रूप में मनाया गया। ऐसे में मांगरी उराव उर्फ मालती मेम का उल्लेख करना न केवल आवश्यक है बल्कि गुमनामी के अँधेरे में दबी इस महान सेनानी को सम्मान देने की जरूरत भी है।

 मालती मेम एक आदिवासी महिला थी। जिनकी मर्मस्पर्शी कहानी को उस समय के लोकप्रिय नेता स्वतंत्रता सेनानी लेखक एवं संपादक अमिय कुमार दास द्वारा लिखित आलेख “उटी अहा एपाही फूल ….मांगरी “ अर्थात् “बहकर आया एक फूल …..मांगरी “ में उल्लेखित मांगरी की दर्द और अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने की कहानी है।

1919 के जालियांवाला बाग के निर्मम हत्याकाण्ड में घटित घटना ने मानों प्रत्येक भारतीयों के मन में स्वतंत्रता की ज्वाला धधका दिया था। क्या बूढ़े , क्या जवान, क्या महिलाएँ, क्या बच्चे सभी ने जैसे ब्रिटिश के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया था। सन् 1920 में गाँधीजी द्वारा प्रस्तावित असहयोग आंदोलन को सर्वसम्मति से पारित किया गया। हजारों की संख्या में नवयुवक, नवयुवतियाँ पढ़ाई छोड़ कर स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे।

सन् 2021 में असहयोग आंदोलन पूरे भारत में सक्रिय हो उठा था और असम में भी इस आंदोलन ने गति पकड़ ली थी। 19वीं शताब्दी में असम में शराब और तंबाकू का बहुत मात्रा में प्रचलन होने के कारण बहुत घर बर्बाद हो रहे थे। हालत यहाँ
 तक थी कि महिलाओं को गहने को गिरवी रखना पड़ रहा था। असहयोग आंदोलन के दौरान गांधीजी ने कांग्रेस नेता और स्वयंसेवकों से कहा कि मादक द्रव्य का वर्जन बहुत जरूरी है। इस पर ध्यान देना इसलिए जरुरी था क्योंकि उस समय में तंबाकू से आने वाली आय सरकार की झोली भर रही थी। इसलिए ब्रिटिश सरकार इधर यह नशा बंद न हो उस पर नजर भी रख रही थी क्योंकि इससे सरकार को नुकसान होने की आशंका थी। इसीलिए जहाँ पिकेटिंग होती, वहाँ पुलिस धड़ पकड़कर ले जाते थे। मगर स्वराज की कल्पना करने वाले स्वयंसेवक तनिक भी घबराए बिना अपने मिशन पर लगे रहे। फलस्वरूप सरकारी खजाने की आय कम होने लगी। सन् 1921 में लगभग 50% आय कम करने में सक्षम हो गए थे। तेजपुर में भी यह अभियान पूरी तरह चल रहा था। 2 अप्रैल, 1921 के दिन तेजपुर में राष्ट्रीय आंदोलन के सक्रिय नेता अमिय कुमार दास और उनके दोस्त लखीधर शर्मा उस दिन तेजपुर में मादक द्रव्य के वर्जन के लिए धरना दे रहे स्वयंसेवकों देखने के लिए गए। धरना तेजपुर के सिद्धि महाल्दार जमीलाल की दुकान के समीप था। उन्होंने एक अजीब घटना देखी। नेपाली पट्टी से एक महिला साफ-सुथरी साड़ी पहनी हुई पैर में जूते और हाथ में बोतल पकड़े हुये स्वयंसेवकों द्वारा दिए गए धरना स्थल की ओर आ रही थी। स्वयं सेवक स्वर्गीय थुलेश्वर बरा (कांग्रेस प्रमुख) उसे शराब की दुकान पर जाने से रोकने के लिए खड़े हो गए। यह देखकर वह महिला दूर से ही उन्हें सुनाती हुई जोर से गीत के माध्यम से बोलने लगी- “ मैं शराब पियूँगी, मजे करूँगी, मजे करूँगी मजे करूँगी ।” उन्होंने महिला का ऐसा रूप पहले कभी नहीं देखा था। लीलाधर ने महिला से प्रश्न किया -“आप कौन?”
 बस प्रश्न करना ही शेष था कि वह गरजती और हँसती हुए बोली “मुझे नहीं पहचानते? हा.. हा.. हा.., तीन साहब का सिर खा चुकी हूँ” कुटिलता के साथ फिर बोली, “आ जाना शाम को, लाल माटी में मेरा घर है। ” “आपका नाम ?” यह सुन वह महिला जोर से हँसती हुई फिर बोली, अंग्रेजी वर्ण में अपना नाम बताया “ एम ए एल ए टी आई , पहले का नाम था एम ए एन बी आर आई अभी साहब लोग मुझे मालती मेम बुलाते हैं। ” रास्ता रोक खड़े स्वयंसेवक को देखकर बोली –“मुझे जाने दो “ लेकिन थुलेश्वर बरा भी रास्ता छोड़ने वालों में से नहीं थे। वह बोले, “आपके पैर पड़ता हूँ माँ, मैं आपको शराब खरीदने नहीं दूँगा। ” यह सुनते ही वह बोली –“तुम कौन हो जो मुझे माँ कहकर बुला रहे हो?” माँ शब्द ने जैसे जादू कर दिया था। जीवन में मिले दुख- दर्द शोषण एवं दुत्कार ने उसे तोड़ के रख दिया था। उसने कहा- “लो छोड़ देती हूँ शराब, अब नहीं पिऊँगी” कहकर बोतल फेंक देती है। उसी समय लखीधर ने कहा-“आप सभी की माँ है। आप शराब छोड़ सकेंगी ।” मालती मेम अब बिल्कुल सहज हो चुकी थी। कल सुबह 10:00 बजे मेरे घर आ जाना। सच कहूँ तो अमिय कुमार दास से मिलने के बाद उसके जीवन में परिवर्तन हुआ। मालती मेम ने अपने जीवन कथा अमिय दास और उनके दोस्त को सुनाई जिसे उन्होंने लिपिबद्ध किया। जिसके कारण मालती मेम के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी मिलती है वरना गुमनामी के अँधेरे में दबी मालती के बारे में आज किसी को पता नही चला होता। अमिय कुमार दास के संपर्क में आने के बाद मालती ने स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान दिया। मगर ब्रिटिश की कड़ी नजर का आखिरकार उसे सामना करना पड़ा और देश के लिए मुखबरी करने के कारण वह मार दी गई और इस तरह 1921 के आंदोलन में मांगरी असम में प्रथम महिला शहीद मानी जाती है। यह अलग बात है कि ऑफिशियल रूप में उसे शहीद का दर्जा नहीं मिल पाया है।

