अक्टूबर १९९९ में, मुझे रामकृष्ण मिशन के मुख्यालय से एक आदेश मिला:

“अमेरिका के पूर्वी तट पर प्रॉव्हिडन्स नाम के छोटे से नगर में रामकृष्ण संघ का एक पुराना आश्रम है- ‘वेदान्त सोसायटी ऑफ प्रॉव्हिडन्स’। वहाँ कई दशकों से कार्यभार सम्हाल रहे पूजनीय स्वामी सर्वगतानन्दजी अब ८८ साल के हैं और पिछले ३-५ वर्षों से अनुरोध कर रहे कि अब उनके स्थान पर अन्य किसी को कार्यभार सौंपा जाए। इसके लिए मुख्यालय ने आपको चुना हैI”

 उन्होंने कई संन्यासियों के नाम सुझाए थे, जिन में मेरा नाम भी था। चूँकि मेरी कभी उनके साथ मुलाकात नहीं हुई थी, यह स्पष्ट था कि किसी से मेरे बारे में सुनकर उन्होंने मेरा नाम उस सुझाव-सूची में रखा था। (यदि मेरे साथ प्रत्यक्ष परिचय होता तो वे ऐसी गलती कभी नहीं करते)। उन दिनो परम पूजनीय स्वामी रंगनाथानन्दजी रामकृष्ण संघ के परमाध्यक्ष थे। चूँकि मैने शायद ही कभी अंग्रेजी में व्याख्यान दिए थे, मेरे मन में वहाँ जाने में कुछ दुविधा थी। उन्होंने मुझे उत्साह देते हुए कहा कि ‘वह बड़ा अच्छा स्थान है और जब Providence (सबका भरण-पोषण करने वाले परमात्मा) तुम्हें बुला रहा है, तो तुम ‘ना’ कैसे कह सकते हो?’

सन २००० के मार्च में मेरी शिलांग से छुट्टी हुई। तभी मेरे शिलांग में चार वर्ष पूर्ण हो गये थे। १९९९ के नवम्बर में मेरा पासपोर्ट भी बन गया था। वीजा पाने का प्रयास जारी था। उसमें बहुत समय लग गया। करीब १५ महीने मैं भारत के कई आश्रमों और तीर्थस्थानों- में भ्रमण करता रहा। सन २००१ के मई महीने में वीजा मिल गया और फिर ठीक ३१ मई को मैं मुम्बई से इंग्लैण्ड, हॉलैंड, जर्मनी, फ्रान्स, स्वित्झर्लण्ड में प्रवास करते हुए अमेरिका पहुँच गया। इसको इत्तेफ़ाक़ कहूँ कि – स्वामी विवेकानन्द भी ३१ मई को मुंबई से अमेरिका के लिए चल दिए थे। वह २१ जून की प्रभात थी। प्रात:काल के  १ बजे (1 am) में बोस्टन के वेदान्त सोसायटी में पहुँच गया। सर्वगतानन्दजी मेरा इन्तजार कर रहे थे। श्रीरामकृष्ण के अंतरंग पार्षद स्वामी अखण्डानंदजी के वे शिष्य थे। १९५४ से वे बोस्टन और प्रॉव्हिडंस के बेदान्त सोसायटी का कार्यभार सम्हाल रहे थे। इस महापुरुष के सम्बन्ध में बहुत कुछ शिक्षाप्रद बातें क्रमशः समझ में आयी; उसकी चर्चा बाद में कभी करूँगा। करीब दो बजे सो गया; कमरा काफी गरम था पर प्रायः पुलिस या फायर ब्रिगेड, ट्रक्स बड़े ज़ोर से कर्णकर्कश ध्वनी करते हुए पास के बड़े रास्ते से गुज़र रहे थे। इस के कारण मैं बिल्कुल सो नहीं पाया। दिन निकलने पर ध्यान -जप आदि के बाद नास्ता करने गया। वहाँ सैंटा बार्बरा कॉन्व्हेन्ट से आयी प्रव्राजिका ब्रह्मप्राणा (इन दिनो वे  वेदान्त सेंटर ऑफ नॉर्दन टेक्सास का कार्यभार सम्हालती हैं) से मेरी भेंट हुई। वे चंद दिनों के लिए बोस्टन में आई थीं और वहाँ स्वामी विवेकानन्द से सम्बंधित स्थान देखना चाहती थीं। उनके साथ मेरी भी यह तीर्थयात्रा हुई। एक भक्त – जोसेफ (संक्षेप में ‘जो’) ड्वायर – जो कुछ घण्टों पहले मुझे एयरपोर्ट से बोस्टन बेदान्त सोसायटी ले आए थे, वे ही अब हमें उन स्थानों पर गाड़ी से ले जाने वाले थे। वे एक बड़े ही अच्छे गायक और संगीतज्ञ थे। क्रमशः उनसे अधिक घनिष्ठ परिचय हुआ। हम दोपहर के २ बजे के बाद वहाँ से मिकले।

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अमेरिका के सम्बन्ध में कितनी ही बातें कई विषयों पर सुनता आया था। भारत के लोगों में यह धारणा कई दशकों से जड़े जमाकर बैठी है कि इस देश में सर्वत्र विलासिता है, गरीबी का बिल्कुल नामो निशान तक भी नहीं। कुछ दिनों में ही समझ में आया कि विलासिता,  अमीरी होने के बावजूद, यहाँ पर भी अधिकांश लोगों को गरीबी से जूझना पड़ता है। अमरीकी समाज का स्त्री-पुरुषों के परस्पर सम्बन्धों के विषय में भी बिलकुल अलग नज़रिया है। यह भी सुनता आया था, मध्यमवर्गीय सुशिक्षित  हिन्दू समाज के नज़रिये से यह भिन्न होने के बावजूद भी इन में नैतिकता कम हो ऐसी कोइ बात नहीं। और सुना था – यहाँ वेदान्त / हिन्दू  दर्शन और स्वाभी विवेकानन्द के प्रभाव के विषय में। कई लोगों की राय है कि यह प्रभाव बड़ा ही विस्तारित है और गहरा भी। अन्य लोगों का कहना था कि प्रभाव कोई बड़ा नहीं है; सामान्य अमरीकी लोगों ने न वेदान्त का नाम सुना है, न ही श्रीरामकृष्ण- विवेकानन्द का।

जो भी हो, हम लोग इन स्थानों के दर्शन हेतु निकल पड़े। सर्वप्रथम गए विश्वविख्यात हार्वर्ड विश्वविद्यालय। वहाँ विवेकानन्दजी ने जिस हॉल पर व्याख्यान दिया था उसे देखा। ३३ वर्ष बाद उस कमरे में एक साइन बोर्ड लगाया गया, जिसमे विवेकानन्दजी के वहाँ व्याख्यान के बारे में लिखा है। उस दिन हम लौट आये।

दूसरे दिन हमलोग वाल्डन पॉन्ड देखने गये। नयनरम्य वनराजी से घिरा यह अति मनोरम सरोवर है; किन्तु यहाँ हमारे जाने का उद्देश्य अलग था। यह स्थान  हेन्री डेविड थोरो से सम्बन्धित है। थोरो भारतीय औपनिषद दर्शन से बहुत प्रभावित हुए थे। उन्नीस वी  शताब्दी के मध्योत्तर में अमरीका के उत्तर-पूर्व भाग में Transcendentalist Movement नाम से एक दार्शनिक संप्रदाय शुरू हुआ था। Transcendentalist का तात्पर्य है कि सतही तौर पर जो भासमान होता है उसके परे जो नित्य तत्व है उसे पकड़ना। राल्फ वाल्डो इमर्सन, मार्गरेट फुबर, अमोस ब्रॉनसन अल्कोट्, थॉरो इ. कई विख्यात कवि और दार्शनिक इस सम्प्रदाय के अग्रणी थे। विवेकानन्द जी ने जो वेदान्त के बीज बोए उसके लिए जमीन तैयार करने का काम इन ट्रान्सेंडेटालिस्ट लोगों ने किया। कई दशकों पहले थॉरो (हेनरी डेविड थॉरो) का नाम पढ़ा था। इस स्थान में उन्होंने अपने निवास हेतु एक छोटा सा लकड़ी का कमरा बनवाया था। उस कमरे को बाहर से और भीतर से देखकर विशेष आनन्द हुआ।

रविवार के दिन सुबह बोस्टन आश्रम में एक विद्वान भक्त का सुंदर प्रवचन हुआ। पू. सर्वगतानन्दजी के लिए इसे उनके कमरे से ही सुनने की व्यवस्था की गई थी, उन्होंने मुझे भी वहीं से सुनने के लिए कहा। इस रविवार के व्याख्यान कार्यक्रम को यहाँ Sunday Service कहा जाता है। इस के उपरान्त Soup lunch (सूप भोजन) हुआ और फिर हम सब एक गाड़ी में सवार होकर प्रॉव्हिडन्स शहर के लिए निकल पड़े। और करीबन सवा घण्टे में प्रॉव्हिडंस पहुँच गए।

