श्रदेय स्वामी सर्वगतानन्द

– सामी योगात्मानन्द, प्रॉविडेन्स, USA

गतांक के आगे

पाठकों को शायद स्मरण होगा (या न भी होगा, क्यों कि ‘कि जिंग्शेई/ज्योति की वह संख्या प्रकाशित हो कर अब छः महीने बीत चुके हैं) कि पिछली किश्त में मैंने स्वामी सर्वगतानन्द जी का उल्लेख किया था और लिखा था कि उनके सम्बन्ध में बाद में कभी चर्चा करूँगा। वे श्रीरामकृष्ण के अंतरंग पार्षद स्वामी अखंडानन्द के मन्त्रदीक्षित शिष्य थे। जैसे कि पहले बता चुका हूँ कि जब 20 जून 2009 की मध्यरात्रि के बाद मैं बोस्टन हवाई अड्डे से वहाँ की वेदान्त सोसायटी में पहुँचा, तो वे मेरे स्वागत के लिए अपने कमरे में जागते हुए बैठे थे। इस क्षण के बाद फिर करीब 8 साल तक उनका सहवास मुझे मिलता रहा। मेरे लिए यह बड़ा ही शिक्षाप्रद अवसर था। उस समय उनकी आयु लगभग नवासी(89) वर्ष की थी। शरीर में दुर्बलता और कई प्रकार की बीमारियाँ थीं किन्तु मन तभी भी सशक्त था। विचार और वाणी में स्पष्टता और शक्ति थी। उनके मुख पर सदा शान्ति और प्रसन्नता रहती थी।

उन्हीं के साथ रविवार २४ जून के दोपहर के चार बजे बोस्टन से प्रॉव्हिडन्स चला आया। मेरी व्यवस्था जिस कमरे में की गई थी, (आज भी मैं उसी कमरे में रहता हूँ) उसके बिलकुल सामने ही उनका कमरा था, जिसके साथ आगंतुकों के साथ मिलने का कक्ष भी जुड़ा हुआ था। मैंने देखा कि दिनभर कई भक्त उनसे मिलने हेतु वहाँ आया करते थे। कितने ही भक्त पूजनीय सर्वगतानन्द जी की सेवा के लिए वहाँ मौजूद रहते थे। प्रायः वे मुझे बुलाकर सब के साथ मेरा परिचय करा देते थे।

दो दिन बाद स्वामी त्यागानन्द जी भी बोस्टन से प्रॉव्हिडन्स पहुँचे। उनसे पुराना मित्रतापूर्ण संपर्क था। हमारी संन्यास-विधि एक ही साथ हुई थी। मेरे अमेरिका आने के करीब डेढ़ साल पहले वे बोस्टन आश्रम में कार्यारम्भ कर चुके थे और जैसा कि रिवाज था, वे प्रॉव्हिडन्स के आश्रम में भी सभी नियमित व्याख्यान दिया करते थे। अमरीका में किस प्रकार रहना चाहिए, व्याख्यान इत्यादि कैसे देने होंगे? भक्त- स्वयंसेवक, आश्रम का कार्यकारी मण्डल उन सब के साथ मिल-जुलकर किस प्रकार आश्रम का संचालन करना होगा इस विषयों पर उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला। उनके साथ मित्रतापूर्ण बातचीत, मिलना-जुलना, सलाह- मशविरा लेना आज भी जारी है। हम तीनों संन्यासी- सर्वगतानन्दजी, त्यागानन्द और मैं एक साथ व्याख्यान कक्ष के साथ प्रायः जुड़े हुए रसोई-भोजन-घर में नाश्ता, भोजन इत्यादि करते थे। अब रसोई-भोजन घर वहीं से नीचे तहखाने में (Basement में) स्थानांतरित हुआ है। इस स्थानांतरण की कहानी पू. सर्वगतानन्द जी से सम्बन्धित है और उनके चरित्र पर प्रकाश डालती है।

वह सितंबर का महीना था- मुझे प्रॉव्हिडन्स आश्रम का कार्यभार सम्हाले दो महीनों से कुछ अधिक समय बीता था।

वहाँ की वेदान्त सोसायटी के भवन का निरीक्षण करना और कैसे विविध कार्यकलाप वहाँ चलते हैं जैसे- साफ-सफाई, कपड़े धोना, बाज़ार से नित्य प्रयोजनीय चीजें खरीदना, मंदिर को सजाना इन सबकी व्यवस्था कैसे होती है? ये सब मोटे तौर पर समझ में आ गया था। एक सुधार करना मैंने आवश्यक महसूस किया। रसोई घर और भोजन कक्ष को प्रार्थना/ प्रवचन कक्ष के करीब से हटाकर तहखाने में स्थानांतरित करना।

जब मैंने पू. सर्वगतानन्द जी से इस विषय में बात की तो उन्होंने पूरी तौर से मेरा समर्थन किया और कहा कि प्रार्थना/प्रवचन कक्ष इस प्रकार एक दूसरे से सटकर नहीं होने चाहिए। जब इस भवन का पुनर्निर्माण कार्य चल रहा था, तो वे बीमार थे और उस पर ध्यान नहीं दे पाए कि वास्तुकार (Architect) ने इस प्रकार दोनों को एक-दूसरे से सटकर रखा है। अब सारा निर्माण-कार्य संपूर्ण होने के बाद उन्हें भी ये नागवार मालूम हो रहा है। इसी वजह से लाइब्रेरी और पुस्तक-ब्रिक्री के लिए कोई स्थान ही नहीं रहा है। उन्होंने तुरन्त वेदान्त सोसायटी के तत्कालीन सचिव विल एयटन (Will Ayton) को बुलाया और पूछा कि क्या यह स्थानांतरित करना सम्भव होगा? उन्हें यह बात प्रथम पसंद नहीं आयी। इस स्थानांतरण में कितने व्यवधान है, इसकी चर्चा उन्होंने की। परन्तु जब हम दोनों ने मिलकर पूरे तहखाने का निरीक्षण किया, तो वे इस बात पर सहमत हो गए। कम से कम भोजन-कक्ष नीचे ले जाना कठिन नहीं होगा इस बात को उन्होंने स्वीकार किया।

जब काम शुरु किया तो प्रथमतः कई भक्तों को वह पसंद नहीं आया। अनेक भक्तों को लगा कि मैं अभी नया आया हूँ और मनमानी कर रहा हूँ। कुछ भक्तों ने सीधे पू. सर्वगतानन्दजी के पास शिकायत की। एक महिला ने मेरे सामने ही उनसे कहा कि वे मुझे आदेश दें कि मैं यह काम बन्द करूँ और भोजन-कक्ष जहाँ था, वहीं रहने दूँ। तब उन्होंने उत्तर में कहा, “यहाँ इसको[=मुझे]  यहाँ के प्रमुख के रूप में मुख्यालय ने भेजा है। मैंने ही उसे यहाँ के प्रमुख के रूप में बुलाया है और तुम सब उसकी बात मानकर चलो। मैं भी उसकी बात मानकर चलता हूँ। भोजन-कक्ष नीचे जाने की बात तो मैं भी चाहता था। ” उनका कथन सुनकर मैंने उन्हें श्रद्धा से प्रणाम करते हुए कहा कि ये आप क्या कह रहे हैं? आपको मेरी बात मानकर चलने की बिलकुल आवश्यकता नहीं है। अगर मैं कुछ ठीक नहीं कर रहा हूँ, ऐसा आप को लगे, तो आप तुरन्त मुझे मना करें। आप से परामर्श कर और आप की अनुमति लेकर ही मैं सब कुछ करना चाहूँगा – भले ही औपचारिक रूप से मैं इस आश्रम का प्रमुख हूँ ।

 इस प्रसंग से उनकी रामकृष्ण संघ के प्रति जो अटूट निष्ठा थी, वह अभिव्यक्त होती है। मनुष्य का मन अज्ञान वश चलती आ रही पुरानी व्यवस्था में आसक्त हो जाता है। उस व्यवस्था के कारण तकलीफ होने के बावजूद भी वह उसमें परिवर्तन करने से इन्कार कर देता है। यह एक स्वाभाविक मानसिक स्थिति की जडता है या पूर्वाग्रह, जिसके कारण हमारी प्रगति नहीं हो पाती। पू. सर्वगतानन्द जी जिनकी अवस्था उस समय नवासी (89) साल की थी, इस स्थितिशीलता के परे थे। केवल भोजन-कक्ष की ही बात नहीं, उन्होंने मेरे हर उचित कदम का उत्साह से समर्थन किया और जो उन्हें अनुचित या अनावश्यक प्रतीत हुआ उसे न करने की भी सलाह दी। उनकी निष्ठा, निर्भयता, भक्ति, भक्तों के प्रति आत्यंतिक प्रेम और सहानुभूति के कितने ही उद्बोधक किस्से हैं।

ईस्वी १९३४ के नवम्बर में सर्वगतानंद जी मुंबई में स्वामी अखण्डानंदजी से मिले। उम्र थी 22 वर्ष की। आन्ध्र प्रदेश के मूल निवासी थे, किन्तु मुम्बई में एकाउंट्स की नौकरी कर रहे थे। (प्रॉव्हिडन्स में जब मैं आया तो उन्होंने वहां के अकाउंट के काम के बारे में मुझे अच्छी, उपयुक्त जानकारी दी।) जब अखण्डानंदजी ने इस नवयुवक से पूछा की ‘जीवन से क्या चाहते हो?’ तब उसने उत्तर दिया कि विवेकानंद जी के मोक्ष- लाभ और साथ ही साथ जनसेवा का आदर्श उन्हें बड़ा अच्छा लगता है।

फिर अखण्डानन्दजी ने इस युवक को (नारायण उनका नाम था) रामकृष्ण मिशन के कनखल / हरिद्वार स्थित अस्पताल में जाने को कहा और वहाँ के प्रमुख स्वामी कल्याणानन्द जी को इस विषय में एक पत्र भी भेज दिया और मुंबई से कनखल तक नंगे पाँव पैदल जाने को कहा। लगभग १७०० कि.मी. की दूरी पैदल तय करके वे करीब ढाई महीने के बाद कनखल पहुँचे और वहीं से उनके त्यागपूर्ण, सेवाभावी संन्यास जीवन का शुभारंभ हुआ। कनखल सेवाश्रम के उनके प्रारंभिक जीवन का बड़ा ही स्फूर्तिदायी वर्णन ‘You Will be a Paramahamsa नामक लघु ग्रंथ में उपलब्ध है।

रामकृष्ण संघ के कनखल, कराची (अब पाकिस्तान में है) , बेलूर मठ, विशाखापटनम् आदि आश्रमों में कार्य करने के उपरान्त उन्हें बोस्टन- प्रॉव्हिडन्स इन दोनों आश्रमों में मैं स्वामी अखिलानन्द जी के सहयोगी के रूप में कार्य करने हेतु भेजा गया। १९५४ में वे यहाँ आए। १९६१ में अखिलानन्दजी के निधन के पश्चात वे दोनों आश्रमों के प्रमुख नियुक्त किए गए। २००९ के मई में उनका निधन हुआ। अपने ५५ वर्ष के दीर्घ  अमरीका वास के दौरान वे मात्र दो बार भारत गए थे। प्रथम १९६२ में, खामी अखिलानन्द जी की अस्थियाँ विसर्जन करने हेतु और फिर 2002-03 में परम पूज्य रंगनाथागन्दजी से मिलने के लिए आये। तब वे रामकृष्ण संघ के परमाध्यक्ष थे और सर्वगतानन्द से उनका घनिष्ट, सौहार्दपूर्ण संपर्क था। उनके बॉस्टन-प्रॉव्हिडन्स रहते समय कई बार रंगनाथागन्दजी वहाँ आये थे।

अपने प्रेमपूर्ण, सरल व्यवहार, वेदान्त-ग्रन्थों के साथ ही साथ ख्रिस्तान , मुस्लिम और अन्य धर्मों का भी गहरा अध्ययन, आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि जैसे सद्‌गुणों के कारण पू. सर्वगतानन्द जी वहाँ की भक्तमंडली में अत्यधिक सम्मान प्राप्त कर चुके थे। मैंने प्रत्यक्ष देखा कि इस ढलती उम्र में भी उनका जनसंपर्क विस्तृत और अंतरंग था।

उनमें तीक्ष्ण विनोद-बुद्धि थी। रोजाना बोल-चाल में भी उनके आसपास का वातावरण हास्यपूर्ण रहता था। इस से सब के मन का दुःख और तनाव दूर हो जाता था। इस के चंद उदाहरण में यहाँ पेश कर रहा हूँ।

 बोस्टन-प्रॉव्हिडन्स के आसपास मौसम कैसा होता है? मेरे इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने वहाँ का एक प्रचलित कथन अपने हास्यपूर्ण ढंग से उद्‌धृत किया। कहा जाता है कि ‘यदि तुम सोच रहे हो कि मौसम अच्छा है, तो थोड़ी देर रुक जाओ। यदि समझ रहे हो कि मौसम बड़ा खराब है, तब भी थोड़ा-सा रुक जाओ’। ” तात्पर्य है कि मौसम तुरन्त बदलता रहता है। इसी सन्दर्भ मैं में एक और उनका हास्यपूर्ण कथन बताता हूँ। इस बात पर था कि ‘यहाँ कौन से दिन कैसा तापमान होगा इस बारे मैं अटकले लगाने का कोई मतलब नहीं होता। केवल इतना कहा जा सकता है कि एक जुलाई को वह कभी भी शून्य फॅ. (-१८ c) नहीं होता और एक जनवरी को कभी भी १०० फ. (3८.८ c) होता नहीं; इस के बीच में कई प्रकार का चढ़ना-उतरना हो सकता है’।

एकबार सन् 2003 में मई के महीने में हिमवृष्टि हो रही थी। जब मैंने इस सम्बन्ध में आश्चर्य व्यक्त किया, तो वे बोले, “In May it may rain, it may snow, it may be dry or it may be humid; it may be quite hot or quite cold or may be just moderate. Since anything may happen, so the month gets the name May?”

