संपादक- डॉक्टर अनीता पंडा
सह संपादक -नीता शर्मा
प्रथम संस्करण- २०२३
मूल्य- १५०
प्रकाशक -सृजन पीठ प्रयागराज
अचानक ही किसी शहर में इतनी शक्ति कहाँ से आ जाती है, जो वह रोजमर्रा के नागरिकों को रोजी-रोटी देती हुई कुछ दिनों के के लिए कई लाख गुना ज्यादा अधिक मनुष्यों को रहने के लिए स्थान और उदर पूर्ति हेतु अनाज प्रदान करने लगती है। क्या भूमि का विस्तार उस समय धरती माँ बढ़ा देती है? वैसे ही अनजाने लोग अनगिनत भावनाओं का प्रवाहित होना है। जितना मन सुगठित हो लिखते जाओ, बताते जाओ, आने वाली पीढ़ी को कि क्या हो रहा है? कितना भी विज्ञान अपना विस्तार दिखायें लेकिन मिट्टी अपनी सुगंध और अपने अस्तित्व को मौन रहकर बताती रहती है, यह लेखन यहाँ बिन प्रयास के ही उपस्थित हो रहा है। इस समूह का सृजन पीठ प्रथम प्रयागराज का ही है। शाखायें जाने कौन-कौन-सी मिट्टी में पुष्पित, पल्लवित हुई एक अंकुरण शिलांग में भी हुआ तब शिलांग के कवि रत्नों ने अपने हृदय के तरंगों को प्रतिभाषित कियाI
सावन में आए श्रवण
समुद्रमंथन का स्मरण कराते
(पृष्ठ ३१)
चाहे हम सात समंदर पार जायें या लाखों करोड़ों की लड़ियों से अपने निर्जीव हो रहे देह को सजायें। देश हेतु कुछ कर दिया वही प्यार अभिमान है, स्वाभिमान है।
राष्ट्र के टुकड़ों को जोड़कर
पूरा किया इस देश के अरमान को
( पृष्ठ २७ )
औरतों से सारी दुनिया, अखिल भूमंडल सुशोभित हो रही हैI औरतों से प्रतिभासित हो रही है फिर भी अपने अस्तित्व को तलाश की औरत की खोई हुई रहती है। चली आ रही परम्परा में जीने की आदत हो गयी है उसे —
आदत पड़ गई है सदियों से उसे वल्लरी बनकर रहने की
उसे इस आदत को थोड़ा अलग रूप देना होगाI वह उसे तोड़ पाने में सक्षम है, लेकिन, यह, पर, किन्तु, परंतु सब कुछ दंड स्वरूप स्त्री ने अपने ऊपर ले लिया है।
घर में सब जैसा है वैसा ही अपनाना होगा
हाँ मगर रसोई में कुछ रोज नया पकाना होगा
( पृष्ठ ६२ )
अनगिनत सितारों से भरी जिंदगी ना जाने कितने मन्वन्तर बनकर, कल्प से गुजरती हैI धरती के हम बन जाते हैं राजा? वे कब समझ सके हैं, दीन-दुखी, सर्वहारा की भूख और पीड़ा?
