Stability, Unity and Progress

If there is any land on this earth that can lay claim to be the blessed punyabhumi (sacred land) … the land where humanity has attained its highest towards gentleness, towards generosity, towards purity, towards calmness, above all, the land of introspection and of spirituality it is India

-Swami Vivekananda

India has a unique culture and civilization which we should preserve with utmost commitment. Though
many civilizations have dwindled with the passage of time, our culture and civilization have been resilient.
Despite facing rough weather, they remained solid for several thousand years. This is because there is
something unique about our culture and civilization.
Ideas that influenced Indian culture the most– truth, justice, love, peace, harmony, and so on. Swami
Vivekananda believed that social changes should uphold Indian traditions and not hurt them. So long as India remained true to those traditions, she is safe.
As India celebrates Azadi Ka Amrit Mahotsav, 75 years of independence under the yoke of British rule,
perhaps we may look at the past. Among the south Asian countries that emerged from colonial rule in the last 75 years, ours is a country that has maintained stability.
As the future is built on the foundations of the past, the successes and failures of post-independence has
provided an impetus to address the challenges of the days to come. There is no better time than today to
remember the brave heroes who sacrificed their everything for the nation. In the present issue, we offer the episodes of U Tirot Singh, U Sib Charan Roy and Mahatma Gandhi’s visit to Golakganj.
As we read about Khasi traditional home remedies (Khasi), Traditional Medicine: its importance and
protection (English). we feel that not only our history but even the customs and rites can instill the spirit of patriotism in us.
Hindi Articles display an array of authors, most of whom hail from a non-Hindi-speaking part of our
country. Again Hindi writing of North East India ‘Khwahishon Ka Asma’ is held in esteem by an author of
Gujarat Tulika Shree. Srutimala Duara in her compelling narrative takes us to the village of Arunachal.
Dr Jeffery D Long’s personal account featured in the Across boundaries section will leave a lasting effect
on the readers.
Let us accept and admire our past and create. Create bridges that bind past and future, bridges that bond
heritage and innovation

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The Golden Casket

Melban Lyngdoh
The Golden Casket
Bloom of a new light,
Gold - as precious as diamond.
Box full of new mystery.
Open it and you will be swallowed,
Ignore it and you will be chased.
Wonders that were never seen
Time and day will fail to cease.
Dark as the starry sky you see,
Feelings that were never heard or felt to spell
You may see it but fail to be felt
You cannot get out until you answer it,
You cannot hear it until you question it.
Once you answer it day will come
You will forget it all, and it will vanish.
You won’t find it,
You won’t see it.
The secret will be revealed for once and forever,
Days will start again from where it stopped.

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Luminous

Manphika Surong
She hides herself, when she’s most beautiful.
She clothes herself, with luminous grace.
Her lustrous desires never ceases,
As she peeks on every face.
She hears the young ones cry,
And the soft moans of the sky.
To her,
Every secret is known.
Every pain unveiled.
She sees the wounds of the little women;
The romantic dates of young lovers.
Some days, it’s murderous attempts.
She can save, not a single soul.
She hears the silence of the city,
And the roar of a man’s heart.
To her,
Every desire is revealed.
Every soul is uncovered.
As she clothes herself with luminous grace.
https://kajingshai.rkmshillong.org/2022/09/06/the-golden-casket/

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पुस्तक समीक्षा २: ‘नई सुबह’


गीता लिम्बू
पुस्तक- ‘नई सुबह’
लेखन – रीता सिंह ‘सर्जना’
प्रकाशक – बुक्सक्लिनिक पब्लिशिंग, बिलासपुर
प्रकाशन वर्ष – जुलाई 2022
मूल्य -190