इस रविवार को बोस्टन और प्रॉव्हिडन्स में कितने ही भक्तों के साथ परिचय हुआ। इन में कुछ भारतीय मूल के थे, परन्तु बहुत से अमेरिकन मूल के थे। यहाँ आने के पहले भी मैंने ऐसे भक्तों को श्रीरामकृष्ण, माँ सारदा, स्वामी विवेकानन्द और वेदान्त के प्रति लगाव होने की बहुत कहानियाँ सुनी थी। आज उसका प्रत्यक्ष अनुभव पाकर विशेष आनंद हुआ। इनमें से प्रायः सभी ने श्रीरामकृष्ण माँ सारदा – विवेकानन्द और वेदान्त का अच्छा अध्ययन किया था। इसलिए उनकी भक्ति केवल एक परंपरा- पालन या धर्म का औपचारिक आचरण न होकर मूल आध्यात्मिक जीवन का प्रामाणिक प्रकाश था।

यहाँ के रीतिरिवाज, मिलने-जुलने-खान-पान इत्यादि नियम (Manners etiquettes) सीखना मेरे लिए एक प्राथमिकता थी। सभी भक्त आनन्दपूर्वक मेरी गलतियों को प्रेम और विनम्रता से सुधार देते थे। इन्हीं दिनों स्वामी विवेकानन्द जी से सम्बन्धित स्थानों के दर्शन का अनायास सुअवसर प्राप्त हुआ। इन में सारा बुल का निवासस्थान (जहाँ विवेकानन्दजी कई दिनों तक रहे और स्वामी अभेदानन्द, सारदानन्द जैसे उनके गुरु बन्धुओंका भी यहाँ वास हुआ। बाद में सारा बुल ने परमानन्दजी को बोस्टन में वेदान्त का केंद्र प्रारंभ करने हेतु इस भवन में आमंत्रित किया।), एनीस्क्वाम (Annisquam) – जहाँ विवेकानन्दजी का प्रथम व्याख्यान हुआ और जहाँ से उन्हें शिकागो के धर्मसभा में सहभागी होने के लिए आवश्यक प्रशस्ति पत्र प्राप्त हुआ, सेलेम (Salem), जहाँ स्वामीजी कुछ दिन रुक थे और कुछ व्याख्यान भी दिए – इत्यादि स्थानों का समावेश था। विवेकानन्द- चरित्र में मैंने इन सब स्थानों के सम्बन्ध में पढ़ा था। किन्तु इन स्थानों को मैं अपनी आखों से कभी देख सकूँगा ऐसा स्वप्न में भी कभी नहीं सोचा था। इन के दर्शन-स्पर्शन से शरीर-मन बिलकुल रोमांचित हो गया।

इन्हीं दिनों एक विशेष ग्रंथ पढ़ने को मिला और उसके रचयिताओं से प्रत्यक्ष परिचय भी हुआ। भारत में रहते समय इस ग्रंथ को देखा तो था, किन्तु पढ़ा नहीं था। ग्रंथ का नाम था, ‘The Gift unopened’ (नहीं खुला उपहार) लेखिका का नाम एलेनोर स्टार्क। इनसे और इनके पति से इन दिनों मुलाकात हुई। दोनों उमर में पचहत्तर पार कर गए थे, किन्तु मुखमण्डल पर एक आध्यात्मिक आनंद और शान्ति छायी हुई थी।

इस ग्रंथ में यह दिखाया गया था कि विवेकानन्द ने अमेरिका के लिए जो अति मूल्यवान तोहफा दिया है, उसे अव तक पूर्णरूप से खोला नहीं गया है। इस ग्रंथ से एक उद्धरण देकर इस लेख का समापन कर रहा हूँ। यदि भगवान की इच्छा हो तो यहाँ के कुछ और उद्बोधक संमरण अगली किस्त में लिखुंगा ।

लेखिका एलेनोर स्टार्क, स्वामीजी के अमेरिका में आगमन को ‘अमेरिका की चतुर्थ क्रांती’ कहती हैं ।

“America has passed through three great revolutions: the first was a struggle  for independence as a new nation from the tyranny of unheeding power; the second was a civil war, an internal revolution… the third was an industrial revolution, which freed men & women from heavy labor and opened world- markets, but which did not bring about corresponding advances in the consciousness of man….

“This book proposes to tell of an advent on the American scene of a voice from the East, which in a few short years sowed the seeds of a regeneration of a great people. At the turn of the century an unheralded and quiet revolution took place across the land. A message, a gift was given to the American people in words of such universal wisdom and power that those who heard them at the time found their lives changed and their spirits freed…”  Intro. (xix)

यहाँ पिछले बाइस वर्षों से इस गंभीर सत्य का साक्षात अनुभव कर रहा हूँ।

स्वामी योगात्मानन्द वेदान्त सोसाइटी आफ प्रोविडेन्स के मंत्री एवं अध्यक्ष हैं। ये 1976 में रामकृ ष्ण मिशन में शामिल हुए और 1986 में सं न्यास की दीक्षा ली। 20 वर्ष तक रामकृ ष्ण मिशन नागपुर, में कार्य करने के उपरांत रामकृ ष्ण मिशन शिलांग मेघालय, के अध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहे।