मोच

Voice: Badal

कई दिनों से पाँव में दर्द होने के कारण खाना बनाने वाली बाई केवल सुबह ही आ पाती है l और उसमे भी बीच बीच में नागा कर लेती है अतः रात का खाना हम दोनों माँ -बेटी मिल कर ही बनातीं हैं इसीलिए रात का भोजन एक साथ बैठ कर ही कर लेते हैं l
इन्होंने हम दोनों से पहले खाना खा कर अपनी थाली खिसकाते हुए कहा — ये भी रख देना और तुरंत खड़े हो कर सिंक की ओर मुड़ गए l
बेटी जो विदेश से कुछ महीनों पहले ही कोरोना के चलते मेरे पास यहाँ आई हुई है, तपाक से बोल पड़ी —-पापा अपनी थाली ख़ुद रखा करो, आप के जूठे बर्तन उठाते -उठाते मेरे हाथ में मोच आ गयी !
सुनते ही मुझे हँसी आ गयी !
सच में ही बेटी के हाथ में मोच आ गयी थी या आज कल के बच्चों की उच्शृंखलता झलक रही थी या कि उसने भारतीय मर्दों की सोच पर प्रहार करना चाहा था l

रात को बिस्तर में देर तक नींद नहीं आयी , जाने कितनी ही पिताजी की बातें एक मधुर एहसास लिए हुए , चलचित्र की भांति दिखाई देने लगीं l वो हमेंशा ही अपने जूठे बर्तन उठाते ही नहीं बल्कि माँजा भी करते थे l
इतना ही नहीं वे हमेंशा अपने पहनने के कपड़े धो कर प्रेस भी ख़ुद ही किया करते थे l बटन भी अपने आप ही टाँका था एक बार मेरे आग्रह के बावज़ूद भी l और न जाने कितने ही कार्यों में वो माँ का हाथ बँटाया करते l दही बिलौना तो जैसे उन्हीं की जिम्मेदारी हो l मैं जब दसवीं में थी तो उन्होंने मेरे हिस्से का काम भी सहर्ष किया था ताकि मुझे पढ़ने के लिए अधिक समय मिल सके l मेरे नौकरी पेशा पिता भी पूर्णतः भारतीय ही तो थे l
आज सुबह ही बाई का फ़ोन फिर आ गया उसकी बेटी ने उधर से कहा माँ के तेज बुख़ार है आज नहीं आएगी lमैं कुछ कह पाती उससे पहले ही फ़ोन काट दिया l अच्छा हुआ ऐसे में कहने को मेरे पास था ही क्या ? और मैं रसोई की तरफ जाते हुए सोचने लगी मेरे हाथ की मोच तो यूँ ही बर्तन धोते हुए ठीक हो जाएगी, हमेंशा की तरह l
अवनीत कौर दीपाली, का जालंधर पंजाब में जन्म हुआ। इनकी तुकांत, अतुकांत,लघुकथा, कहानी कई समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई है। अनेकों पत्रिका जैसे गृहशोभा, सरिता, वनिता गृहलक्ष्मी और असम की अनेकों पत्रिकाओं में इनकी कविताएं ज्ञापित हुई है।

डॉ. सुशीला ढाका रसायन विज्ञान श्री कल्याण राजकीय महाविद्यालय सीकर की अध्यापिका होने के साथ-साथ कई पुरस्कारों से सम्मानित एक नामचीन कवित्री हैं। इनकी कई पत्रिकाओं में कविताएं छप चुकी हैं। ईनकी कविताओं का संग्रह बंदी से नामक पुस्तक में पाई जा सकती हैं। नियमित तौर पर आकाशवाणी से इनकी कविताओं का प्रसारण होता है।

इनसे हैं हम

पाठ्य पुस्तक के सारे गुण समाहित हैं ‘इनसे हैं हम’ में

मैं बार -बार सोचता हूं कि अगर जगनिक न होते तो आल्हा-ऊदल जैसे वीरों का नाम समय के साथ समाप्त हो गया होता। राजा परमाल का नाम तो इतिहास की किताबों में मिलता है लेकिन आल्हा- ऊदल का नहीं मिलता। इतिहास सिर्फ शासकों का लिखा जाता है। सेनापतियों का लिखा जाता है। वार जनरलों का लिखा जाता है। सारा खेल तो राजा- रानी के इर्द-गिर्द ही घूमता है न? अब उसमे प्यादों, घोड़ों, ऊटों को भला कौन याद रखे? जबकि उनके बिना किसी भी सम्राट का कोई अस्तित्व नहीं। नींव के ईंट कब तक गुमनाम होते रहेंगे!

आज हम जो भी हैं, ऐसे ही नहीं हैं। उसके पीछे प्रत्यक्ष या परोक्ष उन तमाम लोगों की कुर्बानियां हैं जिन्होंने इस धरती को उर्वर रखने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। ये कुर्बानियां सिर्फ खुद को गर्वित महसूस करने के लिए याद रखनी जरूरी नहीं होतीं बल्कि इन्हें पढ़कर और सुनकर अपना आगे का मार्ग प्रशस्त करने में भी सुविधा होती है। भविष्य की गलतियाँ याद करके अपने पूर्वजों को कोसने से बेहतर है, उनके प्रति अहोभाव रखकर उनकी गलतियों से सीखें जिससे उनका दुहराव होने से बचा जा सके।

यह देश दधीचि का देश है जिन्होंने असुरों को मारने के लिए अपनी अस्थियाँ दान कर दी। यह देश गौतम बुद्ध का देश है जिनके एक इशारे पर अंगुलिमाल जैसा डाकू बौद्ध हो गया। यह देश नेताजी का देश है जिनकी गुमनामी भी शत्रुओं के लिए भयावह बनी रही। यह देश भगत सिंह और आजाद का देश है जिनकी जवानी ने खून की होली खेली तो देश में उबाल आ गया। यह देश रानी लक्ष्मीबाई और दुर्गावती का देश है जिन्होंने तलवार उठाया तो अंग्रेजों की चूलें हिल गईं। ये देश पन्ना धाय का देश है जिसने अपने राज्य के युवराज को बचाने के लिए अपने बेटे को तलवार के नीचे रख दिया।

ऐसे ही अपने इक्यावन पूर्वजों की कहानी से सजे हुए संग्रह का नाम है ‘इनसे हैं हम’ जिसका संपादन डॉ अवधेश कुमार अवध जी ने बेहतरीन ढंग से किया है। जिसका हर पाठ प्रतिभा संपन्न किंतु हिंदी साहित्य के बड़े मठों से दूर रहने वाले साहित्यकारों ने बड़ी ही सहजता और सरलता से लिखा है। जिसे पढ़ना नई पीढ़ी के लिए न केवल ज्ञानार्जन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है बल्कि हर पुस्तकालय में  इस प्रकार की पुस्तकों की उपस्थिति अपरिहार्य भी है।

संपादकीय से लेकर अंतिम पाठ तक हर अध्याय पठनीय है। संपदाकीय के लिए संपादक की अलग से तारीफ भी बनती है, जिसमें उन्होंने पुस्तक की जरूरत और पूर्वजों की भूमिका पर वृहद लिखा है। संग्रह की सहजता इसकी उत्कृष्टता भी है जिसमें इस देश की महान विभूतियों के बारे में संक्षेप में किंतु दुर्लभ जानकारियाँ उपलब्ध करवाई हैं। बिना किसी अतिरिक्त फैंटेसी और काल्पनिकता का सहारा लिए इस प्रकार संग्रह तैयार करना इसे पाठ्य पुस्तकों की श्रेणी में रखने के लिए पर्याप्त है। उम्मीद है कि सक्षम व समर्थ लोग ध्यान देंगे।

आज के इस अंतर्जालीय युग में ज्ञान जितना सुलभ हुआ है उतना ही सत्य और प्रामाणिकता से दूर भी हुआ है। ऐसे समय में किताबों की अहमियत और बढ़ गई है। इंटरनेट माध्यमों पर लोग कुछ भी लिख दे रहे हैं। ऐसे में सही और गलत का फैसला कर पाना बहुत मुश्किल होता जा रहा है। खासकर नई पीढ़ी के लिए यह समय और भी दुविधापूर्ण है। ऐसे समय में ‘इनसे हैं हम’ जैसी किताबों की उपलब्धता उनके लिए एक मार्गदर्शक का काम कर सकती हैं, जिसे पढ़कर वे सही और गलत का फैसला बड़ी आसानी से कर सकते हैं।

एटा जिले के कासगंज तहसील में जन्मे महावीर सिंह का नाम हममें से ही कई लोग होंगे जिन्होंने सुना भी नहीं होगा।  जिन्होंने बाहर तो छोड़िए जेल में रहकर भी अंग्रेजों की नाक में दम करके रखा था। अंडमान जेल की सुविधाओं के विरोध में आमरण अनशन करते हुए जब जेल अधिकारी उन्हे जमीन पर पटककर नाक में नली डालकर जबरन दूध पिलाने की कोशिश कर रहे थे। इसी समय वह नली उनकी आंतों में न जाकर फेफड़ों में दाखिल हो चुकी थी। अधिकारी उनके फेफड़ों में ही दूध उड़ेलकर दूसरे कैदी के पास चले गए और महावीर सिंह ने वहीं तड़पकर अपना दम तोड दिया। (स्वाधीनता संग्राम के महावीर – डॉ राकेश दत्त मिश्र ‘कंचन’)

बप्पा रावल का नाम तो काफी सुना-सुना सा लगता है लेकिन वो कौन थे कब जन्मे थे उनका अपने इतिहास में क्या योगदान है आदि बातें मुझे प्रस्तुत संग्रह में संग्रहित उनकी जीवनी पढ़कर ही पता चली। इस अध्याय के लेखक डॉ पवन कुमार पांडेय जी हैं।

ऐसे ही वीर कुँवर सिंह और उनके भाई अमर सिंह और उनके रिश्तेदार बेनी सिंह का योगदान इतिहास से ओझल है। (डॉ अवधेश कुमार अवध)।

वीरबाला कनकलता बरुआ के बारे में बहुत कम ही लोग जानते होंगे। जबकि उनका योगदान किसी भी नागरिक का सिर माथे पर बिठा लेने के लिए काफी है। वो असम की पहली महिला थीं जो आजादी की लड़ाई में शहीद हुए थीं। अधिक जानकारी के लिए इस संग्रह में संकलित डॉ रुनू बरुआ जी के लेख को पढ़ा जा सकता है। डॉ अनीता पंडा द्वारा लिखित मेघालय के जयंतिया हिल्स से कियांग नांगबाह का शौय एवं सूझबूझ पठनीय है।

युद्धवीर सुकालू, लाचित बरफुकन, सती जयमती, चाफेकर त्रिबंधु, प्रफुल्ल चंद्र चाकी, बलिदानी तिरोत सिंह, मांगी लाल भव्य, मणिराम देवान, रानी नागनिका जैसे कई ऐसे नाम जिनके बारे में पहले कभी नहीं पढ़ा था। पढ़ने सुअवसर उपलब्ध कराने के लिए एक बार फिर से संग्रह के संपादक और उनकी पूरी टीम का बहुत बहुत आभार।

निश्चित रूप से यह संग्रह पठनीय और संग्रहणीय है। एक बार मेरे सर्वकालिक और सर्व प्रिय मित्र ने कहा था कि हमें करोड़ों में बिकने वाली दो-दो टके की अभिनेत्रियों के नाम तो याद हैं लेकिन गणतंत्र परेड में परेड का नेतृत्व करने वाली पहली महिला कमांडर का नाम याद नहीं है। ये इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।

बात भी सही है। लेकिन उनके बारे लिखने या खोजकर पढ़ने का किसी ने शायद जरूरत ही नहीं समझा होगा इसलिए यादों पर धूल जम गई। जरूरी है उस धूल को हटाना ताकि आने वाली पीढ़ी को रास्ता मिल सके। इस हेतु भी इनसे हैं हम एक सार्थक पहल है।

दिवाकर पांडेय “चित्रगुप्त भारतीय सेना में कार्यरत है और खाली समय में लिखने का शौक रखते हैं। इनकी लिखित आलेख, लघु कथा और कविताएं कई पत्रिकाओं में छप चुके हैं