आँखों की कोटरें
याचित
पूँजीपतियों के द्वार
मूँगफली बाँटते
दुख-पीड़ा से बेपरवाह( पृष्ठ ९९ )
संवेदनशील हृदय ही अपने मनोभावों को शब्दों में ढालेंगेंI जीवन की गति रुकती नहीं मात्र स्मृतियों का पुलिंदा बढ़ता जाता हैI
लम्हे तो यूं ही चले जाते हैं
पर यादें जाती नहीं, जो बात कही थी तुमने (पृष्ठ ९१)
विचारों का ऊहापोह जीने नहीं देता है मरने भी नहीं देता तो क्या करता है? रास्ता ढूँढो, संत रूमी, कबीर, बुद्ध, नानक दादू, अखा नांगेली सभी ने अपने रास्ते ही तो ढूँढें बैठ करके उनके जीवन की यात्रा को समझने, पढ़ने और उसको अपने अंतरतम तक ले जाना बहुत ज्यादा जरूरी है। क्या हम वह कर पायें? कोई न कोई गुरु तो होगा हीI दलित-विमर्श पर आधारित ये पंक्तियाँ प्रश्न कर रहीं हैंI
निकल आया है वह खामोशी से
नहीं लौटता है कोई वहाँ से
बुद्धन लिए ज्ञान का प्रकाश
नारी हृदय की भावनायें कहाँ, कैसे, किस रूप में प्रवाहित और प्रकाशित हो रही हैंI वह हम इस पुस्तक में देख सकते हैं।
प्राकृतिक परिवेश में साहित्य का अवगाहन हमें सोपान-दर-सोपान सौंदर्य-दर्शन कराता जाता है। आदरणीय पंडित पृथ्वी नाथ जी ने भूमिका में यही बात अपने शब्दों में बताया है कि इस पुस्तक में हैं कुछ कवितायें ऐसी भी हैं, जिसमें रचनाकारों का सर्जनात्मक पक्ष संलक्षित हो रहा है। उनमें कहीं विफल प्रेम की वेदनाहिलकोरें मार रही है, तो कहीं सफल प्रेम का सुख मन -प्राण को आल्हादित कर रहा है, परंतु प्रेम की अपार भूख की अतृप्ति में परिणति ही प्रेम का वास्तविक विजय है।
“संवाद करते मेघ” एक ऐसी काव्य कृति है, जो प्राकृतिक प्रदेश मेघालय राज्य के उर्वर भूभाग से पहली बार उद्घाटित हो रही है। पावन गंगाजल की कल कल, छल छल का अनुभव हो रहा है, जो मानवता और करुणा का संदेश संप्रेषित करती जान पड़ती है। (पृष्ठ १२)
भारत बहुत कुछ अलग है और नहीं भी हैI ऐसा कैसे हैं, जो है वह दिखता नहीं है जो नहीं वह प्रतिभासित भी नहीं होताI पत्थर में बुद्ध है मान लिया फिर उस पर जल, धूप, दूध-भोग और जीवित इंसान से जी भर घृणा?
काश! वही नफरत बदल जाए और उसमें पावन धारा बन जाए। कोई तो पूछे तुझ में छुपा कोई अरमान कहाँ से प्रस्तुत हो रहा है? बीज कहीं से उड़ कर आते हैं और अपनी खुशबू बिखेर जाते हैं। रस, छंद, अलंकार लोकगीत, राष्ट्रगीत ना जाने किस हद तक प्रभावित, प्रवाहित होते रहते हैं ।
ऐसी नौकरी का क्या करना
इंतजार की हद तो हो गई
अब कुछ तो करम करना
मैं जल्दी आऊँगा
पलकें बिछा कर रखना
परदेस न जाओगे
परदेस न जाऊँगा
अपना वतन अपना
यहीं खुशी में पाऊँगा( पृष्ठ ६७)
जिसके दिल में प्यार है, लोग उसे पल भर को मिलकर आत्मीयता से भर जाते हैं यह तो पंचतत्व से निर्मित काया किसी और से खिंचाव का अनुभव करती है पर हमारा यह चंचल मन कहाँ ठहराव पाता हैI इतनी ही तो प्रक्रिया है तब अंदर का भीगा मन कहता है कि सब साथ चलें और मंजिल की ओर अग्रसर हों -
काहे की फिक्र?
“हमसाथ साथ हैं
एकछतरी के नीचे”
इसवक्त मेरे भीतर पनप रही है,
एक और नई कविता ( पृष्ठ ८३)
लाखों विचार हमारे मन को मथते रहते हैं, सबको एक सूत्र में बाँध पाना अत्यंत ही दुष्कर कार्य है फिर भी डॉक्टर अनीता जी और नीताजी ने अति दुष्कर कार्य को सरल बनाया है। उम्मीद है आगे भी यह दीपशिखा प्रज्वोलित रहेगी। कवियों को खूब-खूब शुभकामनायें।
वर्तमान में ऑक्सिलियम कॉन्वेंट हाई स्कूल, बड़ौदा में हिंदी और संस्कृत की अध्यापिका के रूप में कार्यरत हैं। उन्हें अखिल भारतीय कवियत्री समिति मथुरा से राष्ट्रीय कवि पुरस्कार प्राप्त है, तथा वे बड़ौदा से प्रकाशित हिदी त्रैमासिक पत्रिका नारी अस्मिता में समीक्षक हैं। ।