जैसे ही मर्सडीज गेट के अंदर घुसी लाल बाबू झट लपके गाड़ी का दरवाज़ा खोलने। दरवाजा खुलते ही सूट बूट पहने एक रौबीला सा आदमी नीचे उतरा। दोनों हाथों से पकड़कर बड़े आराम से धीरे से उसने एक वृद्धा को भी नीचे उतारकर लालबाबू से पूछा,"कौन सा कमरा है इनका?"
"जी सर! वो सामने वाला कमरा तैयार है। आप रहने दीजिए, सुनंदा आराम से ले जायेगी इन्हें कमरे में।"
"अरे नहीं-नहीं, मैं खुद जाऊंगा इनको लेकर।" वृद्धा का हाथ पकड़कर कमरे की ओर चल पड़े।
कमरे में घुसते ही सारे कमरे का अच्छे से मुआयना कर वृद्धा को हाथ पकड़कर बिस्तर पर बिठाकर बड़े प्यार से वृद्धा से बोले, "माँ अब आप आराम से बैठो यहां। आपका सब सामान रखवा दिया है मैंने। मिलने आता रहूंगा आपसे। कुछ भी ज़रूरत हो तो इनको बोल देना, ये आपकी सब बात मानेंगे।" कहकर माँ के पांव छुए और बाहर निकलकर वापिस मुड़े और फिर हिदायत दी,इनका खास ख्याल रखिए माँ हैं ये हमारी। कोई तकलीफ न होने पाए।" और गाड़ी में बैठकर चले गए।
वृद्धा चुपचाप एकटक बस उन्हें जाते देखती रही।
"कौन है ये आंटी और ये कार वाले साहब? कोई बहुत बड़े आदमी लग रहे हैं।" जिज्ञासावश सुनंदा ने लालबाबू से पूछा।
"अरे ये ही तो हैं गजेंद्र चौहान, इस वृद्धाश्रम के ट्रस्टी। बहुत बड़े सेठ हैं।इनके पिताजी ने ही बनवाया था ये वृद्धाश्रम। ये माँ है उनकी, बहुत अच्छे से ख्याल रखना इनका, कोई शिकायत न आए। अल्जाइमर की मरीज़ है, सब कुछ भूल गई हैं अपने बारे में।" लालबाबू चेताते हुए बोले।
उदासीन सी भावहीन बैठी वृद्धा को देखकर सुनंदा सोचने लगी।
"सब कुछ भूल गईं हैं ये! या इनका बेटा? असल में अल्जाइमर किसको हुआ है इनको या इनके बेटे को?