झीनी झीनी बीनी चदरिया : अमरचरित्र ‘मतीन’

वही साहित्य श्रेष्ठ माना जाता है जिसमें सत्यं, हितं, एवं प्रियं का सहज सन्निवेश हो । सत्यं, हितं, एवं प्रियं को ही क्रमशः सत्यं शिवं एवं सुन्दरम् की संज्ञा से अभिहित किया जाता है । सामान्यतः यह माना गया है कि साहित्य के सभी गुण इन तीनों में समाहित है । सत्यं से ही साहित्य में स्वाभाविकता आती है। हितं (शिवं) इस तत्व में लोक-रक्षण की भावना निहित है और जिन विशिष्टताओं के कारण साहित्य अपने पाठकों को आकृष्ट कर अपने में उलझाएँ रखता है उसका प्रियं (सुंदरम्) गुण है । कृति की श्रेष्ठता इन तीन तत्वों के समन्वय में होती है। ऐसी श्रेष्ठ कृतियों में उभरा हुआ चरित्र आदर्श और अमर चरित्र की पंक्ति में समाहित होता है । ऐसे चरित्रों में लोक-रक्षण की भावना सुन्दरं ही नहीं शिवं भी हो, प्रियं ही नहीं हितकर भी होनी चाहिए । जैसे महादेव ने हलाहल प्राशन कर संपूर्ण संसार को अमृत सौन्दर्य दिया जिसके मूल में लोक-सृष्टि का रक्षण कल्याण एवं मंगलकामना ही रही है। समाज में ऐसी मनोवृत्ति वाले चरित्र हिमनग की भांति मानव के अंतस में उभरते हैं ।

‘अमर’ शब्द का संबंध अंशत: अमृत से है। सामान्यतः भारतीय जन-मानस की यह धारणा है कि अमृत सेवन से अमरत्व प्राप्त होता है, जिससे मनुष्य कालजयी बनता है । समुद्र मंथन में निकले अमृत को प्राशन कर राहु-केतु भी देवताओं की पंक्ति में जा बैठे अर्थात् अमर हो गए । साहित्यिक दृष्टि से पौराणिक सन्दर्भ में अमरत्व अलौकिकता को समेटे हुए हैं, तो भौतिक (लौकिक) जगत् के सन्दर्भ में यही अमरत्व उदात्त जगत् के सन्दर्भ में यही अमरत्व उदात्तता की और संकेत करता है। इसप्रकार अमर चरित्र कहने से हमारे सामने सचरित्र, उदात्त एवं कालजयी चरित्र की छवि उभरती है ।

परिवर्तन सृष्टि का शाश्वत नियम है । परिणामस्वरूप साहित्य में भी स्थल-काल सापेक्ष परिवर्तन होता रहता है । वैश्वीकरण के इस युग में अमर चरित्र की संकल्पना में काफी मात्रा में परिवर्तन हुआ है। आज अमर चरित्रों में उन सभी चरित्रों को समाहित किया जाता है, जो आदर्श या उदात्त नहीं प्रत्युत तामसी वृत्ति से चरित्र के संखलन के कारण वितेषणा, दारेषणा और लोकेषणा का शिकार होकर खलनायक के रूप में सामने आते हैं और आदर्श चरित्रों के प्रतिकूल दिखाई देते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि आज खलनायक या खलनायिका को भी अमरता की श्रेणी में रखा जाने लगा है । मात्र प्रसिद्धि ही इस अमरता की पृष्ठभूमी है । ये चरित्र अपने कृत्यों-कुकृत्यों से प्रसिद्ध हो जाते हैं और स्थल-काल सापेक्ष निरंतर उभरते हैं। जैसे ‘राम’ तथा ‘पांडवों’ के सन्दर्भ आते ही क्रमश: ‘रावण’ और ‘दुर्योधन’ का चरित्र भी उभर आता है। क्योंकि ‘रावण’ का ‘रावणत्व’ में तथा ‘दुर्योधन’ का ‘दुर्योधनत्व’ के विरोध में ही क्रमश: ‘राम’ का ‘रामत्व’ और ‘पांडवों’ का ‘पांडवत्व’ है । अर्थात् ‘असत्’ पर ‘सत्’ की, ‘अधर्म’ पर ‘धर्म’ की विजय दिखाई देती है । आजकल हिंदी साहित्य में अमर चरित्रों की एक और श्रेणी दिखाई देती है । इनमें उन चरित्रों का समावेश होता है जो जीजिविषा हेतु संघर्षरत है, जो शोषण के प्रति जाग्रत हैं, जो अन्याय और अत्याचार के विरोध में आवाज उठाने की क्षमता रखतें हैं। इतना ही नहीं वे पीड़ित, शोषितों के प्रति सहानुभूति से पेश आकर शोषणकर्ताओं के प्रति कड़ा रुख अपनाकर संघटित होकर संघर्ष तो करते ही हैं, साथ ही संघटित होने पर बल देते दिखाई देते हैं। इसके पीछे जन-सामान्य के कल्याण एवं मंगलकामना की भावना प्रमुख होती है। ऐसे चरित्र भले ही लौकिक हो किन्तु वे अपने आदर्श कार्य के कारण अलौकिकता को प्राप्त करते दिखाई देते हैं

हिंदी साहित्य पर एक नजर डालने से पता चलता है कि कबीर जैसे महान संत की कार्य- प्रणाली इसका प्रमाण है। कबीर ने अपने जीवनकाल में धर्म-निरपेक्ष और मानवता का समर्थन किया, सांप्रदायिकता से ऊपर उठकर सामजिक अन्याय, अत्याचार, शोषण, अंधविश्वास, कुरीतियों एवं सभी कुप्रथाओं का कड़ा विरोध किया, जिसके फलस्वरूप कबीर, महात्मा कबीर बने । अब्दुल बिस्मिल्लाह का ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास पर कबीर के ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ का अर्थात् ब्रह्मा, जीव और जगत् का दार्शनिक प्रभाव दिखाई देता है। विषय विकारों के मखमली लिहाफ में लिपटे जगत् में कर्तव्य-अकर्तव्य, क्रिया-प्रतिक्रया के चक्र में घूमता हुआ जीव ‘ब्रह्म’ अर्थात् परम तत्व मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है। उसी ब्रह्म की ओर जिसने जीवात्मा को जीवन रूपी ताने-बाने से बीनी हुई चदरिया ओढ़कर इस मायावी जगत् में भेजा है । कबीर के इसी दार्शनिक चिंतन का प्रभाव परोक्ष रूप से उपन्यास पर परिलक्षित होता है । मानव ( मतीन का चरित्र) अर्थात् जीव का जीवन, जीवन की विविध गतिविधियों, उतार-चढाओं के ताने-बाने से बुना हुआ जगत् अर्थात् समाज में निरंतर संघर्षशील रहता है । इसका लक्ष्य केवल ‘ब्रह्म’ अर्थात् अपना लक्ष्य, आदर्श, सच्चाई, शोषण मुक्ति आदि को प्राप्त करना रहा है । स्पष्टत: यह कहा जा सकता है कि उपन्यास के प्रमुख चरित्र ‘मतीन’ पर अप्रत्यक्ष रूप से कबीर दर्शन का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है जो संपूर्ण उपन्यास में मतीन के जीवन दर्शन के रूप में प्रतिबिंबित हुआ है। इस विशिष्ट जीवन दर्शन के द्वारा उपन्यासकार अब्दुल बिस्मिल्लाह ने पथ-प्रदर्शन का कार्य करते हुए मतीन के माध्यम से बुनकरों के विद्रोह और जीवन के मुक्ति संघर्ष के जीवंत दस्तावेज प्रस्तुत कर बदलते भाव-बोध को दर्शाने का सफल प्रयास किया है वर्तमान की युवा पीढी प्रत्येक क्षेत्र में बदलते परिवेश और जीवन-सन्दर्भों के प्रति सजग दिखाई देती है। आज की पीढी को परंपरा की लीक पर चलना स्वीकार नहीं है क्योंकि जीवन की हर समस्या उनके लिए प्रश्नचिन्हं बन जाती है ।

‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास में बुनकरों के मुक्ति संघर्ष का जीवंत दस्तावेज प्रस्तुत है । प्रस्तुत उपन्यास में बुनकरों की अभावग्रस्त और रोग जर्जर दुनिया में हम मतीन, अलीमुन और नन्हें इकबाल के सहारे प्रवेश करते हैं जहां उपस्थित है रऊफ चाचा, नजबुनिया, नसीबन बुआ, रेहाना, कमरून, लतीफ़, बशीर और अल्ताफ जैसे अनेक चरित्र, जो टूटते हुए भी हालात से समझौता करना नहीं चाहते । बावजूद इसके उनसे लड़ना और उन्हें बदलना चाहते हैं और मजबूत है । वे अंतत: अपनी इस चाहत को जनाधिकारों के प्रति जागरुक अगली पीढ़ी के इकबाल को सौंप देते हैं । इस प्रक्रिया में लेखक ने शोषण के उस पुरे तंत्र को भी बड़ी बारीकी से बेनकाब किया है जिसके एक छोर पर है गिरस्ता और कोठीवाल, तो दूसरे छोर पर भ्रष्ट राजनितिक हथखंडे और सरकार की तथाकथित कल्याणकारी योजनाएं हैं। साथ ही बुनकर-बिरादरी के आर्थिक शोषण में सहायक उसी की अस्वस्थ परंपराओं, सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक जड़वाद और साम्प्रदायिक नजरिये को भी अनदेखा नहीं किया है

उपन्यास का नायक मतीन है, जो पेशे से बुनकर है । बुनकर शोषण के शिकार हैं । मतीन बुनकरों पर हो रहे अन्याय, अत्याचार और शोषण के विरूद्ध आवाज उठाता है लेकिन शोषकों द्वारा उसकी आवाज दबाई जाती है । शोषण के विरुद्ध उसके प्रयास असफल हो जाते हैं किन्तु अपनी बिरादरी पर हो रहे अन्याय अत्याचार के खिलाफ अपने समाज को सचेत और जागृत करने में मतीन सफल हो जाता है । मतीन के व्यक्तित्व का एक पहलू यह भी है कि पराजित होने के बाद, उसकी लड़ने की इच्छाशक्ति और अधिक प्रबल हो जाती है ।

मतीन के माता-पिता बचपन में खो जाते हैं; इसलिए वह अत्यंत कम उम्र में ही रोजी-रोटी के लिए काम करना शुरू कर देता है । मतीन एक सामान्य बुनकर के रूप में पाठकों के समक्ष उभरता है । जैसे-जैसे वह अपने काम में कुशल हो जाता है वैसे ही वह अन्य बुनकरों के समान शोषण की दोहरी चक्की में पिसता जाता है। एक ओर गिरस्त तो दूसरी ओर कोठीवालों द्वारा शोषण का शिकार हो जाता है । अर्थाभाव के कारण वह अपनी खुद की कतान नहीं खरीद सकता इसलिए दूसरों की बानी पर ही बीनने के लिए मजबूर होता है । मतीन गिरस्त हाजी साहब से कतान लेता है यहीं से उसका जीवन हाजी साहब जैसे सेठ पर निर्भर रहने लगता है। कड़ी मेहनत करने पर उसे एक हप्ते बाद मात्र नब्बे रुपये मिलते हैं। इसमें भी कई प्रकार की कटौतियां होती हैं जैसे – “गिरस्त जो है साड़ी  में ऐब दिखाता है ।” प्रका. २००३ : पृ. क्र. १७) पत्नी अल्मुनिया क्षयरोग (टीबी) से ग्रसित है । पत्नी के इलाज के लिए हो रहे खर्च के कारण खाने के लाले पड़े है । इसलिए दुबारा हाजीसाहब जैसे सेठ से ऋण लेना पड़ता है । मतीन जीवनभर कर्ज में डूबा रहता है । उसका जीवन केवल ऋण चुकाने में ही व्यतीत होता है । ऐसी परस्थिति में भी मतीन अपने बेटे को पढ़ा-लिखाकर बड़ा बाबू बनाना चाहता है क्योंकि उसे ऐसा लगता है कि बेटा अगर पढ़-लिखकर बड़ा बाबू बनेगा तो अपना जीवन ऋणमुक्त होकर समाज की उन्नत्ति और कल्याण के काम आयेगा ।

बुनकर मतीन कड़ी मेहनत से साड़ियाँ बुनकर तैयार करता है लेकिन बदले में क्या मिलता है- “सिर्फ एक लुंगी, भैंस का गोष्त और नंग धडंग जाहिल बच्चे ।” (अब्दुल बिस्मिल्लाह : ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ प्रका. २००३ पृ. क्र. ५४) लगभग सभी बुनकरों की यही स्थिति है इसप्रकार बुनकरों पर हो रहे अन्याय, अत्याचार और शोषण के निवारण हेतु तथा मुक्ति के लिए संघटन (सोसायटी) बनाकर शोषकों का मात्र विरोध करना ही नहीं चाहता बल्कि संघटन के माध्यम से सरकार से अपील कर आर्थिक सहायता हेतु गुहार लगाना चाहता है । मतीन को लागता है कि संघटन के माध्यम से सरकार से गुहार करने पर आर्थिक सहायता मिलेगी तो कतान खरीदकर संघटन के नाम पर साड़ियाँ बुनने का कारखाना आरंभ किया जा सकता है जिससे बुनकरों की आर्थिक स्थिति में सुधार आ सकता है। यह सपना लेकर संघटन आरंभ करने हेतु तीस सदस्य और सदस्य शुल्क जुटाता है । सदस्य शुल्क जुटाने के बाद बैंक पहुँचने पर पता चलता है कि इन लोगों के नाम पर पहले ही फर्जी संघटन गठित हो चुका है। इस सन्दर्भ में बैंक मेनेजर मतीन को सलाह देते हुए कहता है कि  “जनाब अब्दुल मतीन अंसारी साहब, जाइए और चुपचाप अपनी साड़ी बिनिये। फ्राड करना बहुत बड़ा जुर्म है ।” (अब्दुल बिस्मिल्लाह : ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ प्रका. २००३ : पृ. क्र. १०३) फर्जी संघटन बनानेवाले हाजी अमीरल्लाह के खिलाफ लड़ने में मतीन अपने आप को असमर्थ पाता है क्योंकि इन गिरस्तों की बहुत लम्बी पहुँच है ।

इसप्रकार मतीन इस लड़ाई में पराजित होता है । उसका सपना टूट जाता है बावजूद इसके वह बनारस की जिन्दगी से समझौता नहीं करना चाहता और कुछ बेहतर बनने के लिए तथा अच्छी परिस्थिति में काम करने के लिए बनारस छोड़कर मऊ चला जाता है। मऊ आने पर मतीन को पता चलता है कि यहाँ की परिस्थिति और बनारस की परिस्थिति में कोई अंतर नहीं है । अर्थात अन्याय, अत्याचार और शोषण में कोई फर्क नहीं है । इस सन्दर्भ में मतीन का कहना है कि “मऊ और – बनारस में फर्क ही क्या है ? गरीब तो हर जगह एक जैसे है ।” (अब्दुल बिस्मिल्लाह : ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ प्रका. २००३ पृ. क्र. १४४) अतः यह कहना अनुचित नहीं होगा कि बनारस हो या मऊ या फिर देश का कोई और शहर गरीबों पर अन्याय, अत्याचार होता ही रहता है । भारत में मजदूरों का शोषण होना आम बात है, फिर चाहे वह मजदूर कल-कारखानों का हो या फिर खेत में काम करनेवाला हो । इतिहास साक्षी है कि अपने देश में शोषित, पीड़ित, अत्याचारित समाज कितना भी संघर्ष करें देश की सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था इतनी मजबूत है कि वह विजयी नहीं हो सकता ।

‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास का केन्द्रीय पात्र मतीन शोषकों का विरोध करने में अपने आपको असमर्थ पाता है । परिणामतः मतीन मुक्ति संघर्ष की लड़ाई में पराजित होता है । किन्तु फिर भी मतीन के व्यक्तित अपने आपको असमर्थ पाता है । परिणामतः मतीन मुक्ति संघर्ष की लड़ाई में पराजित होता है। किन्तु फिर भी मतीन के व्यक्तित्व की यह ख़ास विशेषता रही है कि कई बार संघर्ष की लड़ाई हारने पर भी मतीन निराशा की गर्त में जीवन जीना नहीं चाहता बल्कि वह बार-बार संघर्ष कर जीत हासील करना चाहता है । कई बार टूटने पर भी मतीन में विद्यमान व्यवस्था के खिलाफ लड़ने की इच्छा -शक्ति जाग्रत होती रहती है ।

‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास बनारस के साड़ी  बुनकरों के कठिन संघर्ष का बयान है । प्रस्तुत उपन्यास केवल बुनकरों के मुक्ति संघर्ष की कथा नहीं है बल्कि देश के समस्त शोषित वर्ग के मुक्ति संघर्ष की यशोगाथा है। उस फिनिक्स पक्षी के सामान शोषित वर्ग नया जीवन जीना चाहता है किन्तु भारतीय व्यवस्था उन्हें उड़ने (जीने नहीं देती यह भारतीय समाज की त्रासदी है। ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास में चित्रित मतीन का संघर्ष बुनकरों के जीवन का अर्थ भी है और सौन्दर्य भी।

सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि, प्रस्तुत उपन्यास का प्रमुख पात्र मतीन अपने त्रासदी भरे जीवन में आदर्श समेटे हुए है जो उसे कालजयी बनाने में सहायता प्रदान करता है । शोषण चक्र में निरंतर पिसते हुए भी मतीन का जीवन के प्रति दृष्टिकोण अत्यधिक सकारात्मक रहा है बावजूद इसके वह आगामी पीढ़ी की चिंता करते नजर आता है। मतीन ने अपने जीवन में कभी सांप्रदायिकता को महत्त्व नहीं दिया । मतीन सांप्रदायिकता के संकुचित दायरे से बाहर आकर एकजुट होकर अराजक सामंती व्यवस्था के प्रति केवल आक्रोश व्यक्त नहीं करता बल्कि शोषण चक्र में पिसते हुए असाहाय्य गरीब मजदूरों, बुनकरों का जीवन संवारने का काम करता हैं, वह एक प्रतिमान के रूप में खड़ा होता है । अतः यह कहना अनुचित नहीं होगा कि मतीन गरीब मजदूरों, बुनकरों को अपने हक के लिए लड़ने की ताकत ही नहीं देता बल्कि उन्हें प्रेरित भी करता है । अपने अधिकार के प्रति उन्हें सचेत ही नहीं करता बल्कि दीपस्तंभ के रूप में खड़ा होता है । अतः मतीन समकालीन पीढ़ी के लिए आदर्श तो है ही साथ ही आनेवाली पीढी के लिए भी आदर्श एवं प्रेरणास्रोत बना रहेगा । अत: यह कहना अनुचित नहीं होगा कि मतीन का जीवन-दर्शन युवा चेतना के लिए पथ-प्रदर्शक का पर्याय है

डॉ. मधुकर देशमुख अध्यक्ष, हिंदी विभाग इंद्रायणी महाविद्यालय के अध्यक्ष हैं। इन्होंने सात खंडों में प्रकाशित कवि महेंद्र भटनागर की कविताओं का संपादन किया है। अनेकों लेख हो सहित इनकी 3 पुस्तकें प्रकाशित हैं।

असम के शहीद पियली फूकन

 भारत की स्वाधीनता संग्राम में शहीद होनेवाले असम के पहले शहीद थे पियली फूकन। पियली फूकन की फांसी हुई थी 14 सितंबर, सन 1830 में ।

Assam District Gazettears Sibsagar District  के एक चेप्टर में पियली फूकन के बारे में सन 1830 में स्वाधीनता के लिए ब्रिटिशों के विरुद्ध युद्ध करने का उल्लेख है।

Determined to liberate the country from foreign domination before it was too late, Numali of the Dihingia Buragohain family, in collaboration with another dianitary of the old realm  Peoli Borphukan, son of Badon Chandra Borphukan  made in 1830 a large scale preparation for a massive armed attack  on the British  so as to expel them from Assam.”

ब्रिटिशों  के विरुध्द पहला विद्रोह किया था गोमोधर कोंवर ने। गोमोधर कोंवर ने सशस्त्र विद्रोह किया और तरातली के युद्ध  में ब्रिटिशों के हाथों पराजित हो तिरुपहाड़ के भीतर सुरक्षित स्थान में आश्रय लिया था। ब्रिटिशों को जब पता चला तो उन्होंने गोमोधर को राजा बनाने का झांसा देकर  धोखे से बंदी बनाकर घाटी के रंगपूर जेल में रखा ।

गोमोधर की यह हालत देखकर  विद्रोह का नेतृत्व लेने के लिए आगे बढ़ आए रोंगाचिला के दुवरा वंशज पियली बरफूकन।

पियली फूकन मेें साहस,  देशप्रेम, कर्तव्य निष्ठा, कूटनीति और आत्माभिमान कूट-कूट कर भरा था। लोगों में जोश भरने की काबिलियत भी रखते थे। उन्होंने किसी को भी कोई  काम करने का आदेश नहीं दिया। हर कोई अपने दायित्व को समझ अपना कर्तव्य करने लगे। पियली के साथ युद्ध में साथ देने आए कछारी, मिचिंग,  खामति, चिंग्फो, चुतीया, मटक आदि अनेक जनजातीय और संप्रदाय के लोग। मटक के बड़े सेनापति का बेटा खाछि चियेम सिकत् सिंग, चिंग्फो गाम वाकुम आदि प्रत्यक्ष रुप से पियली के साथ थे। यह सब देखकर गोमोधर  कोंवर के सैनिक जो  ब्रिटिशों के साथ हुए युद्ध के बाद अस्त्र-शस्त्रों के साथ नगा पहाड़ में  छुपे हुए थे , वो सब आकर पियली कें संग जुड़ गए।

गेलेकी के तिरुपथार के शिविर का दायित्व था हरनाथ पानीफूकन पर। इसके अलावा हरनाथ को जबका के खारघर के शिविर में अस्त्र-शस्त्रों के तैयारी का भार भी सौंपा गया। गोरे अफसरों के वहां पियली के जासूस थे जो सारी खबरे दिया करते थे। अजला कोंवर नाम का एक युवक गोरे साहब के वहां रसोइया था। वह और गदाधर कोंवर नाम का एक युवक दुश्मनों की खबरे नियमित रुप से पियली को दिया करते थे।

हरनाथ पानीफूकन ने पहाड़ी जातियों के साथ स्वाधीनता संग्राम को लेकर संपर्क बनाया। एकदिन ब्रिटिश सैनिक ने संदेहवश हरनाथ को पकड़ लिया और  युद्ध के षड्यंत्र का भेद खुल गया। हरनाथ के बंदी होने की खबर से सब को लगा कि युद्ध का समय आ गया है, और सब तैयार हो गए। 

रोंगाचिला के खेतों में खेती कर के रसद का इंतजाम किया गया । तिरुपहाड़ में युद्ध के लिए लोहे से अस्त्र-शस्त्र बनाने के लिए कारखाना बनाया गया। तिरुपहाड़ के भीतर अस्त्र-शस्त्र से लैस हो युद्ध के लिए प्रशिक्षण दिया जाता और अभ्यास किया जाता था। गोरों  के विरुद्ध  नगा,आबर, खामति आदि जातियों को साथ लेकर चलने का निर्णय अति दूरदर्शी सोच का वाहक था।

इस विद्रोह को जनवरी सन 1829 को शुरू करने का निर्णय लिया गया। इस विद्रोह में पियली के साथ थे धनंजय गोंहाई, रुपचंद कोंवर, बम चिंग्फो, नूमली गोंहाई, नूमली गोंहाई की बेटी लाहोरी आईदेओ, चिकन ढेकियाल फूकन, जिऊराम दुलिया बरुवा, मोइना खारघरिया फूकन, बेनुधर कोंवर,  देउराम दिहिंगिया, रूपचंद्र कोंवर, चुरण कोंवर, ब्रजनाथ कोंवर के अलावा भी कोई  दो सौ नगा युवाओं ने सहयोग दिया था। देश के हर श्रेणी के लोगों ने इस विद्रोह में साथ दिया था। यहां के लोक-गीतों में भी इसका प्रसंग मिलता है।

लोकगीत का अनुवाद—- खामटि, नगाटि
गारो, खाछियाटि
संग डफला मिरि
रंगाचिला वन में
बड़ी मिटिंग में आए
तय करने कैसे
वध करेंगे फिरंगी का!
रंगाचिला वन में
किसने बजाई शिंगा*
भात खाते सुना
अचल वन को
लोग चल पड़े
गमन के शोर से
चले पता !
रिकिटि मिरिकिटि
हिरिंग रिंग रिंग
पर्वत पर की घिटिंग टिंग
आ दे हम आवाज दे!

(*शिंगा- भैंस के सिंग को बजा कर युद्ध की घोषणा। हिन्दी में रणभैरी भी कहते है ।)

पहले तय किए प्लान के अनुसार  25 मार्च, सन 1830 की शाम युद्ध के आरम्भ का निर्णय लिया गया। इसबार तरातलि के शिविर में घाटि न बनाकर बरफूकन के बाड़ी के दोलबारी*  में शिविर की स्थापना की गई।

गेलेकी  दोल के घाटी से बरफूकन के गली से निकलकर जयसागर पुखुरी* के किनारे घाटी बनाकर वहीं से गोरो के बारुद के गोदाम तथा छावनी में आग लगाकर गोरे पल्टनों को मारने के लिए पहले से तय किए प्लान के अनुसार  25 मार्च, सन 1830 की शाम युद्ध के आरम्भ का निर्णय लिया गया।

गेलेकी  दोल के घाटी से बरफूकन के गली से निकलकर जयसागर पुखुरी* के कि प्लान के मुताबिक  पियली फूकन और जिऊराम दुलिया बरुवा ने अपने सैनिको के साथ एक ही समय में तेल से भीगे सूखे अमड़ा की गुटी में आग लगाकर धनुष-बाण के सहारे बारुद-भंडार में दो तरफ से हमला बोल दिया। ऐसी आग लगी मानों दिन निकल आया हो! चारों तरफ रौशनी छा गई थी।

बहुत समय तक युद्ध चला। बहुत सारे ब्रिटिश सैनिक मारे गये। मगर और बहुत सारे ब्रिटिश सैनिकों के आ जाने से पियली के सैनिकों को निरापद स्थान के लिए दिखौ नदी के पार लौटना पड़ा। वहां पहले से नाव का इंतजाम किया हुआ था। मगर किसी देशद्रोही ने नाव की रस्सियों को काट दिया था जिसके कारण पियली के सैनिक लौट न सके! ऐसे में ब्रिटिश सेना ने गोली चलानी शुरू कर दी। इस गोलीकांड में भबा कोंवर, बेणुधर कोंवर,नूमली गोंहाई ,  चिकन ढेकियाल फूकन, लाहोरी आईदेओ, मोइना खारघरिया फूकन और कई खामटि तथा बहुत सारे नगा युवकों की मौत हो गई। 

इसी समय में नाजिरा और  दिखौमूख  में गोरे सैनिकों के शिविर पर आक्रमण कर के पियली के सैनिकों ने बहुत सारे ब्रिटिश सैनिकों को खत्म किया था । उनके नावों को डूबा दिया था।

आग की रौशनी में पियली बैसाखी के सहारे भागते हुए पकड़े गए और बंदी बना लिए गए। निउविल साहब ने 26 मार्च की सुबह प्रसन्न दत्त, सुबेदार ज़ालिम सिंह, जयपाल सिंह आदि सैनिकों को साथ पीछा करके जिऊराम दुलिया बरुवा,बम चिंग्फो, हरनाथ पानीफूकन, रुपचंद्र कोंवर, देओराम दिहिंगिया फूकन आदि सब को बंदी बना लिया। ब्रजनाथ कोंवर और चुचम  कोंवर मणिपुर भाग गये। धनंजय बरगोंहाई अपने एक बेटे के साथ नगा पहाड़ पलायन कर गए। 14 सितंबर सन 1830 में पियली फूकन को फांसी दे दी गई। शिवसागर पुखुरी के पास उनकी समाधि देखी जा सकती है।

 भावार्थ = *दौल— गुम्बद के साथ बना आराधना का एक मंदिर जैसा भवन। *पुखुरी— पोखर से बड़ा और सरोवर से छोटा जलाशय।

असम से साहित्यकार, लेखक अनुज दुवरा ने प्रांतिक पत्रिका के 1 अक्तूबर 2015 ,में एक मुद्दा उठाया था कि भारत के पहले शहीद मंगल पाण्डे थे या पियली फूकन ! क्यों की मंगल पाण्डे को फांसी सन 1857 की 8 अप्रेल में, अर्थात पियली फूकन की फांसी के 27 साल बाद हुई थी।

डाॅ. (मा) रुनू बरुवा “रागिनी तेजस्वी” अखिल भारतीय साहित्यकार सम्मान, साहित्य रत्न सम्मान, साहित्य श्री सम्मान , साहित्य गौरव सम्मान, मात्सुओ ‘बासो’ सम्मान, सरस्वती सम्मान आदि से सम्मानित डिब्रूगढ़ की प्रतिष्ठित साहित्यकारों हैं।

शहरों का आकर्षण-होता गाँवों से पलायन

कोरोना काल में जिस बहुतायत से शहरों, महानगरों से अपनी जमीन, गाँवों, अपनी जड़ों की ओर वापिसी हुई, वाहनों की अनुपलब्धता, कोरोना के नियम यथा दूरी, सेंनीटाइज हेंड आदि को देखते हुये मीलों पैदल यात्रा जिसमें नन्हें बच्चे, गर्भवती स्त्रियाँ भी थी, यह सोचने को विवश करते हैं कि लगभग 50–70% आबादी वापिस होने से क्या अर्थव्यवस्था पर असर हुआ? क्या शहरों और गाँवों का तालमेल बैठा ?क्या जो ठिकाने.महानगरों में जुटाये थे या पाँव के नीचे जमीन जुगाड़ने की  कवायद थी उसे छोड़ना किस आर्थिक विषमता को जन्म दे गया?

 इन सब प्रश्नों के उत्तर खोजने से पहले यह देखनाआवश्यक है कि आखिर गाँवों से पलायन के क्या कारण थे? अपनी जड़ों को छोड़ कर जाने में क्या खोया -क्या पाया?

 बदलती जीवन शैली, उन्मुक्त जिंदगी और सपनों की उड़ान, देखने सुनने में आज बड़ी बात न लगे परंतु इनके दुष्प्रभाव अपनी जड़ो से दूर हो रहे व्यक्तियों में देखे जा सकते हैं।

हताशा, तनाव के साथ एकांगी होती सोच, परिवार  की अवधारणा को कहीं न कहीं विघटित ही कर रहे हैं। आज हर घर में टेलीविजन और संचार के छोटे -बड़े माध्यम मौजूद हैं। मनोरंजन के नाम पर महानगरीय रहन-सहन और जादू की छड़ी घूमते ही सभी परिस्थितियां सुधर जाना युवा व ग्रामीणों को चकाचौंध कर रहा है उस समय यह विचार नहीं आता कि बिना आजीविका के यह सब कैसे संभव है?

जहाँ गाँवों का खुला परिवेश और पुश्तैनी काम- धंधे व खेती आदि से परिवार बेहतर तरीके से जीवन यापन कर सकता है, वहीं शहरों में बढ़ती जनसंख्या के चलते, महँगाई का सुरसा मुख की तरह मुँह फाड़ने के कारण बहुमंजिला  इमारतों में एक कमरे में रहना दुष्कर भी है।

आज गाँवों से कस्बों, कस्बों से शहरों की ओर पलायन लगातार जारी है। यद्यपि कोरोना काल ने कुछ लोगों की पुनर्वापिसी की है परंतु गाँवों और शहरों के बीच बढ़ने वाला अंतर कम नहीं हो रहा।हर साल लाखों की संख्या में लोग ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर पलायन करते हैं संभवतः इसका कारण क्षेत्र विशेष में जीवन यापन की मुश्किलें हों।

      देखने में आता है कि गाँव छोड़ने वालों में शिक्षित,सुविधा संपन्न लोग ज्यादा होते हैं। क्यूं कि उनकी शिक्षा उन्हें पुश्तेनी काम करने से रोकती है।दूसरे वे लोग हैं जो गाँवों में मजदूरी आदि करके भी रोजी-रोटी की पूर्ति नहीं कर पा रहे।संसाधनों के बढ़ते दबाव में कम होते रोजगार अवसर भी एक बड़ा कारण है है सपरिवार शहरों की ओर पलायन का।इस पलायन के कुछ कारण कुदरती हैं तो कुछ सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक राजनीतिक के साथ तकनीकी भी।तकनीकी रूप से दक्ष या तकनीकी शिक्षा प्राप्त युवा ज्यादा अवसरोंकी तलाश में शहरों की ओर बढ़ जाते हैं। किस्मत साथ देती है तो वाणिज्य केंद्रों व शहरों के बड़े उद्योगों के कारण भी बन जाते हैं।

         इसी पलायन ने विभिन्न समस्याएं पैदा कीं ।जनसंख्या संतुलन बिगड़ने के साथ ही शहरों में आवास व रोजगारकी समस्या विकट होती जा रही है तो दूसरी तरफ गाँवों में उपजाऊ जमीन बंजर होती जा रही है।

     अगर आँकड़ों की बात करें तो भारत के शहरों में लगभग 44-50%परिवार एक कमरे में गुजारा करते हैं और शौचालय सुविधा भी लगभग 24-30% आबादी के पास ही है। 70% शहरों में रोज निकलने वाले कूड़े को ठिकाने लगाने की  व्यवस्था न होने से वह खुले में सड़ता है।

लेखिका ने स्वयं दिल्ली प्रवास के समय विभिन्न एरिया में जाकर देखा है कि उचित प्रबंधन न होने से कचरा सड़ता रहता है और उससे उठने वाली बदबू माहौल को प्रदूषित करती है। बरसात के पानी की भी निकासी की उचित व्यवस्था नहीं जिसके कारण फैलते प्रदूषण की समस्या की  चपेट में, गाँवों से पलायन करने वाले लोग हैं।

   2001 के आँकड़ों के अनुसार  भारत की आबादी का 27.81% हिस्सा शहरों में रहता था जोकि 2011में 31.16%तक पहुँचा। शहरीकरण का यह दौर अचानक ही नहीं बढ़ा। शहरीकरण की जो दर 1991-2001 में 2.10फीसदी थी ,वह 2001 से 2010 तक 3.35प्रतिशत तक पहुँच गयी। इस दौरान  देश में 2775 छोटे शहर और बस गये। आँकड़ों की मानें तो 2001 की जनगणना में शहर  और कस्बों की कुल संख्या 5161 थी जो अब बढ़ कर 7936 हो गयी। यह आँकड़े बताते हैं कि भारत की आबादी तेजी से सुविधा संपन्न आबादी में बदलती जा रही है ।विकास का जो वैश्विक मॉडल पूरी दुनियाँ में चल रहा है ,उसमें शहरीकरण को विशेष तरजीह दी गयी है।  यक्ष प्रश्न है फिर गाँवों का पिछड़ापन और बढ़ेगा या गाँव का अस्तित्व ही खतम प्रायः होगा?

आइये समझते हैं विकासीकरण की अवधारणा को …

विशेषज्ञों की मानें तो विकास का वर्तमान पैमाना अच्छी अर्थव्यवस्था का संकेत है ।वहीं दूसरी और तेजी से होते शहरीकरण की वजह ज्वलंत बहस का मुद्दा है जिसमें पलायन और गाँवों में बुनियादी सुविधाओं का न होना ,अशिक्षा,पिछड़ी लाइफ स्टाइल जैसे मुद्दे हैं।

 संयुक्त राष्ट्र संघ की हालिया रिपोर्ट के दो आँकड़े चौंकाने वाले हैं —–

1–इस वर्ष के अंत तक विश्व की आधी आबादी शहरों में रहने लगेगी।

2–2050तक भारत की आधी आबादी महानगरों,नगरों एवं कस्बों में निवास करेगी और तब तक विश्वस्तर पर शहरीकरण का आंकड़ा 70% हो चुका होगा।

ग्रामीण क्षेत्रों से होने वाले पलायन से जहाँ एक तरफ कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमरा रही है ,वहीं शहरी ढाँचे पर भी इसका  विपरीत प्रभाव पड़ है। अर्थ शास्त्रियों की मानें तो यह शिक्षा प्रणाली म़े कमी के कारण है। वर्तमान शिक्षा गाँवों को अपने साथ नहीं जोड़ पा रही। यह शिक्षा युवाओं का गाँवो़ से मोह भंग कर रही है। पढ़ने लिखने के बाद गाँव उन्हें उबाऊ और अपनी शिक्षा के अनुकूल नहीं लगते। उच्च शिक्षा के साथ वह शहरों महानगरों में रहने के सपने संजोने.लगते हैं। ग्रामीणों के लिए अपनी संतान को पढ़ाना मुश्किल हो गया है। शिक्षित होने के बाद बच्चे पारिवारिक व्यवस्थाओं मेंहाथ नहीं बँटाना चाहते। जिस काम ने उन्हें लायक बनाया वही काम उन्हें अब ओछे और अपनी पोजीशन के खिलाफ लगते हैं।

ग्रामीण क्षेत्र के लोग संतान को पढा लिखा कर काबिल तो बनाना चाहते हैंपर ऐसी शिक्षा नहीं दिलाना चाहते जो संतान के अंदर अलगाव का बीज बो दे।

शहरी जीवन के सुने सुनाये ठाठ बाटके चलते हकीकत से कोसों दूर कोई भी झोंपड़ी और गंदगी में नहीं रहना चाहता। गरीबी, बिना व्यवसाय या धनोपार्जन के बुनियादी सुविधाओं से वंचित युवा शहरों में नारकीय जीवन जीने को विवश है।

अमूमन अनुमानतः लगभग दो तिहाई से ज्यादा आबादी शहरों में अविकसित कालोनियों और झुग्गियों या झोंपडपट्टियो़में रहती है।

विकास की गति ने गाँव – जंगल उजाड़ दिये। नदियों पर बाँध बना कर उनका स्वाभाविक प्रवाह रोकने, बड़े कारखानों या खनन आदि परियोजनाओं के कारण भी हर सार लगभग 5-6 हजार लोग गाँव छोड़ शहर आते हैं।

जमीन पर बढ़ता दबाव, खेती के तौर तरीकों में बदलाव आने से भी हाथ का काम छिनने लगा। आपसी लड़ाई झगड़ो, आर्थिख व.धार्मिक कारण एक बड़ा मुद्दा है गाँव छोड़ कर जाने का।

गाँव शहरों की दूरी को कम करने के प्रयास में ग्राम पंचायतों को जागरुक करने व इन्हें और अधिक अधिकार देकर सक्रिय करने की योजना पर भी पलीता लग चुका। क्यों कि  आज की जरुरत अनुसार गाँवों के समग्र विकास हेतु आवश्यक है कि धनराशि देकर लघु एवं कुटीर उद्योंगों को पुनर्जीवित किया जाए। जहाँ जिस कच्ची वस्तु का उत्पादन अधिक हो, वहाँ उसी से संबंधित उद्योग, छोटी मिल-फेक्ट्रियों को विकसित किया जाए। गाँवों के दर्जी, सुनार, जुलाहे, मोची, लोहार, बढई, तेली, कुम्हार, किसान आदि को प्रशिक्षण देकर वर्तमान समय से जोड़ा जाए। उनके माल की खपत हेतु बाजार सुनश्चित किये जाये़ तो सँभव है उनके बच्चे अपने पुश्तेनी व्यवसाय से पढ़ने लिखने के बाद भी जुड़े रहे। शहरों की ओर  बढ़ता पलायन रुक जाये!

साथही शहरों के साथ ग्रामीण क्षेत्र, अंचल के विकास की तरफ भी ध्यान दिया जाए। मूल भूत सुविधा आज भी रोटी कपड़ा और मकान ही है पर आवश्यकता नुसार, सड़क बिजली पानी पर भी ध्यान दिया जाए तो कोई कारण नहीं बचता शहरों की ओर पलायन का।

इन्हीं सारी बातों का ध्यान रखते हुये हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे अब्दुल कलाम जी ने प्यूरा का विचार प्रस्तुत किया था। इसमें चार संयोजन शामिल है — भौतिक, इलेक्ट्रॉनिक, ज्ञान  तथा ग्रामीण क्षेत्रों के गाँव की समृद्धि को बढ़ाने हेतु आर्थिक गतिविधियां।

प्यूरा के उद्यमी  के पास  इतना कौशल होना चाहिये कि वह बैंकों के साथ मिलकर  व्यवसायिक योजना बना सके, बुनियादी ढाँचा तैयार कर सके। यथा — क्षेत्र में शिक्षण संस्थान, स्वास्थ केंद्र व.लघु उद्योग, परिवहन सेवाएँ, टेलीएज्यूकेशन, टेलीमेडिसिन तथा ई गवर्नेंस सर्विसेस। ये सेवाएँ सरकार की ग्रामीण विकास योजनाओं जैसे सड़क संचार परिवहन और स्व उत्पाद और सेवाएँ बेचने के लिए राष्ट्रीय एवं विश्व बाजार के साथ घनिष्ट सहयोग करेंगी।।

         वास्तव में गाँवों व शहरों के बीच के अंतर को पाटना मात्र एक आर्थिक कार्यक्रम नहीं है। गरीब वर्ग के आर्थिक उत्थान और समाज सुधार के कार्यो़ को आपस म़े जोड़ कर सार्थक और सटीक परिणाम हासिल किये जा सकते हैं।

पलायन गाँव के मान सम्मान का प्रश्न है तो उनकी भाई चारे की भावना को चुनौती भी है। भूख, कुपोषण, गरीबी उन्मूलन और अभाव दूर करने की जिम्मेदारी महत्वपूर्ण है साथ ही अगर गाँव व समाज स्वयं भी इस क्षेत्र में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर ले तो गाँवों का विकास कोई बड़ी बात नहीं। सामाजिक बुराइयों, आर्थिक विषमताओं को दूर करना भी एक बड़ा लक्ष्य है। इसके साथ ही जहाँ अच्छी सार्थक परंपरायें हैं उन्हें भी सींच कर नवजीवन देना होगा तभी गाँवों से पलायन रुकेगा और पृथ्वी का असंतुलन और अति दोहन भी।

       कहने का आशय मात्र इतना है कि  एक तरफ विकास के ऊँचे ऊँचे सपने और दौड़ है तो दूसरी तरफ उजड़ते गाँव और सर्वहारा वर्ग की बर्बादी। विकास की गंगा सदैव गाँव ,कस्बों और कृषि से ही बही है ।खेतों को काट कर बंजर करना ,उन पर प्लाट बना कर कंक्रीट में बदलने से विकास तो दूर दूर तक नहीं दिखेगा अपितु हम ऐसे जाल में फँसते जायेंगे कि उससे निकलना मुश्किल हो जाएगा।पोलीथिन तो वायुमंडल व पर्यावरण को लील ही रहा है ….।आज आवश्यकता है कि विकास के हसीन ख्बाव दिखाने वाले उच्च स्तरीय , संबंधित अधिकारीगण वास्तविकता से आँखें न फेरें। धन लोलुप ,स्वार्थी न बनें। तभी देश का भला सँभव है।गाँव समृद्ध होंगे तो पलायन रुकेगा,पलायन रुकेगा तो छोटे धंधों को बढ़ावा मिलेगा.जिससे आर्थिक स्थिति सुधरेगी।

मनोरमा जैन “पाखी” शारदा स्कूल पत्रिका की संपादिका और ‘बरनाली’ तथा ‘लघुकथा संग्रह’ की सहसंपादिका है। इनकी रचनाएं स्पंदन,‘शब्द बिथिका’ आदि पत्रिकाओ में प्रकाशित हो चुकी हैं। कई साहित्य सम्मानो से सम्मानित, मनोरमा जी साहित्य प्रतियोगितायो विजेता रही हैं ।

मेघालय का स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तोगन नेंग्मिज़ा या पातोगन संगमा

पूर्वोत्तर क्षेत्रों में जब अधिकतर कबीलों के सरदार, प्रमुख एवं राजा एक-एक करके ब्रिटिश सेना के सामने हथियार डाल रहे थे, वहीँ कुछ ऐसे भी रणबाकुरे भी थे, जिन्होंने अपने जीते जी अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार नहीं की अपितु अंतिम समय तक सीमित और पारम्परिक हथियारों से उनका विरोध किया I उनमें हैं  – गारो पहाड़ियों के आदिवासी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तोगन नेंग्मिज़ा तथा जैंतिया पहाड़ी के उ किआंग नांगबाह I इन्होंने आधुनिक हथियारों से सुसज्जित ब्रिटिश सेना का सामना अपने मुट्ठी भर साथियों के साथ किया I 

    सन् 1872 में ब्रिटिश सेना घने जंगलों के बीचोबीच सड़क बना रहे थे, जहाँ गारो आदिवासी रह रहे थे I वे पिछले कई दशकों से गारो विद्रोही आदिवासियों को दबाने की कोशिश कर रहे थे परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिलती थी I जबकि उस समय तक धीरे-धीरे पूरे भारत पर अंग्रेज़ों का अधिकार हो गया था और लगभग सभी कबीलों ने आत्मसमर्पण कर दिया था पर इनमें से कुछ कबीले अपनी आज़ादी के लिए लगातार संघर्ष कर रहे थे I यह 1872 की आज़ादी के लिए अंतिम लड़ाई थी I 

   अंत में ब्रिटिश उपनिवेशकों ने गारो पहाड़ियों पर तीन दिशाओं से आक्रमण करने का निश्चय किया I कॉलोनेल हौघ्तोन (Colonel Houghton) ने अपनी सेना को तीन योग्य जनरल के नेतृत्व में विभाजित कर दिया I ग्वालपारा के डिप्टी कमिश्नर कैप्टन डेविस को बजेंग्दोबा से होकर जाना था ; कैप्टन डल्ली पुलिस अधिकार कछार को सिजू रेवाक से होकर दक्षिण से कैप्टन डब्लू. जे. विल्लिंसोन, डिप्टी कमिश्नर तुरा से आगे जाना था I 

    कैप्टन डल्ली (Dally) युध्दभूमि में पहुँची और उन्हें सिम्सोंग नदी के किनारे मत्छु रोंक क्रेक (Matchu Ronk Krek) पर डेरा डाला I जिस समय ब्रिटिश सिपाही वहाँ पहुँचे, कुछ गारो मुखिया थे, जिन्होंने अपनी जगह देने से इंकार कर दिया I वे अपनी भूमि के लिए हर तरह से संघर्ष करने के लिए तैयार थे I उस समय यह बात गारो मुखियाओं तक पहुँची कि सरकारी सिपाही छेददार भले के साथ आएँ हैं, जो दूर से आग उगलती है I घने जंगलों रहने वाली इस जनजाति ने 

ऐसा हथियार पहले कभी भी नहीं देखा था I अधिकतर मुखिया बहुत घबरा गए क्योंकि उन्हें नहीं पता था कि इस हथियार से खुद को और अपनी मातृभूमि को कैसे बचाएँगे ? उन्होंने आपस में बहुत विचार-विमर्श किया और अंत में अंग्रेजों से तब तक युध्द करने का निर्णय लिया जब तक एक भी गारो जीवित रहेगा पर जीते जी वे अंग्रेजों की आधीनता नहीं स्वीकार करेंगे I अब समस्या यह थी कि आग उगलती स्टील की नलियों का सामना कैसे किया जाए ? विलियम कारे के गारो जंगल बुक “Gowal” के अनुसार उनमें जो सबसे बहादुर था, उसने सोचा कि वह इसका हल निकाल लेगा I केले का तना फैलती आग के आगे टिक सकता है, यह बात उसे पता थी I इसके लिए उसने अपना जलता हुआ लाल लोहे के भाले को केले के तने में डाला तो वह तुरंत ठंडा हो गया I यह देखकर वह बहुत जोश में भर गया I उसे अपने योध्दाओं के लिए युध्द करने का सही तरीका मिल गया I इस बात की जानकारी और लोगो को मिली तो वे भी जोश में भर गए I वह व्यक्ति था, उनका नेता ‘तोगन नेंग्मिन्ज़ा (Togan Nengminza) और उसका साथी गिल्सोंग दल्बोत. (Gilsong Dalbot.)’ I 