पूर्वोत्तर भारतकी सशक्त लेखिका रीता सिंह ‘सर्जना’ की प्रथम कहानी संग्रह ‘नई सुबह’ के आवरण पृष्ठ में शीर्षक नाम के साथ सकारात्मक भाव जगाती ‘उम्मीदों का एक खूबसूरत एहसास-’ इस खूबसूरत पंक्तिको रखा गया है। उगता सूरज, हरी पत्तियों से पूर्ण वृक्ष, रास्ते में आगे बढ़ती गाड़ी, बच्चों से साथ आगे बढ़ती माँ ये सभी नई उम्मीद लेकर प्रगति की राह पर चल रहे हैं और शीर्षक नाम का सार्थक करता हुआ आवरण है।
माँ वीणापाणि की वंदना और समर्पण से अंतस पृष्ठों की शुरूवात हुई है। डाॅ भगवान स्वरूप चैतन्य की भूमिका तथा प्रबुद्ध जनों क शुभकामनाऔं में ही कहानियों का सार्थक विश्लेषण हुआ है।
कुल सोलह कहानियों में से पहली कहानी है ‘तोहफा’। ये इम्पोर्टेड हैं, एन आर आई दामाद है, कहकर फूले नहीं समानेवाले कुछ लोग हमारे समाज में हैं। जिनकी दृष्टि से देखा जाय तो अपने देशकी हर चीज विदेशी चीजों की तुलना में तुच्छ है , और तो और इंसान भी। ऐसी ही मानसिकता रखने वाला किरदार को लेकर कहानी गढ़ी गयी है।
युग के साथ बदलती सामाजिक पारिवारिक तथा जीवनधारण की व्यवस्थाओं के साथ समझौता करते इंसान की कहानी है। आजकाल बहू-बेटे, पोते-पोतियों से भरापूरा, चहलपहल वाला संयुक्त परिवार कम ही देखा जाता। बेटे के साथ-साथ नौकरी वाली बहू को घर से बाहर रहना पड़ता है, जिसके कारण घरके बूजूर्ग एकाकी जीवन बिताते हैं। इस एकाकीपन में समय मानों गुजरता ही नहीं ठहर जाता है। ऐसे में पति-पत्नी एक दूसरे की भावनाओं और चाहतों को सम्झे तो जीवन सुखद बनता है। इसी दिशा को निर्देश करती ‘सुलह’ एक मीठी सी सुखांत कहानी है।
‘ममतालय’ में मजहबी संघर्ष और मानव प्रेम दो विपरीत दिशाओं को दर्शाया गया है। मजहबी संघर्ष का परिणाम पतन ही है और मानव प्रेम का ठिकाना है ममतालय। इसीसे मिलती जुलती कहानी है ‘अलंकार’। ‘अलंकार’ में मानव प्रेम को सर्वश्रेष्ठ अलंकार घोषित किया गया है। मानवीय अनुभूतियों तथा प्रेम की सुंदर अभिव्यक्ति है ‘आशीर्वाद’।
बाहरी दुनिया से बेखबर रहकर केवल उदर पूर्ति के लिए काम करने वाले सोरेन जैसे लोगों को शिक्षा और सुधार की आवश्यकता है यही ‘सोरेन’ कहानी का निहित उद्देश्य है।
‘नई सुबह’ शीर्षक कहानी है जो नशा उन्मूलन की और दिशा निर्देश करती है।
‘मंगरू का सपना’ एक ऐसा सपना है जिसे संसार भर के माता-पिता अपनी संतान के सुखद भविष्यत को लेकर अपनी हैसियत के अनुसार देखते हैं। लेकिन कभी कभी संतान के कारण ही सपना टूटकर बिखर जाता है। गरीब कमजोर लोगों को दबानेवाला, ठगने वाला स्वार्थी वर्ग की हृदय हीनता का एक स्पष्ट चित्र भी कहानी में उकेरा गया है। ‘अभिलाषा’ कहानी भी इसी विषय वस्तु को केंद्र में रखकर बुनी गई है।
संविधान में सभी अधिकार प्राप्त होने के बावजूद समाज द्वारा उपेक्षित, माता पिता तथा अपनों के स्नेह से वंचित किन्नरों की व्यथा कथा है ‘क्या मेरा कुसूर है?’ बर्बादी , खूनखराबी, धोखा, पिछड़ेपन, आतंकीउपद्रवों को झेलता एक त्रासदपूर्ण अंचल की झांकी देखी जाती है कहानी ‘दंगा’ में। उजड़ी बस्ती को देखकर मंगल का दिल कराह उठता है लेकिन वह फिर नयी झोपड़ी खड़ी करने का उद्यम लेकर अपनी धुन में बाँस छिलने लगता है। कहानीकार ने यहाँ जीवन और जिजीविषा का सार्थक बिंब खींचा है।
‘थैला’ विपरीत परिस्थिति से संघर्ष करती एक सशक्त महिला मरमी बा का थैला है। ’. . . जानती हो मेरे इस थेला में मेरे परिवार की खुशियाँ समाई हुई है’ इसी संवाद में कहानी का निचोड़ है। ’ वो ‘थैला’ जो आजीविका का साधन ढोता है वो यहाँ आजीविका तथा जीवन संघर्ष का प्रतीक बना है।
‘सबिया’, ’अलविदा’, ‘पाषाण हृदय’ अलग अलग तरीके से प्रताड़ित स्त्रियों की व्यथा कथाएं हैं।
‘रिश्ता’ कहानी का पहला भाग समाज को दीमक की तरह चाट रही जात बिरादरी और दहेज प्रथा पर कठोर प्रहार करता है। अंत में
वात्सल्य कहानीमें वह करूणा है जो माँ और संतान के अटूट रिश्ते को बाँध कर रखती है।
वस्तुतः सारी कहानियाँ समाज की विसंगतियाँ, बिड़म्बनाएँ , त्रासदीयाँ आदि जटिल समस्याओं को लेकर कहानियाँ गढ़ी गई है जो सत्य के धरातल के ही उपज हैं और उसी धरातल के किरदारों के माध्यम से प्रस्तुत की गई है
व्यक्ति मनोभावों को सहज संवादों तथा सरल भाषा में सम्प्रेषित किया गया है। इसी कारण ये कहानियाँ प्रत्येक वर्ग के पाठक आत्मसात कर सकता है। घटनाओं की धाराप्रवाह गति पाठक को अंत तक कहानियों के साथ ले चलती हैं। जीवन के यथार्थ को उद्घाटित करती है ।
मैं आशा करती हूं, भविष्यत में लेखिका इस सुंदर सृजनों से भी अधिक सुंदर सृजनाएँ पाठकों को उपहारमें देंगी
मैं लेखिका को इस अनुपम कृति के लिए शुभकामनाएँ एवं साधुवाद देती हूं आशा करती हूं कि भविष्य में आप अपनी लेखनी द्वारा साहित्य संसार को समृद्ध करेंगी
गीता लिम्बू, शिलांग की प्रतिष्ठित लेखिका

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पुस्तक समीक्षा १: ‘ख्वाहिशों का आसमा’

तूलिका श्री
पुस्तक- ‘ख्वाहिशों का आसमा’
लेखन – कंचन शर्मा
प्रकाशक – नवनिर्माण साहित्य, गुवाहाटी
प्रकाशन वर्ष – जुलाई 2021
मूल्य -251

हरि अनंत हरि कथा अनंता
कह़ही सुनही बहु सिंधी सब संता
ईश्वर और उनकी आस्था से जुड़ी कथा कहानियों का फैलावा अनंत है। अनेक प्रकार से समाज में कही सुनी जाती हैं माया जाल है, यह सारी दुनिया। इंसान हैं , क्रियाएं हैं, प्रतिक्रियाएं हैं, सब कुछ गतिमान है प्रकृति हर पल बदलती जा रही है हम हर पल नए होते जा रहे हैं। कुछ दैवीय गुणों से भरी हुई सजग आंखें हैं जो तेजी से इन्हें पहचान लेती हैं। सतर्क होकर आगे का रास्ता तय कर रही हैं और कुछ, को यद् भविष्यति -जो होगा देखा जाएगा – इसी से फुर्सत नहीं है! गतिमान जीवन में कुछ प्रतिशत ही लक्ष्य हासिल हो पाते हैं। जहां एक-एक करके असफलता है फिर भी जुझारूपन बना रहता है तो वहां झरने को अपना रुख बदलना ही होता है। आज के दिन में महिलाएं अपने स्नेह , कर्तव्य , संघर्ष , चुनौती ताप एवं अनंत संवेदना सहित फिर से उपस्थित हैं चाहे अक्षरों द्वारा पदों पर प्रतिष्ठित होकर सेवा द्वारा या सहयोगी बनकर इन्हीं तथ्यों पर रोशनी डालती लघुकथा संग्रह ख्वाहिशों का आसमा उपस्थित हुई है कई कथाओं की यात्रा करते हुए घर का चिराग में मन रुक गया माँ फिर एक काम कर मुझे मालकिन के पास गिरवी रख दे और जो पैसे मिलेंगे उससे दिवाली के दिन बहुत सारे दिए जलाना (पृष्ठ 112) मन की खुशियों के लिए हम सब भटकते रहते हैं और जो मन में विद्यमान है उसे ही बाहर आने से रोक देते हैं ! ! ! दरवाजे बंद करने से भला धूप की इच्छा करने वाले को कैसे समझाया जाए परिस्थितियों हेतु ग्रहण शीलता अत्यावश्यक है सत्संग कहानी संदेश देती है कि वर्तमान में जीना बहुत जरूरी है बहू के भाई की सगाई है सो मैंने कहा कि’ मैं बिटिया को संभालती हूं( पृष्ठ 83) लेखिका कंचन जी ने जीवन को बहुत ही सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है जिंदगी हमें अपने आप स्वयं को संभालना स्वयं ही संभालना होता है किस राह पर चलकर कैसा व्यक्तित्व धारण कर बढ़ना है इसकी जिम्मेदारी हमारी होती है सहन तो करना है लेकिन किस हद तक यह वक्त ही तय करता है
तो गुरु जी अब मुझे एक शिष्य का धर्म निभाने दें , कृपया मेरी गुरु दक्षिणा स्वीकार कीजिए। (गुरु दक्षिणा, पृष्ठ 62 )
परिवार पहले संस्था है जहां हमारे व्यक्तित्व को हर पल आयाम मिलता है। बोली व्यवहार सीखते हैं हम, चुनौतियों का सामना करने की ताकत प्राप्त करते हैं।
हां ठीक कहा आपने हमारा बच्चा बहुत ही स्पेशल है आपके बच्चे इसकी बातें नहीं समझेंगे। (पूर्ण विराम, पृष्ठ 44)
जाति पाती की परेशानियां हमेशा से ही हमें तंग करती रही हैं ऊंची जाति -नीची जाति, संत रविदास के भजन गाकर सर्वश्रेष्ठ गायक का पदक जीतेंगे, माता शबरी के बेर का जिक्र करेंगे राम भक्तों की चर्चा करेंगे! ! ! जाने किस जाति के मजदूर घर बना कर गए जाते भी पूछ लेते , अरे रे रे मूर्तिकार की जाति रह गई महालक्ष्मी की या राम जी की आराधना कृष्ण की, चंदन , इत्र , गुलाल ज्यादा कर अलग समाज की जातियां बनाती है यही तो कहना चाहती हैं कंचन जी (रक्तदान पृष्ठ 23) के माध्यम से
जा गिरधारी, ‘बुला ला ! ! ! उस छोरे को , कहना खून की कोई जात नहीं होती है। ‘आगे की बहुत सारी लघुकथाएं जोकि हर रोज हर पल हमें कुछ न कुछ सिखा रहीं हैं। तार्किक एवं विवेचनात्मक दृष्टि से लेखिका ने अनेकों घटनाओं को आत्मसात किया है। कहानी , एजुकेटेड इंडियन , उम्मीद, मंजिल, कर्तव्य सहज ही प्रशंसनीय हैं। कंचन जी की पुस्तक का हर एक शब्द ग्रहणीय है। अंतिम कहानी जो पुस्तक का नाम भी है , ’ख्वाहिशों का आसमान’ अपनी पूर्ण गरिमा का परिचय देता है ! बहुत कम ही होता है कि एक स्त्री दूसरे को सहारा देती है। यहां सुंदरी ने पंखुड़ी को सहारा दिया और वह दलदल में से निकलने की हिम्मत कर पाई।
डॉक्टर अन्नपूर्णा जी ने बहुत ही आवश्यक जानकारी भेजा है लघु कथा के नियमों के बारे में। उनका बहुत धन्यवाद है। कंचन जी असली हकदार( पृष्ठ 103)जैसी कथाएं लिखकर निद्रा में से रिश्तों को जगाती हैं। उन्हें शुभकामनाएं
तूलिका श्री : बड़ौदा से प्रकाशित हिंदी त्रैमासिक पत्रिका नारी अस्मिता में समीक्षक के रूप में कार्यरत। अखिल भारतीय साहित्यकार अभिनंदन समिति मथुरा द्वारा राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय कवि का सम्मान प्राप्त। संप्रति- ऑक्जिलियम कन्वेंट हाई स्कूल, बड़ौदा में हिंदी संस्कृत की अध्यापिका के रूप में कार्यरत।

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स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत ऊ तिरोत सिंग

गतांक से आगे

उन्होंने अंग्रेजों द्वारा कैद किये गये बंदियों को छुड़ा दिया।
इस प्रकार काफी समय से सुलग रही विद्रोह की आग भड़क उठी। इन सफलताओं की खबर जंगल की आग की तरह फैलने लगी। हजारों की संख्या में युवक स्वतंत्रता के संघर्ष में कूद पड़े। तिरोत सिंग ने योद्धाओं की टोली को डेविड स्कॉट को पकड़ने चेरापूँजी भेजा। परन्तु चेरापूँजी के राजा दुवान सिंग ने अंग्रेजों का साथ दिया और चुपचाप उन्हें गुप्त मार्ग से सिलहट भेज दिया।
इस उथल-पुथल का समाचार गुवाहाटी और सिलहट पहुंचने पर बड़ी संख्या में ब्रिटिश सैनिकों को खासी पहाड़ियों की सीमा पर भेजा गया। खासी मुखियों का ख्याल था कि अंग्रेजों को मार भगाना कठिन न होगा। उनका विचार था कि यद्यपि अंग्रेज मैदानों में शक्तिशाली हैं पर पहाड़ियों में उन्हें परास्त करना मुश्किल नहीं होगा। पहाड़ों के दुर्गम रास्ते और घने जंगलों में युद्ध करना अंग्रेजों के लिये मुश्किल होगा। तिरोत सिंग ने अंग्रेजों का मुकाबला करने के लिए कुछ गैर-पारम्परिक तरीकों का प्रयोग कियां उन्होंने नौंग्ख्लाव से रिहा किये गये कैदियों को दूत के रूप में पड़ोसी राज्यों में भेजा। ये दूत असम के राजा कानता, भूटान के भेट और अरुणाचल के सिंहको के पास उनके सहयोग के लिये भेजे गये। अंग्रेजों की सैनिक शक्ति के आकलन के लिये भी कुछ गुप्त दूतों को गुवाहाटी तथा अन्य स्थानों पर भेजा गया।11
विद्रोह खासी पहाड़ियों तक सीमित न रहा। वह पश्चिम की ओर गारो पहाड़ियों तक भी पहुंचा। गोआलपाड़ा जिले में भी विद्रोह की चिंगारियाँ भड़क उठीं। तिरोत सिंग चतुर कूटनीतिज्ञ थे और जानते थे कि असमियों में भीतर ही भीतर अंग्रेजों के खिलाफ असंतोष है और इस असंतोष को जरा सी हवा देते ही पूरा का पूरा असम विद्रोह की आग में जलने लगेगा। उनका अनुमान सही था। असम में खासी पहाड़ियों में हो रही घटनाओं की खबर फैलते ही असम के मैदानों में राजस्व की वसूली को रोक दिया गया। सरकारी टैक्स कलेक्टरों के साथ बदसलूकी की गयी। राजमार्ग पर डकैतियाँ होने लगीं जो अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती देने वाली थीं।
इस बीच खासी पहाड़ियों की सीमा पर संघर्ष चलता रहा। यह पहला मौका था जब सुसंगठित खासी योद्धाओं से अंग्रेजों का पाला पड़ा था। ये संघर्ष लगभग तीन महीने तक चलते रहे। विख्यात इतिहासकार के. एम. मुंशी तिरोत सिंग द्वारा छापामार (गुरिल्ला) युद्ध शैली के कुशल प्रयोग पर लिखते हैं ‘‘तिरोत सिंग और उनके साथी, 10, 000 के आसपास की सैन्य शक्ति के साथ अंग्रेजों से बचते रहे, पर कभी-कभी मैदानों पर धावा बोल देते, जिससे पूरे असम में खतरे की घंटी बजने लगती और दहशत सी फैल जाती। 12
जब तिरोत सिंग को अहसास हुआ कि इस बार अंग्रेज पूरी तैयारी के साथ सिलहट की सीमा पर हमला करने वाले हैं तो उन्होंने मोन भट और जिडोर सिंग की सहायता से पूरी सेना की कमान संभाल ली। सिलहट की सीमा पर जहाँ स्वयं तिरोत सिंग अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे, वहीं कामरूप में खीन कौंगोर, जरैन सिंग तथा अन्य सरदार अंग्रेजों से जूझ रहे थे। इन्हीं संघर्षों में अंग्रेज अफसर बीडन भी मारे 7 गये। तिरोत सिंग को जब पता चला कि खासी सैनिक नौग्ख्लाव की तरफ वापस आ रहे हैं तो वे तुरन्त नौंग्ख्लाव की ओर आये। नौंग्ख्लाव के नीचे ख्री नदी के पास तिरोत सिंग घायल हो गये। तब सैनिक उन्हें एक गुफा में ले गये जो अब तिरोत की गुफा के नाम से जानी जाती है।13 इस दौरान अंग्रेजों ने नौंग्ख्लाव में प्रवेश किया और युद्ध शुरू होने के तीन महीने बाद 2 जुलाई 1829 को नौंग्ख्लाव पर कब्जा कर लिया।
तिरोत सिंग ने जिस तरह खासी सरदारों को संगठित किया अंग्रेज अधिकारियों ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। नौंग्ख्लाव पर कब्जे के बाद मैरंग, नौंगरामइ और आसपास के गाँवों में विद्रोह और संघर्ष हुए। अंग्रेजों ने बेरहमी से गाँवों को लूटा और जलाया। आँधी-तूफान से भरे मौसम में युद्ध चलता रहा। मौसमाई और मामलुह में सबसे कठिन संघर्ष हुए। मामलुह के किले पर जीत हासिल करने में अंग्रेजों को एक महीने का समय लग गया।
गुफा में घायल तिरोत सिंग को सभी क्षेत्रों में हो रहे संघर्षों की खबरें मिल रही थीं। पर वे हताश नहीं थे। मिलियम के सिएम बोर मानिक की सहायता से उन्होंने आपातकालीन बैठक बुलाई जिसमें उनके विश्वस्त अधिकारी जिडोर सिंग, मोन भट, लारशोन जराइन, खीनकौंगोर, मन सिंग तथा अन्य लोग शामिल हुए। इस बैठक में एक नयी रणनीति बनायी गयी तथा अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध करने का निर्णय किया गया जो आने वाले चार वर्षों तक चलता रहा।
चेरापूँजी के सिएम ने अंग्रेजों के साथ एक संधि की थी जिसके अंतर्गत चेरापूँजी के नजदीक सइत्सोफेन में कुछ भूमि अंग्रेजों को दे दी गयी। डेविड स्कॉट ने योजनाबद्ध ढंग से अपने एजेंटों को संधि प्रस्ताव के साथ विभिन्न खासी राज्यों में भेजना शुरू किया। कुछ खासी सिएमों को मजबूरी में इन संधि प्रस्तावों को मानना पड़ा क्योंकि वे आर्थिक नाकेबन्दी से त्रस्त थे और अपने गाँवों की और तबाही नहीं चाहते थे। तिरोत सिंग और उनके निष्ठावान साथियों ने युद्ध को जारी रखा। गुरिल्ला छापामार विधि का प्रयोग करते हुए वे अंग्रेजों के ठिकानों पर हमला करते रहे। जंगलों और आसपास के क्षेत्रों में हो रहे इन हमलों से अंग्रेजों को भारी क्षति होती रही।
चेरापूँजी में अपना केन्द्र बनाने के बाद डेविड स्कॉट ने पहला काम यह किया कि तिरोत सिंग को शान्ति और समझौता का प्रस्ताव भेजा। उसने कहा कि वह तिरोत सिंग से स्थायी और शक्तिपूर्ण समझौते के लिये बातचीत करना चाहता है। पर तिरोत सिंग नौंग्ख्लाव समझौते के कटु अनुभव को भूले नहीं थे। वे दुबारा अंग्रेजों की कूटनीतिक चालाकियों का शिकार नहीं होना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अंग्रेजों के शान्ति प्रस्तावों को अनदेखा करते हुए अपना संघर्ष जारी रखा।
जब अंग्रेजों ने समझ लिया कि तिरोत सिंग अब उनके झांसे में नहीं आने वाले हैं, तो उन्होंने ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति अपनाई। उन्होंने तिरोत सिंग के नजदीकी मित्रों में फूट डालने की कोशिश की। अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध सफल रहा था, परन्तु तिरोत सिंग जानते थे कि अंग्रेजी सेना के खिलाफ लम्बे समय तक युद्ध को जारी रखना व्यावहारिक नहीं होगा। वह यह भी जानते थे कि इससे लोगों का मनोबल टूटने लगेगा। उन्होंने अपने विश्वस्त साथियों मोनभट, जिडोर सिंग, ख्रीन कोंगोर, मन सिंग और लोरशोन जराइन के साथ गुप्त बैठक की। जो खासी राज्य अंग्रेजों के कब्जे में आ गये थे 8 उनको फिर से व्यवस्थित और सुसंगठित करने और अंग्रेजों से मुक्त करने के लिए योद्धाओं को भेजा गया। साथ ही अंग्रेजों के साथ खासियों के संघर्ष का दूसरा चरण शुरू हुआ।
इस युद्ध में खासी महिलाओं की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही। घरेलू मोर्चे पर अनगिनत कष्टों का सामना करने के साथ ही इन महिलाओं ने युद्ध में पुरुषों का हर कदम पर साथ दिया। युद्ध में उनका मुख्य काम रसद पहुंचाना था। एक बार का फन नौंग्लाइट नाम महिला ने जिसने अपने पिता और भाई का इस युद्ध में खो दिया था, मैरंग और नौग्रमइ के पास देशी फलों और जड़ी-बूटियों को मिलाकर तेज शराब बनाई और अंग्रेज सैनिकों को पिलाकर पूरी बटालियन का सफाया करवाया। एक अन्य घटना में का फेट सिएम तथा उनकी सहेलियों ने नौंग्ख्लाव में अंग्रेज सैनिकों के साथ भोजन करते समय प्रहरियों को मरवाकर दरवाजों को खोल दिया और खासी वीरों ने पूरी छावनी का सफाया कर दिया। इस युद्ध में खासी स्त्रियों के अदम्य साहस, जिजीविषा, त्याग और कठोर परिश्रम की गाथाएँ आज भी लोकप्रिय हैं।
29 जनवरी 1931 को रमब्रइ के सुसंगठित और प्रशिक्षित योद्धा कामरूप के पास तिरोत सिंग की सेना से आ मिले। राजा सुनता सिंग के नेतृत्व में गारो योद्धाओं का एक समूह भी तिरोत सिंग की सेना से मिल गया। डेविड स्कॉट को पूरे बोरदुआर की चिंताजनक स्थिति के विषय में तुरन्त सूचना दी गयी। डेविड स्कॉट ने 1831 में भारत सरकार को भेजी गयी रिपोर्ट में तिरोत सिंग की सेनाओं के घातक हमलों का वर्णन किया है। काफी कठिनाई के बाद कैप्टन ब्रोडी के नेतृत्व में बोरदुआर और आसपास के क्षेत्रों पर ब्रिटिश सेना दुबारा कब्जा कर सकी। कैप्टन ब्रोडी तब बोको की ओर आगे बढ़ा और एक के बाद एक नौंगस्टाइन, जिर्नगम, जिरंग और लौंगमारू आदि क्षेत्रों की सेनाओं को पराजित किया।
1831 में डेबिड स्कॉट की मृत्यु के बाद ग्रेक्रोफ्ट ने उनके स्थान पर एजेंट का कार्यभारत ग्रहण किया। उन्हें सूचना मिली कि नौंगिर्नेन के पास खासी सेनाओं को संगठित और प्रशिक्षित किया जा रहा है। उन्होंने कैप्टेन लिस्टर और लेफ्टिनेंट इंगलिस को खासी पहाड़ियों की दक्षिणी सीमा के पास भेजा। कठिन संघर्ष के बाद अंग्रेजों ने इन क्षेत्रों पर दुबारा कब्जा जरूरी किया लेकिन उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी।
मोनभट और उसकी सेनाएं मौसिनरम की ओर वापस गयीं और वहाँ अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया। फिर शेला, मोडेन और लीबाह में भी विद्रोह हुए। इन युद्धों में हुई हार के बाद खासी सरदारों ने समझ लिया कि वे अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ लम्बी लड़ाई नहीं लड़ सकते। फलस्वरूप एक के बाद एक उन्होंने गवर्नर जनरल के एजेंट रॉबर्टसन का प्रस्ताव स्वीकार करते हुए ब्रिटिश सरकार के साथ समझौता कर लिया।
तिरोत सिंग के अधिकांश योद्धा भूमिगत हो चुके थे। इस बीच अंग्रेजों को पता चला कि तिरोत सिंग को कई स्रोत से आर्थिक सहायता मिल रही है। ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति का पालन करते हुए उन्होंने मोनभट और उसके सहयोगियों को अपनी तरफ मिलाने का प्रयास शुरू किया। तिरोत सिंग को जब इसकी सूचना मिली तो उन्होंने मोनभट से कहा कि वह अंग्रेजों से बातचीत करे और उन्हें मिलाये रखे। शान्ति समझौते के प्रति तिरोत सिंग के नकारात्मक रुख के बावजूद रॉबर्टसन ने उनकी ओर 9 एक बार फिर दोस्ती का हाथ बढ़ाया। पर जब उसने समझ लिया कि जब तक तिरोत सिंग जीवित हैं और खासियों का नेतृत्व कर रहे हैं, तब तक खासियों से समझौता करना संभव नहीं है, तब उसने शक्ति का प्रयोग करना ही उचित समझा। उसने गोआलपाड़ा और मणिपुर से सेना की टुकड़ियाँ मंगवाई। साथ ही आर्थिक नाकेबन्दी भी तेज कर दी। उसका अन्तिम लक्ष्य था खासी पहाड़ियों को यूरोपीय उपनिवेश में तब्दील कर देना।
इसी समय खिरियम राज्य के मुखिया सिंग मानिक सामने आये और ब्रिटिश सरकार तथा तिरोत सिंग के नेतृत्व में खासी मुखियों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने का प्रस्ताव रखा। रार्बटसन ने प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और सभी सैन्य कार्यवाहीयों को स्थगित कर दिया। सिंग मानिक ने दोनों पक्षों के बीच शान्तिपूर्ण समझौते की प्रक्रिया आरंभ कर दी। महीनों के प्रयास के बाद सिंग मानिक अंततोगत्वा सरकारी एजेंट के प्रतिनिधि और तिरोत सिंग के बीच बैठक करवाने में कामयाब हो ही गये। यह बैठक 23 अगस्त 1832 को हुई। यह एक ऐतिहासिक क्षण था। अंग्रेज एजेंट ने तिरोत सिंग द्वारा प्रतिरोध की समाप्ति की शर्त पर शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व की बात की। परन्तु तिरोत सिंग वादों पर भरोसा करने वाले नहीं थे। उन्होंने स्पष्ट रूप से अपने राज्य में से गुजरने वाली सड़क का प्रयोग बन्द करने की मांग की और नौग्ख्लाव का राज्य वापस दिये जाने की भी मांग की। जब सिंग मानिक ने तिरोत सिंग से कहा कि उन्हें अपना राज्य वापस मिल सकता है, बशर्ते वे अंग्रेजों के साथ समझौते पर हस्ताक्षर कर उनका आधिपत्य स्वीकार करें, तिरोत सिंग ने उत्तर दिया कि ‘‘गुलाम राजा के जीवन से आजाद आम इंसान की मौत अच्छी है।’’ यह बेबाक वक्तव्य ऐतिहासिक था। बिना किसी ठोस नतीजे के इस बैठक का अन्त हो गया। 14
जल्दी ही एक दूसरी बैठक बुलायी गयी जिसमें तिरोत सिंग का प्रतिनिधित्व उनके दो मंत्रियों मान सिंह और जीत रॉय ने किया। उन्होंने अंग्रेजों के प्रतिनिधि कैप्टन लिस्टर से कहा कि वे लगातार चलने वाले युद्ध से तंग आ गये हैं। लिस्टर ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे अपने वादे के प्रति प्रतिबद्ध हैं बशर्ते कि तिरोत सिंग के भतीजे रिजोन सिंग को नया सिएम बनाया जाए। अंग्रेजों को मालूम था कि जब तक तिरोत सिंग को रास्ते से नहीं हटाया जाता तब तक उनकी सेना के मनोबल को नहीं उठाया जा सकेगा। इसलिए तीसरी बैठक की शर्त यह रखी गयी कि इसमें तिरोत सिंग उपस्थित नहीं रहेंगे। अंग्रेजों द्वारा रखी गयी शर्तों में से पहली शर्त यह थी कि यदि तिरोत सिंग आत्मसमर्पण कर दें तो सरकार उनकी जान बख्श देगी। उनके उत्तराधिकारी का चुनाव राजाओं के संघ द्वारा खासियों भी परम्परा को ध्यान में रखते हुए किया जायेगा। ब्रिटिश सरकार चेरा से असम तक सड़क बनाने के लिये स्वतंत्र होगी और कहीं भी पुल और गेस्ट हाउस बनाने का भी अधिकार रखेगी।
मध्यस्थ के रूप में सिंग मानिक की भूमिका से अंग्रेज संतुष्ट थे परन्तु तिरोत सिंग के आत्मसमर्पण के प्रश्न पर वार्ता में गतिरोध आ गया। फिर भी सिंग मानिक शान्तिपूर्ण समझौते के लिये आशान्वित थे। शान्तिवार्ता की प्रक्रिया चलती रही और सिंग मानिक ने जिडोर सिएम को वार्ता में शामिल कर लिया। अंग्रेजों ने जिडोर सिएम को इस बात के लिये राजी करने का प्रयास किया कि वे तिरोत सिंग के आत्मसमर्पण में सहायता करें परन्तु जिडोर अपने लोकप्रिय नेता को धोखा देने के लिये तैयार न थे। इस प्रकार शान्तिवार्ता का अन्त हो गया पर रॉबर्टसन ने सैनिक कार्रवाई जारी रखने का आदेश दिया। खासी 10मुखियों ने भी विदेशी आक्रमण का प्रतिरोध करने की तैयारी कर ली। वे जानते थे कि यह करो या मरो की स्थिति है। रॉबर्टसन ने पहाड़ियों की तराई में पुलिस घेराबन्दी को मजबूत बनाया ताकि आर्थिक नाकेबन्दी को और प्रभावी बनाया जा सके। तीन वर्षों की लगातार लड़ाई के बाद लोगों का आर्थिक और सामाजिक जीवन तबाह हो गया था। व्यापार छिन्न-भिन्न हो चुका था और खेती बर्बाद हो गयी थी। लोग इसी उम्मीद के सहारे सभी कष्ट सह रहे थे कि एक दिन तिरोत सिंग और उनके साथी विजयी होंगे और एक बार फिर वे स्वतंत्र जीवन जी सकेंगे। तिरोत सिंग लोगों के मन में अपने प्रति विश्वास को जानते थे और यह भी जानते थे कि लोग उन्हें अपना एक मात्र नेता और मुक्तिदाता मानते हैं। परन्तु युद्ध की निराशाजनक स्थिति ने उन्हें उसके परिणाम के प्रति सशंकित कर दिया था। उनके गुप्तचरों ने उन्हें सूचना दी कि उनके आसपास के खासी राज्यों और बाहर के पहाड़ी राज्यों ने भी अंग्रेजों के आगे समर्पण कर दिया है। सिंग मानिक ने भी तिरोत सिंग को प्रतिरोध की निरर्थक परिणति को लेकर आगाह किया। इससे केवल उनकी प्रिय प्रजा के कष्टों में वृद्धि होनी थी। भारी मन से तिरोत सिंग ने अपनी प्रजा के दुखों और कष्टों के बारे में विचार किया और अन्त में आत्मसमर्पण करने का फैसला किया। इसके मूल में उनकी प्रजा का हित निहित था। उन्होंने 9 जनवरी 1833 को अपने विश्वस्त मंत्री जीत रॉय को अंग्रेज अधिकारियों से मिलने के लिये भेजा। जीत रॉय ने कैप्टन इंग्लिस को सूचित किया कि उनके स्वामी तिरोत सिंग ने आत्मसमर्पण करने का फैसला किया है और उनका जीवन बख्शा जाए। कैप्टन इंग्लिस के राजी होने पर 13 जनवरी 1833 को लुम मदियांग नामक स्थान पर राजा तिरोत सिंग ने आत्मसमर्पण कर दिया। इस दुखद घड़ी में अपनी प्रिय प्रजा का ध्यान ही उनके लिए सर्वोपरि था।
राजा तिरोत सिंग ने साहसपूर्वक ब्रिटिश सरकार के एजेंट रॉबर्टसन के कोर्ट में अपने ऊपर चलाये जा रहे मुकदमे का सामना किया। रॉबर्टसन ने उनके ऊपर लगाये गये सभी अभियोगों के लिये उनको आजीवन कारावास की सजा सुनाई। बाद में इस पर पुनर्विचार करके उन्हें ढाका में नजरबन्द कर दिया गया। कहते हैं कि जब तिरोत सिंग ढाका पहुंचे तो उनके पास कोई व्यक्तिगत सामान नहीं था। उनके शरीर पर सिर्फ एक कम्बल था। पहले उन्हें ढाका जेल में रखा गया पर बाद में सरकारी आदेश पर उन्हें साधारण कैदी नहीं बल्कि राजबन्दी मानकर 63 रुपये का मासिक भत्ता स्वीकार किया गया और दो नौकर रखने की अनुमति दी गयी। उन्हें अपने जीवन का अन्तिम समय एकान्त में और बन्दी के रूप में बिताना पड़ा। तिरोत सिंग की मृत्यु की तिथि के विषय में पहले विवाद था। परन्तु अब यह निश्चित रूप से माना जाता है कि उनकी मृत्यु 17 जुलाई 1845 को हुई। 16
तिरोत सिंग अन्तिम स्वतंत्र खासी राजा थे। यद्यपि वे एक छोटी सी रियासत के मुखिया थे परन्तु उन्होंने शक्तिशाली अंग्रेजी शासन के विरुद्ध मोर्चा लिया। उनका जीवन पीढ़ियों के लिये लीजेंड बन गया और वे अपने जीवन काल के बाद ‘कल्ट फिगर’ बन गये। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पहले जिन अंग्रेज उच्चाधिकारियों ने उन्हें बर्बर, खून का प्यासा और हत्यारा कहा था, उन्होंने ही बाद में ‘‘उच्च कोटि के देशभक्त’’ के रूप में उनकी चर्चा की। डेविड स्कॉट ने प्रशंसापूर्ण शब्दों में इस महान खासी नेता की चर्चा की थी। यहाँ तक कि लार्ड कर्जन ने 1903 में तिरोत सिंग के साहस और सहनशीलता की प्रशंसा की थी। तिरोत सिंग एक ऐसे वीर पुरुष थे जो अपने आदर्शों के लिये जिए और अपना सर्वस्व इन्हीं 11आदर्शों और मूल्यों के लिये बलिदान कर दिया। त्याग, बलिदान और साहस के सम्पन्न उनका जीवन खासी युवाओं के लिये आदर्श बन गया। उन्होंने ढाका की जेल में बीमारी और मौत को अंगीकार किया पर उन्हें अंग्रेजों के अधीन मामूली मुखिया बनकर रहना स्वीकार नहीं था। अपनी प्रजा और देश के भले के लिए तिरोत सिंग को अंततः अपने आपको अंग्रेजी हुकूमत के हवाले करना पड़ा। पर भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में उनका नाम अमर हो गया
सन्दर्भ

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मेघालय के वाहनों की करिश्माई भाषा

चैताली दीक्षित


आप सबने विभिन्न प्रकार के भाषाओं और उनकी विविधताओं के बारे में सुना होगा पर क्या आपको पता है कि मेघालय में वाहन भी आपस में बातें करते हैं? मेघालय की खूबसूरत वादियों में गोल सर्पाकार सड़कों पर सरसराते छोटे-बड़े वाहन आपस में चुपके से हॉर्न की मधुर भाषा में एक दूसरे से बहुत कुछ कह जाते हैंl किसी घर में मौत या गमी हुई हो तो घर के सामने से गुजरते सारे वाहन बहुत ही धीमी रफ्तार से उस घर के सामने से गुजरते हैं, जो मृत व्यक्ति को श्रद्धांजलि का प्रतीक माना जाता है। वाहनों के माध्यम से संवेदनशीलता की ये मिसाल क्या आपने कहीं और देखी या सुनी है? हर जगह ये वाहन धैर्य पूर्वक आपस मे ताल-मेल बिठाकर निकलते हैं। वाहनों के माध्यम से वाहनचालकों की आपसी समझदारी एवं धैर्य बेहद प्रशंसनीय है l पहाडी रास्तों पर संकरी सड़कों पर ऊपर से आते वाहन, चढ़ाई चढ़ते वाहनों को प्राथमिकता देते हैं और किनारे रुक कर उन्हे रास्ता देते हैं l चढ़ाई पूरी कर ऊपर आने वाले वाहन के चालक हॉर्न को धीरे से दबा दूसरे वाहन चालक को धन्यवाद देता है, जिसने ऊपर ही रुक कर चढ़ाई चढ़ते वाहन का मार्ग सुगम किया l इस मधुर धन्यवाद का जवाब प्रतीक्षारत वाहनचालक भी अपने वाहन के हॉर्न को धीरे से दबा कर देता है जिसका मतलब है “वेलकम” l इस प्रकार संकरे सड़कों पर लाखों वाहन बिना वाहन चालकों के अहंकार का शिकार हुए धैर्य पूर्वक गुजरते हैं l है ना करिश्माई? क्या हम यहां की वाहनों की खूबसूरत भाषाई परंपरा को देश के हर कोने तक नहीं पहुंचा सकते? वाहनों के इस खूबसूरत ताल-मेल मे सुकून एवं भयमुक्त वाहन चालन का आनंद बेहद खूबसूरत है चैताली दीक्षित: प्रवक्ता, सेंट एन्थोनी हायर सेकेंडरी स्कूल

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कर्नल साहब

नीता शर्मा

आज माँ को सिधारे पंद्रह दिन हो गए। सब नाते रिश्तेदार जा चुके थे। घर में कर्नल साहब तथा बेटा बहु और बेटी रह गए थे। रिटायर्ड कर्नल थे वो। रुतबे के मुताबिक ही खूब रौबदार और निहायत ही सख़्त किस्म के फौजी थे। रिटायर हुए लगभग दो वर्ष हो गए थे पर क्या मजाल किसीकी की घर को छावनी से बदलकर घर में परिवर्तित किया जा सके। आज भी पूर्णतया फौज के अनुशासन वाला कड़ा कानून ही चलता था घर में। माँ बेचारी ने जाने कैसे सारी उम्र काट दी एक फौजी का हुक्म सहते सहते। सारा परिवार अपने अफसर के आगे सदैव “यस सर” की मुद्रा में ही दिखाई देता।