 एक समय हम दोनों को प्रॉव्हिडन्स से बोस्टन जाना था। साथ में और भी कुछ भक्त थे। निर्धारित सम‌य पर तैयार होकर जब मैं उनके कमरे में गया, तो एक भक्त की सहायता लेकर वे धीरे-धीरे पोशाक पहन रहे थे।

मुझे देखकर उन्होंने कहा, “अरे भाई! कुछ समय लगेगा। बूढ़े व्यक्ति को अधिक समय लगता है, रुक जाओ। बूढ़े  शख्स के लिए यमराज को भी इंतजार करना पड़ता है।” यह कहकर वे हँस पड़े। कुछ मिनटों बाद हम रवाना हो गये।

जब कोई कहता है कि वह ईश्वर पर विश्वास करता है, तो वे एक प्रचलित अमेरिकन उक्ति हँसकर कहते थे। We believe in God, others have to pay cash। अर्थात् केवल ईश्वर को उधारी पर माल दिया जाएगा (क्योंकि हम ईश्वर पर विश्वास रखते हैं) और सभी को दिन नगद पैसा देकर खरीदना पड़ेगा। तात्पर्य है कि कोई वस्तु किसी को उधार नहीं मिलेगी।

अमरीका में एक बड़ी सेवा- संस्था चलती है, जिस जिसका नाम है “Meals on Wheels” जो लोग वृद्धावस्था या अपंगता या बीमारी के कारण न बाहर जा सकते हैं, न खाना पका सकते हैं, उनकी सेवा में यह संस्था उपयुक्त भोजन बनाकर गाड़ी से पहुँचा देती है। ये संस्था अपने सराहनीय कार्य के कारण बड़ी लोकप्रिय  है। सर्वगतानन्दजी  ‘Meals Wheels’ को लेकर एक कहानी सुनाते थे।

एक बार चूहों के प्रतिनिधि मण्डल ने ईश्वर से समय लेकर मुलाकात की। ईश्वर से उन्होंने विनय किया कि उन्हें सब समय बिल्लियों के डर से भागना पड़ता है, फलस्वरूप उनके पैर अत्यंत थक जाते हैं और उन्हें बड़ा दर्द होता है। अतः यदि परमात्मा उनके पैरों के नीचे चक्के लगा दे, तो काम सहज हो जाएगा। दयालु ईश्वरने तुरन्त वह व्यवस्था कर दी। अब बिना कष्ट के वे दौड़ लगाने लगे। जब बिल्लियों ने यह देखा, तो उन्हें आनन्द के साथआश्चर्य हुआ। उन्होंने ईश्वर को धन्यवाद देकर कहा, “वाह! आज आपने आपने ‘Meals on wheels’ अर्थात ‘चक्कों पर भोजन’ भेज दिया है।”

मैंने जैसे पहले बताया था, प्रॉव्हिडन्स में मेरा कमरा ठीक सर्वगतानन्दजी के कमरे के सामने था। एक रात मेरे सो जाने के उपरान्त मैंने मेरे कमरे में फोन की घण्टी सुनी। सुनने के बाद भी मुझे उठकर फोन लेने  की इच्छा नहीं हुई, फोन की घन्टी भी बन्द हुई। कुछ सेकेण्ड के बाद दरवाजे पर दस्तक सुनी। उठकर दरवाजा खोला, तो देखा पू॰ सर्वगतानन्दजी हाथ में फोन पकड कर खड़े थे-“‘ये लो तुम्हारा फोन-भारत से आया है”, इतना कहकर उन्होंने मेरे हाथ में फोन दिया और चले गये। फोन एक भारत के परिचित भक्त का था, जो समझ नहीं रहा था कि यह  बातचीत करने का सही समय नहीं है। आधी रात बीत चुकी है। जब मैंने उसे समझाया कि एक नब्बे साल के पूजनीय संन्यासी को उसने कष्ट दिया है, तो लज्जित होकर उसने क्षमायाचना की। मेरे लिये यह एक बड़ी सीख थी – इतने वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, तपोवृद्ध संन्यासी आधी रात को बिस्तर से उठकर, फोन लेकर मेरे कमरे तक चले आये। (चलना  उनके लिए दिन-ब-दिन कठिन होता जा रहा था)। उनसे ४१ साल कम उम्र वाला मैं, मेरे कमरे के भीतर ही फोन उठाने के लिए बिस्तर से उठने में भी आलस्य कर रहा था।

उनके सेवाभाव के ऐसे कितने ही उदाहरण देखने का सौभाग्य  मुझे प्राप्त हुआ है। कितने ही लोग उनसे मिलने के लिए  दूर-दूर से आते थे। ढलती उम्र, और कई बीमारियाँ इसके बावजूद स्वयं के भोजन, विश्राम आदि का ख्याल न करते हुए वे सबका  स्वागत कर उनकी समस्याओं का समाधान कर और उन्हें शान्ति प्रदान करते थे।

प्रॉव्हिडन्स और बोस्टन में उन्होंने विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के साथ सौहार्दपूर्ण संपर्क स्थापित किया था। केवल यही नहीं, कई ईसाई और यहूदी धर्माचार्य भी उन्हें बड़ा सम्मान देते थे। मैं देखा कि एक  कैथॉलिक  पुरोहित  “फादर सेण्ट गोडार्ड” जो कैथॉलिक  समाज के एक विद्वान, सत्-चरित्र धर्मगुरु के रूप में विख्यात थे, वे भी पू. सर्वगतानन्दजी के पास प्रायः आया करते थे।  वे कई साल पहले पू. सर्वगतानन्दजी को जब उनकी  उम्र इतनी अधिक नहीं थी, अपने चर्च में और कॉन्वेण्ट   में आध्यात्मिक मार्गदर्शन हेतु ले जाते  थे। स्त्री-पुरुष, धनी-गरीब, हिंदू-ईसाई – यहूदी – मुस्लिम, सभी से वे समान रूप से प्रेम करते थे। पू. स्वामी कल्याणानंदजी (जो कि कनखल सेवाश्रम के संस्थापक-प्रमुख और विवेकानंद जी के मन्त्र शिष्य थे) से उन्हें जो सेवा की शिक्षा प्राप्त हुई उसका वर्णन उन्होंने पूर्वोल्लिखित ‘तुम परमहंस बनोगे’ इस पुस्तक में बहुत ही मर्मस्पर्शी शब्दों में किया है। कल्याणानंदजी से उन्होंने सीखा कि मनुष्य की सेवा उनमें ईश्वर देखकर करनी होगी। सेवा में कम या ज्यादा  ऐसा कुछ नहीं होता।

मैंने कई बार उनके मुख से कनखल के आश्रम का एक प्रसंग सुना है। कल्याणानन्द  जी ने कई संन्यासियों के आपसी बातचीत में सुना, “हम ने सर्वस्व त्याग किया है, और पू॰ कल्याणानंदजी के प्रेमपूर्ण मार्गदर्शन में आनंद से दिन गुजार रहे हैं।” बात सुनकर कल्याणानदी ने उनसे कहा, … “तुम ने ऐसा कौन-सा त्याग  किया है? तुम्हारे माता-पिता, भाई-बहन, मकान, धन इसका ?  वह सब क्या कभी तुम्हारा था कि तुमने उसका त्याग दिया? … अहंकार और स्वार्थ का त्याग करो और प्रेम से सबकी सेवा करो। नारायण (सर्वगतानंदजी का पूर्व नाम)  निःस्वार्थ, प्रेमपूर्ण सेवा यही हमारा घोष-वाक्य (motto ) है।’ पू. सर्वगतानंदजी पर इस प्रसंग का गहरा असर हुआ था।

२००६ साल से उनका प्रॉव्हिडन्स में रहना कम हो गया। भारी शरीर के दुर्बल और रोग-ग्रस्त होने के कारण के बोस्टने के आश्रम में ही रहते थे। मैं सप्ताह में एक बार या जैसा सम्भव हो, उन्हें मिलने बोस्टन जाता था। उनका व्यवहार तब भी प्रेमपूर्ण रहता था। उन्हीं दिनों उनके व्याख्यानों पर आधारित ‘श्रीकृष्ण योग’ और दो विशालकाय खण्डों में ‘राजयोग’ ये दो मूल्यवान ग्रन्थ प्रकाशित हुए।

शरीर की दुर्बलता बढ़ती जा रही थी पर मन की सुदृढ़ता वैसी ही थी। जीवन पर्यंत मानव-सेवा का मूल मंत्र ले कर्म-पथ की यात्रा करते हुए   ३ मई २००९ में उन्होंने पंचभूत काया ने अंतिम साँस ली। वे व्यष्टि से समष्टि में समा गये।

पुनःश्च

स्वामी योगात्मानन्द वेदान्त सोसाइटी आफ प्रोविडेन्स अध्यक्ष हैं। ये 1976 में रामकृष्ण संघ के सदस्य के रूप में शामिल हुए और 1986 में संन्यास की दीक्षा ली। 20 वर्ष तक रामकृ ष्ण मिशन नागपुर, में कार्य करने के उपरांत रामकृ ष्ण मिशन शिलांग मेघालय, के अध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहे। तदपरांत आप सन् 2001के  ग्रीष्म ऋतु में अमेरिका में वेदांत सोसायटी आफ प्रोविडेन्स के मंत्री के पद पर आए। वेदांत और आध्यात्मिकता पर उनके उपदेश और प्रवचन यूट्यूब पर काफी लोकप्रिय है।

Voice: Nita

रामकथा में शूर्पणखा

रामायण भारतीय अस्मिता का अनूठा ग्रंथ है। रामायण शब्द बाल्मीकि की निजी उ‌द्भावना है। आदिकवि की आर्ष भावना के अनुसार रामायण केवल रामकथा नहीं है बल्कि वह प्रमुखतः राम का अयन है। ‘अयन’ शब्द का तात्पर्य गतिशीलता से है, जो राम के सम्पूर्ण जीवन वृत्तान्त से उद्घाटित होता है अर्थात् राम के जीवन में गति ही गति है। वास्तव में रामायण केवल राम का अयन नहीं है, बल्कि रामा (सीता) का भी अयन है। राम व सीता की समन्वित जीवन शैली रामायण में वर्णित है। हिन्दी साहित्य के पुरोधा कवि गोस्वामी तुलसीदास राम के अनन्य भक्त थे। उन्होंने राम के जीवन वृतान्त पर आधारित एक महत्वपूर्ण ग्रंथ की संरचना की – ‘रामचरित मानस’। यह सर्वविदित है कि रामचरितमानस केवल ग्रंथ नहीं बल्कि वह हिन्दू धर्म का पवित्र दस्तावेज है। इसमें तुलसीदास ने जीवन के विविध रंगों का समायोजन किया है जहाँ पग-पग पर धर्म, संस्कृति, कला व लोक जीवन है। जहाँ सम्बन्धों व भाई-भाई को प्रेम प्रगाढ़ता चरम सीमा पर है। जहाँ रिश्तों की सही पहचान है। ऊँच-नीच के भेद-भाव को मिटाकर केवल प्रेम की गंगा प्रवाहित है। जहाँ छल, धोखा व अधर्म पर धर्म व प्रेम की विजय दिखायी गयी है।

मुख्यतः रामकथा भारतीय साहित्य, संस्कृति और कला का जीवन है। भारतीय जनमानस की आस्था, उसके विश्वास का सत्य, जीवन का शिवत्व एवं सामाजिक चिंतन का चिरंतन सुंदरम् उसी में नित रूप धरता है। रामचरित मानस में तुलसीदास जी ने राम के जीवन की अनेक घटना क्रमों से जोड़ते हुये एक आदर्श रूप प्रस्तुत किया है जिसमें अनेक पुरुष व स्त्री पात्रों की अहम् भूमिका रही है। रामचरित मानस की कथा सात काण्डों में वर्णित है। मानस के सभी पात्र अपने अभिनय में खरे उतरते हैं। मानस के प्रमुख स्त्री पात्रों में सीता, कैकेयी, कौशल्या, सुमित्रा, अहिल्या, अनसूया, शबरी, मन्दोदरी, त्रिजटा और शूर्पणखा है। सीता मानस् की नायिका है।

वह समस्त सद्‌गुणों की आदर्श प्रतिमा तथा समस्त विभूतियों की साकार मूर्ति हैं। इसके ठीक विपरीत शूर्पणखा मानस की खलनायिका है। वह सीता की प्रतिद्वन्द्वी है क्योंकि राम का जीवन उससे प्रभावित होता है। सीता का प्रेम राम के प्रति उपासना भावना से युक्त है जबकि शूर्पणखा के प्रेम में केवल वासना का आकर्षण है क्योंकि वह तो राम के मोहिनी मूरति से प्रभावित होती है। तुलसीदास जी ने स्त्री धर्म के संदर्भ में कहा है कि शरीर, वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना बस यह एक ही धर्म है, एक ही व्रत है और एक ही नियम है क्योंकि पति का अपमान करने वाली स्त्री यमपुर में अनेक प्रकार के दुःख पाती है।

“ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना।।

एकइ धर्म एक व्रत नेमा। काय वचन मन पति पदप्रेमा।।”[1]

सीता का चरित्र स्त्रियों के लिए सौभाग्यसूचक है। राम उन्हें प्राणों के समान प्रिय हैं। शूर्पणखा का चरित्र राम के जीवन घटना क्रम को बदल देता है। यह परिवर्तन राम को अप्रत्याशित दिशा की ओर ले जाता है। जिस प्रकार कुटिल बुद्धि मन्धरा की दुष्विचार से प्रभावित होकर दशरथ की सबसे प्रिय रानी कैकेयी की अपने पुत्र भारत के संदर्भ में राजमोह की लालसा जाग्रत हो जाती है और रामको चौदह वर्ष का वनवास दिलाकर अयोध्या से अलग करती है। इसी प्रकार शूर्पणखा का पंचवटी में अचानक का आगमन और राम-लक्ष्मण का सहज सात्विक परिहास राम-रावण के वैर का बीजारोपण करता है और राम से सीता को अलग कर देता है। राम के जीवन की दोनों घटनायें  रामचरितमानस को अप्रत्याशित किन्तु अभीष्ट दिशा में ले चलती है। इस दृष्टि से शूर्पणखा प्रसंग रामकथा को गति प्रदान कर महत्वपूर्ण योग देता है।

रामचरितमानस का चौथा काण्ड ‘अरण्य काण्ड’ महत्वपूर्ण काण्ड है। पिता दशरथ द्वारा वनवास दिये जाने पर राम, लक्ष्मण व सीता सहित वन-वन भटकते हुए अनेक राक्षसों का वध करते आगे बढ़ते जा रहे थे।

अनेक स्थानों पर उन्होंने मुनिजनों का आश्रय लिया। अपने वनवास की इस यात्रा में वे पंचवटी नामक स्थान पर पहुँचते हैं। पंचवटी ‘नासिक’ का बहुत ही सुन्दर स्थान है। चारों तरफ हरे-भरे वृक्ष युक्त हरियाली व गोदावरी नदी की कल-कल ध्वनि किसी के मन को मोहित कर सकती है। पंचवटी का दृश्य बड़ा ही मनोरम व हृदयंगम है। राम, लक्ष्मण व सीता सहित वहाँ कुटिया बनाकर वनवास का समय व्यतीत करते हैं एवं पंचवटी की महत्ता को द्विगणित करते हैं। इस प्रसंग में तुलसी दास जी ने राम की महिमा का गान किया है-

“बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकामा, तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा विश्राम।।”[2]

राम का मर्यादित व उदात्त अलौकिक व्यक्तित्व सीता की मोहिनी, सुकोमला रूप सौन्दर्य व लक्ष्मण की पौरूष व्यक्तित्व किसी को भी आकर्षित कर सकता था। शूर्पणखा का प्रवेश अरण्य काण्ड में होता है। यहाँ से राम की कथा में एक नया मोड़ आता है। गोदावरी के पवित्र सरित्प्रवाह में स्नान कर सीता, राम और लक्ष्मण पंचवटी की सुन्दर छाया में सुनहरी घड़ियाँ व्यतीत करते रहते हैं तभी आकस्मिक ढंग से शूर्पणखा का प्रवेश होता है। एक दिन सुबह के समय शूर्पणखा दण्डकवन में घूमते हुए राम के अद्वितीय सौन्दर्य को देखकर मुग्ध हो जाती है और अपनी जिज्ञासा और वासना को संतुष्ट करने के लिये पंचवटी के आश्रम में पहुँच जाती है-

“सूपनखा रावन कै बहिनी। दुष्ट हृदय दारून जस अहिनी ।।

पंचबटी सो गई एक बारा। देखि बिकल भई जुगल कुमारा।।”[3]

शूर्पणखा रावण की एक बहिन थी, जो नागिन के समान भयानक और दुष्ट हृदय की थी। वह एक बार पंचवटी में गयी और दोनों राजकुमारों को देखकर विकल (काम से पीड़ित) हो गयी। राम के सौन्दर्य से आकर्षित होकर वह विवाह का प्रस्ताव रखती है-

“रुचिर रूप घरि प्रभु पहिं जाई। बोली बचन बहुत मुसकाई ।।

तुम्ह सम पुरुष न मो समनारी। यह संजोग विधि रचा बिचारी।।”[4]

शूर्पणखा अपने राक्षसी रूप से सुन्दर रूप में परिवर्तित कर प्रभु राम के पास जाकर मुस्कराते हुये बोलती है कि न तो तुम्हारे समान कोई पुरुष है, न मेरे समान स्त्री। विधाता ने यह संयोग (जोड़ा) बहुत विचार कर रचा है। शूर्पणखा राम से कहती है मैंने तीनों लोकों की खोज कर देख लिया है कि मेरे योग्य पुरुष (वर) जगत भर में नहीं है इसी कारण मैं अबतक कुमारी अर्थात् अविवाहित हूँ, परन्तु तुम्हें (राम को) देखकर यह चित्त कुछ ठहरा है. अतः मैं तुम्हें अपना वर बनाना चाहती हूँ। इस पर राम सीता की ओर देखकर शूर्पणखा को लक्ष्मण के पास भेजते हैं कि वह कुमार हैं। तब वह लक्ष्मण के पास जाती है। लक्ष्मण उसे शत्रु की बहिन समझकर एवं प्रमु की ओर देखकर कोमल वाणी से बोलते हैं-