     गारो योध्दाओं ने छिपकर आक्रमण करने की योजना बनाई I भोर होते ही पूरे जोश और आत्मविश्वास के साथ वे केले के दो-दो तने लेकर घने जंगलों में रेंगते हुए पहुँचे और शत्रुओं पर टूट पड़े I वे लगातार बढ़ते रहे और बंदूकों की आवाज़ पर ही रुके परन्तु वे घबराए नहीं I शत्रुओं का सामना करते हुए, अपने आप को बचाते हुए वे उनके खेमे में घुस गए I एक सेकेण्ड में बारूदों और गोलियों की बौछार होने लगी I उसका बहादुर मित्र गिल्सोंग दल्बोत. शहीद हो गया I उसे शहीद होते देख योध्दाओं का आत्मबल कम हो गया परन्तु वे हिम्मत नहीं हारे और युध्द करते रहे I तोगन नेंग्मिन्ज़ा भी युध्द करते हुए शहीद हो गया I उसके बाद बचे हुए समूह ने आत्मसमर्पण कर दिया I 

      आज की पीढ़ी इस घटना का इसलिए हँसी उड़ाती है कि देशप्रेमी गारो जनजाति ने ब्रिटिश सेना के आधुनिक अस्त्र-शास्त्र का सामना केले के तने और भाले से किया परन्तु सत्य तो यह है कि घने जंगलों में आज़ादी से रहने वाले आदिवासी बाहरी सभ्यता से बिल्कुल अनजान थे I उन्होंने कभी बन्दूक नहीं देखी 

थी न ही उन्हें पता था कि उसे कैसे चलाया जाता है I उन्होंने सोचा कि बन्दूक एक ऐसा भाला है, जो आग उगलती है और उसे केले के तने के द्वारा रोका जा सकता है I इन सबके पीछे उनके त्याग, बलिदान और देश प्रेम की भावना प्रबल थी I मुट्ठी भर वीरों ने पूरी निडरता और साहस से गुरिल्ला युध्द किया I इसमें कोई संदेह नहीं है कि तोगन नेंग्मिन्ज़ा एक वीर, देशप्रेमी और सच्चे स्वतंत्रता सेनानी थे I जिन्होंने अंतिम साँस तक अंग्रेजों के आधुनिक हथियारों का सामना भाले और केले के तने से किया I मातृभूमि के ऐसे वीर सपूतों को सलाम I

अनीता गोस्वामी की कर्मभूमि सन १९८४ से मेघालय की राजधानी शिलांग रही है। यहाँ की लोक-संस्कृति आदि पर हिन्दी में लेखन तथा हिन्दी के प्रचार-प्रसार हेतु संलग्न हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं से भी जुड़ी हैं।
सम्प्रतिः वरिष्ठ लेखिका, अनुवादक, कवियित्री, समीक्षक एवं, दूरदर्शन मेघालय एवं पूर्वोत्तर सेवा आकाशवाणी, शिलांग में कार्यक्रमों का संचालन। राष्ट्रीय शिक्षक सम्मान २०१५ से सम्मानित। कई साहित्यिक संस्थाओं की अध्यक्षा।

स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत ऊ तिरोत सिंग

गतांक से आगे

उन्होंने अंग्रेजों द्वारा कैद किये गये बंदियों को छुड़ा दिया।
इस प्रकार काफी समय से सुलग रही विद्रोह की आग भड़क उठी। इन सफलताओं की खबर जंगल की आग की तरह फैलने लगी। हजारों की संख्या में युवक स्वतंत्रता के संघर्ष में कूद पड़े। तिरोत सिंग ने योद्धाओं की टोली को डेविड स्कॉट को पकड़ने चेरापूँजी भेजा। परन्तु चेरापूँजी के राजा दुवान सिंग ने अंग्रेजों का साथ दिया और चुपचाप उन्हें गुप्त मार्ग से सिलहट भेज दिया।
इस उथल-पुथल का समाचार गुवाहाटी और सिलहट पहुंचने पर बड़ी संख्या में ब्रिटिश सैनिकों को खासी पहाड़ियों की सीमा पर भेजा गया। खासी मुखियों का ख्याल था कि अंग्रेजों को मार भगाना कठिन न होगा। उनका विचार था कि यद्यपि अंग्रेज मैदानों में शक्तिशाली हैं पर पहाड़ियों में उन्हें परास्त करना मुश्किल नहीं होगा। पहाड़ों के दुर्गम रास्ते और घने जंगलों में युद्ध करना अंग्रेजों के लिये मुश्किल होगा। तिरोत सिंग ने अंग्रेजों का मुकाबला करने के लिए कुछ गैर-पारम्परिक तरीकों का प्रयोग कियां उन्होंने नौंग्ख्लाव से रिहा किये गये कैदियों को दूत के रूप में पड़ोसी राज्यों में भेजा। ये दूत असम के राजा कानता, भूटान के भेट और अरुणाचल के सिंहको के पास उनके सहयोग के लिये भेजे गये। अंग्रेजों की सैनिक शक्ति के आकलन के लिये भी कुछ गुप्त दूतों को गुवाहाटी तथा अन्य स्थानों पर भेजा गया।11
विद्रोह खासी पहाड़ियों तक सीमित न रहा। वह पश्चिम की ओर गारो पहाड़ियों तक भी पहुंचा। गोआलपाड़ा जिले में भी विद्रोह की चिंगारियाँ भड़क उठीं। तिरोत सिंग चतुर कूटनीतिज्ञ थे और जानते थे कि असमियों में भीतर ही भीतर अंग्रेजों के खिलाफ असंतोष है और इस असंतोष को जरा सी हवा देते ही पूरा का पूरा असम विद्रोह की आग में जलने लगेगा। उनका अनुमान सही था। असम में खासी पहाड़ियों में हो रही घटनाओं की खबर फैलते ही असम के मैदानों में राजस्व की वसूली को रोक दिया गया। सरकारी टैक्स कलेक्टरों के साथ बदसलूकी की गयी। राजमार्ग पर डकैतियाँ होने लगीं जो अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती देने वाली थीं।
इस बीच खासी पहाड़ियों की सीमा पर संघर्ष चलता रहा। यह पहला मौका था जब सुसंगठित खासी योद्धाओं से अंग्रेजों का पाला पड़ा था। ये संघर्ष लगभग तीन महीने तक चलते रहे। विख्यात इतिहासकार के. एम. मुंशी तिरोत सिंग द्वारा छापामार (गुरिल्ला) युद्ध शैली के कुशल प्रयोग पर लिखते हैं ‘‘तिरोत सिंग और उनके साथी, 10, 000 के आसपास की सैन्य शक्ति के साथ अंग्रेजों से बचते रहे, पर कभी-कभी मैदानों पर धावा बोल देते, जिससे पूरे असम में खतरे की घंटी बजने लगती और दहशत सी फैल जाती। 12
जब तिरोत सिंग को अहसास हुआ कि इस बार अंग्रेज पूरी तैयारी के साथ सिलहट की सीमा पर हमला करने वाले हैं तो उन्होंने मोन भट और जिडोर सिंग की सहायता से पूरी सेना की कमान संभाल ली। सिलहट की सीमा पर जहाँ स्वयं तिरोत सिंग अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे, वहीं कामरूप में खीन कौंगोर, जरैन सिंग तथा अन्य सरदार अंग्रेजों से जूझ रहे थे। इन्हीं संघर्षों में अंग्रेज अफसर बीडन भी मारे 7 गये। तिरोत सिंग को जब पता चला कि खासी सैनिक नौग्ख्लाव की तरफ वापस आ रहे हैं तो वे तुरन्त नौंग्ख्लाव की ओर आये। नौंग्ख्लाव के नीचे ख्री नदी के पास तिरोत सिंग घायल हो गये। तब सैनिक उन्हें एक गुफा में ले गये जो अब तिरोत की गुफा के नाम से जानी जाती है।13 इस दौरान अंग्रेजों ने नौंग्ख्लाव में प्रवेश किया और युद्ध शुरू होने के तीन महीने बाद 2 जुलाई 1829 को नौंग्ख्लाव पर कब्जा कर लिया।
तिरोत सिंग ने जिस तरह खासी सरदारों को संगठित किया अंग्रेज अधिकारियों ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। नौंग्ख्लाव पर कब्जे के बाद मैरंग, नौंगरामइ और आसपास के गाँवों में विद्रोह और संघर्ष हुए। अंग्रेजों ने बेरहमी से गाँवों को लूटा और जलाया। आँधी-तूफान से भरे मौसम में युद्ध चलता रहा। मौसमाई और मामलुह में सबसे कठिन संघर्ष हुए। मामलुह के किले पर जीत हासिल करने में अंग्रेजों को एक महीने का समय लग गया।
गुफा में घायल तिरोत सिंग को सभी क्षेत्रों में हो रहे संघर्षों की खबरें मिल रही थीं। पर वे हताश नहीं थे। मिलियम के सिएम बोर मानिक की सहायता से उन्होंने आपातकालीन बैठक बुलाई जिसमें उनके विश्वस्त अधिकारी जिडोर सिंग, मोन भट, लारशोन जराइन, खीनकौंगोर, मन सिंग तथा अन्य लोग शामिल हुए। इस बैठक में एक नयी रणनीति बनायी गयी तथा अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध करने का निर्णय किया गया जो आने वाले चार वर्षों तक चलता रहा।
चेरापूँजी के सिएम ने अंग्रेजों के साथ एक संधि की थी जिसके अंतर्गत चेरापूँजी के नजदीक सइत्सोफेन में कुछ भूमि अंग्रेजों को दे दी गयी। डेविड स्कॉट ने योजनाबद्ध ढंग से अपने एजेंटों को संधि प्रस्ताव के साथ विभिन्न खासी राज्यों में भेजना शुरू किया। कुछ खासी सिएमों को मजबूरी में इन संधि प्रस्तावों को मानना पड़ा क्योंकि वे आर्थिक नाकेबन्दी से त्रस्त थे और अपने गाँवों की और तबाही नहीं चाहते थे। तिरोत सिंग और उनके निष्ठावान साथियों ने युद्ध को जारी रखा। गुरिल्ला छापामार विधि का प्रयोग करते हुए वे अंग्रेजों के ठिकानों पर हमला करते रहे। जंगलों और आसपास के क्षेत्रों में हो रहे इन हमलों से अंग्रेजों को भारी क्षति होती रही।
चेरापूँजी में अपना केन्द्र बनाने के बाद डेविड स्कॉट ने पहला काम यह किया कि तिरोत सिंग को शान्ति और समझौता का प्रस्ताव भेजा। उसने कहा कि वह तिरोत सिंग से स्थायी और शक्तिपूर्ण समझौते के लिये बातचीत करना चाहता है। पर तिरोत सिंग नौंग्ख्लाव समझौते के कटु अनुभव को भूले नहीं थे। वे दुबारा अंग्रेजों की कूटनीतिक चालाकियों का शिकार नहीं होना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अंग्रेजों के शान्ति प्रस्तावों को अनदेखा करते हुए अपना संघर्ष जारी रखा।
जब अंग्रेजों ने समझ लिया कि तिरोत सिंग अब उनके झांसे में नहीं आने वाले हैं, तो उन्होंने ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति अपनाई। उन्होंने तिरोत सिंग के नजदीकी मित्रों में फूट डालने की कोशिश की। अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध सफल रहा था, परन्तु तिरोत सिंग जानते थे कि अंग्रेजी सेना के खिलाफ लम्बे समय तक युद्ध को जारी रखना व्यावहारिक नहीं होगा। वह यह भी जानते थे कि इससे लोगों का मनोबल टूटने लगेगा। उन्होंने अपने विश्वस्त साथियों मोनभट, जिडोर सिंग, ख्रीन कोंगोर, मन सिंग और लोरशोन जराइन के साथ गुप्त बैठक की। जो खासी राज्य अंग्रेजों के कब्जे में आ गये थे 8 उनको फिर से व्यवस्थित और सुसंगठित करने और अंग्रेजों से मुक्त करने के लिए योद्धाओं को भेजा गया। साथ ही अंग्रेजों के साथ खासियों के संघर्ष का दूसरा चरण शुरू हुआ।
इस युद्ध में खासी महिलाओं की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही। घरेलू मोर्चे पर अनगिनत कष्टों का सामना करने के साथ ही इन महिलाओं ने युद्ध में पुरुषों का हर कदम पर साथ दिया। युद्ध में उनका मुख्य काम रसद पहुंचाना था। एक बार का फन नौंग्लाइट नाम महिला ने जिसने अपने पिता और भाई का इस युद्ध में खो दिया था, मैरंग और नौग्रमइ के पास देशी फलों और जड़ी-बूटियों को मिलाकर तेज शराब बनाई और अंग्रेज सैनिकों को पिलाकर पूरी बटालियन का सफाया करवाया। एक अन्य घटना में का फेट सिएम तथा उनकी सहेलियों ने नौंग्ख्लाव में अंग्रेज सैनिकों के साथ भोजन करते समय प्रहरियों को मरवाकर दरवाजों को खोल दिया और खासी वीरों ने पूरी छावनी का सफाया कर दिया। इस युद्ध में खासी स्त्रियों के अदम्य साहस, जिजीविषा, त्याग और कठोर परिश्रम की गाथाएँ आज भी लोकप्रिय हैं।
29 जनवरी 1931 को रमब्रइ के सुसंगठित और प्रशिक्षित योद्धा कामरूप के पास तिरोत सिंग की सेना से आ मिले। राजा सुनता सिंग के नेतृत्व में गारो योद्धाओं का एक समूह भी तिरोत सिंग की सेना से मिल गया। डेविड स्कॉट को पूरे बोरदुआर की चिंताजनक स्थिति के विषय में तुरन्त सूचना दी गयी। डेविड स्कॉट ने 1831 में भारत सरकार को भेजी गयी रिपोर्ट में तिरोत सिंग की सेनाओं के घातक हमलों का वर्णन किया है। काफी कठिनाई के बाद कैप्टन ब्रोडी के नेतृत्व में बोरदुआर और आसपास के क्षेत्रों पर ब्रिटिश सेना दुबारा कब्जा कर सकी। कैप्टन ब्रोडी तब बोको की ओर आगे बढ़ा और एक के बाद एक नौंगस्टाइन, जिर्नगम, जिरंग और लौंगमारू आदि क्षेत्रों की सेनाओं को पराजित किया।
1831 में डेबिड स्कॉट की मृत्यु के बाद ग्रेक्रोफ्ट ने उनके स्थान पर एजेंट का कार्यभारत ग्रहण किया। उन्हें सूचना मिली कि नौंगिर्नेन के पास खासी सेनाओं को संगठित और प्रशिक्षित किया जा रहा है। उन्होंने कैप्टेन लिस्टर और लेफ्टिनेंट इंगलिस को खासी पहाड़ियों की दक्षिणी सीमा के पास भेजा। कठिन संघर्ष के बाद अंग्रेजों ने इन क्षेत्रों पर दुबारा कब्जा जरूरी किया लेकिन उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी।
मोनभट और उसकी सेनाएं मौसिनरम की ओर वापस गयीं और वहाँ अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया। फिर शेला, मोडेन और लीबाह में भी विद्रोह हुए। इन युद्धों में हुई हार के बाद खासी सरदारों ने समझ लिया कि वे अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ लम्बी लड़ाई नहीं लड़ सकते। फलस्वरूप एक के बाद एक उन्होंने गवर्नर जनरल के एजेंट रॉबर्टसन का प्रस्ताव स्वीकार करते हुए ब्रिटिश सरकार के साथ समझौता कर लिया।
तिरोत सिंग के अधिकांश योद्धा भूमिगत हो चुके थे। इस बीच अंग्रेजों को पता चला कि तिरोत सिंग को कई स्रोत से आर्थिक सहायता मिल रही है। ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति का पालन करते हुए उन्होंने मोनभट और उसके सहयोगियों को अपनी तरफ मिलाने का प्रयास शुरू किया। तिरोत सिंग को जब इसकी सूचना मिली तो उन्होंने मोनभट से कहा कि वह अंग्रेजों से बातचीत करे और उन्हें मिलाये रखे। शान्ति समझौते के प्रति तिरोत सिंग के नकारात्मक रुख के बावजूद रॉबर्टसन ने उनकी ओर 9 एक बार फिर दोस्ती का हाथ बढ़ाया। पर जब उसने समझ लिया कि जब तक तिरोत सिंग जीवित हैं और खासियों का नेतृत्व कर रहे हैं, तब तक खासियों से समझौता करना संभव नहीं है, तब उसने शक्ति का प्रयोग करना ही उचित समझा। उसने गोआलपाड़ा और मणिपुर से सेना की टुकड़ियाँ मंगवाई। साथ ही आर्थिक नाकेबन्दी भी तेज कर दी। उसका अन्तिम लक्ष्य था खासी पहाड़ियों को यूरोपीय उपनिवेश में तब्दील कर देना।
इसी समय खिरियम राज्य के मुखिया सिंग मानिक सामने आये और ब्रिटिश सरकार तथा तिरोत सिंग के नेतृत्व में खासी मुखियों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने का प्रस्ताव रखा। रार्बटसन ने प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और सभी सैन्य कार्यवाहीयों को स्थगित कर दिया। सिंग मानिक ने दोनों पक्षों के बीच शान्तिपूर्ण समझौते की प्रक्रिया आरंभ कर दी। महीनों के प्रयास के बाद सिंग मानिक अंततोगत्वा सरकारी एजेंट के प्रतिनिधि और तिरोत सिंग के बीच बैठक करवाने में कामयाब हो ही गये। यह बैठक 23 अगस्त 1832 को हुई। यह एक ऐतिहासिक क्षण था। अंग्रेज एजेंट ने तिरोत सिंग द्वारा प्रतिरोध की समाप्ति की शर्त पर शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व की बात की। परन्तु तिरोत सिंग वादों पर भरोसा करने वाले नहीं थे। उन्होंने स्पष्ट रूप से अपने राज्य में से गुजरने वाली सड़क का प्रयोग बन्द करने की मांग की और नौग्ख्लाव का राज्य वापस दिये जाने की भी मांग की। जब सिंग मानिक ने तिरोत सिंग से कहा कि उन्हें अपना राज्य वापस मिल सकता है, बशर्ते वे अंग्रेजों के साथ समझौते पर हस्ताक्षर कर उनका आधिपत्य स्वीकार करें, तिरोत सिंग ने उत्तर दिया कि ‘‘गुलाम राजा के जीवन से आजाद आम इंसान की मौत अच्छी है।’’ यह बेबाक वक्तव्य ऐतिहासिक था। बिना किसी ठोस नतीजे के इस बैठक का अन्त हो गया। 14
जल्दी ही एक दूसरी बैठक बुलायी गयी जिसमें तिरोत सिंग का प्रतिनिधित्व उनके दो मंत्रियों मान सिंह और जीत रॉय ने किया। उन्होंने अंग्रेजों के प्रतिनिधि कैप्टन लिस्टर से कहा कि वे लगातार चलने वाले युद्ध से तंग आ गये हैं। लिस्टर ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे अपने वादे के प्रति प्रतिबद्ध हैं बशर्ते कि तिरोत सिंग के भतीजे रिजोन सिंग को नया सिएम बनाया जाए। अंग्रेजों को मालूम था कि जब तक तिरोत सिंग को रास्ते से नहीं हटाया जाता तब तक उनकी सेना के मनोबल को नहीं उठाया जा सकेगा। इसलिए तीसरी बैठक की शर्त यह रखी गयी कि इसमें तिरोत सिंग उपस्थित नहीं रहेंगे। अंग्रेजों द्वारा रखी गयी शर्तों में से पहली शर्त यह थी कि यदि तिरोत सिंग आत्मसमर्पण कर दें तो सरकार उनकी जान बख्श देगी। उनके उत्तराधिकारी का चुनाव राजाओं के संघ द्वारा खासियों भी परम्परा को ध्यान में रखते हुए किया जायेगा। ब्रिटिश सरकार चेरा से असम तक सड़क बनाने के लिये स्वतंत्र होगी और कहीं भी पुल और गेस्ट हाउस बनाने का भी अधिकार रखेगी।
मध्यस्थ के रूप में सिंग मानिक की भूमिका से अंग्रेज संतुष्ट थे परन्तु तिरोत सिंग के आत्मसमर्पण के प्रश्न पर वार्ता में गतिरोध आ गया। फिर भी सिंग मानिक शान्तिपूर्ण समझौते के लिये आशान्वित थे। शान्तिवार्ता की प्रक्रिया चलती रही और सिंग मानिक ने जिडोर सिएम को वार्ता में शामिल कर लिया। अंग्रेजों ने जिडोर सिएम को इस बात के लिये राजी करने का प्रयास किया कि वे तिरोत सिंग के आत्मसमर्पण में सहायता करें परन्तु जिडोर अपने लोकप्रिय नेता को धोखा देने के लिये तैयार न थे। इस प्रकार शान्तिवार्ता का अन्त हो गया पर रॉबर्टसन ने सैनिक कार्रवाई जारी रखने का आदेश दिया। खासी 10मुखियों ने भी विदेशी आक्रमण का प्रतिरोध करने की तैयारी कर ली। वे जानते थे कि यह करो या मरो की स्थिति है। रॉबर्टसन ने पहाड़ियों की तराई में पुलिस घेराबन्दी को मजबूत बनाया ताकि आर्थिक नाकेबन्दी को और प्रभावी बनाया जा सके। तीन वर्षों की लगातार लड़ाई के बाद लोगों का आर्थिक और सामाजिक जीवन तबाह हो गया था। व्यापार छिन्न-भिन्न हो चुका था और खेती बर्बाद हो गयी थी। लोग इसी उम्मीद के सहारे सभी कष्ट सह रहे थे कि एक दिन तिरोत सिंग और उनके साथी विजयी होंगे और एक बार फिर वे स्वतंत्र जीवन जी सकेंगे। तिरोत सिंग लोगों के मन में अपने प्रति विश्वास को जानते थे और यह भी जानते थे कि लोग उन्हें अपना एक मात्र नेता और मुक्तिदाता मानते हैं। परन्तु युद्ध की निराशाजनक स्थिति ने उन्हें उसके परिणाम के प्रति सशंकित कर दिया था। उनके गुप्तचरों ने उन्हें सूचना दी कि उनके आसपास के खासी राज्यों और बाहर के पहाड़ी राज्यों ने भी अंग्रेजों के आगे समर्पण कर दिया है। सिंग मानिक ने भी तिरोत सिंग को प्रतिरोध की निरर्थक परिणति को लेकर आगाह किया। इससे केवल उनकी प्रिय प्रजा के कष्टों में वृद्धि होनी थी। भारी मन से तिरोत सिंग ने अपनी प्रजा के दुखों और कष्टों के बारे में विचार किया और अन्त में आत्मसमर्पण करने का फैसला किया। इसके मूल में उनकी प्रजा का हित निहित था। उन्होंने 9 जनवरी 1833 को अपने विश्वस्त मंत्री जीत रॉय को अंग्रेज अधिकारियों से मिलने के लिये भेजा। जीत रॉय ने कैप्टन इंग्लिस को सूचित किया कि उनके स्वामी तिरोत सिंग ने आत्मसमर्पण करने का फैसला किया है और उनका जीवन बख्शा जाए। कैप्टन इंग्लिस के राजी होने पर 13 जनवरी 1833 को लुम मदियांग नामक स्थान पर राजा तिरोत सिंग ने आत्मसमर्पण कर दिया। इस दुखद घड़ी में अपनी प्रिय प्रजा का ध्यान ही उनके लिए सर्वोपरि था।
राजा तिरोत सिंग ने साहसपूर्वक ब्रिटिश सरकार के एजेंट रॉबर्टसन के कोर्ट में अपने ऊपर चलाये जा रहे मुकदमे का सामना किया। रॉबर्टसन ने उनके ऊपर लगाये गये सभी अभियोगों के लिये उनको आजीवन कारावास की सजा सुनाई। बाद में इस पर पुनर्विचार करके उन्हें ढाका में नजरबन्द कर दिया गया। कहते हैं कि जब तिरोत सिंग ढाका पहुंचे तो उनके पास कोई व्यक्तिगत सामान नहीं था। उनके शरीर पर सिर्फ एक कम्बल था। पहले उन्हें ढाका जेल में रखा गया पर बाद में सरकारी आदेश पर उन्हें साधारण कैदी नहीं बल्कि राजबन्दी मानकर 63 रुपये का मासिक भत्ता स्वीकार किया गया और दो नौकर रखने की अनुमति दी गयी। उन्हें अपने जीवन का अन्तिम समय एकान्त में और बन्दी के रूप में बिताना पड़ा। तिरोत सिंग की मृत्यु की तिथि के विषय में पहले विवाद था। परन्तु अब यह निश्चित रूप से माना जाता है कि उनकी मृत्यु 17 जुलाई 1845 को हुई। 16
तिरोत सिंग अन्तिम स्वतंत्र खासी राजा थे। यद्यपि वे एक छोटी सी रियासत के मुखिया थे परन्तु उन्होंने शक्तिशाली अंग्रेजी शासन के विरुद्ध मोर्चा लिया। उनका जीवन पीढ़ियों के लिये लीजेंड बन गया और वे अपने जीवन काल के बाद ‘कल्ट फिगर’ बन गये। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पहले जिन अंग्रेज उच्चाधिकारियों ने उन्हें बर्बर, खून का प्यासा और हत्यारा कहा था, उन्होंने ही बाद में ‘‘उच्च कोटि के देशभक्त’’ के रूप में उनकी चर्चा की। डेविड स्कॉट ने प्रशंसापूर्ण शब्दों में इस महान खासी नेता की चर्चा की थी। यहाँ तक कि लार्ड कर्जन ने 1903 में तिरोत सिंग के साहस और सहनशीलता की प्रशंसा की थी। तिरोत सिंग एक ऐसे वीर पुरुष थे जो अपने आदर्शों के लिये जिए और अपना सर्वस्व इन्हीं 11आदर्शों और मूल्यों के लिये बलिदान कर दिया। त्याग, बलिदान और साहस के सम्पन्न उनका जीवन खासी युवाओं के लिये आदर्श बन गया। उन्होंने ढाका की जेल में बीमारी और मौत को अंगीकार किया पर उन्हें अंग्रेजों के अधीन मामूली मुखिया बनकर रहना स्वीकार नहीं था। अपनी प्रजा और देश के भले के लिए तिरोत सिंग को अंततः अपने आपको अंग्रेजी हुकूमत के हवाले करना पड़ा। पर भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में उनका नाम अमर हो गया
सन्दर्भ

