कैथरीन

”देख लल्ला मै तेरे लिए दो साल से चाँद सी बहू ढूंढ रही थी , पर अब तूने अपनी मर्ज़ी से शादी विदेश में कर ली चल कोई बात नहीं ,तू खुश तो हम भी खुश पर तूने तो बहू की फोटो भी नहीं भेजी अब सीधे मुंह दिखाई ही होगी । सारे मेहमान घर पर होंगे , बहू से कहना घूँघट डाल कर ही कार से उतरे । मुँह दिखाई के बाद ही पल्ला सिर से हटेगा अब इतनी रीत तो निभानी ही पड़ेगी ।’  माँ  की बातें विपिन के दिमाग में घूम रही थी । । शादी तो उसने अमेरिकन अफ्रीकन कैथरीन से कर ली पर अब अम्मा की फरमाइश पूरी करने के लिए अमेज़ाॅन से मंगाई गई रेडीमेड साड़ी में सजी जब कैथरीन के साथ वो कार से उतरा तो माँ सीता देवी तो उसका डील डौल देख कर बेहोश होते होते बची ,ऐसा विपिन ने परख लिया।

दरवाज़े पर आरती के बाद कोहबर पूजने की रस्म हुई फिर मुंह दिखाई शुरू हुई । एक एक कर मुंह देखने के बाद सभी महिलायें एक कोने में फुसफुसा कर बात कर रही थी

“हाय हाय  कोयले की खान से निकाल कर लाया है क्या ।”
“ओंठ तो ऐसे जैसे सुअरिया का मुँह ।”
 ”हथिनी लग रही है ।”
“सीता बहन जी के तो अरमानों पर बेटे ने पानी फेर दिया ।”

सभी की बातें सीता जी के कान तक भी पंहुच रही थी। अचानक से उठी बहू का घूँघट हटा दिया बोली-

 ”काली है ,मोटी है तो क्या ? यह क्यों भूल रही हो एक विदेशी लड़की मेरी खातिर साड़ी पहन कर ,सिर ढक कर इतनी देर से सारी रस्में जो उसे समझ भी नहीं आ रही होंगी पूरी कर रही है क्या कम है ?मेरा बेटा खुश है तो मैं भी खुश हूँ ।कैथरीन ,गो, चेंज योर क्लोद्ज़ । रिलेक्स इन योर रूम।”

 सीता देवी की बात सुनकर सभी महिलाओं के मुंह उतर गये और विपिन के चेहरे पर मां के लिये श्रद्धा का भाव द्विगुणित हो गया था ।

मंजु श्रीवास्तव’मन’ संप्रति भारत सरकार के राजभाषा सेवी है। आलोचना और लघुकथा संग्रह सहित १४ पुस्तकें प्रकाशित, कतिपय यंत्रस्थ। अर्द्धशताधिक लघुकथाएं प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित, कुछ पाठ्यक्रम में समाविष्ट। २०२१ का राष्ट्र भाषा भूषण सम्मान से सम्मानित।

कर्नल साहब

नीता शर्मा

आज माँ को सिधारे पंद्रह दिन हो गए। सब नाते रिश्तेदार जा चुके थे। घर में कर्नल साहब तथा बेटा बहु और बेटी रह गए थे। रिटायर्ड कर्नल थे वो। रुतबे के मुताबिक ही खूब रौबदार और निहायत ही सख़्त किस्म के फौजी थे। रिटायर हुए लगभग दो वर्ष हो गए थे पर क्या मजाल किसीकी की घर को छावनी से बदलकर घर में परिवर्तित किया जा सके। आज भी पूर्णतया फौज के अनुशासन वाला कड़ा कानून ही चलता था घर में। माँ बेचारी ने जाने कैसे सारी उम्र काट दी एक फौजी का हुक्म सहते सहते। सारा परिवार अपने अफसर के आगे सदैव “यस सर” की मुद्रा में ही दिखाई देता।

कभी भी माँ से एक पति की तरह बात करते या हँसते-बोलते नहीं देखा था उनको। माँ भी तो बिना किसी शिकवा-शिकायत के, एक आदर्श भारतीय नारी के समान उनकी सेवा में रत रहती दिन रात। बस एक ही शौक बचा था माँ को, रेडियो पर फिल्मी गाने सुनने का। एक छोटा-सा ट्रांजिस्टर छुपा कर रखती थी अपने पास। जब भी समय मिलता अक्सर माँ गाने लगा कर साथ में गुनगुनाती थी। मगर पिताजी की गैर हाजिरी में ही ये संभव हो पाता। कर्नल साहब जानते थे माँ के इस शौक को पर क्या मजाल की कभी साथ मिलकर आनंद ले लेते। पिछले पंद्रह दिनों में बेशक मायूसी दिखी थी कर्नल साहब के चेहरे पर, लेकिन आँखों से एक बूंद ऑंसू बहते न दिखा किसीको।इतना भी क्या सख्त होना की जिस औरत ने सारी उम्र दे दी उनके घर परिवार को, उसके जाने का भी गम नहीं। सभी रिश्तेदार भी आपस में कानाफूसी करते दिखे।

“अजीब ही कड़क इंसान हैं ये! अरे इतना भी क्या सख़्त होना कि सावित्री जैसी पत्नी पर भी दो बूँद ऑंसू नहीं दिखे इनकी आँखों में। ”
“अरे कितने सख्त दिल हैं अपने कर्नल साहब। मजाल है जो एक ऑंसू भी निकला हो आँख से।”बेटा, बेटी को पिता की आदत पता थी पर इतने संगदिल होंगे उन्होंने भी सोचा न था। माँ के जाने से ज्यादा पिता के इस रूप को देखकर दिल व्यथित था दोनों का। एक बार भी पिता ने माँ की किसी बात का ज़िक्र तक नहीं किया। बिल्कुल चुप्पी साध ली थी। हमेशा की तरह काम की या कोई जरूरी बात ही की थी इतने दिन से।
आज भी रोजमर्रा की तरह रात को ठीक 8 बजे खाना खाकर आधा घंटा बाहर लॉन में टहलने के बाद ठीक नौ बजे अपने कमरे में चले गए थे कर्नल साहब।
सुबह ठीक 6 बजे उठ जाते थे और माँ हाथ में चाय का कप लिए खड़ी होती थी। चाय पीकर सुबह की सैर को निकल जाया करते थे। बीते पंद्रह दिन से भी यही दिनचर्या की शुरुआत थी उनकी। फर्क बस इतना था कि चाय अब बेटी बनाकर तैयार कर देती है। आज भी चाय का कप लेकर पापा को देने कमरे में चली गई। दरवाजे से झाँका तो स्तब्ध हो गई। अरे ये क्या? पापा और माँ का ट्रांजिस्टर! अपनी आँखों पर यकीन न हुआ ये देखकर कि कर्नल साहब आराम कुर्सी पर माँ का ट्रांजिस्टर गोद में रखे आंखे मूंदे कुछ सुन रहे थे। क्या ये कर्नल साहब ही हैं, उसके रौबीले पिता। बुत बनी देखती रही। आँखों में पानी भर आया और दरवाजा खटखटा सीधे अंदर घुस गई।
“पापा आपकी चाय?”
पर ये क्या? किसको पुकार रही थी वो। एक निर्जीव शरीर पड़ा था वहां तो। सख़्त दिल पापा तो माँ के पास जा चुके थे
नीता शर्मा, लेखिका, आकाशवाणी की पूर्वोत्तर सेवा में हिंदी उद्घोषिका।

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रोटी

सीमा सिंह ‘स्वस्तिका’

माँ, आज नाश्ते में क्या बना है?
-पूछ तो ऐसे रहा है जैसे नवाब का नाती है।
-फिर भी बोलना न माँ, नाश्ते में क्या है?
-मुरमुरे।
-माँ, आज भी वह नमक वाली रोटी दे ना?
-नहीं, वो रोटी सुरेश के लिए है। तूने तो कल ही खाई थी ना।
आज तू मुरमुरे खा लेना।
-पर माँ, तू क्या खाएगी?
-मैं मालकिन के यहां सुबह का चाय पी लूंगी।
-चलती हूँ। कहकर गंगूबाई कांधे पर
झोला लेकर काम पर निकल गई।
सीमा सिंह: प्रतिष्ठित लेखिका एवं अध्यापिका।

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लघुकथाएँ

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वास्तुशास्त्र

डॉ श्यामबाबू शर्मा

प्लाट की रजिस्ट्री करवा कर राजीव ने तुरंत ही प्लाट की बांउन्ड्री कराना उचित समझा। अनुभवी लोगों ने मशविरा दिया कि नक्शा बनवाकर बाउन्ड्री कराने से डबल खर्च नहीं होगा। राजीव हर काम को चुस्त दुरुस्त करने के हिमायती। पश्चिम मुखी घर में किस दिशा में कौन-कौन से कमरे रहेंगे इसकी वास्तुशास्त्री से पूरी तफ्सीस की।
बिल्कुल उत्तर पश्चिम में बैठक कक्ष। आग्नेय कोण में अन्नपूर्णा वास। पानी का निकास वायव्य दिशा में। बच्चों का कमरा दक्षिण पश्चिम की ओर। टेबल चेयर की दिशा पूरब को। वंदना की जिद अटैच पर थी परंतु इस आधुनिक संस्कृति में वास्तु दोष के कारण वंदना रुक गई। जल स्रोत मल निस्तारण के स्थान इंगित किए गए। बेड रूम की दिशा भी। श्लील अश्लील अब ग्रंथों के शब्द हैं! पूजा घर देवस्थान के लिए ईशान कोण

भूमि पूजन, आहुतियां और प्रसाद वितरण। पंडित श्रीधर ने दक्षिणा ली और बगल में खड़े जजमान सुख नंदन की ओर निहारते राजीव से पूछा ‘भैकरा का कमरा?’
. . . जीजी जी बाबू जी बैठक कमरे में. . वंदना ने स्वर विस्तारित कर संपूर्ति की ‘हां हां पंडित जी यह बैठक कमरा है ना!
डॉ श्यामबाबू शर्मा संप्रति भारत सरकार के राजभाषा सेवी है। आलोचना और लघुकथा संग्रह सहित १४ पुस्तकें प्रकाशित, कतिपय यंत्रस्थ। अर्द्धशताधिक लघुकथाएं प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित, कुछ पाठ्यक्रम में समाविष्ट। २०२१ का राष्ट्र भाषा भूषण सम्मान।

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लघुकथाएँ

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फन्ने खान और दीनदयाल

रुनू बरुवा ‘रागिनी तेजस्वी’

फन्ने खान अपने जमाने का बड़ा ही होनहार तबलावादक था। रिकार्डिंग स्टूडियों में हमेशा उसकी मौजूदगी रहती थी। शायद सफलता का नशा था जो सर चढ़कर बोलने लगा था। बचपन की साथी नजमा जिसे कभी दिलोजान से प्यार करता था और शादी के सपने देखा करता था, अब उससे मिलने या बात करने की भी उसे जरुरत महसूस नहींं होती थी। शराब और शराबी दोस्त ही उसकी ज़िंदगी बन चुके थे। जैसा की ऐसी स्थिति में होता है, उसके साथ भी हुआ। बदतमीजी और शराब की लत की वजह से उसे काम मिलना बंद हो गया। दोस्तों और अपनों से आए दिन लड़ाई -झगड़ा होने लगा। उसके पैसे भी खत्म होने लगे। ऐसी हालत में एक दिन शराब के नशे में उसका एक्सीडेंट हो गया और उसे अपने दोनों पैरों से हाथ धोना पड़ा। दुनिया में अब उसका कोई नहींं था। खाने के लाले पड़ने लगे। तभी उसके जीवन में दीनदयाल आया जो एक लंगड़ा था और उम्र के इस पड़ाव पर अकेले जीवन का बोझ ढो रहा था। लोग बाग आते-जाते उसे कुछ न कुछ देते थे। दीनदयाल ने एक दिन फन्ने खान को दिनभर से भूखे पेट घिसटते देखा। दीनदयाल खाने बैठा ही था, तभी फन्ने को देखकर वह उठा और अपने पास से कुछ पैसे फन्ने को दे डाला। फन्ने खान का चेहरा आँसू से भीग गया। दीनदयाल ने उसे अपने हिस्से का खाना दिया और उसकी कहानी भी सुनी। दीनदयाल को बाँसुरी बजाने का शौक हुआ करता था। उसने अपने बचाए रुपयों से तबला और बाँसुरी खरीद ली। अब दोनों की जोड़ी जहाँ भी बजाने बैठती, लोगों का जमघट हो जाता। धीरे-धीरे दोनों के पास पैसा भी आने लगा। हालत भी सुधरने लगी। अब दोनों मंदिर में भजन गाने वाली टोली के सदस्य हो गए थे। दीनदयाल को जयपुरी पैर लग गए थे और फन्ने खान को ह्वील चेयर। हालांकि फन्ने खान मुस्लिम था मगर वह कहता था कि अगर बिस्मिल्लाह खान मंदिर में बजा सकते थे तो मैं क्यों नहींं! वह शिव भक्त थे और मैं दीनदयाल का!
डाॅ. (मा) रुनू बरुवा “रागिनी तेजस्वी” अखिल भारतीय साहित्यकार सम्मान, साहित्य रत्न सम्मान, साहित्य श्री सम्मान , साहित्य गौरव सम्मान, मात्सुओ ‘बासो’ सम्मान, सरस्वती सम्मान आदि से सम्मानित डिब्रूगढ़ की प्रतिष्ठित साहित्यकारों हैं।

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500 रुपए का एक नोट

मेघा पी यादव

मैं 500 रुपए का एक नोट हूँ। मुझे ये याद नहींं की मेरा जन्म कहां और कैसे हुआ था। छोटे से बक्से में मुझे मेरे जैसे कुछ पैसे मिले थे। उनकी शक्ल बिल्कुल मेरे जैसी ही थी। हम बहुत दिनों तक एक साथ रहते थे। एक दिन अचानक से उस बक्से में बहुत रोशनी आ पड़ी और किसी ने मुझे वहाँ से निकल लिया फिर मैं जा पहुँचा किसी व्यक्ति की जेब में। दुःख बहुत था उन पैसों से जुदा होने का लेकिन नई जगह घूमने का उत्साह मुझे बहुत खुशी दे रहा था। फिर मैं उसके साथ बहुत जगह गया। कभी-कभार मैं अपना सर थोड़ा सा बाहर निकाल कर देखने की कोशिश भी कर रहा था। फिर मैं जा पहुंचा किसी अजीब से जगह में जहां पर मुझे कुछ नए दोस्त मिले। एक का नाम 2 रुपए था एक का 5 और एक का 1000 था और बाकी को मैं नहींं जानता था। मैंने उन लोगो के साथ बहुत वक्त बिताया। कुछ पैसे आते रहे और कुछ पैसे जाते रहे मेरे इस सफर में। हमेशा मानों मेरे मन में एक डर रहता था की कब मुझे भी इस परिवार से जुदा कर दिया जाएगा। एक दिन मुझे वहाँ से निकाल कर एक छोटे से बच्चे के हाथ में दे दिया गया। उस बच्चे ने मुझे बहुत प्यार से अपनी गुल्लक में पनाह दी। वहाँ पर मुझे बहुत सारे अच्छे पैसे मिले जो हमेशा खिलखिलाते रहते थे। हर सुबह वो बच्चा उस गुल्लक को बहुत जोर से हिलाया करता था और हम सब पैसे उस गुल्लक के अंदर लोट – पोट के हँसा करते थे। एक दिन अचानक से पैसों की दुनिया में जहाँ मैं बेखौफ घूम रहा था और सबके पास एक खबर पहुंची थी की सारे 500 और 1000 के नोट को मार दिया जाएगा। सब पैसे आ कर मुझे दिलासा दे रहे थे लेकिन जो डर मेरे अंदर था मैं उसको काबू नहीं कर पा रहा था। बहुत देर तक मैं इस इंतजार में था कि आज रोशनी इस गुल्लक के अंदर न आए। बहुत सारी चीखें 500 और 1000 के नोट के मुझे सुनाई दे रहे थे और इसके कारण मेरे अंदर का डर बढ़ रहा था। न चाहते हुए भी अचानक से इस गुल्लक में रोशनी आई। बच्चे ने अपने प्यार भरे हाथों—से मुझे बाहर निकाला। उसने पहली बार मुझे कसके गले लगाया और मुझसे बाते भी कर रहा था। उसने मुझसे कुछ ऐसा कहा जो शायद मैं ज़िंदगी में कभी ना भूल पाऊंगा। उसने ये कहा कि “तुम मेरी ज़िंदगी के सबसे कीमती तोहफे हो। पापा ने मुझे तुम्हे तब दिया था, जब मैं क्लास में प्रथम आया था। तुम चुपचाप इस गुल्लक में ही रहना क्योंकि तुम्हारी कीमत 500 से कहीं ज्यादा है और तुम अनमोल हो मेरे लिए।”

