डॉ अनीता पंडा

श्रीराम कथा में ऐसी दर्शन और भावुकता की स्त्रोतस्विनी प्रवाहित होती है, जो सम्पूर्ण मानव समुदाय को भक्ति-भाव से आप्लावित कर देती है। श्रीराम केवल अयोध्या के राम नहीं अपितु जन-जन के राम हैं। तभी तो रसमयी राम कथा ने देववाणी से विभिन्न भाषों से होती सुदूर जनजातीय संस्कृति एवं आस्था तक की यात्रा तय किया है। “सियाराम मय सब जग जानि, करहू प्रणाम जोरि जुग पानी।” यह समस्त जग सिया राम मय है, दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए रामकथा सागर से किंचित मौक्तिक-कण मेघालय के जनजातीय क्षेत्र से प्राप्त करने का प्रयास मात्र है। जय श्रीराम!
जैसा कि सर्वविदित है कि राम कथा भारत की विविध भाषाओँ में लिखी गई। यहाँ तक की देश की सीमाओं को पार का विदेशों में भी मर्यादा पुरुषोत्तम राम के प्रसंग एवं साक्ष्य मिलते हैं। देववाणी संस्कृत से लेकर लोक भाषों एवं बोलियों में राम कथा का प्रसंग प्राप्त होता है। राम कथा के संदर्भ में मुख्य रूप से संस्कृत में ‘रामायण’ और तुलसीदास कृत ‘रामचरित मानस’ ज्यादा चर्चित एवं लोकप्रिय हैं। वाल्मीकि के राम ऐतिहासिक तथा मानवीय रूप है जबकि तुलसी के राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। राम कथा में निहित मूल्य प्रासंगिक है। कारण, आज की विषम परिस्थितियों में अपने नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों को समावेशित करने के लिए यह एक ऐसी राम कथा की धारा है, जो शक्ति, शील और सौन्दर्य से पूर्ण निराश मन को आशा का संचार करती है।
भक्ति आन्दोलन के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो “श्रीमद्भागवत” की रचना से पहले ही दक्षिण भारत में भक्ति धारा प्रवाहित थी, जो कालान्तर में भारत में फ़ैल गई। दक्षिण के आलवार और नायनर भक्तों का प्रभाव सम्पूर्ण भक्ति साहित्य पर पड़ा। “श्रीमद्भागवत” में व्यास महर्षि ने भक्ति के मुख से यह कहलवाया है कि मैं द्रविड़ प्रदेश में उत्पन्न हुई, कर्नाटक में बड़ी हुई; महाराष्ट्र में कुछ दिन निवास करने के पश्चात गुजरात में वृध्दा हुई।
उत्पन्ना द्राविडेचाहं कर्नाटे वृद्धिमागता।
स्थिता किन्चिन्महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णामता। ।
कबीर ने भी इसी तथ्य को स्वीकारते हुए कहा है –
भक्ती द्रविड़ उपजी, लाए रामानंद।
परगट किया कबीर ने, सात द्वीप नौ खण्ड। ।
हिंदी का भक्ति साहित्य यह प्रमाणित करता है कि भक्ति अपने कथन के डेढ़ हजार साल बाद पूरे युवा उत्साह के साथ उत्तर भारत में आई और उसने अपने भव्य भावधारा से उसने जन सामान्य को मन्त्र-मुग्ध कर लिया। भक्ति इस निर्मल रसमयी धारा ने हिंदी भाषी प्रदेशों को आप्लावित किया और गौडीय-वैष्णव संतों द्वारा असम के संत शंकरदेव और उनके शिष्य माधवदेव को भावमग्न करती हुई सुदूर पूर्वोत्तर भारत को अपने रंग में रंग लिया। मेघालय भी इससे अछूता न रहा। यहाँ राम कथा के प्रसंग प्रतीक के रूप में तथा मिथकों, लोक कथाओं के रूप में मिलता है।
प्रागैतिहासिक काल में मौन-खमेर बोलने वाले खासी और जैंतिया पहाड़ियों में खासी और पनार के रूप में स्थापित किया। मेघालय राज्य में मुख्य रूप से खासी, गारो और जैंतिया भाषा और बोली है परन्तु इन भाषाओँ को बोलने वाले बड़ी संख्या में असम राज्य के निवासी हैं। इनमें से खासी भाषा मेघालय के खासी और जैंतिया पहाड़ियों पर रहने वाली खासी-जैंतिया जनजातियों द्वारा बोली जाती है। गारो पहाड़ियों में रहने वाले गारो आदिवासियों की भाषा गारो है। इनका स्वधर्म, परम्परा एवं संस्कृति थी। स्वतंत्रता के संघर्ष के पश्चात सन् 1757 में खासी-जैंतिया तत्पश्चात गारो क्षेत्र अंग्रेजों के आधिपत्य में आ गया और मिशनरी का प्रभाव इनके मूल आस्था पर प्रहार किया परिणामस्वरूप तेजी धर्मांतरण हुआ। साथ ही इस क्षेत्र में ब्रिटिश शासकों ने इनके पारम्परिक रीति-रिवाज एवं अनुष्ठानों पर रोक लगा दिया था। कालांतर में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के उपरांत शिक्षित युवा वर्ग में अपनी मूल संस्कृति एवं रीति-रिवाजों आदि के प्रति जागरूकता आई। ‘बाबू जीबोन रॉय’ की अध्यक्षता में सोलह खासी युवकों सहित २३ नवम्बर १८९९ में अपने मूल संस्कृति और परम्पराओं के पुनर्जीवन हेतु ‘सेंग सामला खासी’ संस्था की स्थापना की। बाबू जीवन रॉय, खासी भाषा के पहले विद्वान थे जिन्होंने रामायण का खासी भाषा में अनुवाद किया। इसी प्रकार एल. एस. पॉल और सुलेनट लैमार ने राम कथा का अनुवाद भारतीय संस्कृति में अमूल्य योगदान दिया।
मेघालय की जैंतिया पहाड़ियों की जैंतिया या पनार जनजतियों में राम कथा के दो प्रसंग मिलते हैं। कहते है कि ‘जैंतिया पहाड़ियों में अर्थात् ‘हिमा शेल्ला’ के ‘री वार’ में वा या उम सियेज नदी है। वा या उम का अर्थ पानी है। वहाँ एक स्थान है जिसे ‘सिंगोह उराम’ के नाम से जाना जाता है जिसका अर्थ है – राम का जल। मिथक के अनुसार श्री राम सीता की खोज करते हुए ‘री वार’ आए थे। वे अत्यंत व्याकुल थे। उन्होने स्वयं को शांत करने के लिए इस नदी में डुबकी लगाईं थी। वहाँ एक पत्थर पर एक चूहे और तितली के निशान मिलते हैं। राम कथा से सम्बंधित दूसरा प्रसंग ‘सीता हरण’ से है। कुछ लोगों का मानना है कि जब रावण सीता का हरण करके ले जा रहा था तो सीता ने यहाँ स्वयं को उसकी पकड़ से मुक्त करने प्रयास किया। १ जैंतिया समुदाय के अधिकतर लोग अपना मूल धर्म मानते हैं। आज भी यहाँ परिवार के बड़े बेटे का नाम ‘राम’ और छोटे बेटे का ‘लखन’ और बेटी का नाम ‘दुर्गा’ रखने की परम्परा है। ध्यातव्य है कि “लखन”शब्द अवधी भाषा का है, जो पूर्वोत्तर के जनजातीय क्षेत्र में प्रचलित है। खासी, जैंतिया पहाडियों से होती हुई राम कथा के मिथकीय प्रसंग गारो पहाड़ियों से जुड़ती है। ध्यातव्य है कि गारो पहाड़ियों में स्थित बाल्पक्रम पठार धर्मांतरण के पूर्व गारो जनजातियों और हिन्दुओं के लिए एक पवित्र तीर्थ स्थल था। बाल्पक्रम पठार बाघमारा मुख्यालय से लघभग 50 कि.मी. दूरी पर स्थित है। इसे सन् 1988 में ‘राष्ट्रीय उद्यान और वन्य पशु अभ्यारण्य घोषित किया गया है। यह पठार हनुमान की संजीवनी बूटी की खोज से सम्बंधित है। स्थानीय लोग रामायण के इस प्रसंग को ज्यादा महत्व देते हैं। ‘श्री एच ए मराक के अनुसार – एक समय बाल्पक्रम एक पवित्र पर्वत था। यहाँ संजीवनी बूटी उगती थी, जो जीवन रक्षक थी। स्थानीय लोगों के अनुसार जब लक्ष्मण लंका में मेघनाद से युध्द करते हुए गंभीर रूप से घायल हो गए और वे मूर्च्छित हो गए थे। उनके प्राण संकट में पड़ गए थे, तब लक्ष्मण के प्राण बचाने के लिए लंका के वैद्यराज सुषेन ने हनुमानजी को सूर्योदय से पहले संजीवनी बूटी लेन के लिए कहा। पुराण के अनुसार हनुमानजी ने पूरे विश्व की परिक्रमा किया परन्तु उन्हें संजीवनी बूटी नहीं दिखाई दी। अंत में उन्हें गारो पहाड़ियों में बाल्पक्रम पर्वत पर संजीवनी बूटी दिखाई दी। समय बहुत कम था और सूर्योदय होने वाला था। उन्होंने पहाड़ के ऊपरी भाग तोड़ लिया और मुर्च्छित राजकुमार की रक्षा के लिए शीघ्रता से लौट आए। ’२ इस प्रकार संजीवनी बूटी के उपचार से लक्ष्मण जी स्वस्थ हो गए। स्थानीय लोगों के अनुसार तब से बाल्पक्रम की पहाड़ी का ऊपरी भाग टूटने के कारण यह सपाट मेज या पठार के समान हो गया।