मेघालय के वाहनों की करिश्माई भाषा

चैताली दीक्षित


आप सबने विभिन्न प्रकार के भाषाओं और उनकी विविधताओं के बारे में सुना होगा पर क्या आपको पता है कि मेघालय में वाहन भी आपस में बातें करते हैं? मेघालय की खूबसूरत वादियों में गोल सर्पाकार सड़कों पर सरसराते छोटे-बड़े वाहन आपस में चुपके से हॉर्न की मधुर भाषा में एक दूसरे से बहुत कुछ कह जाते हैंl किसी घर में मौत या गमी हुई हो तो घर के सामने से गुजरते सारे वाहन बहुत ही धीमी रफ्तार से उस घर के सामने से गुजरते हैं, जो मृत व्यक्ति को श्रद्धांजलि का प्रतीक माना जाता है। वाहनों के माध्यम से संवेदनशीलता की ये मिसाल क्या आपने कहीं और देखी या सुनी है? हर जगह ये वाहन धैर्य पूर्वक आपस मे ताल-मेल बिठाकर निकलते हैं। वाहनों के माध्यम से वाहनचालकों की आपसी समझदारी एवं धैर्य बेहद प्रशंसनीय है l पहाडी रास्तों पर संकरी सड़कों पर ऊपर से आते वाहन, चढ़ाई चढ़ते वाहनों को प्राथमिकता देते हैं और किनारे रुक कर उन्हे रास्ता देते हैं l चढ़ाई पूरी कर ऊपर आने वाले वाहन के चालक हॉर्न को धीरे से दबा दूसरे वाहन चालक को धन्यवाद देता है, जिसने ऊपर ही रुक कर चढ़ाई चढ़ते वाहन का मार्ग सुगम किया l इस मधुर धन्यवाद का जवाब प्रतीक्षारत वाहनचालक भी अपने वाहन के हॉर्न को धीरे से दबा कर देता है जिसका मतलब है “वेलकम” l इस प्रकार संकरे सड़कों पर लाखों वाहन बिना वाहन चालकों के अहंकार का शिकार हुए धैर्य पूर्वक गुजरते हैं l है ना करिश्माई? क्या हम यहां की वाहनों की खूबसूरत भाषाई परंपरा को देश के हर कोने तक नहीं पहुंचा सकते? वाहनों के इस खूबसूरत ताल-मेल मे सुकून एवं भयमुक्त वाहन चालन का आनंद बेहद खूबसूरत है चैताली दीक्षित: प्रवक्ता, सेंट एन्थोनी हायर सेकेंडरी स्कूल

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कर्नल साहब

नीता शर्मा

आज माँ को सिधारे पंद्रह दिन हो गए। सब नाते रिश्तेदार जा चुके थे। घर में कर्नल साहब तथा बेटा बहु और बेटी रह गए थे। रिटायर्ड कर्नल थे वो। रुतबे के मुताबिक ही खूब रौबदार और निहायत ही सख़्त किस्म के फौजी थे। रिटायर हुए लगभग दो वर्ष हो गए थे पर क्या मजाल किसीकी की घर को छावनी से बदलकर घर में परिवर्तित किया जा सके। आज भी पूर्णतया फौज के अनुशासन वाला कड़ा कानून ही चलता था घर में। माँ बेचारी ने जाने कैसे सारी उम्र काट दी एक फौजी का हुक्म सहते सहते। सारा परिवार अपने अफसर के आगे सदैव “यस सर” की मुद्रा में ही दिखाई देता।

कभी भी माँ से एक पति की तरह बात करते या हँसते-बोलते नहीं देखा था उनको। माँ भी तो बिना किसी शिकवा-शिकायत के, एक आदर्श भारतीय नारी के समान उनकी सेवा में रत रहती दिन रात। बस एक ही शौक बचा था माँ को, रेडियो पर फिल्मी गाने सुनने का। एक छोटा-सा ट्रांजिस्टर छुपा कर रखती थी अपने पास। जब भी समय मिलता अक्सर माँ गाने लगा कर साथ में गुनगुनाती थी। मगर पिताजी की गैर हाजिरी में ही ये संभव हो पाता। कर्नल साहब जानते थे माँ के इस शौक को पर क्या मजाल की कभी साथ मिलकर आनंद ले लेते। पिछले पंद्रह दिनों में बेशक मायूसी दिखी थी कर्नल साहब के चेहरे पर, लेकिन आँखों से एक बूंद ऑंसू बहते न दिखा किसीको।इतना भी क्या सख्त होना की जिस औरत ने सारी उम्र दे दी उनके घर परिवार को, उसके जाने का भी गम नहीं। सभी रिश्तेदार भी आपस में कानाफूसी करते दिखे।

“अजीब ही कड़क इंसान हैं ये! अरे इतना भी क्या सख़्त होना कि सावित्री जैसी पत्नी पर भी दो बूँद ऑंसू नहीं दिखे इनकी आँखों में। ”
“अरे कितने सख्त दिल हैं अपने कर्नल साहब। मजाल है जो एक ऑंसू भी निकला हो आँख से।”बेटा, बेटी को पिता की आदत पता थी पर इतने संगदिल होंगे उन्होंने भी सोचा न था। माँ के जाने से ज्यादा पिता के इस रूप को देखकर दिल व्यथित था दोनों का। एक बार भी पिता ने माँ की किसी बात का ज़िक्र तक नहीं किया। बिल्कुल चुप्पी साध ली थी। हमेशा की तरह काम की या कोई जरूरी बात ही की थी इतने दिन से।
आज भी रोजमर्रा की तरह रात को ठीक 8 बजे खाना खाकर आधा घंटा बाहर लॉन में टहलने के बाद ठीक नौ बजे अपने कमरे में चले गए थे कर्नल साहब।
सुबह ठीक 6 बजे उठ जाते थे और माँ हाथ में चाय का कप लिए खड़ी होती थी। चाय पीकर सुबह की सैर को निकल जाया करते थे। बीते पंद्रह दिन से भी यही दिनचर्या की शुरुआत थी उनकी। फर्क बस इतना था कि चाय अब बेटी बनाकर तैयार कर देती है। आज भी चाय का कप लेकर पापा को देने कमरे में चली गई। दरवाजे से झाँका तो स्तब्ध हो गई। अरे ये क्या? पापा और माँ का ट्रांजिस्टर! अपनी आँखों पर यकीन न हुआ ये देखकर कि कर्नल साहब आराम कुर्सी पर माँ का ट्रांजिस्टर गोद में रखे आंखे मूंदे कुछ सुन रहे थे। क्या ये कर्नल साहब ही हैं, उसके रौबीले पिता। बुत बनी देखती रही। आँखों में पानी भर आया और दरवाजा खटखटा सीधे अंदर घुस गई।
“पापा आपकी चाय?”
पर ये क्या? किसको पुकार रही थी वो। एक निर्जीव शरीर पड़ा था वहां तो। सख़्त दिल पापा तो माँ के पास जा चुके थे
नीता शर्मा, लेखिका, आकाशवाणी की पूर्वोत्तर सेवा में हिंदी उद्घोषिका।

भेद

अवनीत कौर ‘दीपाली’
अवनी ने बहुत गुस्से में फोन रखा और वही सोफे में बैठ अपनी आँखे बन्द कर खुद को सहज करने की कोशिश कर रही थी।
उसको रह रह कर फोन पर हुई बात परेशान कर रही थी! उसने कई जगह विज्ञापन दिया था की चार बच्चो को गोद देने के लिए।
उसी विज्ञापन को देखकर एक फोन आया . . .
अवनी ने फोन उठाया तो एक लड़की की आवाज थी. . . हेलो- मैं नीरा बोल रही हूँ! अवनी-हेलो, जी कहिए ! नीरा मैंने आपका विज्ञापन देखा मुझे भी एक बच्चा चाहिए।
अवनी-जी जरूर !
नीरा- बच्चा कितने महीने का है?
अवनी- 2 महीने का है।
नीरा -जी ठीक है, मैं कब लेने आ सकती हूँ?
अवनी- कभी भी आ सकती हैं।
नीरा-ठीक है मैं कल आऊँगी और मुझे मेल बच्चा चाहिए।
अवनी- पर मेरे पास तो सब फीमेल है मेल नहीं हैं।
नीरा- ओह, माफ कीजिए पर मुझे मेल ही चाहिए. . .
इतनी बात होते ही उधर से फोन कट कर दिया।
फोन रखते ही अवनी को गुस्सा आ रहा था। सोफे पर बैठी जब सोच रही थी की इंसानों ने जानवरों में भी लड़का लड़की (लिंगभेद) का भेद न छोड़ा। इतने में उसकी पालतू डॉगी प्यारी आ कर अवनी पास बैठ गई जसने 2 महीने पहले 4 फीमेल बच्चों को जन्म दिया था जिनकी अडॉप्टेशन के लिए उसने विज्ञापन दिया था।
अवनीत कौर दीपाली, का जालंधर पंजाब में जन्म हुआ। इनकी तुकांत, अतुकांत, लघुकथा, कहानी कई समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई है। अनेकों पत्रिका जैसे गृहशोभा, सरिता, वनिता गृहलक्ष्मी और असम की अनेकों पत्रिकाओं में इनकी कविताएं ज्ञापित हुई है। ।