शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’

चाँद पर मकान एक
संयमित जमीन है,
साँस एक बॉस और
बाँसुरी नवीन है।
चार हैं भूखंड, विश्व
योजना की गोद में,
गीत है अनंत भरा,
शांति के सरोद में,
हर क्लेश झेलती है,
जिन्दगी ज़हीन है।
आयु का आदित्य नित्य
झाँकता है झील में,
जाति-पाँति, व्यक्तिवाद,
पूँजी की करील में,
काम, काम, काम, रहा,
आदमी मशीन है।
हर समाज में कहीं न,
दृष्टिगत समानता,
भौतिकी भूकंप की,
न जान सकी ज्ञानता,
मित्रभाव का वसंत,
पाक है, न चीन है।
स्वर समासबद्ध है,
विकास में निरुद्ध है,
सत्य एक सत्य है, न
नीति के विरुद्ध है,
पेट की दीवार के,
व्यंजना अधीन है।

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