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उम्मीद की किरण कुमुद शर्मा

 Sophy Chen from Pexels

नमिता थकी हारी घर पहुँची…दोपहर का समय था सो खाना परोसने सीधे किचन में चली गई।
“आज फिर धमाल चौकड़ी कर आई…”नमिता की सास ने कहा।
नमिता ने कोई जवाब नहीं दिया…क्योंकि वे दोनों एक दूसरे की अपेक्षाओं पर कभी खरी नहीं उतरी…काम खत्म कर बॉलकनी में आ बैठ गई…हताश हो सोचने लगी आज भी नौकरी नहीं मिली…खर्च कैसे चलेगा…एक्सीडेंट के बाद अमित की नौकरी भी जा चुकी है…इलाज भी चल रहा है।
तभी उसकी नजर छज्जे पर पड़ी…चिड़िया चूजों के मुंह में दाने डाल रही थी…उसे याद आया…”कुछ दिनों पहले ही मैंने इसे घोंसला बनाते देखा था”…नमिता के हौसलों को भी उम्मीद की किरण मिल गई।
कुमुद शर्मा

कुमुद शर्मा: मॉम्सप्रेस्सो, हिंदी प्रतिलिपी, आदि लेखक मंचो की ब्लॉगर वनिता, गृहलक्ष्मी आदि कई पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, रचनाएँ प्रकाशित।

सौतेला

डॉ अन्नपूर्णा बाजपेयी, ‘अंजू’, कानपुर
साहित्यकार, ब्लॉगर, समाज सेविका, योगा ट्रेनर।


“रे! कलुआ, जरा इधर तो आ! “खटिया पर बैठे हुक्का गुड़गुड़ करते हुए कलुआ के बापू ने जोर से पुकारा।
कलुआ खेल में मग्न था सुना नहीं।
“जरा जोर से बुलाइयो, खेल रहा है छोरा न सुनैगो!”अपने सिर के पल्लू को सँवारती हुई माई उधर ही आ बैठी।
“इतनी देर से पुकार रहा हूँ सुनता ही न है पाजी कहीं का!” झुंझलाते हुए बापू बोला।
“बालक ने दिनभर खेलते रहना अच्छा न है गोलू के बापू! इसको जरा कस के रखियो!”और घी गुड़ रोटी पर चुपड़ कर दूसरे पुत्र गोलू को खिलाने लगी।
उसने प्रेम से पुकारा, “कल्लू जरा सुन तो!”
“हाँ माई!” कल्लू लपकता हुआ आ पहुंचा। और ललचाई नजरों से घी गुड़ लगी रोटी खाते हुए छोटे भाई का मुँह ताकने लगा।
“सुन मैं तुझे पाठशाला भेजना चाहवे हूँ तू जावेगा न, जैसे गोलू जावे है!” माई बोली।
“हाँ माई!”कहते हुए वह खुशी से उछल पड़ा फिर कुछ सोचता हुआ बोला, “माई तू मन्ने सच्ची में पढ़ने भेजेगी।” “हाँ रे! छोरा!” तू काहे पूछे है माई बोली।
“बगल वाली चाची कह रही थी कि इसको कौन पढावेगा ये तो सौतेला है! इसकी माई अपने बालक ने पढावेगी और अफसर बनावेगी!” भोलेपन से बोला कल्लू।
“इसीलिए तो तुझे जरूर पढ़ाना चाहूँ हूँ, तू तो मेरा कान्हा है सौतेला नहीं, जैसे कान्हा जी की दो-दो माई थी वैसे ही तेरी भी दो दो माई।” मुस्कुराते हुए माई ने उसके गाल पर एक प्यार भरी चपत लगाई।
“तो माई तूने घी गुड़ की रोटी मन्ने क्यों न दी!“ भोलेपन में बोल गया कल्लू और उसके माँ बाप एक दूसरे का मुँह ताकने लगे।