“सुदरि सुनु मैं उन्ह कर दासा। पराधीन नहि तोर सुपासा ।। [5]

प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा। जो कछु करहिं उनहि सब छाजा ।।” लक्ष्मण कहते हैं कि मैं तो उनका दास हूँ एवं पराधीन हूँ अतः तुम्हें सुख न होगा। प्रभु समर्थ हैं व कोसलपुर के राजा हैं वे जो कुछ करें सब उचित है। अतः तुम्हारे लिये मेरे बड़े भाई राम ही सर्वथा योग्य हैं और तुम भी उनके लायक हो। उनकी छोटी पत्नी बनने में कोई बुराई नहीं है। लक्ष्मण बड़े चतुराई से यह कहते हैं कि वह तो सीता से अधिक सुन्दर योग्य और सुपात्र है। शूर्पणखा दोनों भाइयों की चतुराई को समझ नहीं पाती है और सचमुच में स्वयं को सीता से अधिक सुन्दर समझती है। वह फिर राम राम के पास पहुँच जाती है –

“पुनि फिरि राम निकट सो आई। प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई ।।

लछिमन कहा तोहि सो बरई। जो तृन तोरि लाज परिहरई ।।”[6]

तब राम फिर से उसे लक्ष्मण के पास भेजते हैं इस पर लक्ष्मण जी ने कहा – तुम्हें वही बरेगा जो लज्जा को तृण तोड़कर (अर्थात् प्रतिज्ञा करके)

त्याग देगा (अर्थात् जो निपट निर्लज्ज होगा)। तब शूर्पणखा क्रुद्ध होकर राम जी के पास जाती है और उनके समक्ष अपना भयंकर रूप प्रकट करती है जिसे देखकर सीता भयभीत हो जाती हैं तब तत्काल राम जी लक्ष्मण जी को इशारा करते हैं। राम का इशारा पाकर लक्ष्मण जी ने बड़ी फुर्ती से उसको (शूर्पणखा को) बिना नाक-कान की कर दिया अर्थात् लक्ष्मण शूर्पणखा के नाक-कान काट देते हैं। एक प्रकार से वे रावण को चुनौती दे देते हैं-

“लछिमन अति लाव सो नाक कान बिनु कीन्हि।
ताके कर रावन कहें मनौ चुनौती दीन्हि।।”[7]

शूर्पणखा लक्ष्मण द्वारा किये गये इस कृत्य से अत्यंत अपमानित होकर और बावली हो जाती है। नाक-कान कटने की असह्य वेदना के साथ वह रोती-बिलखती,

चीखती-चिल्लाती फिर जंगल में उसी स्थान पर वापिस अपने भाइयों खर-दूषण के पास चली जाती और और बीती हुई पूरी घटना क्रम को सुनाती है। इस पर खर-दूषण क्रोधयुक्त राक्षसों की सेना तैयार कर राम से युद्ध करने के लिए तत्पर हो जाते हैं।

शूर्पणखा मुख्य रूप से राम-लक्ष्मण के सौन्दर्य से आकर्षित तो होती है परन्तु स्त्री होने के नाते वह सीता के सुकोमल रूप सौन्दर्य से भी बहुत प्रभावित होती है और यही भावना ईर्ष्या का रूप धारण करती है। राम और लक्ष्मण से अपमानित होने पर अब वही ईर्ष्या प्रतिहिंसा बन जाती है। अतः उसका क्रोध राम व लक्ष्मण से अधिक सीता के प्रति अधिक है। इसी कारण वह अपने भाइयों से बदला लेने के संदर्भ में सीता को भी समाप्त करने की बात कहती हैं क्योंकि तभी उसके अन्दर की वेदना शांत होगी।

अपनी बहन के अपमान का बदला लेने के लिए खर-दूषण राक्षसों की भयानक सेना लेकर राम से युद्ध करने के लिए पहुँच जाते हैं जहाँ राम उन राक्षसों से अकेले युद्ध करते हैं। लक्ष्मण सीता की रखवाली करते हैं। राम की शरवर्षा के भीषण प्रकोप के सामने कोई नहीं टिक पाता और सब के सब समाप्त हो जाते हैं। खर-दूषण का विध्वंस देखकर शूर्पणखा जाकर रावण को भड़काती है। वह अत्यंत क्रोधित हो कहती है कि तूने देश और खजाने की सुधि ही भुला दी –

“करसि पान सोवसि दिनु राती। सुधि नहिं तव सिर पर आराती।
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा ।।”

अतः रावण के दरबार में जाकर शूर्पणखा सारा वृत्तान्त रावण को इस प्रकार सुनाती है जिससे उसके मन में राम के प्रति द्वेष और सीता के प्रति प्रेम समान रूप से उत्पन्न हो जाये। शूर्पणखा बात-चीत में बड़ी चतुर व निपुण है। अपनी इसी विशेषता से वह रावण के समक्ष यह स्पष्ट करती है कि राम व लक्ष्मण दोनों भाई कोई साधारण पुरुष नहीं है बल्कि वे असाधारण व्यक्तित्व वाले हैं। इनके कारण  जंगल राक्षसों से रहित होता जा रहा है। खर-दूषण का वध इसका ज्वलन्त प्रमाण है। रावण मन ही मन विचार करता है कि यह निश्चित रूप से सत्य है। शूर्पणखा बात-चीत में सीता के अद्वितीय सौन्दर्य का चित्रण कर रावण के मन में सीता के प्रति प्रेम की भावना भी जाग्रत कर देती है।-

“रूप रासि बिधि नारि सँवारि। रति सत कोटि तासु बलिहारी ।

तासु अनुज काटे श्रृति नासा। सुनि तब मगिनि करहिं परिहासा। ।। [8]

 शूर्पणखा के अपमान का बदला लेने के लिए रावण मारीच को मायावी हिरण बनाकर जंगल में भेजता है जहाँ सीता उसे देखकर पाने के लिए आतुर हो जाती हैं फिर राम का उस मृग के पीछे भागना फिर आगे की घटनाक्रम में सीता को अकेले पाकर रावण का साधु वेश में आकर अपहरण करना रामकथा में विस्तार के साथ-साथ उसमें एक नया मोड़ लाता है। सीता को राम से अलग करने के संदर्भ में शूर्पणखा का लक्ष्य पूरा हो जाता है। सत्य और धर्म के सच्चे प्रवर्तक राम की साध्वी सीता परम सत्य का साकार रूप है जिसे पदच्यूत, भ्रष्ट और नष्ट करने में शूर्पणखा कोई कसर नहीं छोड़ती है। शूर्पणखा के चरित्र वर्णन में कहा गया है कि ‘राम की दृष्टि को राम से अलग करने का प्रयास करने वाली शूर्पणखा सत्ता और सत्य के सायुज्य की साधना में बाधा डालने वाली आसुरी शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है। सीता रामाक्षी है तो शूर्पणखा वामाक्षी है। यही दृष्टि-भेद शूर्पणखा के दृष्टि-दोष का कारण बन गया है और इस दोष का फल भी उसे भुगतना पड़ा। सर्वसत्तात्मक स्वामी की सहज सात्विक सुषमा को कलुषित दृष्टिकोण से देखने का यही परिणाम होता है। शूर्पणखा जैसे पात्र का प्रयोजन इसी शिक्षा के प्रसार में है।[9]

फिर यदि भाग्य, विडम्बना की बात की जाय तो कहा जा सकता है कि भवितव्य बहुत प्रबल होता है जो होना है सो होकर रहता है। राम जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम के मन में भी शूर्पणखा से कुछ परिहास करने की इच्छा होती है और लक्ष्मण भी इसी परिहास-प्रियता का पूरा-पूरा लाभ उठाते हैं। पर बेचारी शूर्पणखा इस परिहास और व्यंग्य को बिल्कुल समझ नहीं पाती। वह तो कामातुर थी। कुल मिलाकर सबकी मनोदशा ने प्रसंग को इतना जटिल और नाजुक बना दिया है कि आगे की घटना नियति से निर्धारित विधि से होकर ही रही।”[10]

अतः रामकथा के विस्तार में अरण्य काण्ड के पंचवटी प्रसंग महत्वपूर्ण है जहाँ शूर्पणखा का चरित्र उभर कर सामने आता है। शूर्पणखा कई दृष्टियों से भेद-भावना का सूत्रपात करती है जिसमें प्रथम सोपान है राम को सीता से अलग करना। तत्पश्चात् राम और लक्ष्मण को अपनी ओर आकृष्ट करने का उसका असफल प्रयास और रावण के मन में सीता के प्रति आसक्ति की भावना प्रबल रूप से जाग्रत करने का प्रयास। शूर्पणखा के दो और सोपान है यद्यपि वह अपने प्रयास में पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पाती है क्योंकि कहीं न कहीं उसका ध्येय राम और सीता को मानसिक रूप से अलग करना होता है जो सफल नहीं होता है। रामकथा के आगे घटना प्रसंग इस बात की पुष्टि करते हैं। वाणी और अर्थ, जल और तरंग, चाँद और चाँदनी की तरह एक-दूसरे से घुले मिले एक ही तत्व के दो रूप हैं- सीता और राम। शूर्पणखा का क्षुद्र प्रलोभन राम के मन पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाता और इससे भी अधिक दृढ़ता सीता के निश्चल मन में तब देखी जाती है जब अपार सम्पत्ति का स्वामी रावण अनेक प्रकार के प्रलोभन दिखाकर सीता को अपने वश में करना चाहता है परन्तु उसका प्रयास निष्फल हो जाता है। वह रावण की सारी सम्पत्ति व पराक्रम को तिनके के समान ठुकरा देती हैं क्योंकि उसके हृदय में तो राम की प्रतिमा स्थापित है। निष्ठा की इस पराकाष्ठा का बिल्कुल विपरीत स्वरूप शूर्पणखा के चरित्र में परिलक्षित होता है। सीता की पवित्रता को स्पष्ट व पूर्ण रूप से प्रकट करने के लिए शूर्पणखा बहुत ही उपयोगी सिद्ध होती है, क्योंकि उसका चरित्र उलझा हुआ चंचल और विषय वासिनी नारी के रूप में प्रकट होता है और इसके ठीक विपरीत सीता सुलझी हुई साहसी व अन्तर्मुखी हैं।

शूर्पणखा के व्यक्तित्व में उन्माद, आक्रोश और प्रतिहिंसा का प्रकट रूप है। उसका चरित्र प्रभावशाली व महत्वपूर्ण है एवं रामकथा के विस्तार में योग प्रदान करता है।

प्रो० डॉ० सविता कुमारी झीवास्तव, म प्रोफेसर-हिन्दी क हेमवती नन्दन बहु‌गुणा राजकीय सातकोत्तर महाविद्यालय नैनी प्रयागराज

Voice: Nita


[1] तुलसीदास,रामचरितमानस, 3.5

[2] तुलसीदास,रामचरितमानस, 3.16

[3] तुलसीदास,रामचरितमानस, 1.3.17

[4] तुलसीदास,रामचरितमानस, 1.3.17

[5] तुलसीदास,रामचरितमानस, 3.17

[6] तुलसीदास,रामचरितमानस, 1.3.17

[7] तुलसीदास,रामचरितमानस, 1.3.17

[8] तुलसीदास,रामचरितमानस, 1.3.22

[9] . डॉ० पांडुरंग राव, रामायण के महिला पात्र , भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली,101

[10] डॉ० पांडुरंग राव, रामायण के महिला पात्र , भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली,102

असम की प्रथम नारी शहीद – मांगरी उराव उर्फ मालती मैम

भारत की सरजमीं को पूरे 200 साल तक अपने अधीन करके हमारे ही लोगों पर न जाने कितने अत्याचार किए। फल स्वरुप भारतीयों के मन में ब्रिटिश के खिलाफ विद्रोह शुरू हुआ। संपूर्ण भारतवर्ष में ब्रिटिश शासन के खिलाफ सबसे पहले आदिवासी समुदाय ने विद्रोह किया था। सन् 1785 में तिलका मांझी और जबड़ा पहाड़ी ब्रिटिश के खिलाफ लड़कर शहीद हुए थे। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का सूत्रपात सिपाही विद्रोह से माना जाता है। लेकिन उससे भी पहले हजार- हजार आदिवासी लोग ब्रिटिश के खिलाफ लड़कर शहीद हुए थे। यह समुदाय केवल संथाल , उराव ही नहीं बल्कि बेचू रावत जैसे ग्वाला संप्रदाय को भी सार्वजनिक रूप से फाँसी दी गई थी।

यह वह दौर था जब असम प्रदेश कांग्रेस स्वतंत्रता आंदोलन में झारखंडी आदिवासी को शामिल करना नहीं चाहते थे। बल्कि चाय श्रमिक स्वयं ब्रिटिश के खिलाफ लड़ रहे थे। यह बात स्वयं अमिय कुमार दास ने भी स्वीकार किया था कि 1921 से पहले कांग्रेस ने कभी चाय बगीचे की आदिवासियों के साथ काम नहीं किया था।

1921 के असहयोग आंदोलन में असम की प्रथम महिला मांगरी उराव उर्फ मालती मेम शहीद हुई थी। जो एक आदिवासी महिला थी। 101 साल पहले शहीद हुई मालती मेम आज भी इतिहास के पन्ने पर गुमनाम है। जबकि 1921 के स्वतंत्रता आंदोलन में पूर्वोत्तर भारत की वह प्रथम महिला हैं, जो शहीद हुई थीं। आज पूरे देश में आजादी का पचहत्तर वर्ष अमृत महोत्सव के रूप में मनाया गया। ऐसे में मांगरी उराव उर्फ मालती मेम का उल्लेख करना न केवल आवश्यक है बल्कि गुमनामी के अँधेरे में दबी इस महान सेनानी को सम्मान देने की जरूरत भी है।

 मालती मेम एक आदिवासी महिला थी। जिनकी मर्मस्पर्शी कहानी को उस समय के लोकप्रिय नेता स्वतंत्रता सेनानी लेखक एवं संपादक अमिय कुमार दास द्वारा लिखित आलेख “उटी अहा एपाही फूल ….मांगरी “ अर्थात् “बहकर आया एक फूल …..मांगरी “ में उल्लेखित मांगरी की दर्द और अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने की कहानी है।

1919 के जालियांवाला बाग के निर्मम हत्याकाण्ड में घटित घटना ने मानों प्रत्येक भारतीयों के मन में स्वतंत्रता की ज्वाला धधका दिया था। क्या बूढ़े , क्या जवान, क्या महिलाएँ, क्या बच्चे सभी ने जैसे ब्रिटिश के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया था। सन् 1920 में गाँधीजी द्वारा प्रस्तावित असहयोग आंदोलन को सर्वसम्मति से पारित किया गया। हजारों की संख्या में नवयुवक, नवयुवतियाँ पढ़ाई छोड़ कर स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे।

सन् 2021 में असहयोग आंदोलन पूरे भारत में सक्रिय हो उठा था और असम में भी इस आंदोलन ने गति पकड़ ली थी। 19वीं शताब्दी में असम में शराब और तंबाकू का बहुत मात्रा में प्रचलन होने के कारण बहुत घर बर्बाद हो रहे थे। हालत यहाँ
 तक थी कि महिलाओं को गहने को गिरवी रखना पड़ रहा था। असहयोग आंदोलन के दौरान गांधीजी ने कांग्रेस नेता और स्वयंसेवकों से कहा कि मादक द्रव्य का वर्जन बहुत जरूरी है। इस पर ध्यान देना इसलिए जरुरी था क्योंकि उस समय में तंबाकू से आने वाली आय सरकार की झोली भर रही थी। इसलिए ब्रिटिश सरकार इधर यह नशा बंद न हो उस पर नजर भी रख रही थी क्योंकि इससे सरकार को नुकसान होने की आशंका थी। इसीलिए जहाँ पिकेटिंग होती, वहाँ पुलिस धड़ पकड़कर ले जाते थे। मगर स्वराज की कल्पना करने वाले स्वयंसेवक तनिक भी घबराए बिना अपने मिशन पर लगे रहे। फलस्वरूप सरकारी खजाने की आय कम होने लगी। सन् 1921 में लगभग 50% आय कम करने में सक्षम हो गए थे। तेजपुर में भी यह अभियान पूरी तरह चल रहा था। 2 अप्रैल, 1921 के दिन तेजपुर में राष्ट्रीय आंदोलन के सक्रिय नेता अमिय कुमार दास और उनके दोस्त लखीधर शर्मा उस दिन तेजपुर में मादक द्रव्य के वर्जन के लिए धरना दे रहे स्वयंसेवकों देखने के लिए गए। धरना तेजपुर के सिद्धि महाल्दार जमीलाल की दुकान के समीप था। उन्होंने एक अजीब घटना देखी। नेपाली पट्टी से एक महिला साफ-सुथरी साड़ी पहनी हुई पैर में जूते और हाथ में बोतल पकड़े हुये स्वयंसेवकों द्वारा दिए गए धरना स्थल की ओर आ रही थी। स्वयं सेवक स्वर्गीय थुलेश्वर बरा (कांग्रेस प्रमुख) उसे शराब की दुकान पर जाने से रोकने के लिए खड़े हो गए। यह देखकर वह महिला दूर से ही उन्हें सुनाती हुई जोर से गीत के माध्यम से बोलने लगी- “ मैं शराब पियूँगी, मजे करूँगी, मजे करूँगी मजे करूँगी ।” उन्होंने महिला का ऐसा रूप पहले कभी नहीं देखा था। लीलाधर ने महिला से प्रश्न किया -“आप कौन?”
 बस प्रश्न करना ही शेष था कि वह गरजती और हँसती हुए बोली “मुझे नहीं पहचानते? हा.. हा.. हा.., तीन साहब का सिर खा चुकी हूँ” कुटिलता के साथ फिर बोली, “आ जाना शाम को, लाल माटी में मेरा घर है। ” “आपका नाम ?” यह सुन वह महिला जोर से हँसती हुई फिर बोली, अंग्रेजी वर्ण में अपना नाम बताया “ एम ए एल ए टी आई , पहले का नाम था एम ए एन बी आर आई अभी साहब लोग मुझे मालती मेम बुलाते हैं। ” रास्ता रोक खड़े स्वयंसेवक को देखकर बोली –“मुझे जाने दो “ लेकिन थुलेश्वर बरा भी रास्ता छोड़ने वालों में से नहीं थे। वह बोले, “आपके पैर पड़ता हूँ माँ, मैं आपको शराब खरीदने नहीं दूँगा। ” यह सुनते ही वह बोली –“तुम कौन हो जो मुझे माँ कहकर बुला रहे हो?” माँ शब्द ने जैसे जादू कर दिया था। जीवन में मिले दुख- दर्द शोषण एवं दुत्कार ने उसे तोड़ के रख दिया था। उसने कहा- “लो छोड़ देती हूँ शराब, अब नहीं पिऊँगी” कहकर बोतल फेंक देती है। उसी समय लखीधर ने कहा-“आप सभी की माँ है। आप शराब छोड़ सकेंगी ।” मालती मेम अब बिल्कुल सहज हो चुकी थी। कल सुबह 10:00 बजे मेरे घर आ जाना। सच कहूँ तो अमिय कुमार दास से मिलने के बाद उसके जीवन में परिवर्तन हुआ। मालती मेम ने अपने जीवन कथा अमिय दास और उनके दोस्त को सुनाई जिसे उन्होंने लिपिबद्ध किया। जिसके कारण मालती मेम के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी मिलती है वरना गुमनामी के अँधेरे में दबी मालती के बारे में आज किसी को पता नही चला होता। अमिय कुमार दास के संपर्क में आने के बाद मालती ने स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान दिया। मगर ब्रिटिश की कड़ी नजर का आखिरकार उसे सामना करना पड़ा और देश के लिए मुखबरी करने के कारण वह मार दी गई और इस तरह 1921 के आंदोलन में मांगरी असम में प्रथम महिला शहीद मानी जाती है। यह अलग बात है कि ऑफिशियल रूप में उसे शहीद का दर्जा नहीं मिल पाया है।

 मालती मेम उर्फ मांगरी उराव का संक्षिप्त परिचय

सुंदर नयन नक्श की मांगरी के जीवन बहुत दुख दर्द से भरा रहा। अमिय कुमार दास जी द्वारा लिखित लेख में उल्लेखित मांगरी के जीवन गाथा को इस प्रकार हम जान सकते हैं मांगरी उराव का जन्म झारखंड के हजारीबाग के एक गांव के एक गरीब परिवार में हुआ था। गांव चारों से ओर जंगलों से घिरा हुआ था। गरीबी में पली-बढ़ी मांगरी अक्सर अपनी सहेलियों के साथ जंगलों में जाया करती थी। नदी में नहाती जंगलों से लकड़ी बिन कर लाती थी। गांव के लड़के धनुष-काड़ लेकर हिरण का शिकार करते थे कभी-कभी तो लड़के पेड़ के नीचे बैठकर बाँसुरी बजाते थे। उन्हीं में से एक लड़का था सोमरा जो अत्यंत मधुर बाँसुरी बजाया करता था। देखने में भी वह सुंदर था। जब वह तन्मय होकर अकेले बासुरी बजाता था, तब मांगरी उसकी बांसुरी की धुन में खो जाती थी। धीरे-धीरे वह सोमरा के प्रति आकृष्ट होने लगी। मगर सोमरा अनाथ और बहुत गरीब होने के कारण मांगरी के पिता को यह रिश्ता मंजूर नहीं था। हर पिता यह चाहता है कि उसकी बेटी को कोई तकलीफ न पहुँचे। यही सोचकर वे इस रिश्ते के खिलाफ थे। एकदिन जंगल में लकड़ी बीनते समय मांगरी ने खूब महुआ खा लिया जिसके कारण उसे नशा चढ़ गया और पेड़ के नीचे वहीं सो गई। काफी देर बाद जब उसकी नींद खुली तो सामने कोई नहीं था सभी लोग चले गए थे। सोमरा उसे अकेले छोड़कर जा नहीं पाया। वह वहीं बैठा रहा और दोनों को बात करने का अवसर मिला। दोनों ने निर्णय लिया कि वे घर वापस नहीं जायेंगे। वे दोनों वहाँ से बुआ के पास भाग जाते हैं। इस तरह चुपचाप आने पर बुआ को अच्छा नहीं लगता मगर रहने दे देती है। उधर मांगरी के पिता दोनों को ढूंढते हुए जब आते हैं उससे पहले ही दोनों वहाँ से भाग जाते हैं। उस समय दलाल भोले- भाले लोगों को अपनी बातों में फँसाकर असम के चाय बागानों में मजदूरी का काम करने के लिए भेजते थे और अंग्रेज साहबों से कमीशन लेते थे। इन्हीं एक दलाल के हाथों पिता से बचते हुए इसी तरह दोनों असम के चाय बागान में पहुँच जाते हैं। चाय बागान के लाइन में रहकर बहुत कष्ट के साथ दिन गुजरने लगा। कभी-कभी दिनभर का काम पूरा न कर पाने से दिन की मजूरी भी नहीं मिलती थी तो फाके भी काटने पड़ते थे। मगर दोनों साथ थे, यही अच्छी बात थी।

 एकदिन सोमरा एक गंभीर बीमार की चपेट में आकर हॉस्पिटल में भरती हुआ। मांगरी भी अस्वस्थ होकर भरती हुई। लेकिन ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। सोमरा का सेहत दिन ब दिन खराब होने लगा और अपनी प्रिय मांगरी को अकेली छोड़ हमेशा के लिए दूसरे लोक में चला गया। अस्वस्थ मांगरी यह सब दूसरे बेड से देख रही थी पर वह बेबस थी। आँसू के सिवा उसके पास कुछ नहीं बचा था। जिस सोमरा के प्रेम में न जाने कितने सुखद सपने संजोए सुदूर झारखंड से अपने माता-पिता को छोड़कर हमेशा के लिए असम आई थी। वही सोमरा हमेशा के लिए उसका हाथ छोड़कर चला गया था। बेहद दुखी, बेबस मांगरी कुछ दिनों बाद हॉस्पिटल से छुट्टी पाकर बागान के लाइन में आयी। अकेली मांगरी के जीवन में अब शुरु हुआ संघर्ष का दौर। कई युवक उसके आगे पीछे चक्कर लगाते मगर मांगरी बस चुपचाप बागान में काम करती कभी किसी की तरफ नहीं देखती। ऐसे में लाइन में लक्ष्मण काका कभी-कभी उसकी खबर लेने आ जाते थे। एकदिन उन्होंने मांगरी से कहा- “देखो ऐसे अब कब तक अकेली रहेगी? मेरी मानो तो तू शादी कर ले। देखो बंगले के साहब को तुम बहुत पसंद हो। जाओ, उन्हीं के साथ रहो। अच्छा है, ठाठ से मेम बनकर रहना” । पर मांगरी बात को टाल देती। लक्ष्मण काका जब भी आते एकबार जरुर कहते बंगले में रहो मांगरी। आखिर में मांगरी ने साहब के साथ रहने की सोची। इस तरह साहब के साथ मांगरी बंगले में रहने लगी और मांगरी उराव से मालती मेम बन गई। मगर तीन बेटों को जन्म देकर भी मांगरी को बच्चे नहीं मिले, साहब ने समझा-बुझाकर कहा कि बच्चों को अच्छी तालीम हेतु मिशन में भेज रहे हैं। भोली-भाली मांगरी बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए मान जाती है।
 एक दिन साहब जब यह कहकर गए कि “मैं जा रहा हूँ। जब मैं आऊँगा, तो फिर आ जाना। मगर जब आया तो गोरी मेम उसके साथ थी। मांगरी को बुरा लगना स्वाभाविक था। एक के बाद एक तीन अंग्रेज साहब आते-जाते रहे। अंत में सभी साहब चले गए, मांगरी अकेली रह गई। यही उसके आक्रोश का कारण बन गया। वह तेजपुर के लालमाटी में रहने लगी। धीरे-धीरे शराब की आदी बन गई। इस तरह जीवन में अनेक घात-प्रतिघात के बीच उस दिन अमिय कुमार दास और लखीधर दास के संपर्क में आकर उसका जीवन बदल गया। ब्रिटिश के प्रति रोष ने उसे स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने को प्रेरित किया। इसी तरह असहयोग आंदोलन में अंग्रेजों के विरुद्ध मुखबिरी का काम करते समय ब्रिटिश सरकार को पता चलता है और उनके हाथों वह मारी गई । इस तरह स्वतंत्रता आंदोलन में पूर्वोत्तर भारत के असम राज्य की प्रथम शहीद महिला थीं मांगरी उराव उर्फ मालती मेम।

इधर सन 1969 में भारत सरकार द्वारा ‘Who’s Who of Indian Martyrs’ नामक ग्रंथ में स्वतंत्रता आंदोलन में शहीद हुए लोगों का नाम प्रकाशित किया गया। देश के 41 शहीदों के भीतर असम के चार महिला शहीदों का नाम है। मगर दुख के साथ कहना पड़ रहा है उसमें भी मांगरी उराव का नाम नहीं है। सन 1979 में असम सरकार ने ‘ मुक्ति जुझारुर अनुसंधान समितिर प्रतिवेदन’ नामक पुस्तिका में स्वतंत्रता आंदोलन के 29 शहीदो के भीतर 5 महिलाओं का नाम है। मगर मांगरी का नाम वहाँ भी नहीं है।

फरवरी 1994 में ढेकियाजुलि में ‘असम चा व प्राक्तन चा जनजाति युव संस्थार राज्यिक अधिवेशन’ के स्मृतिग्रंथ में प्रकाशित रचना मालती मेम के बारे में लिखकर चाय जनजाति के दृष्टि आकर्षण किया था।
अमिय कुमार दास द्वारा लिखित आलेख के आधार पर लेखक सुशील कुर्मी जी असम के अनेक बागानों में स्वयं घूम-घूम कर मांगरी के परिवार की जानकारी इकठ्ठा करने का प्रयास करते हैं। प्राप्त जानकारी के अनुसार “तेजपुर एण्ड घघरा चा बागिचा” में मांगरी ने सबसे पहले चाय की पत्ती तोड़ी थी और इसी बागान के साहब की मेम बनी थी। अंत काल में देश के लिए सर्वोच्च बलिदान देकर हमेशा के लिए अमर बन गईं।

निष्कर्ष: आज हमारे देश को स्वतंत्र हुए 75 वर्ष हो गए है। मगर बिडम्बना यह है कि आज भी हमारे स्वतंत्र सेनानी गुमनामी के अँधेरे में जी रहे हैं, जिन्होंने आजादी के लिए सहर्ष बलिदान दे दिया। आजादी का अमृत महोत्सव के अवसर आज उन विस्मृत सेनानियों को न केवल याद करने की, बल्कि उनकी खोज कर उन्हें सम्मान देने की भी जरुरत है। 101 साल पहले देश के लिए शहीद होने वाली आदिवासी महिला मांगरी उराव ऊर्फ मालती मेम असम की प्रथम शहीद थी। जिन्हें वह सम्मान अवश्य मिलनी चाहिए । इस महान महिला मांगरी उराव उर्फ मालती मेम को मेरा नमन।

तेजपुर की रहने वाली रीता सिंह सर्जना ‘ उषा ज्योति’ नमकक पत्रिका संपादन करती है उनके लिखे कहानियां का पुस्तक नई सुबह कई जगह से सराहा गया


संदर्भ ग्रंथ-
1.ब्रिटिश साम्राज्यवाद-चा पूंजिवाद जातीय निपीड़न आरु यौन शोषणर विरुद्धे आदिवासी कन्या, महान महिला मांगरी उरावर मुक्ति युद्ध- डॉ. देवब्रत शर्मा।

2. उटि अहा एपाही फूल…मांगरी – अमिय कुमार दास द्वारा लिखित आलेख- 1969(चा मजदूर पत्रिका में प्रकाशित)

3 . भारतर स्वाधीनता संग्राम: अहमर महिला शहीद – 1988 (प्रांतिक पत्रिका में प्रकाशित शोध आलेख)

4. मांगरी उरावर जीवन धारा- सुशील कुर्मी द्वारा लिखित शोध आलेख

oppo_2

शिलांग के ‘खुबलेई’ से प्रॉव्हिडन्स के ‘हैलो’ तक

अक्टूबर १९९९ में, मुझे रामकृष्ण मिशन के मुख्यालय से एक आदेश मिला:

“अमेरिका के पूर्वी तट पर प्रॉव्हिडन्स नाम के छोटे से नगर में रामकृष्ण संघ का एक पुराना आश्रम है- ‘वेदान्त सोसायटी ऑफ प्रॉव्हिडन्स’। वहाँ कई दशकों से कार्यभार सम्हाल रहे पूजनीय स्वामी सर्वगतानन्दजी अब ८८ साल के हैं और पिछले ३-५ वर्षों से अनुरोध कर रहे कि अब उनके स्थान पर अन्य किसी को कार्यभार सौंपा जाए। इसके लिए मुख्यालय ने आपको चुना हैI”

 उन्होंने कई संन्यासियों के नाम सुझाए थे, जिन में मेरा नाम भी था। चूँकि मेरी कभी उनके साथ मुलाकात नहीं हुई थी, यह स्पष्ट था कि किसी से मेरे बारे में सुनकर उन्होंने मेरा नाम उस सुझाव-सूची में रखा था। (यदि मेरे साथ प्रत्यक्ष परिचय होता तो वे ऐसी गलती कभी नहीं करते)। उन दिनो परम पूजनीय स्वामी रंगनाथानन्दजी रामकृष्ण संघ के परमाध्यक्ष थे। चूँकि मैने शायद ही कभी अंग्रेजी में व्याख्यान दिए थे, मेरे मन में वहाँ जाने में कुछ दुविधा थी। उन्होंने मुझे उत्साह देते हुए कहा कि ‘वह बड़ा अच्छा स्थान है और जब Providence (सबका भरण-पोषण करने वाले परमात्मा) तुम्हें बुला रहा है, तो तुम ‘ना’ कैसे कह सकते हो?’

सन २००० के मार्च में मेरी शिलांग से छुट्टी हुई। तभी मेरे शिलांग में चार वर्ष पूर्ण हो गये थे। १९९९ के नवम्बर में मेरा पासपोर्ट भी बन गया था। वीजा पाने का प्रयास जारी था। उसमें बहुत समय लग गया। करीब १५ महीने मैं भारत के कई आश्रमों और तीर्थस्थानों- में भ्रमण करता रहा। सन २००१ के मई महीने में वीजा मिल गया और फिर ठीक ३१ मई को मैं मुम्बई से इंग्लैण्ड, हॉलैंड, जर्मनी, फ्रान्स, स्वित्झर्लण्ड में प्रवास करते हुए अमेरिका पहुँच गया। इसको इत्तेफ़ाक़ कहूँ कि – स्वामी विवेकानन्द भी ३१ मई को मुंबई से अमेरिका के लिए चल दिए थे। वह २१ जून की प्रभात थी। प्रात:काल के  १ बजे (1 am) में बोस्टन के वेदान्त सोसायटी में पहुँच गया। सर्वगतानन्दजी मेरा इन्तजार कर रहे थे। श्रीरामकृष्ण के अंतरंग पार्षद स्वामी अखण्डानंदजी के वे शिष्य थे। १९५४ से वे बोस्टन और प्रॉव्हिडंस के बेदान्त सोसायटी का कार्यभार सम्हाल रहे थे। इस महापुरुष के सम्बन्ध में बहुत कुछ शिक्षाप्रद बातें क्रमशः समझ में आयी; उसकी चर्चा बाद में कभी करूँगा। करीब दो बजे सो गया; कमरा काफी गरम था पर प्रायः पुलिस या फायर ब्रिगेड, ट्रक्स बड़े ज़ोर से कर्णकर्कश ध्वनी करते हुए पास के बड़े रास्ते से गुज़र रहे थे। इस के कारण मैं बिल्कुल सो नहीं पाया। दिन निकलने पर ध्यान -जप आदि के बाद नास्ता करने गया। वहाँ सैंटा बार्बरा कॉन्व्हेन्ट से आयी प्रव्राजिका ब्रह्मप्राणा (इन दिनो वे  वेदान्त सेंटर ऑफ नॉर्दन टेक्सास का कार्यभार सम्हालती हैं) से मेरी भेंट हुई। वे चंद दिनों के लिए बोस्टन में आई थीं और वहाँ स्वामी विवेकानन्द से सम्बंधित स्थान देखना चाहती थीं। उनके साथ मेरी भी यह तीर्थयात्रा हुई। एक भक्त – जोसेफ (संक्षेप में ‘जो’) ड्वायर – जो कुछ घण्टों पहले मुझे एयरपोर्ट से बोस्टन बेदान्त सोसायटी ले आए थे, वे ही अब हमें उन स्थानों पर गाड़ी से ले जाने वाले थे। वे एक बड़े ही अच्छे गायक और संगीतज्ञ थे। क्रमशः उनसे अधिक घनिष्ठ परिचय हुआ। हम दोपहर के २ बजे के बाद वहाँ से मिकले।

***

अमेरिका के सम्बन्ध में कितनी ही बातें कई विषयों पर सुनता आया था। भारत के लोगों में यह धारणा कई दशकों से जड़े जमाकर बैठी है कि इस देश में सर्वत्र विलासिता है, गरीबी का बिल्कुल नामो निशान तक भी नहीं। कुछ दिनों में ही समझ में आया कि विलासिता,  अमीरी होने के बावजूद, यहाँ पर भी अधिकांश लोगों को गरीबी से जूझना पड़ता है। अमरीकी समाज का स्त्री-पुरुषों के परस्पर सम्बन्धों के विषय में भी बिलकुल अलग नज़रिया है। यह भी सुनता आया था, मध्यमवर्गीय सुशिक्षित  हिन्दू समाज के नज़रिये से यह भिन्न होने के बावजूद भी इन में नैतिकता कम हो ऐसी कोइ बात नहीं। और सुना था – यहाँ वेदान्त / हिन्दू  दर्शन और स्वाभी विवेकानन्द के प्रभाव के विषय में। कई लोगों की राय है कि यह प्रभाव बड़ा ही विस्तारित है और गहरा भी। अन्य लोगों का कहना था कि प्रभाव कोई बड़ा नहीं है; सामान्य अमरीकी लोगों ने न वेदान्त का नाम सुना है, न ही श्रीरामकृष्ण- विवेकानन्द का।

जो भी हो, हम लोग इन स्थानों के दर्शन हेतु निकल पड़े। सर्वप्रथम गए विश्वविख्यात हार्वर्ड विश्वविद्यालय। वहाँ विवेकानन्दजी ने जिस हॉल पर व्याख्यान दिया था उसे देखा। ३३ वर्ष बाद उस कमरे में एक साइन बोर्ड लगाया गया, जिसमे विवेकानन्दजी के वहाँ व्याख्यान के बारे में लिखा है। उस दिन हम लौट आये।

दूसरे दिन हमलोग वाल्डन पॉन्ड देखने गये। नयनरम्य वनराजी से घिरा यह अति मनोरम सरोवर है; किन्तु यहाँ हमारे जाने का उद्देश्य अलग था। यह स्थान  हेन्री डेविड थोरो से सम्बन्धित है। थोरो भारतीय औपनिषद दर्शन से बहुत प्रभावित हुए थे। उन्नीस वी  शताब्दी के मध्योत्तर में अमरीका के उत्तर-पूर्व भाग में Transcendentalist Movement नाम से एक दार्शनिक संप्रदाय शुरू हुआ था। Transcendentalist का तात्पर्य है कि सतही तौर पर जो भासमान होता है उसके परे जो नित्य तत्व है उसे पकड़ना। राल्फ वाल्डो इमर्सन, मार्गरेट फुबर, अमोस ब्रॉनसन अल्कोट्, थॉरो इ. कई विख्यात कवि और दार्शनिक इस सम्प्रदाय के अग्रणी थे। विवेकानन्द जी ने जो वेदान्त के बीज बोए उसके लिए जमीन तैयार करने का काम इन ट्रान्सेंडेटालिस्ट लोगों ने किया। कई दशकों पहले थॉरो (हेनरी डेविड थॉरो) का नाम पढ़ा था। इस स्थान में उन्होंने अपने निवास हेतु एक छोटा सा लकड़ी का कमरा बनवाया था। उस कमरे को बाहर से और भीतर से देखकर विशेष आनन्द हुआ।

रविवार के दिन सुबह बोस्टन आश्रम में एक विद्वान भक्त का सुंदर प्रवचन हुआ। पू. सर्वगतानन्दजी के लिए इसे उनके कमरे से ही सुनने की व्यवस्था की गई थी, उन्होंने मुझे भी वहीं से सुनने के लिए कहा। इस रविवार के व्याख्यान कार्यक्रम को यहाँ Sunday Service कहा जाता है। इस के उपरान्त Soup lunch (सूप भोजन) हुआ और फिर हम सब एक गाड़ी में सवार होकर प्रॉव्हिडन्स शहर के लिए निकल पड़े। और करीबन सवा घण्टे में प्रॉव्हिडंस पहुँच गए।

इस रविवार को बोस्टन और प्रॉव्हिडन्स में कितने ही भक्तों के साथ परिचय हुआ। इन में कुछ भारतीय मूल के थे, परन्तु बहुत से अमेरिकन मूल के थे। यहाँ आने के पहले भी मैंने ऐसे भक्तों को श्रीरामकृष्ण, माँ सारदा, स्वामी विवेकानन्द और वेदान्त के प्रति लगाव होने की बहुत कहानियाँ सुनी थी। आज उसका प्रत्यक्ष अनुभव पाकर विशेष आनंद हुआ। इनमें से प्रायः सभी ने श्रीरामकृष्ण माँ सारदा – विवेकानन्द और वेदान्त का अच्छा अध्ययन किया था। इसलिए उनकी भक्ति केवल एक परंपरा- पालन या धर्म का औपचारिक आचरण न होकर मूल आध्यात्मिक जीवन का प्रामाणिक प्रकाश था।

यहाँ के रीतिरिवाज, मिलने-जुलने-खान-पान इत्यादि नियम (Manners etiquettes) सीखना मेरे लिए एक प्राथमिकता थी। सभी भक्त आनन्दपूर्वक मेरी गलतियों को प्रेम और विनम्रता से सुधार देते थे। इन्हीं दिनों स्वामी विवेकानन्द जी से सम्बन्धित स्थानों के दर्शन का अनायास सुअवसर प्राप्त हुआ। इन में सारा बुल का निवासस्थान (जहाँ विवेकानन्दजी कई दिनों तक रहे और स्वामी अभेदानन्द, सारदानन्द जैसे उनके गुरु बन्धुओंका भी यहाँ वास हुआ। बाद में सारा बुल ने परमानन्दजी को बोस्टन में वेदान्त का केंद्र प्रारंभ करने हेतु इस भवन में आमंत्रित किया।), एनीस्क्वाम (Annisquam) – जहाँ विवेकानन्दजी का प्रथम व्याख्यान हुआ और जहाँ से उन्हें शिकागो के धर्मसभा में सहभागी होने के लिए आवश्यक प्रशस्ति पत्र प्राप्त हुआ, सेलेम (Salem), जहाँ स्वामीजी कुछ दिन रुक थे और कुछ व्याख्यान भी दिए – इत्यादि स्थानों का समावेश था। विवेकानन्द- चरित्र में मैंने इन सब स्थानों के सम्बन्ध में पढ़ा था। किन्तु इन स्थानों को मैं अपनी आखों से कभी देख सकूँगा ऐसा स्वप्न में भी कभी नहीं सोचा था। इन के दर्शन-स्पर्शन से शरीर-मन बिलकुल रोमांचित हो गया।

इन्हीं दिनों एक विशेष ग्रंथ पढ़ने को मिला और उसके रचयिताओं से प्रत्यक्ष परिचय भी हुआ। भारत में रहते समय इस ग्रंथ को देखा तो था, किन्तु पढ़ा नहीं था। ग्रंथ का नाम था, ‘The Gift unopened’ (नहीं खुला उपहार) लेखिका का नाम एलेनोर स्टार्क। इनसे और इनके पति से इन दिनों मुलाकात हुई। दोनों उमर में पचहत्तर पार कर गए थे, किन्तु मुखमण्डल पर एक आध्यात्मिक आनंद और शान्ति छायी हुई थी।

इस ग्रंथ में यह दिखाया गया था कि विवेकानन्द ने अमेरिका के लिए जो अति मूल्यवान तोहफा दिया है, उसे अव तक पूर्णरूप से खोला नहीं गया है। इस ग्रंथ से एक उद्धरण देकर इस लेख का समापन कर रहा हूँ। यदि भगवान की इच्छा हो तो यहाँ के कुछ और उद्बोधक संमरण अगली किस्त में लिखुंगा ।

लेखिका एलेनोर स्टार्क, स्वामीजी के अमेरिका में आगमन को ‘अमेरिका की चतुर्थ क्रांती’ कहती हैं ।

“America has passed through three great revolutions: the first was a struggle  for independence as a new nation from the tyranny of unheeding power; the second was a civil war, an internal revolution… the third was an industrial revolution, which freed men & women from heavy labor and opened world- markets, but which did not bring about corresponding advances in the consciousness of man….

“This book proposes to tell of an advent on the American scene of a voice from the East, which in a few short years sowed the seeds of a regeneration of a great people. At the turn of the century an unheralded and quiet revolution took place across the land. A message, a gift was given to the American people in words of such universal wisdom and power that those who heard them at the time found their lives changed and their spirits freed…”  Intro. (xix)

यहाँ पिछले बाइस वर्षों से इस गंभीर सत्य का साक्षात अनुभव कर रहा हूँ।

स्वामी योगात्मानन्द वेदान्त सोसाइटी आफ प्रोविडेन्स के मंत्री एवं अध्यक्ष हैं। ये 1976 में रामकृ ष्ण मिशन में शामिल हुए और 1986 में सं न्यास की दीक्षा ली। 20 वर्ष तक रामकृ ष्ण मिशन नागपुर, में कार्य करने के उपरांत रामकृ ष्ण मिशन शिलांग मेघालय, के अध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहे।

अरुणाचल प्रदेश की ज्ञान-संस्कृति और संकटग्रस्त भाषाएँ

अरुणाचल प्रदेश के एक वयोवृद्ध गाँवबुढ़ा से बातचीत हुई और उनके चिंतित स्वर ने हमें झकझोर दिया था। आदी जनजाति के इस जानकार आदमी ने अरुणाचली ज्ञान का समाजशास्त्र और अरुणाचली समाज का ज्ञानशास्त्र समझने हेतु आग्रह किया और उनके महत्त्व को जानने पर बल दिया था। मैं अपनी आईसीएसएसआर-इम्प्रेस टीम के साथ था। अरुणाचली लोक-साहित्य को स्थानीय एवं राष्ट्रीय मीडिया द्वारा यथोचित महत्त्व न दिए जाने के कारण यहाँ की आदिवासी संस्कृति और जनभाषाओं पर पड़ रहे विपरीत प्रभावों का हम गंभीरतापूर्वक आंकलन कर रहे थे। यह साक्षात्कार इसी परियोजना-कार्य का हिस्सा था और हमारे लिए आँख खोलने वाला था।

इस साल अरुणाचल प्रदेश अपने नामकरण की स्वर्ण-जयंती मना रहा है। आजादी के दो दशक बाद 20 जनवरी, सन् 1972 को अरुणाचल प्रदेश नाम स्वीकृत हुआ। इससे पूर्व यह ‘नार्थ ईस्ट फ्रंट्रियर एजेंसी’ यानी ‘नेफा’ के नाम से जाना जाता था। भारतीय गणराज्य के रूप में अरुणाचल प्रदेश की स्थापना 20 फरवरी, 1987 ई. को हुई। उत्तर-पूर्व के सबसे बड़े राज्य अरुणाचल प्रदेश के अलग-अलग इलाकों में आदिवासी समाज के अलग-अलग समुदाय बसे हुए हैं। उनका रहवास गहरे घाटियों और ऊँचे पहाड़ों के बीच स्थित है। इन जनजातियों की संख्या मुख्य रूप से 26 है जिनकी अपनी ढेरों उप-जनजातियाँ हैं और यह संख्या सौ से भी अधिक हैं। मुख्य जनजातियों में मेयोर, लिसु, अका, बुगुन, वांचो, तांगसा, सिंग्फो, तुत्सा, नोक्ते, मोम्पा, शेरर्दुक्पेन, खाम्ति, मेम्बा, मिजी, न्यीशी, आदी, गालो, तागिन, आपातानी, इदु मिश्मी इत्यादि। यहाँ की नदी-संस्कृति पहाड़ों की जीवनवाहिनी हैं जिसमें सियांग, दिरांग, कामेंग, तिराप, सुबनसिरी, यामने, योमगो, पाचिन, पारे, पापुम, पान्योर, लोहित आदि। इसी तरह याक, ताकिन, मिथुन और धनेश पक्षी के अलावे आर्किड फूल और कीवी फल की प्रचुरता है। होलुङ के पेड़ इस परिक्षेत्र की शोभा है। नाहर एवं अन्य पेड़ खूबसूरत बहुत है। वन-सम्पदा से परिपूर्ण अरुणाचल प्रदेश में ज्ञात तौर 241 प्रकार के वृ़क्ष होने की पुष्टि एक पुस्तक करती है-‘‘ट्रीज ऑफ अरुणाचल प्रदेश: अ फील्ड गाइड’। इसी तरह आदी भाषा में ‘तान्नो इलिङ’ कहे जाने वाले फूल की सुन्दरता मोहक है। गणना में 84, 743 वर्ग किलोमीटर में फैला यह प्रदेश प्राकृतिक रूप से जवां और सांस्कृतिक रूप से धनी है। इस प्रदेश में विभिन्न गुणों और प्रचुर उपलब्धता वाले बाँस उपयोगी बहुत है। बम्बू का प्रयोग घर बनाने, खाने से लेकर अपोङ (लोकल दारू) पीने-पिलाने में बहुत होता है। घरों के ऊपर छज्जे के रूप में ‘तोको पत्ता’ का प्रयोग किया जाता रहा है जो आधुनिक दिनों में कम इस्तेमाल हो रहे हैं।

अरुणाचली घर अपनी बनावट एवं संरचना में बेहद आकर्षक मालूम होते हैं जिसे बनाने का काम सारे बस्ती के लोग सामूहिक रूप से करते हैं। आज भी अरुणाचली गाँवों की पहाड़ी खेती में जंगल साफ कर जलाने से लेकर अमुक भूमि पर खेती करने की प्रक्रिया सबलोग मिलजुल कर करते हैं। यह अपनापा और आत्मीयता आदिम जनजाति की बड़ी खूबी है जिसमें सुख और दुःख, खुशी और उदासी सब के सब साझे में मिले-बँटे हुए हैं। इस प्रदेश की बड़ी खूबी भाषिक बहुलता है। जनजातीय भाषा के उच्चार में प्रकृति की अभ्यर्थना और स्तुति सबसे अधिक हैं। इन भाषाओं के शब्द छोटे किन्तु गहरे अर्थ और भावभूमि वाले होते हैं। इनमें एक लय और लोच देखने को मिलते हैं जो मामूली फेरफार के कारण अर्थ-परिवर्तन का कमाल कर डालते हैं। जनजातीय शब्दों की निर्मिति या कहें व्यक्ति (स्त्री-पुरुष) के नामकरण की रामकहानी अलग है। इन नामों के पीछे का इतिहास परम्परा का अवगाहन करता मालूम देता है। गालो आदिवासी न सिर्फ अपने माता-पिता का नाम जानते हैं, बल्कि अपने 20 पुश्त पहले के पुरखा का नाम भी पता कर लेते हैं जहाँ से उनका खानदान शुरु हुआ है। यह ताज्जुब करने योग्य हो सकता है, किन्तु सचाई यही है कि गालो जनताति में नामकरण की विधि पूर्व-निर्धारित है जिसके माध्यम से नाम रखा जाता है।

अरुणाचली लोक-साहित्य वाचिक परम्परा में अब भी बने हुए हैं। पर्व-त्योहर के अवसर पर इनकी प्रस्तुति पारम्परिक विधि-विधान एवं अनुष्ठान के बीच किया जाता है। इस राज्य को उत्सवप्रिय राज्य कहा जा सकता है जहाँ सालों भर त्योहारों की धूम रहती है। जैसे-सी-दोन्यी, बूरी-बूत, लोसर, तोरग्या, रेह, न्योकुम, मोपिन, सोलुंग, मोह मोल, द्रि, चालो लोकू, आरान, एतोर, खिकसबा इत्यादि। अरुणाचली लोक-साहित्य यहाँ के आदिवासी शब्दों में समोये हुए हैं। इन आदिवासी शब्दों का व्यवहार-जगत में भीतर तक धँसा होना आदिवासीयत की मूल पहचान और जड़ से जुड़ा होना है। अरुणाचली आदिवासी अपने समस्त दुःख-तक़लीफ को शब्दों में रोप देना जानते हैं जिससे निकलने वाले अर्थ गहरी पीड़ा का आकल्पन होती है जिसे बड़ी समझदारी से गाया अथवा स्वरबद्ध किया जाता है। नृत्य का आदिवासी भाषाओं से तालमेल गहरा है। वह युद्ध अथवा उल्लास के लिए भी नृत्य कर अपनी ओजपूर्ण वीरता और प्रसन्नतासूचक उमंग व्यक्त करते हैं। जैसे-तापू नृत्य, बुया नृत्य, रिकमपादा नृत्य, देलोङ नृत्य, पोनुङ नृत्य, पोपिर नृत्य आदि।। ‘सेदी’ और ‘सेलो’ जैसी आदिवासी गाथाएँ हैं जिसमें अनगिन दर्द छुपा हुआ है। अरुणाचली लोक-साहित्य आदिवासी जीवन के दुःख और संत्रास को व्यक्त करने का सघन माध्यम बनते हैं। ‘आंजा’ और ‘पेङे’ शोकगीत यहाँ किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद गाया जाने वाला स्मरणगीत है जिसे नई पीढ़ी भूलने लगी है।

अरुणाचल प्रदेश की जनभाषाओं में विकल्पन सर्वाधिक है, तो लहजे में बदलाव के कारण उच्चारण में अंतर खूब है। एक ही पहाड की अलग-अलग स्थितियों में रहने वाली समान जनजाति की भाषा में भिन्नता मिलना स्वाभाविक है। यद्यपि पहाड़ों के बीच जीवन सहज नहीं है, तथापि पहाड़ को पैदा होते ही जिन्होंने देखा है; उनसे यारी गाँठी है; दु:ख-सुख, आफत-बिपत सबमें उसी के सुमिरन भरोसे अपने को अब तक बचाए रखा है। वे पहाड़ की परिभाषा नहीं बाँचते। फर्जी नामकरण नहीं करते। दरअसल, पहाड़ उनके लिए सजावटी लैम्प-पोस्ट नहीं है। छवि-निर्माण का तिकड़म या औजार नहीं है। पहाड़ उनके लिए आदिवासीयत-संस्कृति के मजबूत पाँव हैं, जिनसे विलग उनका अपना कोई इतिहास नहीं, सामूहिक-बोध, सामाजिक चेतना और सांस्कृतिक स्मृति नहीं है। जंगल उनकी अपनी दुनिया हैं, तो वनचरों से निकटता और लगाव उनके प्रेम का उत्स। भारतीय आदिवासियों के स्वीकार में दृढ़ता या कहें अटल वचनबद्धता है, तो क्रोध में आवेश का स्फुरण मात्र। उनके यहाँ धोखे की सतरंगी कलाबाजियाँ मौजूद नहीं है, लेकिन हाल के वर्षों में उन्हें इरादतन सिखाया गया है। उन्हें उनकी ही मूल पहचान से कट जाने की शिक्षा दी जा रही है। उन्हें अपने जड़ और मूल आस्था से जुड़े रहने का आश्वासन तो दिया जा रहा है, लेकिन अलग-अलग आयातित ‘नेमप्लेट’ के साथ उनके आंतरिक मूल्यों एवं पुरखाई चेतना को नष्ट-विनष्ट भी किया जा रहा है। आधुनिक शिक्षा-प्रणाली ने इन्हें अपनी मातृभाषा से अधिक दूर कर दिया है या फिर प्रत्यक्ष-परोक्ष बाहरी दबाव एवं आक्रमण के कारण वे अपनी विलुप्त होती जा रही भाषाओं को बचा पाने में असमर्थ सिद्ध हो रहे हैं।

अरुणाचल प्रदेश के 25 जिलों में करीब सवा सौ जनजातियाँ हैं जो अपनी भाषा में समृद्ध और सामूहिक चित्तवृत्ति वाली संस्कृति में श्रेष्ठ है। यहाँ गंगा लेक है, जो ताईबिदा की लोककथा आज भी सुनाती है। जयरामपुर, विजयनगर, महादेवपुर, परशुराम कुण्ड, भीष्मकनगर, मालिनीथान, रुक्मिणी मंदिर आदि ऐसे नाम हैं जो उत्तर भारतीय लोक में रचे-बसे द्वापर व त्रेतायुगीन मिथकों की सचाई उजागर कर देते हैं। यह प्रस्थान-बिन्दु भारत की सामासिक-संस्कृति का सच सामने ला कर खड़ा कर देता है। प्राचीनता के ये अवशेष भारतीय सभ्यता के ऐसे स्मारक हैं जिसके समक्ष अखिल भारतीय चेतना मनुष्य मात्र के निमित रची-बुनी गई मालूम पड़ती है। पुरातत्त्व के आधुनिक विशेषज्ञ इस प्रदेश की प्राचीनता को भारत की गौरववर्णी सभ्यता का केन्द्रक मानते हैं। आदिवासियत की बहुआयामी परम्परा और मिथकीय चेतना में अरुणाचल प्रदेश अव्वल है। जीवटता और कर्मठता यहाँ के रहवासियों के गहने हैं। श्रमशीलता उनके जीवन की मुख्य धुरी है। उत्परिवर्तन और उद्वविकास के वे प्राकृतिक यात्री हैं। भाषा में उनके हृदय के फूल खिलते हैं और गंध बिखेरते हैं। कला, शिल्प और नानाविध कौशल भारतीय आदिवासियों का मुख्य श्रृंगार है।

आधुनिक मीडिया तंत्र या कहें संचार विधान में पहाड़ के लिए जगह या तो नहीं है या-है भी तो अल्पमात्र। ऐसे में आदिवासियत को समझने के लिए खुला दिल और सहृदय मन चाहिए। अस्तु, आदिवासी जनसमूह के वाचिक साहित्य को लेकर जिस ढंग की संवेदनशील एवं आत्मिक चेष्टाएँ चाहिए, उसका हर तरफ अभाव है। विशेषतया अरुणाचल या पूर्वोत्तर का आदिवासी लोक-साहित्य मौजूदा विमर्श की केन्द्रीयता एवं पहुँच से बाहर है। अरुणाचली भाषाएँ आज अपनी तमाम खूबियों के बावजूद पहचान के संकट से गुजर रही है। उनके समक्ष अपने को बचाए रखने की चुनौती है। यह घाव नित गहरा होता जा रहा है। मौजूदा मीडिया ने इस घाव को और चोटिल करने का काम किया है। वह बिकाऊ गाय बन चुकी है जिसे दूहते सत्ता-पूँजी के समर्थक हैं। आज की सूचना एवं संचार-संस्कृति में यही गायें भारतीयता के अब तक के हासिल को गोबर करने पर तुली हुई हैं। निःसंदेह वर्तमान मीडिया की सूचना एवं संचार-संस्कृति आलोचना के घेरे में है। यह घेराव पूर्वग्रह या दुराग्रहपूर्ण नहीं है, बल्कि हक़ीकत यही है। वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी मीडिया के वर्ग-चरित्र और वस्तु-स्थिति पर गंभीर टिप्पणी करते हैं कि-“अब मुख्यधारा की मीडिया की स्वतन्त्रता कोरी मिथ है। यह कारपोरेट घरानों व विज्ञापन घरानों का बंधक है। मीडिया सामग्री ‘प्रोडक्ट’ बन चुकी है। यह अब सूचना विचार की वाहक नहीं रही। अतः मीडिया की अन्तर्वस्तु और एकरूपीकृत कार्यशैली सचाई है जो मूल सवालों व मुद्दों का विलोपीकरण या हाशियाकरण करता है तथा सतही सवालों एवं मुद्दों का केन्द्रीकरण करता जाता है।“ परिणास्वरूप मीडिया की मनोगतिकी एवं मनोभाषिकी में अप्रत्याशित फेरफार हुआ है। शब्द अर्थ से आवृत्त न होकर पूँजी के दास हो गए हैं। अब शब्द तक की ‘यूनिक सेलिंग प्राइस’  (यूएसपी) तय की जा रही है। यह देखा जाने लगा है कि ‘शब्द-निवेश’ के कारण माध्यम की प्रभावशीलता में क्या और कितना फ़र्क पड़ रहा है। यह गौरतलब है कि अब छवियों की ही नहीं बल्कि शब्द के अभिविन्यास और उसके सत्ता को लेकर भी राजनीति शुरू हो गई है। ये शब्द अर्थ की वजह से नहीं अपनी बिकाऊपन की प्रकृति के कारण प्रयोग में घट या बढ़ रहे हैं।  लगातार हाशिए पर धकेली जा रही लोक-संस्कृति और उसके ठेठ लोक-साहित्य को लेकर रोना-धोना मचाने की जगह कुछ बातें ठोस एवं उपयुक्त तरीके से जान लेनी आवश्यक है। आधुनिक सूचनाशास्त्री सुभाष धूलिया का मानना है कि-‘‘समाज के नए-नए तबके मीडिया बाज़ार में प्रवेश कर रहे हैं और अपनी क्रय-शक्ति के आधार पर मीडिया उत्पादों के उपभोक्ता बन रहे हैं। सूचना की इस क्रांति के उपरांत दुनिया में जितने भी संवाद आज हो रहे हैं, वे बेमिसाल हैं; लेकिन इस संवाद का आकार जितना बड़ा है इसकी विषयवस्तु उतनी ही सीमित होती जा रही है। लोग अधिकाधिक मनोरंजित होते जा रहे हैं, और अधिकाधिक कम सूचित/जानकार होते जा रहे हैं।’’

अरुणाचली बौद्धिकों में अपनी ज्ञान-व्यवस्था और सांस्कृतिक कला-शिल्प के प्रति चिंता गाढ़ी हुई है। अपनी भाषाई अस्मिता और पुरखाई कोठार को लेकर वे जागरूक तथा अत्यंत संवेदनशील होते दिखाई दे रहे हैं। शहरी आबोहवा में उनका घरेलूपन जिस तरह छिन्न-भिन्न होता जा रहा है या कि उनकी सामूहिकता की संस्कृति जिस तरीके से अलगाववादी होती जा रही है; वे इसका निषेध करते हुए अपनी अस्मिता और पहचान को ‘पुनि पुनि’ खोजने का प्रयास कर रहे हैं। परिणामस्वरूप ‘वोकल फॉर लोकल’ की बात तेजी से हो रही है, लेकिन मीडिया की उपेक्षा और इरादतन नज़रअंदाज़ करने का भाव बेचैन कर देता है। 

पूर्वकथित गाँवबुढ़ा की चिंता आदी भाषा को लेकर थी। वह नई पीढ़ी के अपनी आदिवासी मूल्य-दर्शन और पहचान-अस्मिता से कटते जाने को लेकर व्यथित थे। माक्तेल परटिन नाम है उनका और पासीघाट से 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित दाम्बुक गाँव के पोबलुङ बस्ती में रहते हैं। नई पीढ़ी तकनीकी ज्ञान में अव्वल है। उसे झटपट बहुत कुछ करने आता है जिससे आधुनिक जीवन जीना आसान हो चला है। इसे लेकर वह सकारात्मक रूख दिखाते हैं, लेकिन उनकी मूल चिंता भाषा को लेकर है।

अरुणाचल प्रदेश की अधिसंख्य जनजातियाँ अपनी स्वतंत्र लिपि नहीं होने के कारण बड़ी विडम्बना का शिकार है। खाम्पति और मोम्पा आदिवासी के पास लिपि की अपनी परम्परा है, लेकिन उसके जानकार बहुत कम और बेहद विशिष्ट लोग हैं। सामान्य प्रचलन में अरुणाचली लिपि का सर्वथा अभाव है जिस कारण यह प्रदेश दुनिया की दृष्टि में आज भी पूरी तरह से खुला या कि सूचना एवं संचार संस्कृति की सीधी पहुँच में नहीं है। यद्यपि इस दिशा में बहुतेरे प्रयास हुए हैं, तथापि यह नाकाफ़ी है। जैसे-वांचो लिपि, तानी लिपि, गालो लिपि, आदी लिपि आदि। व्यक्तिगत प्रयास द्वारा स्थानीय लिपि-निर्माण की प्रक्रिया चल रही है, लेकिन किसी एक लिपि को लेकर अभी अरुणाचल प्रदेश का मानस एकजुट अथवा एकमत नहीं है। लिपि को लेकर जन-स्वीकृति का नहीं होना बड़ी समस्या है। बहरहाल, बहुमान्य लिपि न होने के कारण अरुणाचली जनसमाज अपनी मातृभाषाओं के लोक-साहित्य का संरक्षण एवं संग्रह कर पाने की स्थिति में नहीं है। आकाशवाणी पासीघाट के कार्यक्रम प्रमुख इदाङ परटिन ने बताया कि-‘पासीघाट का यह आकाशवाणी केन्द्र सबसे पुराना केन्द्र है। इस केन्द्र के पास रिकॉर्डेड अति-महत्त्वपूर्ण अभिलेख हैं जो यहाँ के जनसमाज एवं जनसंस्कृति के लिए अमूल्य धरोहर है। लोक-साहित्य आधारित कार्यक्रम की व्यवस्था है। आधुनिक तकनीक एवं प्रौद्योगिकी का प्रयोग किया जा रहा है जिसमें डीआरएम (DRM) और यूपीटीआर (UPTR) की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।”

अरुणाचली प्रसारण में रेडियो की भूमिका अन्यतम रही है। इनके पास मौजूद रिकार्डेड अभिलेख संकटग्रस्त होती जा रही जनजातीय भाषाओं के लिए संजीवनी सरीखा है। ईटानगर स्थित दूरदर्शन के ‘अरुण प्रभा’ चैनल की उल्लेखनीय भूमिका यह रही है कि वह स्थानीय भाषाओं में प्रसारण को लगातार बढ़ावा और मातृभाषाओं में अनेकानेक कार्यक्रम ‘टेलिकास्ट’ कर रहे हैं। यह यूनेस्को के उस रिपोर्ट की चिंता को कम करने की दिशा में ठोस एवं सार्थक पहलकदमी हैं जिसके मुताबिक 1961 ई. की जनगणना में 1652 भाषाओं के होने की जो पुष्टि हुई थी, वह 1971 ई. में मात्र 808 की संख्या में बची थीं। पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के 2013 ई. में हुए सर्वेक्षण बताते हैं कि पिछले पचास सालों में भारत की 220 भाषाएँ मृत हो चुकी हैं, जबकि 197 भाषाएँ संकटग्रस्त श्रेणी में शामिल हो चुकी हैं। ऐसी दशा में शिक्षा आधारित भाषाई लगाववृत्ति विकसित किया जाना आवश्यक हो चला है। खासकर अरुणाचल प्रदेश की उन भाषाओं के लिए यह खतरा अधिक भयावह है जिसके बोलने वाले की संख्या दो-चार सौ तक सिमट कर रह गई है। ऐसे में अरुणाचल प्रदेश के ज्ञानवान समाज और उनकी ज्ञान-संस्कृति का बचाने की मुहिम छेड़ना जरूरी हो गया है। यह और बात है, अरुणाचल प्रदेश की पढ़ी-लिखी पीढ़ी के शौक और स्वप्न तेजी से बदल रहे हैं। वह आदिम आकांक्षा की जन-भावनाओं से भिन्न सोच रही है। वह प्रकृतिजीवी नहीं है, अपितु अधिकाधिक विलासी एवं कृत्रिम जीवन चुन रही है। महँगी गाड़ियों की ख़रीद, बड़े-बड़े बँगलों का शौक तथा सांस्कृतिक उत्पाद एवं  उपनिवेश बनते जाना इसका उदाहरण है। ऐसे में अपने समय के अंतर्विरोधों को दर्ज करना है, देशकाल में मौजूद विरोधाभासों से टकराना है तथा अपने समय के द्वंद्वों एवं विडम्बनाओं पर गंभीरता के साथ चिंतन-मनन करना है। जनमाध्यम के लिए ‘मास’ की असल अवधारणा मुख्य भूमिका और औचित्य भी यही है।

  1. Navendu Page; Aparajita Dutta; Bibidishananda Basu, Trees of Arunachal Pradesh (Mysore:Nature Conservation Foundation, 2022)
  2. रामशरण जोशी, “असंतोष और असुरक्षा के साये में”, समयांतर (फरवरी, 2011), 8
  3. समयांतर (फरवरी, 2011) 57
  4. आईसीएसएसआर-इम्प्रेस क्षेत्र-सर्वेक्षण के अन्तर्गत पासीघाट आकाशवाणी के कार्यक्रम निदेशक इदाङ परटिन द्वारा लिए गए रिकार्डेड साक्षात्कार से।

डॉ. राजीव रंजन प्रसाद राजीव गाँधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय, अरुणाचल प्रदेश के हिंदी विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं तथा भारतीय समाज विज्ञान अनुसन्धान परिषद् द्वारा अनुदानित ‘अरुणाचली लोक-साहित्य और मीडिया: अंतःसम्बन्ध एवं अंतःक्रिया’ शीर्षक शोध-परियोजना कार्य पूर्ण कर चुके हैं।

दोहों में गीतों के अक्षय अंकुर : ज्यों कुहरे में धूप

पुस्तक: ज्यों कुहरे में धूप
लेखन: श्री शिव मोहन सिंह
प्रकाशन: विनसर पब्लिशिंग कं देहरादून

“देखन में छोटा लगे, घाव करे गंभीर” वाली सटीक पंक्ति कविवर बिहारी की सतसई के संदर्भ में कही गई थी। सतसई वह दोहा-संग्रह है जिसे विश्व स्तरीय ख्याति मिली है। संत कवि कबीरदास, आचार्य तुलसीदास, नीति निपुण रहीम जी, जायसी जी आदि कवि दोहों की बदौलत अब तक जनमानस में जीवित हैं।  इससे दोहा की महत्ता और जन स्वीकार्यता सिद्ध होती है। दोहा चार चरणों में कुल 48 मात्राओं का व्यवस्थित छंद मात्र नहीं है अपितु कथ्य और प्रभाव की दृष्टि से युगबोध का सबसे लघु प्रतिनिधि दस्तावेज भी है। इसलिए दोहा का कलापक्ष सबसे आसान है तो भावपक्ष का प्रतिमान सबसे ऊपर। अतएव दोहाकार को स्थापित होने के लिए बहुत बड़ी सतत साधना की आवश्यकता होती है। ससम्मान सेवानिवृत्त अभियंता श्री शिव मोहन सिंह जी देहरादून की धवल धरती से सरस गीत, प्रेरक मुक्तक के बाद अब दोहाकार के रूप में “ज्यों  कुहरे में धूप” के साथ उपस्थित हैं।

15 अध्यायों में विभक्त किंतु अखंड 108 पृष्ठीय तकरीबन 600 दोहों से सुसज्जित है ज्यों कुहरे में धूप। यद्यपि दोहे मुक्त होते हैं तथापि कुछ लेखक विविध विषयों या उपविषयों में बाँधकर श्रृंखलाबद्ध सृजन भी करते हैं। इस पुस्तक के लेखक के मन में जब भी विचारों का अर्णव उदित हुआ, मन वांछित विधा में लिपिबद्ध कर लिए। जब पुस्तक प्रकाशन का विचार आया, विषयों-उपविषयों में संग्रहित कर लिए। इस सम्बंध में लेखक ने “अपनी बात” में बताया भी है कि-

“भाव-भाव आते रहे, पथ में जैसे मीत।

शब्द-शब्द बनते रहे, कुछ दोहे कुछ गीत।।”

इस संग्रह में शतकाधिक दोहे ऐसे हैं जिन्हें लोकोत्तियों का नव कलेवर कहा जा सकता है। द्विरुक्ति का अधिकाधिक प्रयोग हुआ है जो दोष होते हुए भी श्रृंगार वर्द्धक है। एक या दो चरण का कई दोहों में ज्यों का त्यों जुड़ जाना खलता है किंतु लेखक की पूर्व स्वीकारोक्ति कि दोहों का सृजन काल व्यापक रहा है, दोष क्षीण हो जाता है। पुस्तक को त्रुटिरहित रखने में लेखक को बहुतायत सफलता मिली है। प्रायः दोहा में प्रथम व द्वितीय चरणों में किसी तथ्य को कहा जाता है और तृतीय व चतुर्थ चरण में उदाहरण द्वारा पुष्टि की जाती है। यही कारण है कि मात्र 48 मात्राओं में एक विषय का पूर्ण निष्पादन हो जाता है। दृष्टांत या उदाहरण के संदर्भ में सर्वाधिक प्रचलित दोहे ही हैं। इस मानक पर कुछ दोहे कुछ कमजोर प्रतीत होते हैं किंतु वे एक स्वतंत्र काव्य बनकर स्थापित हो जाते हैं।

 दोहों के परिधान में गीत सँजोना इस दोहाकार की प्रमुखं विशेषता है। इसका कारण इनके पूर्व रचित गीत हैं जो किसी भी काव्यिक साँचे में स्वयं को ढाल लेते हैं। लेखक महोदय वर्तमान की दशा और भविष्य की दिशा के प्रति भी पूर्णतः सजग हैं। विरासत, परिवर्तन और प्रगति के पक्षधर हैं। कुछ दोहे द्रष्टव्य हैं जो प्रबुद्ध पाठक को कुहरे में धूप की अनुभूति कराकर ही दम लेते हैं।

“आज अधूरे ज्ञान की, सत्ता हुई समर्थ।

बनते पावन शब्द के, नित्य अपावन अर्थ।।

पक्की होती क्यारियाँ, कच्चा घर बुनियाद।

खेती होती सड़क पर, धरना संग फसाद।।

नफ़रत के बाजार में, घुला प्रीति का रंग।

मुदित हुआ मन झूमता, उर में भरी उमंग।।”

समीक्षक

डॉ अवधेश कुमार अवध: वाराणसी (चन्दौली), उत्तर प्रदेश के मूल निवासी डॉ अवध मेघालय में सिविल अभियांत्रिकी मेंं सेवारत हैं। बहुआयामी लेखन के साथ समीक्षा में भी रुचि रखते हैं।  देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएँ नियमित रूप से प्रकाशित होती रहती हैं। इनके द्वारा संपादित “इनसे हैं हम” उल्लेखनीय पुस्तक है।

त्याग और वलिदान की जाग्रत प्रतिमूर्ति – सती जयमती

जम्बुद्वीप भरतखण्ड भारतवर्ष आर्यावर्त देश के प्राचीन शाश्वत् इतिहास के पृष्ठ में महिमामयी तथा वीरांगना नारियों के नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया है। अखंड भारत के भूभाग एवं रत्नगर्भा धरित्री के कोख में जन्मे सौभाग्यवती नारियों का वर्णन कर पाना किसी भी कलमकारों के लिए सहज नहीं है। वह चाहेँ प्राचीन काल की विदुषी नारी के विषय में हो अथवा ऋषि-मुनियों का ही वर्णन हो अथवा मध्यकाल की वीरांगनाओं का वर्णन ही क्यों  न हो। समय-समय पर ऐसी विदुषी द्वारा दिखाए गये साहसिक कदमों ने नारी जाति के कद को अनेक बार ऊँचा उठाया है। उसी क्रम में पूर्वोत्तर भारत के नारियों का योगदान भी इतिहास के पन्नों में पाया  जाता है। वो चाहे आक्रमणकारियों के विरोध में आवाज उठाना हो अथवा देशहित को सर्वोपरि मानकर देशभक्ति सहित राष्ट्रधर्म पालन करने वाला कार्य हो अथवा परतन्त्रता से मुक्ति पाने के लिए किया गया संघर्ष ही क्यों न हो? ऊपर उल्लेख किया गया समग्र महामानवीय गुणों से परिपूर्ण पूर्वोत्तर भारत असम राज्य की वीरांगना जयमती का नाम वीरांगना नारियों के बीच का कभी न भूलने वाला नाम है। ऐसी स्वाभिमानी नारी, जिन्होंने अपने पति और देश के लिए दिया हुआ बलिदान तथा उनके गौरवमय ऐतिहासिक गाथा को प्रत्येक भारतवासियों को हृदयंगम करना और उनके बारे में जानना जरूरी है।

माता चन्द्रदारू और पिता लाइथेपेना बरगोहाञी की पुत्री जयमती कई भाई बहनों के बीच की थी, फिर भी वह माता-पिता तथा परिवार के सभी लोगों से ज्यादा प्यार – दुलार पाकर पली बड़ी थी। लाइथेपेना बरगोहाञी के पूर्वजों के साथ आहोम राजपरिवार का घनिष्ट सम्पर्क था। इसी सूत्र के तहत ही लाइथेपेना का भी आहोम राजा के साथ घनिष्ट सम्पर्क रहा। राज परिवार की छत्रछाया तथा अपने परिवार से अधिक प्यार दुलार पाने वाली सती जयमती छोटी उम्र से ही अधिक दायित्वशील,  दक्ष और अत्यन्त बुद्धिमती थी।

उस समय आहोम राज्य के राजा थे गोबर राजा। गोबर राजा के तृतीय पुत्र थे गदापाणि। गदापाणि बहुत ही शक्तिशाली तथा साहसी थे। प्राय: राजकुमार गदापाणि जंगलों में शिकार करने हेतु जाया करते थे। एक दिन शिकार से लौटते वक्त वे भूख और प्यास से आतुर हो गदापाणि के घर पहुँचे और कुछ खिलाने के लिए आग्रह किया। सुशील तथा अतिथि परायण गुण सम्पन्न जयमती ने बहुत ही स्फूर्ति से भूख और प्यास से आतुर गदापाणि का बहुत अच्छी तरह से अतिथि सत्कार किया। उत्तम आतिथ्य से प्रभावित होकर जयमती को अपनी अर्द्धांगिनी  के रूप में पाने की इच्छा उनके मन में प्रकट होने लगी। लावण्यमयी जयमती भी सुंदर, सुदक्ष तथा शक्तिशाली राजकुमार गदापाणि से प्रभावित हुई। दोनों परिवार की सहमति से जयमती और गदापाणि का आहोम के ‘चकलंग’ विवाह पद्धति अनुसार शुभ विवाह सम्पन्न हो हुआ । ‘त्याग नारी के जीवन का अलंकार है और पति उनका देवता है’ – इस आप्तवाक्य को शिरोधार्य कर जयमती ने अपनी वैवाहिक जीवन में कदम रखा। ससुराल में भी सासू माँ जयमती से असीम स्नेह करती थीं। उन दोनों का युग्म जीवन सुख – समृद्धि से व्यतीत होने लगा। दोनों को वैवाहिक जीवन के साक्षी स्वरुप दो सुंदर पुत्र संतान की प्राप्ति भी हुई।

गोबर राजा के मृत्यु पश्चात् उनका तृतीय पुत्र गदापाणि आहोम के राजा बना। उस समय राजसत्ता को लेकर अधिकारियों के बीच घमासान गृहयुद्ध शुरु हो गया  । गुवाहाटी और निचले असम के आहोम राज प्रतिनिधि लालुकखोला बरगोहाञी ने कूटनीति  एवं षड्यन्त्र कर सात दिन में ही गदापाणि को राजसत्ता से हटाया और चुलिकफा नामक चौदह वर्षीय बालक को खुद के निजी स्वार्थ सिद्धि के लिए सन् 1679 में राज सिंहासन पर बैठाया। छोटी-सी उम्र में राजा बनने के कारण चुलिकफा को ‘लरा रजा’ भी कहा जाता था। चतुर लालुकखोला ने कुशलतापूर्वक उनकी पाँच वर्ष की बेटी को सत्तासीन लरा रजा के साथ विवाह कर फिर शासन की बागडोर अपने हाथों में ले लिया। उसके बाद वह तमाम षडयन्त्र रचने लगा। आहोम राज्य में ऐसा एक प्रचलित नियम था कि अंगक्षत वाला कोई भी युवक राजा बनने का योग्य नहीं होगा। लालुकखोला ने इस नीति का गलत फायदा उठाते हुए राज्य में राजा बनने के योग्य युवकों को अंगक्षत करने का आदेश दे दिया। जयमती के पति गदापाणि लालुकखोला बरफुकन का सबसे बड़ा शत्रु था क्योंकि एक राजा होने के सभी गुण और योग्यता उनमे विद्यमान था। ‘लरा रजा’ और लालुकखोला के इस तरह के अनैतिक क्रिया-कलापों के कारण गदापाणि अपनी अर्धाङ्गिनी जयमती और दोनों बेटों को लेकर किसी गुप्त स्थान में रहने लगे। राजा के सैनिक गदापाणि को ढूँढते हुए उस स्थान पर पहुँच गए। अपने पति को शत्रु-पक्ष से बचाने तथा देश को सुशासक प्रदान करने के लिए जयमती गदापाणि से दूसरे जगह भागने के लिए कहा। पहले तो गदापाणि कहीं भागने के लिए राजी नहीं थे। पत्नी के बार-बार अनुरोध करने पर वह टाल नहीं पाते और दोनों बेटों को नानी के पास सुरक्षित छोड़कर गदापाणि नगापाहाड़ की ओर चल गए ।   लालुकखोला के आदमियों ने जयमत जयमती से गदापाणि का पता बार-बार पूछा लेकिन जया ने अपने पति का ठिकाना नहीं बताया। अत्याचारी लालुकखोला जयमती को बंदी बना कर ले गए और गदापाणि के बारे में पूछते हुए राजदरवार में उन पर अनेक प्रकार के अत्याचार करने लगे लेकिन जयमती अडिग रही और पति के विषय में कुछ भी नहीं बताया। अत्याचार सहन करती रही फिर भी मुँह नहीं खोली। शत्रु पक्ष जब जया से कुछ जान नहीं पाए तब और भी ज्यादा क्रुद्ध होकर जयमती को जेरेंगा पथार नामक एक खुले मैदान में ले ग्ए। काँटों से भरे हुए एक पेड़ पर जया को बाँधकर ” अपने  पति को कहाँ छुपाया है?” यह प्रश्न बार-बार कर उसको शारीरिक और मानसिक अमानवीय अत्याचार करने लगे। –” राज्य शासन कर रहे भ्रष्ट सत्ताधारियों को गदापाणि जीवित रहने से ही सत्ताच्युत करना सम्भव हो पाएगा। यदि  इन लोगों को  गदापाणि का पता चल गया तो निश्चित ही उनको मार डालेंगे। उनकी मृत्यु से अच्छा है, ये लोग मुझे ही मार डालें। खुद के प्राण की आहुति देकर भी इन दुराचारियों के पंजे से भावी योग्य राजा को मैं बचाऊँगी ।” ऐसी बातें सोचते हुए अत्याचार सहन करने लगी। दुराचारियों ने उबलते हुए गरम पानी जयमती के शरीर पर फेंका और लोहे के चाबुक से प्रहार किया उसके  उपरान्त भी परम तेजस्विनी क्रान्तिकारिणी नारी जयमती ने राजधर्म का पालन करते हुए क्रूर शासक के आगे मुँह नहीं खोला। उसी समय वहाँ एक दृश्य परिघटित होता है – गदापाणि नगापाहाड़ में स्थान बदल-बदल कर खुद को छुपाते हुए  जयमती प्रति हो रहे कठोर अत्याचार  का पता चला। वे छद्मवेश में उसी स्थान पर पहुँच जाते हैं, जहाँ जयमती कठोर अत्याचार की शिकार हो रही थी। अपनी प्रियतमा पत्नी को आँखों के सामने किया गया अत्याचार, उत्पीड़न देखकर उनका हृदय पीड़ा से दग्ध हो जाता है। चाबुक से निरन्तर पीटते हुए प्रताड़क कह रहे थे — “ओई तोर गिरियेक कोत आसे क’?” (अर्थात् तेरा पति कहाँ है बता) कहकर पत्नी को पिटते हुए देखकर छद्मवेशी गदापाणि खुद को रोक नहीं पाता  और सामने आकर जयमती को कहता है – “ओइ, तइ तोर गिरियेकर कथा कोइ निदिय किय?” (अर्थात् – तुम अपने पति के बारे में क्यों बता नहीं देती?”) अपने पति की उपस्थिति का आभास जयमती को हो जाता है, वह गदापाणि को पहचान लेती है। तब तुरंत जयमती गदापाणि को यह स्थान छोड़ने के लिए इंगित करते हुए कहती है — “जोर मानुह तालै नाजाय किय? मइ नकउँ, नकउँ, नकउँ।” (जहाँ से आए हो वहीं क्यों नहीं जाते? मैं नही कहूँगी, नहीं कहूँगी, नहीं कहूँगी) वे अपनी पत्नी के दृढ़ संकल्प तथा कठोर निर्णय के आगे नतमस्तक होकर दुखी मन लेकर वहाँ से चले जाने को बाध्य हो गए। यह विछोड़ इन प्रेमी युगलों के जीवन की अंतिम विदाई बनी। अर्थात् यही थी गदापाणि और जयमती का अंतिम मुलाकात।

जेरेंगा पथार में 14 दिन तक निरन्तर अमानवीय अत्याचार सहते हुए अपने पति का ठिकाना “मैं कदापि नहीं कहूँगी” कहते हुए एवं अनेक यातनाएँ सहकर उसी पेड़ पर बँधी हुई जयमती ने सन् 1679 के 27 मार्च के दिन प्राण त्याग दिया । वीरांगना जयमती के महान त्याग के द्वारा लरा रजा तथा लालुकखोला के अन्याय तथा अत्याचार से असमवासी का उद्धार करने में सक्षम हुई । सन् 1681 से लेकर सन् 1696 तक गदापाणि  गदाधर सिंह नाम  से आहोम के राजा हुए। बाद में सन् 1696 – 1724 तक  जया के ज्येष्ठ पुत्र रूद्र सिंह आहोम के राजसिंहासन पर अधिष्ठित हुए। वीरांगना जयमती के पुत्र रूद्र सिंह ने कुछ दिनों के बाद अपनी  माता जयमती का अमानवीय अत्याचार सहन कर मृत्यु वरण किये गये स्थान ( जेरेंगा पथार ) पर ‘जयसागर’ नाम से एक पोखर का निर्माण किया और उसी जयसागर के ही पास ही “जयदौल” भी निर्माण किया। सन् 1714 – 1744 तक जयमती के कनिष्ठ पुत्र शिव सिंह आहोम के राज सिंहासन पर अधिष्ठित हुए। इस प्रकार राजसत्ता परिवर्तन करने में सक्षम अत्यन्त निडर दृढ़ निश्चयी भारतीय क्रांतिकारी नारी जयमती का नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षर में अंकित किया गया है। जयमती के त्याग ने समग्र नारी जाति को गौरवान्वित किया है। वैसे तो इतिहास में बलिदान के अनेको गाथाएँ पढ़ने अथवा सुनने को मिलती हैं। उन सभी का बलिदान  अपने अपने क्षेत्रों में महत्वपूर्ण हैं। आत्मबलिदान की परिसीमा अधिकतम् अथवा न्यूनतम कभी नहीं होती। आखिर बलिदान तो बलिदान ही होता है, यह सदैव महानतम होता है लेकिन जयमती के बलिदान नारी जगत के लिए विशेष महत्वपूर्ण एवं राष्ट्रधर्म के साथ संलग्न तथा राज्य के लिए सुयोग्य प्रशासक पति रूपी सुराजा का चयन और नियुक्ति का मोहर है। चौदह दिन तक का भीषण प्रहार झेलकर भी भावी सुयोग्य राजधर्म पालक राजा के सपने संजोकर मृत्यु को आलिंगन करने के लिए एकबार भी पीछे नहीं हटी। उन्होंने भारतीय सनातनी नारी के पतिधर्म का भी उतना ही पालन किया जितना उन्होंने सुयोग्य राजा को बचाने के लिए किया। ऐसी महिमामयी त्यागी वीरांगना नारी जयमती की महान् त्याग को स्मरण करते हुए प्रतिवर्ष 27 मार्च के दिन पूरे असम में ” जयमती दिवस” मनाया जाता है। महान् वीरांगना नारी जयमती की असीम त्याग,  उनके दिखाए गए आदर्श तथा उनकी स्मृति हमारे बीच सदैव सजीव होकर रहेगा।

साभार  ग्रंथ:

  1. Itihase Soaura Chasahata Bachar (ইতিহাসে সোঁৱৰা ছশটা বছৰ), Sarbananda Rajkumar ,(Guwahati: Banalata,2017)
  2. Tungkhungia Buranji Or A History Of Assam 1681-1826, S K Bhuyiyan, (London:Oxford University press,1933)
  3. Deodhai Asam Buranji: with several shorter chronicles of Assam, S K Bhuyiyan, (Calcutta:Department of Historical and Antiquarian Studies Assam,1932)
  4. जयमती कुँवरी, लक्ष्मीनाथ बेजबरूवा।
  5. जयमती कुँवरी मालिता, कृपानाथ फुकन

कल्पना देवी आत्रेय कल्पना असम के नगांव जिले के हाथीखोया गांव की रहने वाली हैं। वह एक शिक्षिका होने के साथ-साथ एक गृहिणी और लेखिका भी हैं। उनके लेखन में ऐतिहासिक महिला पात्र अधिक नजर आते हैं।

मोच

Voice: Badal

कई दिनों से पाँव में दर्द होने के कारण खाना बनाने वाली बाई केवल सुबह ही आ पाती है l और उसमे भी बीच बीच में नागा कर लेती है अतः रात का खाना हम दोनों माँ -बेटी मिल कर ही बनातीं हैं इसीलिए रात का भोजन एक साथ बैठ कर ही कर लेते हैं l
इन्होंने हम दोनों से पहले खाना खा कर अपनी थाली खिसकाते हुए कहा — ये भी रख देना और तुरंत खड़े हो कर सिंक की ओर मुड़ गए l
बेटी जो विदेश से कुछ महीनों पहले ही कोरोना के चलते मेरे पास यहाँ आई हुई है, तपाक से बोल पड़ी —-पापा अपनी थाली ख़ुद रखा करो, आप के जूठे बर्तन उठाते -उठाते मेरे हाथ में मोच आ गयी !
सुनते ही मुझे हँसी आ गयी !
सच में ही बेटी के हाथ में मोच आ गयी थी या आज कल के बच्चों की उच्शृंखलता झलक रही थी या कि उसने भारतीय मर्दों की सोच पर प्रहार करना चाहा था l

रात को बिस्तर में देर तक नींद नहीं आयी , जाने कितनी ही पिताजी की बातें एक मधुर एहसास लिए हुए , चलचित्र की भांति दिखाई देने लगीं l वो हमेंशा ही अपने जूठे बर्तन उठाते ही नहीं बल्कि माँजा भी करते थे l
इतना ही नहीं वे हमेंशा अपने पहनने के कपड़े धो कर प्रेस भी ख़ुद ही किया करते थे l बटन भी अपने आप ही टाँका था एक बार मेरे आग्रह के बावज़ूद भी l और न जाने कितने ही कार्यों में वो माँ का हाथ बँटाया करते l दही बिलौना तो जैसे उन्हीं की जिम्मेदारी हो l मैं जब दसवीं में थी तो उन्होंने मेरे हिस्से का काम भी सहर्ष किया था ताकि मुझे पढ़ने के लिए अधिक समय मिल सके l मेरे नौकरी पेशा पिता भी पूर्णतः भारतीय ही तो थे l
आज सुबह ही बाई का फ़ोन फिर आ गया उसकी बेटी ने उधर से कहा माँ के तेज बुख़ार है आज नहीं आएगी lमैं कुछ कह पाती उससे पहले ही फ़ोन काट दिया l अच्छा हुआ ऐसे में कहने को मेरे पास था ही क्या ? और मैं रसोई की तरफ जाते हुए सोचने लगी मेरे हाथ की मोच तो यूँ ही बर्तन धोते हुए ठीक हो जाएगी, हमेंशा की तरह l
अवनीत कौर दीपाली, का जालंधर पंजाब में जन्म हुआ। इनकी तुकांत, अतुकांत,लघुकथा, कहानी कई समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई है। अनेकों पत्रिका जैसे गृहशोभा, सरिता, वनिता गृहलक्ष्मी और असम की अनेकों पत्रिकाओं में इनकी कविताएं ज्ञापित हुई है।

डॉ. सुशीला ढाका रसायन विज्ञान श्री कल्याण राजकीय महाविद्यालय सीकर की अध्यापिका होने के साथ-साथ कई पुरस्कारों से सम्मानित एक नामचीन कवित्री हैं। इनकी कई पत्रिकाओं में कविताएं छप चुकी हैं। ईनकी कविताओं का संग्रह बंदी से नामक पुस्तक में पाई जा सकती हैं। नियमित तौर पर आकाशवाणी से इनकी कविताओं का प्रसारण होता है।

इनसे हैं हम

पाठ्य पुस्तक के सारे गुण समाहित हैं ‘इनसे हैं हम’ में

मैं बार -बार सोचता हूं कि अगर जगनिक न होते तो आल्हा-ऊदल जैसे वीरों का नाम समय के साथ समाप्त हो गया होता। राजा परमाल का नाम तो इतिहास की किताबों में मिलता है लेकिन आल्हा- ऊदल का नहीं मिलता। इतिहास सिर्फ शासकों का लिखा जाता है। सेनापतियों का लिखा जाता है। वार जनरलों का लिखा जाता है। सारा खेल तो राजा- रानी के इर्द-गिर्द ही घूमता है न? अब उसमे प्यादों, घोड़ों, ऊटों को भला कौन याद रखे? जबकि उनके बिना किसी भी सम्राट का कोई अस्तित्व नहीं। नींव के ईंट कब तक गुमनाम होते रहेंगे!

आज हम जो भी हैं, ऐसे ही नहीं हैं। उसके पीछे प्रत्यक्ष या परोक्ष उन तमाम लोगों की कुर्बानियां हैं जिन्होंने इस धरती को उर्वर रखने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। ये कुर्बानियां सिर्फ खुद को गर्वित महसूस करने के लिए याद रखनी जरूरी नहीं होतीं बल्कि इन्हें पढ़कर और सुनकर अपना आगे का मार्ग प्रशस्त करने में भी सुविधा होती है। भविष्य की गलतियाँ याद करके अपने पूर्वजों को कोसने से बेहतर है, उनके प्रति अहोभाव रखकर उनकी गलतियों से सीखें जिससे उनका दुहराव होने से बचा जा सके।

यह देश दधीचि का देश है जिन्होंने असुरों को मारने के लिए अपनी अस्थियाँ दान कर दी। यह देश गौतम बुद्ध का देश है जिनके एक इशारे पर अंगुलिमाल जैसा डाकू बौद्ध हो गया। यह देश नेताजी का देश है जिनकी गुमनामी भी शत्रुओं के लिए भयावह बनी रही। यह देश भगत सिंह और आजाद का देश है जिनकी जवानी ने खून की होली खेली तो देश में उबाल आ गया। यह देश रानी लक्ष्मीबाई और दुर्गावती का देश है जिन्होंने तलवार उठाया तो अंग्रेजों की चूलें हिल गईं। ये देश पन्ना धाय का देश है जिसने अपने राज्य के युवराज को बचाने के लिए अपने बेटे को तलवार के नीचे रख दिया।

ऐसे ही अपने इक्यावन पूर्वजों की कहानी से सजे हुए संग्रह का नाम है ‘इनसे हैं हम’ जिसका संपादन डