लोहा बन गया हूँ मैं
सरल मार्गों का
अनुसरण कब किया मैंने
खाई-खन्दक से भरी जमीन पर
योद्धा बन कर गुजरा हूँ मैं
धूप में तपकर
अनगिनत रूपों में ढला हूँ मैं
वक्त ने सौंपे जो भी काम
हॅंसते हुए पूरा किया उन्हें
कभी थका नहीं
पहाड़ों पर चढ़ते हुए
लोहा बन गया हूँ मैं
आघात झेलते-झेलते

अब पाँव हमारे दुखते नहीं
ये खड़े-खड़े, अच्छे दिनों के इंतजार में
बाँस हो गए हैं
धीरे-धीरे सीढ़ी हो गए
घबराहट नहीं होती
जब कोई इन पर चढ़कर ऊपर जाता है
अपनी ध्वजा फहराता है
हम देखते रहते हैं
नहीं दुखते सचमुच हमारे पाँव
अब ये नींव हो गए हैं

नरेश अग्रवाल झारखंड के निवासी हैं और कवि और कविताओं की दुनिया में एक सुपरिचित नाम है, इनकी कविताओं के काई किताबें प्रकाशित हुई हैं