डॉ जुरियस एल. आर. मराक, संग्रहालय वैज्ञानिक, निदेशक क़ला, संस्कृति, मेघालय सरकार के अनुसार रामायण में वर्णित ‘गंधमादन पर्वत’ और कहीं नहीं बल्कि गारो पहाड़ियों में बाल्पक्रम चोटी है। पुराने ज़माने में हिन्दू तीर्थयात्री दूसरे देशों और पड़ोसी देशों से यहाँ वर्ष में एक बार श्रध्दा से आते थे। कुछ वर्ष तक मयमनसिंह के राजवंश (आज बांग्लादेश में) शाही परिवार साल में एक बार यहाँ तीर्थ के लिए आते थे और कुछ दिनों के लिए यहाँ रुकते थे।
इसके अतिरिक्त यहाँ कुछ ऐसे साक्ष्य मिलते हैं जिससे यह ज्ञात होता है कि यहाँ कभी हिन्दू धर्म के अनुयायी रहते थे। आज गारो जनजातियों ने लगभग ९९ प्रतिशत लोगों ने अपना मूल धर्म छोड़ धर्म परिवर्तन (ईसाई धर्म) कर लिया है। ध्यातव्य है कि यहाँ आस-पास कोई हिन्दू परिवार नहीं रहता है, ऐसी जगह में महेशखोला मंदिर गारो, खासी पहाड़ियों और बांग्लादेश के बीच स्थित है। इस वीराने में हिन्दू मन्दिर का होना कई सवाल पैदा करता है। वहाँ बहने वाली पाँच समानांतर नदियाँ, जो कि बाल्पक्रम में बहती हैं, उनमें से चार नदियों के नाम हिन्दू धर्म से सम्बंधित हैं। उन चार नदियों के नाम हैं – महादेव नदी, जो महादेव भगवान पर आधारित, महेशखोला नदी – भगवान महेश पर आधारित, उसके बाद गणेशवारी नदी, जो शिव के पुत्र गणेश पर आधारित और कनाई नदी, जो नागों के देवता नाग कन्या पर आधारित है। इनमें से केवल एक नदी है जिसका नाम स्थानीय नाम “चिमिते” है। यह ना’वा के नाम से भी जानी जाती है, इसका अर्थ है – देव नदी। इससे यह अनुमान लगा सकते हैं कि वहाँ किसी समय हिन्दू रहते थे या पूजा करते थे और यह एक पवित्र क्षेत्र माना जाता रहा होगा।
बाल्पक्रम के उत्तर-पश्चिम से थोड़ी दूर पर सनितमंग या विमोंग की पहाड़ियों पर हिन्दुओं की श्रध्दा है। वे इसे भगवान शिव के घर कैलाश के नाम से पुकारते हैं। श्री हेल्सिंग एस. संगमा ने ईसा पूर्व गारो पहाड़ियों के जनजातियों पर पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) के हिन्दुओं का ऐतिहासक एवं सांस्कृतिक प्रभाव का वर्णन किया है। श्री देवानसिंग एस. रोंगमुत्हू ने गारो जनजातियों की सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक दृष्टिकोण के प्रति अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि बाल्पक्रम और उसके आस-पास का क्षेत्र मादी-रोंग-कुची (महादेव नदी का स्त्रोत) में प्राचीन गारो समुदाय रहता था। मादी-रोंग-कुची बहुत ही उन्नत और समृध्द क्षेत्र था। यह उस समय की बात है जब स्वर्ग और पृथ्वी अलग-अलग नहीं थे और धरती पर साधारण मनुष्य का नहीं अपितु देवताओं का निवास था।
निष्कर्षत: इन मिथकों एवं जनश्रुतियों में वर्णित राम कथा सत्यापन हेतु शोध आवश्यक है।
यह एक आस्था का प्रश्न है, जो समय के गर्त में विषम परिस्थितियों में धूमिल अवश्य हो गईं थी परन्तु राम की भक्तिमय धारा मेघालय के गारो, खासी और जैन्तियाँ पहाड़ियों पर सदैव ही प्रवाहित हो रही थी। इसका मुख्य कारण है मेघालय में तेजी से होता धर्मांतरण। इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता है यह एक ऐसी अनन्त भक्ति की धारा है जिसने पूरे देश को एक सूत्र में पिरो दिया है। अंत में – “हरि अनंत, हरि कथा अनंता”– अर्थात् हरि अनंत है और हरि की कथा भी अनंत है।

Back to Spring 2021