 मालती मेम उर्फ मांगरी उराव का संक्षिप्त परिचय

सुंदर नयन नक्श की मांगरी के जीवन बहुत दुख दर्द से भरा रहा। अमिय कुमार दास जी द्वारा लिखित लेख में उल्लेखित मांगरी के जीवन गाथा को इस प्रकार हम जान सकते हैं मांगरी उराव का जन्म झारखंड के हजारीबाग के एक गांव के एक गरीब परिवार में हुआ था। गांव चारों से ओर जंगलों से घिरा हुआ था। गरीबी में पली-बढ़ी मांगरी अक्सर अपनी सहेलियों के साथ जंगलों में जाया करती थी। नदी में नहाती जंगलों से लकड़ी बिन कर लाती थी। गांव के लड़के धनुष-काड़ लेकर हिरण का शिकार करते थे कभी-कभी तो लड़के पेड़ के नीचे बैठकर बाँसुरी बजाते थे। उन्हीं में से एक लड़का था सोमरा जो अत्यंत मधुर बाँसुरी बजाया करता था। देखने में भी वह सुंदर था। जब वह तन्मय होकर अकेले बासुरी बजाता था, तब मांगरी उसकी बांसुरी की धुन में खो जाती थी। धीरे-धीरे वह सोमरा के प्रति आकृष्ट होने लगी। मगर सोमरा अनाथ और बहुत गरीब होने के कारण मांगरी के पिता को यह रिश्ता मंजूर नहीं था। हर पिता यह चाहता है कि उसकी बेटी को कोई तकलीफ न पहुँचे। यही सोचकर वे इस रिश्ते के खिलाफ थे। एकदिन जंगल में लकड़ी बीनते समय मांगरी ने खूब महुआ खा लिया जिसके कारण उसे नशा चढ़ गया और पेड़ के नीचे वहीं सो गई। काफी देर बाद जब उसकी नींद खुली तो सामने कोई नहीं था सभी लोग चले गए थे। सोमरा उसे अकेले छोड़कर जा नहीं पाया। वह वहीं बैठा रहा और दोनों को बात करने का अवसर मिला। दोनों ने निर्णय लिया कि वे घर वापस नहीं जायेंगे। वे दोनों वहाँ से बुआ के पास भाग जाते हैं। इस तरह चुपचाप आने पर बुआ को अच्छा नहीं लगता मगर रहने दे देती है। उधर मांगरी के पिता दोनों को ढूंढते हुए जब आते हैं उससे पहले ही दोनों वहाँ से भाग जाते हैं। उस समय दलाल भोले- भाले लोगों को अपनी बातों में फँसाकर असम के चाय बागानों में मजदूरी का काम करने के लिए भेजते थे और अंग्रेज साहबों से कमीशन लेते थे। इन्हीं एक दलाल के हाथों पिता से बचते हुए इसी तरह दोनों असम के चाय बागान में पहुँच जाते हैं। चाय बागान के लाइन में रहकर बहुत कष्ट के साथ दिन गुजरने लगा। कभी-कभी दिनभर का काम पूरा न कर पाने से दिन की मजूरी भी नहीं मिलती थी तो फाके भी काटने पड़ते थे। मगर दोनों साथ थे, यही अच्छी बात थी।