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पंकजा



कचरे के ढेर में पड़ी हुई वो मासूम धीरे धीरे सिसक रही थी और आस पास खड़े कु त्तेज़ोर – ज़ोर से भौक रहे थे। राह से गुजरते एक बच्चे की नजर पड़ गई उसपर। उसने लपककर उठा लिया और सीने से चिपका लिया उसको जैसे कोई जिदा खिलौना मिल गया हो खेलने के लिए। भागता हुआ घर ले आया।
“माँ, माँ देखो कितनी प्यारी परी मिली मुझे कचरे के ढेर में।
“परी, कचरे में ? हँसकर मां उसकी बात को सुनी अनसुनी करते हुए बोली। उसे लगा फिर कोई टूटा – फू टा खिलौना मिल गया होगा बेटे को।
“हाँ माँ, देखो कितनी प्यारी है। पर देखो आँखो से ऑं सू निकल रहे हैं। शायद भूख लगी होगी।”
अब माँ चौकी औं र पलटकर देखा। क्या सच में एक बच्ची है और वह भी जिदा ? कुछ दो – चा र दिन की रही होगी। एकदम मासूम सहमा – सा चेहरा, न कोई ईर्ष्या न द्वेष, शांत बिल्कुल शांत। आंसू आंखो की पो रो के पास सूख चुके थे। धीरे से आंख खोलती बं द करती। उसकी ममता चीत्कार उठी। क्या पता था बेचारी कै से क्रूर और वासना के अंधे जगत में आ गई थी लड़की बनकर।
उसका पाँच वर्ष का बेटा था जो इसी तरह कु छ साल पहले ही कचरा बीनते मिला था। दोनो माँ- बेटा पेट की आग बुझाने की खातिर दिन भर घूम घूमकर गली मोहल्लों में कच ल्लों रा बीनते। यदा कदा कोई टूटा फू टा खिलौना, गाड़ी या गेंद आदि मिल जाता कचरे के ढ़ेर से तो चेहरा कै से खिल जाता था खुशी से बच्चे का। और आज जब बेटा उसी कचरे से अनमोल हीरा बीन लाया तो उसका चेहरा भी खिल गया था खुशी से। दोनो हाथ जोड़क र ऊपरवाले को कृ तज्ञता से बोली, “कु छ के लिए कचरा और हम जैसो के लिए खजाना! कितना दयालु है तू प्रभु! जिसको पति और समाज ने बांझ कहकर ठुकरा दिया था उसकी झोली तूने एक बार फिर इतने बड़ेखजाने से भर दी और उसकी आंखो से झ र झर ऑं सू बहने लगे। बच्ची के माथे को चूमकरबुदबुदायी-पंकजा।

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शेरू का निर्णय

कीर्ति श्रीवास्तव, भोपाल
बाल साहित्यकारा, कवियत्री, संम्पादिका ‘साहित्य समीर दस्तक”, सरकारी एवं प्रतिष्ठित संस्थानों द्वारा सम्मानित एवं पुरस्कृत, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन मध्यप्रदेश से रचनाओं का प्रसारण। 7 पुस्तकें प्रकाशित एवं राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशन।
Suravy Mukherjee


शेरू शेर का आतंक उसके ही नहीं अपितु आस-पास के सभी जंगलों में फैला हुआ था। सभी जंगलों के जानवर शेरू के नाम से ही थर-थर कांपते थे। वो रोज शिकार के लिए निकलता था। किसी को अंदाजा ही नहीं रहता था कि वो कब किस जंगल में आ जाये शिकार करने के लिए। इस कारण सभी जानवर अपने-अपने घरों में दुबके रहते थे। वह दूसरे जंगल के जानवरों के साथ स्वयं के जंगल के जानवरों का भी शिकार करने से नहीं कतराता था।
सभी जानवर डरते-डरते अपने भोजन की व्यवस्था के लिए बाहर निकलते थे। वो लोग कितनी भी सावधानी बरतें फिर भी कोई न कोई जानवर शेरू के हत्थे चढ़ ही जाता था। किंतु उसके जंगल के जानवरों को उसके शिकार पर जाने का समय पता था तो वे उस समय बाहर नहीं निकलते थे। बारी-बारी सभी ये देखते रहते थे कि शेरू कब बाहर गया तभी सभी अपने भोजन की तलाश में निकलते थे।
एक बार शेरू पास के जंगल मे शिकार के लिए निकला। उस दिन उसे कोई शिकार नहीं मिला। वह बहुत गुस्से में आ गया। गुस्से में वह दूसरे से तीसरे और तीसरे से चौथे जंगल की ओर चल पड़ा। वह इतने गुस्से में था कि उसे पता ही चला कि वो किस ओर चल दिया है। आगे के जंगल पहुँचते-पहुँचते उसे रात हो चुकी थी। अंधेरे में उसका पेर रास्ते मे पड़ी एक कुल्हाड़ी पर पड़ गया और उसे चोट लग गई। खून भी बहने लगा था और वो हड़बड़ाहट में रास्ता भटक गया।
वह अपने जंगल के साथ दूसरे कई जंगलों की सीमा पार आ गया था। जब उसे इस बात का एहसास हुआ तो वह डर गया। उसकी चोट से खून बराबर बह रहा था और चोट में दर्द भी हो रहा था। थोड़ी दूर लडख़ड़ाते हुए वह एक पेड़ के नीचे बैठ गया।
तभी उसने देखा कि कुछ लोग उसकी ही तरफ आ रहे हैं। उसे लगा अब तो मैं दर्द के कारण भाग भी नहीं पाऊँगा ये लोग मुझे मार डालेंगे। मेरी खाल बेचकर पैसा कमाएंगे। दर्द के कारण वह कराह भी रहा था। उसकी आवाज सुनकर लोग उस तरफ बढ़ चले।
शेर को देखकर कुछ लोग घबरा गए। किंतु कुछ लोगों ने उसका बहता खून देख लिया था।
‘अरे इसे तो चोट लगी है। खून भी बह रहा है। हमें इसका इलाज करना चाहिये।’
‘पागल हो क्या! ये तो हमे ही खा जाएगा।’
‘पर इसे इस तरह छोड़ भी तो नहीं सकते। दया, भावना नाम की भी तो कोई चीज होती है।’
‘नहीं-नहीं, हम खतरा नहीं ले सकते। चलो, हम तो चलते हैं।’
वे लोग आपस में बात कर रहे थे। तभी उनमें से एक समझदार बुजुर्ग ने कहा कि – ‘हम पहले इसके ऊपर पिंजरें में कैद कर देते हैं फिर इसके पैर का इलाज करेंगे। और पिंजरा खुला छोडक़र चले जायेंगे। जब ये ठीक होगा अपने आप अपने जंगल की ओर चला जायेगा।’
‘इस बात का क्या भरोसा कि वो जंगल की ओर ही जाएगा। वो हमारे गाँव की ओर भी तो आ सकता है।’ किसी ने पीछे से कपकपाती आवाज में कहा।
‘डरो नहीं, भगवान सच्ची सेवा करने वाले को नुकसान नहीं पहुँचाते।’ उन बुजुर्ग दादा ने कहा।
उन बुजुर्ग की सलाह सबको अच्छी लगी। उनमें से कुछ लोग जल्दी ही पास के गाँव से पिंजरा ले आये और कुछ दवाई का इंतजाम करने लगे। शेरू सबकी बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था और उन्हें देख भी रहा था।
गाँव वालों ने जैसे-तैसे डरते हुए शेरू को पिंजरे में कैद किया। उसके बाद उसके पैर की मलहम-पट्टी की और पिंजरा खुला छोडक़र चले गए।
शेरू ने जब गावँ वालों की सेवा भावना देखी तो खुद पर बड़ी ग्लानि महसूस हुई। वह सोचने लगा कि – ‘मैं तो राजा हूँ फिर भी अपने ही जंगल के लोगों की रक्षा नहीं करता। सभी मुझसे डरे रहते हैं। मैं सिर्फ अपनी ही सोचता हूँ जंगल के विकास के बारे में नहीं सोचता। वो जो मेरी एक दहाड़ भरे आदेश पर ही आ जाते हैं। ये गाँव वाले तो मेरे हैं भी नहीं, फिर भी इन्होंने मुझे बचाया मेरा इलाज किया। मैं इन्हें खा भी सकता था इससे भी वह नहीं डरे और मानव धर्म का पालन किया।’
उसी समय शेरू शेर ने निर्णय लिया कि अब वह अपने जंगल के जानवरों की रक्षा करेगा। उनकी जरूरतों का ध्यान रखेगा।
सुबह हो चुकी थी। उसके पैर का दर्द भी कम हो गया था। वह पिंजरे से बाहर आया और खुशी-खुशी जंगल पहुँचकर सबसे पहले उसने ढोल बजाकर ये एलान कर दिया कि ‘आज से उसके जंगल के सभी जानवरों की रक्षा करना उसका कर्तव्य है। कोई भी उससे डरे नहीं। अब वह अपनी सीमा में रहने वाले जानवरों को नहीं खायेगा।’ उसने रात का किस्सा भी सभी को सुनाया।
ये सुन सभी जानवर बहुत खुश हुए और उन गाँव वालों को बहुत दुआएं देने लगे।

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