साहित्य और दर्शन ऐसी दो विधाएँ हैं जो सचेतन व्यक्ति के जीवन की प्रत्येक क्रिया को प्रभावित करती है। साहित्य मानव-संसार की भावपूर्ण अभिव्यक्ति है और दर्शन उसकी तात्विक व्याख्या। वास्तव में मानव जीवन की कोई भी क्रिया साहित्यिक अनुभूति और दार्शनिक चिंतन से अछूती नहीं रहती। मनुष्य जहाँ सांसारिक व्यापारों को भावना में दृष्टि से देखता है, वहाँ वह कवि होता है। जब वह उचित-अनुचित का तात्विक विवेचन करता है, तब दार्शनिक। स्वामी विवेकानन्द जी की रचनाओं में भाव और दर्शन का अद्भुत समन्वय मिलता है।
सागर की अतल गहराइयों से निसृत मौक्तिक कणों के सौन्दर्य की अभिव्यक्ति सम्भव है पर स्वामी विवेकानन्द जी के काव्य-सागर में कविताओं में निहित सौन्दर्यबोध अवर्णनीय है। स्थूल रूप से ये कविताएँ लक्षणा-व्यंजना से परे लगती हैं तदपि सूक्ष्म रूप से जीवन के गूढ़ अर्थ को व्याख्यायित करती हैं। स्वामी विवेकानन्द जी की कवितायें हृदय को प्रकृत दशा में लाती है और संसार के बीच उसका प्रसार करती हुई उसे मानवता के उच्च स्तर पर ले जाती है। भावयोग की उच्च शिखर पर पहुँच कर उनका पूर्ण तादात्म्य ईश्वर से हो जाता है। वह व्यक्ति से समष्टि में समा जाती हैं। उसका हृदय विश्व-हृदय हो जाता है। वह बोध के स्तर पर परम सौन्दर्य और परमानन्द का आभास कराती हैं।
स्वामी विवेकानन्द जी के काव्य-संसार में आज एक मुक्ता “किसे दोष दूँ?” ( मूल - No One To Blame) का सम्पूर्ण भाव सौन्दर्य बोध आपके समक्ष प्रस्तुत करने का भागीरथ प्रयास किया है। इसे स्वामीजी ने १६ मई १८९५ को न्यूयार्क में लिखा था।
मानव जीवन मृगतृषित है। सीमित साँसों में बहुत कुछ पाने की चाह उसे भ्रमित करती है। अंततोगत्वा जब यथार्थ से परिचित होता है, तो स्वयं को ही इसका उत्तरदायी पाता है। स्वामीजी के शब्दों में
“सूरज ढलता,
रक्तिम किरणें-
दम तोड़ते दिवस की देह लपेट चुकी है,
चौंकी हुई दृष्टि से देख रहा मैं पीछे,
गिनता हूँ अब तक की सब उपलब्धियाँ,
किन्तु मुझे लज्जा आती है, और किसी का नहीं, दोष मेरा ही है।”
ढलता सूरज यहाँ मनुष्य के जीवन के अंतिम पड़ाव को इंगित करता है। जीवन भर कुछ न कुछ पाने की चाह में वह भागता रहता है। स्वामीजी जब प्राप्त उपलब्धियों को देखते हैं, तो उन्हें आत्मग्लानि होती है कि उन्होंने इतने मूल्यवान समय को यूँ ही बिता दिया। उन्होंने लघु उपलब्धियों के लिए महान लक्ष्य को विस्मृत कर दिया पर वे दोषारोपण किसी पर नहीं करते, स्वयं को ही दोषी मानते हैं। आमतौर पर लोग अपनी असफलता के लिये भाग्य, काल, परिस्थितियों या दूसरों को दोष देते हैं।
वे अपने जीवन के प्रतिदिन के कृत्यों को इसका उत्तरदायी मानते हैं। जो जैसा कर्म करता है, वैसा ही उसे फल मिलता है अर्थात अच्छा या बुरा जो कुछ जीवन में घटित होता है, वह हमारे कर्मों का ही परिणाम है। ये कर्म ही हमारे जीवन को तदनुरूप बनाते हैं। कोई कितना समझाये या राह दिखाये पर कर्मों की गति निरन्तर चलती है। इसमें किसी दोष नहीं अपितु उनका ही है।
“मैं बनाता या मिटाता प्रतिदिन अपना जीवन,
भले-बुरे कर्मों का वैसा फल मिलता है
भला-बुरा जैसा बन गया यह जीवन,
रोके और संभाले से भी रुके न संभले कोई भी कितना सर मारे
और किसी का नहीं दोष तो मेरा ही है।”
स्वामीजी के मतानुसार अतीत अर्थात भूतकाल में किये कृत्य वर्तमान में साकार होते हैं। अतीत में जिस दिशा या क्षेत्र में निरंतर प्रयास करते हैं, वह वर्तमान में प्रतिफलित होता है। उन्होंने विगत दिनों में बड़े-बड़े आयोजन किये थे। उनका यह जीवन लिये गये संकल्प और स्वनिर्मित धारणाओं के अनुसार बने-बनाये ढाँचे के अनुरूप ढल गया। इसके लिये मनुष्य अपने अतिरिक्त किसे दोष दें। यथा
“मैं ही तो अपना साकार अतीत हूँ
जिसमें बड़े-बड़े आयोजन कर डाले थे,
वे संकल्प धारणाएँ वे जिनके ही अनुरूप ढल गया है यह जीवन,
वही, ढाँचा है जिसका,
और किसी का नहीं दोष तो मेरा ही है।”
कहा जाता है कि “जैसा बोओगे, वैसा काटोगे।” अगर प्रेम बाँटेंगे तो बदले में प्रेम मिलेगा और घृणा के बदले नफ़रत। प्रेम एवं घृणा ही जीवन और मृत्यु को अपनी परिधि में आबद्ध कर लेते हैं। अनुस्यूत भाव है कि दोनों ही बंधन हैं। इसमें किसी और का दोष नहीं है बल्कि वे खुद दोषी हैं, क्योंकि प्रेम-घृणा का संबंध उन्होंने ही बनाया है।
“प्यार का प्रतिफल मिला प्यार ही केवल
और घृणा से अपनी घृणा भयानक,
जिनकी सीमाओं से घिरा हुआ है जीवन
और मरण भी,
प्यार-घृणा इस तरह बाँधते किसे दोष दूँ जबकि स्वयं ही मैं दोषी हूँ।”
मनुष्य के जीवन का प्रत्येक दिन एक-एक करके बीतता ही जाता है। उसका हर क्षण शुभ-अशुभ, प्रेम-घृणा और दुःख-सुख के ताने-बाने से निर्मित होता है। एक सामान्य व्यक्ति की तरह स्वामीजी को भी कहीं ऐसे सुख की अभिलाषा थी, जिस पर दुःख की परछाई कभी न पड़े। लाख प्रयास के उपरांत यह सम्भव नहीं हो सका क्योंकि दुःख-सुख एक सिक्के के दो पहलू हैं। वे स्वयं से प्रश्न करते हैं कि इसके लिये कौन दोषी है? पुनः उत्तर देते हैं कि इसमें उनका ही दोष है। संत शिरोमणि कबीरदास जी की इन पंक्तियोँ में भावसाम्य मिलता हैं -
“बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल देखा अपनों, मुझ सा बुरा न कोय।”
स्वामीजी द्वारा रचित निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -
“सभी शुभ-अशुभ प्यार-घृणा, सुख-दुःख को बाँधे,
जीवन सब दिन अपनी राह चला जाता है,
मैं उसे सुख के स्वप्न देखता जिस पर दुख की पड़े न छाया,
किन्तु कभी हाँ, कभी नहीं हो सके सत्य वे,
किसे दोष दूँ? जबकि स्वयं ही में दोषी हूँ।”
स्वामी विवेकानन्द जी का दुःख रहित जीवन और सुख की अभिलाषा के भीतर ही संसार रूपी मरीचिका में निरंतर भटकते हुये शाश्वत सत्य से साक्षात्कार होता है। तदुपरांत भ्रम तथा माया का आवरण परे कर सांसारिक घृणा, प्रेम, कामनाओं से वे मुक्त हो शान्ति का अनुभव करने लगे। जन्म के बाद मृत्यु ही ध्रुव सत्य है, जो सदैव समक्ष रहती है। हम इस सत्य को अनदेखा कर माया-जाल में फँसे रहते हैं परन्तु स्वामीजी को जीवन-सत्य का बोध हो गया है अतः ऐसा लगता है कि इन कामना रूपी ज्वालाओं को स्वामीजी के जीवन से सदा के लिये मुक्ति प्राप्त हो गयी। वे कहते हैं कि अब ऐसा कोई नहीं बचा है, जिस पर दोषारोपण करूँ। स्वामीजी के शब्दों में -
“छूटी घृणा, प्यार भी छूटा और पिपासा भी जीवन की प्रशमित हो गयी,
शाश्वत मरण, अभीष्ट रहा जो वही सामने,
जीवन की ज्वाला,
जैसे निर्वाण पा गयी,
कोई ऐसा शेष नहीं है, जिसे दोष दूँ।”
बाह्य जगत को ही सत्य मान मन भ्रमित होता है और सांसारिक विकार उसे विचलित करते हैं परन्तु जब वह अंतर्मुखी होता है, तो उसे आत्मसाक्षात्कार होता है। प्रथम वह द्वैत की स्थिति में रहता है। एक ओर काया तो दूसरी ओर परमेश्वर का स्थिति की अनुभूति होती है। शनैः शनैः आत्मानुभूति द्वैत से अद्वैत की ओर ले जाती है। वहाँ उसे आभास होता है कि उसकी आत्मा ही सम्पूर्ण है, जहाँ परमात्मा का निवास है। आत्मा और परमात्मा का एकीकरण हो जाता है। जैसे जल की बूँद सागर में समा सागर बन जाती है। स्वामीजी उन लोगों को परम ज्ञानी माना है, जिन्होंने आरम्भ से ही मनुष्य योनि में जन्म लेने का उद्देश्य समझ लिया। उन्होंने माया के जाल, सांसारिक नश्वरता से अवगत हो, उन मार्गों का उपहास किया अर्थात उपेक्षा की क्योंकि ये रास्ते मनुष्य को दिग्भ्रमित कर लक्ष्य से दूर कर देते हैं। ऐसे मनुष्य को स्वामीजी परम ज्ञानी की संज्ञा देते हैं। वे स्वयं तो लक्ष्य की ओर पूर्णरूपेण अग्रसर होते हैं, साथ ही दूसरों का मार्गदर्शन भी करते हैं। लोग मृत्यु को अभिशाप मानते हैं, जीवन को वरदान जबकि गूढ़ रहस्य यह है कि जीवन भी अभिशाप ही है और संसार दुखालय। हर क्षण नश्वर सुख, वैभव, यशादि की अभिलाषा में मानव जीवन नष्ट होता जाता है। अंत में कुछ भी साथ नहीं जाता, शरीर भी नहीं। स्वामी विवेकानन्द जी जीवन की उत्तम सार्थकता जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति को मानते हैं।
“एकमात्र मानव, परमेश्वर एकमात्र, संपूर्ण आत्मा,
परम ज्ञानी वह जिसने
उपहास किया उन राहों का,
जो भटकातीं, पतित बनातीं, अँधियारी हैं,
एकमात्र संपूर्ण मनुज वह, जिसने सोचा-समझा चरम लक्ष्य जीवन का,
पथ दिखलाया,
मृत्यु एक अभिशाप और यह जीवन भी तो ऐसा ही है,
सबसे उत्तम जन्म-मरण का बंधन छूटे।
ऊँ नमो भगवते सम्बुद्धाय,
ऊँ नमः प्रभु! चिर संबुद्ध!”
निष्कर्षतः स्वामी विवेकानन्द जी की कविता “किसे दोष दूँ?” (No One To Blame) में जीवन के गूढ़ दर्शन एवं सत्य को बहुत सहजता से व्यक्त किया गया है। स्वामी विवेकानन्द जी की कविता में जहाँ एक ओर “एकमात्र मानव, परमेश्वर एकमात्र, संपूर्ण आत्मा ...” में कश्मीर शैव धर्म के प्रत्यभिज्ञा दर्शन की अनुभूति होती है। इस दर्शन के अनुसार, ईश्वर और जीवात्मा दोनों एक ही हैं। इस दर्शन में मुक्ति का मार्ग अपने दिव्य स्वरूप को पहचानकर शाश्वत सत्य का साक्षात्कार करना है। वहीं दूसरी और दूसरी ओर “मृत्यु एक अभिशाप और जीवन भी तो ऐसा है...” बुद्ध के दुखवाद, आत्मज्ञान और पीड़ा से मुक्ति की खोज बौद्ध-दर्शन से साम्य दर्शाती है। स्वामी विवेकानन्द जी भी सांसारिक दुःख एवं बंधन से मुक्ति हेतु आत्मसाक्षात्कार की ओर प्रेरित करते हैं। “किसे दोष दूँ” कविता में निहित दार्शनिक सौन्दर्य बोध के धरातल पर सर्व साधारण मनुष्य को चिंतन के लिये विवश करता है। साथ ही मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है।
श्री श्री गुरूवे नमः
वाराणसी में सन् 1957 को जन्मी डॉ. अनीता पंडा की कर्मभूमि सन 1984 से मेघालय की राजधानी शिलांग रही है। यहाँ की लोक-संस्कृति आदि पर हिन्दी में लेखन तथा हिन्दी के प्रचार-प्रसार हेतु संलग्न हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं से भी जुड़ी हैं।सम्प्रतिः आप वरिष्ठ शोधकर्ता, आई. सी. एस. एस. आर., दिल्ली एवं अतिथि प्रवक्ता मार्टिन लूथर क्रिश्चियन विश्वविद्यालय, शिलांग, वरिष्ठ लेखिका, अनुवादक, कवियित्री, समीक्षक एवं सह-संपादिका "का जिन्शाई/ज्योति", दूरदर्शन मेघालय एवं पूर्वोत्तर सेवा आकाशवाणी, शिलांग में कार्यक्रमों का संचालन। राष्ट्रीय शिक्षक सम्मान 2015, आकाशवाणी नई दिल्ली के विदेशी प्रसारण सेवा प्रभाग द्वारा संगीत रूपक नौह का लिकाई के संगीत रूपक लेखन हेतु प्रथम पुरस्कार-2009 में, नौ पुस्तकें प्रकाशित, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन में कार्यक्रम संचालन, सक्रिय भूमिका, देश-विदेश में सरकारी-गैर सरकारी प्रतिष्ठित संगोष्ठियों में भागीदारी, पुरस्कृत एवं सम्मानित, मेघालय की जनजातीय संस्कृति एवं लोक पर शोध।