 एकदिन सोमरा एक गंभीर बीमार की चपेट में आकर हॉस्पिटल में भरती हुआ। मांगरी भी अस्वस्थ होकर भरती हुई। लेकिन ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। सोमरा का सेहत दिन ब दिन खराब होने लगा और अपनी प्रिय मांगरी को अकेली छोड़ हमेशा के लिए दूसरे लोक में चला गया। अस्वस्थ मांगरी यह सब दूसरे बेड से देख रही थी पर वह बेबस थी। आँसू के सिवा उसके पास कुछ नहीं बचा था। जिस सोमरा के प्रेम में न जाने कितने सुखद सपने संजोए सुदूर झारखंड से अपने माता-पिता को छोड़कर हमेशा के लिए असम आई थी। वही सोमरा हमेशा के लिए उसका हाथ छोड़कर चला गया था। बेहद दुखी, बेबस मांगरी कुछ दिनों बाद हॉस्पिटल से छुट्टी पाकर बागान के लाइन में आयी। अकेली मांगरी के जीवन में अब शुरु हुआ संघर्ष का दौर। कई युवक उसके आगे पीछे चक्कर लगाते मगर मांगरी बस चुपचाप बागान में काम करती कभी किसी की तरफ नहीं देखती। ऐसे में लाइन में लक्ष्मण काका कभी-कभी उसकी खबर लेने आ जाते थे। एकदिन उन्होंने मांगरी से कहा- “देखो ऐसे अब कब तक अकेली रहेगी? मेरी मानो तो तू शादी कर ले। देखो बंगले के साहब को तुम बहुत पसंद हो। जाओ, उन्हीं के साथ रहो। अच्छा है, ठाठ से मेम बनकर रहना” । पर मांगरी बात को टाल देती। लक्ष्मण काका जब भी आते एकबार जरुर कहते बंगले में रहो मांगरी। आखिर में मांगरी ने साहब के साथ रहने की सोची। इस तरह साहब के साथ मांगरी बंगले में रहने लगी और मांगरी उराव से मालती मेम बन गई। मगर तीन बेटों को जन्म देकर भी मांगरी को बच्चे नहीं मिले, साहब ने समझा-बुझाकर कहा कि बच्चों को अच्छी तालीम हेतु मिशन में भेज रहे हैं। भोली-भाली मांगरी बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए मान जाती है।
 एक दिन साहब जब यह कहकर गए कि “मैं जा रहा हूँ। जब मैं आऊँगा, तो फिर आ जाना। मगर जब आया तो गोरी मेम उसके साथ थी। मांगरी को बुरा लगना स्वाभाविक था। एक के बाद एक तीन अंग्रेज साहब आते-जाते रहे। अंत में सभी साहब चले गए, मांगरी अकेली रह गई। यही उसके आक्रोश का कारण बन गया। वह तेजपुर के लालमाटी में रहने लगी। धीरे-धीरे शराब की आदी बन गई। इस तरह जीवन में अनेक घात-प्रतिघात के बीच उस दिन अमिय कुमार दास और लखीधर दास के संपर्क में आकर उसका जीवन बदल गया। ब्रिटिश के प्रति रोष ने उसे स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने को प्रेरित किया। इसी तरह असहयोग आंदोलन में अंग्रेजों के विरुद्ध मुखबिरी का काम करते समय ब्रिटिश सरकार को पता चलता है और उनके हाथों वह मारी गई । इस तरह स्वतंत्रता आंदोलन में पूर्वोत्तर भारत के असम राज्य की प्रथम शहीद महिला थीं मांगरी उराव उर्फ मालती मेम।