कभी भी माँ से एक पति की तरह बात करते या हँसते-बोलते नहीं देखा था उनको। माँ भी तो बिना किसी शिकवा-शिकायत के, एक आदर्श भारतीय नारी के समान उनकी सेवा में रत रहती दिन रात। बस एक ही शौक बचा था माँ को, रेडियो पर फिल्मी गाने सुनने का। एक छोटा-सा ट्रांजिस्टर छुपा कर रखती थी अपने पास। जब भी समय मिलता अक्सर माँ गाने लगा कर साथ में गुनगुनाती थी। मगर पिताजी की गैर हाजिरी में ही ये संभव हो पाता। कर्नल साहब जानते थे माँ के इस शौक को पर क्या मजाल की कभी साथ मिलकर आनंद ले लेते। पिछले पंद्रह दिनों में बेशक मायूसी दिखी थी कर्नल साहब के चेहरे पर, लेकिन आँखों से एक बूंद ऑंसू बहते न दिखा किसीको।इतना भी क्या सख्त होना की जिस औरत ने सारी उम्र दे दी उनके घर परिवार को, उसके जाने का भी गम नहीं। सभी रिश्तेदार भी आपस में कानाफूसी करते दिखे।

“अजीब ही कड़क इंसान हैं ये! अरे इतना भी क्या सख़्त होना कि सावित्री जैसी पत्नी पर भी दो बूँद ऑंसू नहीं दिखे इनकी आँखों में। ”
“अरे कितने सख्त दिल हैं अपने कर्नल साहब। मजाल है जो एक ऑंसू भी निकला हो आँख से।”बेटा, बेटी को पिता की आदत पता थी पर इतने संगदिल होंगे उन्होंने भी सोचा न था। माँ के जाने से ज्यादा पिता के इस रूप को देखकर दिल व्यथित था दोनों का। एक बार भी पिता ने माँ की किसी बात का ज़िक्र तक नहीं किया। बिल्कुल चुप्पी साध ली थी। हमेशा की तरह काम की या कोई जरूरी बात ही की थी इतने दिन से।
आज भी रोजमर्रा की तरह रात को ठीक 8 बजे खाना खाकर आधा घंटा बाहर लॉन में टहलने के बाद ठीक नौ बजे अपने कमरे में चले गए थे कर्नल साहब।
सुबह ठीक 6 बजे उठ जाते थे और माँ हाथ में चाय का कप लिए खड़ी होती थी। चाय पीकर सुबह की सैर को निकल जाया करते थे। बीते पंद्रह दिन से भी यही दिनचर्या की शुरुआत थी उनकी। फर्क बस इतना था कि चाय अब बेटी बनाकर तैयार कर देती है। आज भी चाय का कप लेकर पापा को देने कमरे में चली गई। दरवाजे से झाँका तो स्तब्ध हो गई। अरे ये क्या? पापा और माँ का ट्रांजिस्टर! अपनी आँखों पर यकीन न हुआ ये देखकर कि कर्नल साहब आराम कुर्सी पर माँ का ट्रांजिस्टर गोद में रखे आंखे मूंदे कुछ सुन रहे थे। क्या ये कर्नल साहब ही हैं, उसके रौबीले पिता। बुत बनी देखती रही। आँखों में पानी भर आया और दरवाजा खटखटा सीधे अंदर घुस गई।
“पापा आपकी चाय?”
पर ये क्या? किसको पुकार रही थी वो। एक निर्जीव शरीर पड़ा था वहां तो। सख़्त दिल पापा तो माँ के पास जा चुके थे
नीता शर्मा, लेखिका, आकाशवाणी की पूर्वोत्तर सेवा में हिंदी उद्घोषिका।

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रोटी

सीमा सिंह ‘स्वस्तिका’

माँ, आज नाश्ते में क्या बना है?
-पूछ तो ऐसे रहा है जैसे नवाब का नाती है।
-फिर भी बोलना न माँ, नाश्ते में क्या है?
-मुरमुरे।
-माँ, आज भी वह नमक वाली रोटी दे ना?
-नहीं, वो रोटी सुरेश के लिए है। तूने तो कल ही खाई थी ना।
आज तू मुरमुरे खा लेना।
-पर माँ, तू क्या खाएगी?
-मैं मालकिन के यहां सुबह का चाय पी लूंगी।
-चलती हूँ। कहकर गंगूबाई कांधे पर
झोला लेकर काम पर निकल गई।
सीमा सिंह: प्रतिष्ठित लेखिका एवं अध्यापिका।

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वास्तुशास्त्र

डॉ श्यामबाबू शर्मा

प्लाट की रजिस्ट्री करवा कर राजीव ने तुरंत ही प्लाट की बांउन्ड्री कराना उचित समझा। अनुभवी लोगों ने मशविरा दिया कि नक्शा बनवाकर बाउन्ड्री कराने से डबल खर्च नहीं होगा। राजीव हर काम को चुस्त दुरुस्त करने के हिमायती। पश्चिम मुखी घर में किस दिशा में कौन-कौन से कमरे रहेंगे इसकी वास्तुशास्त्री से पूरी तफ्सीस की।
बिल्कुल उत्तर पश्चिम में बैठक कक्ष। आग्नेय कोण में अन्नपूर्णा वास। पानी का निकास वायव्य दिशा में। बच्चों का कमरा दक्षिण पश्चिम की ओर। टेबल चेयर की दिशा पूरब को। वंदना की जिद अटैच पर थी परंतु इस आधुनिक संस्कृति में वास्तु दोष के कारण वंदना रुक गई। जल स्रोत मल निस्तारण के स्थान इंगित किए गए। बेड रूम की दिशा भी। श्लील अश्लील अब ग्रंथों के शब्द हैं! पूजा घर देवस्थान के लिए ईशान कोण

भूमि पूजन, आहुतियां और प्रसाद वितरण। पंडित श्रीधर ने दक्षिणा ली और बगल में खड़े जजमान सुख नंदन की ओर निहारते राजीव से पूछा ‘भैकरा का कमरा?’
. . . जीजी जी बाबू जी बैठक कमरे में. . वंदना ने स्वर विस्तारित कर संपूर्ति की ‘हां हां पंडित जी यह बैठक कमरा है ना!
डॉ श्यामबाबू शर्मा संप्रति भारत सरकार के राजभाषा सेवी है। आलोचना और लघुकथा संग्रह सहित १४ पुस्तकें प्रकाशित, कतिपय यंत्रस्थ। अर्द्धशताधिक लघुकथाएं प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित, कुछ पाठ्यक्रम में समाविष्ट। २०२१ का राष्ट्र भाषा भूषण सम्मान।

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