खालिकपुर ग्राम पंचायत का मजरा, अड़ौवा। लगभग सौ घर का पुरवा। यहां की अधिकतर आबादी लाल राशन कार्ड वाली। परधानी की शुरुआत बदरी महाराज से हुई और लगातार चलती रही। बीच-बीच में जब आरक्षित सीट आई तो उन्होंने अपने ताबेदार के जरिए गांव की नेकी खैरियत संभाली। इसी गांव के खोड़हुनू के बेटे गोजई ने बदरी महराज की चक्की में लगे एसटीडी बूथ में उस दिन शहर से संदेश दिलाया कि, ‘अम्मा तुम चिंता ना करिहो।  मालिक छुट्टी नहीं दइ रहा। पइसा जल्द ही भेजब। तीज त्यौहार का समय है सामान कपड़ा लइ लेहें। बड़न का पैंलगी छोटन का राम राम।’

और फिर अगले ही दिन गोजई की…।

पूरे गांव में मातम छा गया। जैसे तैसे क्रिया-कर्म संपन्न हुआ। विद्या पंडित ने सलाह दिया कि उत्तम-मध्यम ही सही संस्कार तो होना ही चाहिए। खोड़हुनू से बोलते ना बन रहा था वही कमासुत बेटा था। बिन पैसे के तो तेरहवीं ना होगी? किससे कहे?

बदरी परधान और महाजन ने खोड़हुनू को ढांढ़स बंधाया, यही विधि का विधान है, दुखी ना हो। तुम तैयारी करो। हम लोग के रहते कउनो चिंता नाहीं। सब लोग तुम्हारे साथ हैं। पैसे का इंतजाम हो जाएगा। महाजन ने बही निकाली और नाम दर्ज किया खोड़हुनू वल्द कोदे…।

‘सबसे डेढ़ टका ब्याज लिया जाता है तुमसे सवा टका…।’

बेटे को खो चुका बूढ़ा पिता  इस गांव व्यवहार  से कैसे उऋण होगा!

डॉ. श्यामबाबू शर्मा संप्रति भारत सरकार के एक राजभाषा सेवक हैं। राष्ट्रभाषा भूषण सम्मान से सम्मानित इनकी कुछ लघु कथाएँ पाठ्यपुस्तकों में समाहित हैं। इनके 14 से ज्यादा पुस्तकप्रकाशित है।