इधर सन 1969 में भारत सरकार द्वारा ‘Who’s Who of Indian Martyrs’ नामक ग्रंथ में स्वतंत्रता आंदोलन में शहीद हुए लोगों का नाम प्रकाशित किया गया। देश के 41 शहीदों के भीतर असम के चार महिला शहीदों का नाम है। मगर दुख के साथ कहना पड़ रहा है उसमें भी मांगरी उराव का नाम नहीं है। सन 1979 में असम सरकार ने ‘ मुक्ति जुझारुर अनुसंधान समितिर प्रतिवेदन’ नामक पुस्तिका में स्वतंत्रता आंदोलन के 29 शहीदो के भीतर 5 महिलाओं का नाम है। मगर मांगरी का नाम वहाँ भी नहीं है।

फरवरी 1994 में ढेकियाजुलि में ‘असम चा व प्राक्तन चा जनजाति युव संस्थार राज्यिक अधिवेशन’ के स्मृतिग्रंथ में प्रकाशित रचना मालती मेम के बारे में लिखकर चाय जनजाति के दृष्टि आकर्षण किया था।
अमिय कुमार दास द्वारा लिखित आलेख के आधार पर लेखक सुशील कुर्मी जी असम के अनेक बागानों में स्वयं घूम-घूम कर मांगरी के परिवार की जानकारी इकठ्ठा करने का प्रयास करते हैं। प्राप्त जानकारी के अनुसार “तेजपुर एण्ड घघरा चा बागिचा” में मांगरी ने सबसे पहले चाय की पत्ती तोड़ी थी और इसी बागान के साहब की मेम बनी थी। अंत काल में देश के लिए सर्वोच्च बलिदान देकर हमेशा के लिए अमर बन गईं।

निष्कर्ष: आज हमारे देश को स्वतंत्र हुए 75 वर्ष हो गए है। मगर बिडम्बना यह है कि आज भी हमारे स्वतंत्र सेनानी गुमनामी के अँधेरे में जी रहे हैं, जिन्होंने आजादी के लिए सहर्ष बलिदान दे दिया। आजादी का अमृत महोत्सव के अवसर आज उन विस्मृत सेनानियों को न केवल याद करने की, बल्कि उनकी खोज कर उन्हें सम्मान देने की भी जरुरत है। 101 साल पहले देश के लिए शहीद होने वाली आदिवासी महिला मांगरी उराव ऊर्फ मालती मेम असम की प्रथम शहीद थी। जिन्हें वह सम्मान अवश्य मिलनी चाहिए । इस महान महिला मांगरी उराव उर्फ मालती मेम को मेरा नमन।

तेजपुर की रहने वाली रीता सिंह सर्जना ‘ उषा ज्योति’ नमकक पत्रिका संपादन करती है उनके लिखे कहानियां का पुस्तक नई सुबह कई जगह से सराहा गया


संदर्भ ग्रंथ-
1.ब्रिटिश साम्राज्यवाद-चा पूंजिवाद जातीय निपीड़न आरु यौन शोषणर विरुद्धे आदिवासी कन्या, महान महिला मांगरी उरावर मुक्ति युद्ध- डॉ. देवब्रत शर्मा।

2. उटि अहा एपाही फूल…मांगरी – अमिय कुमार दास द्वारा लिखित आलेख- 1969(चा मजदूर पत्रिका में प्रकाशित)

3 . भारतर स्वाधीनता संग्राम: अहमर महिला शहीद – 1988 (प्रांतिक पत्रिका में प्रकाशित शोध आलेख)

4. मांगरी उरावर जीवन धारा- सुशील कुर्मी द्वारा लिखित शोध आलेख

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खेल

डाॅ मुक्ता

उसने सोचा... कई बार सोचा
अपने आजमाए घरेलू नुस्खों से भी काम चल सकता है
लेकिन जब बुखार बढ़ा
बढ़ती ही गई बेचैनी... बदन की सूजन
शरीर पर रेंगने लगी सुईयां

महीने की शुरुआत में ही कटौती कर सौंपनी पड़ी मोटी रकम डॉक्टर को
छोटी सी चमकदार पोटली में पाँच हजार की दवाएँ
उसे मालूम है यह एक खेल है
जो कम पैसों में नहीं खेला जा सकता

उसे दिखाई दे रही हैं वह कतारें
जिन्हें न दवा मुहैया है …न रोटी

एक व्यक्ति के इलाज के बाद –
अपनी मृत्यु-तिथि की प्रतीक्षा में गुम हो जायेंगी दवाएं…..
जिनसे अनेक का इलाज संभव था।

क्या वह दावेदार है इस चमकदार पोटली की?
कतारों में फैले सर्वहारा - हाथ
अभाव में होते जा रहे हैं ठूँठ।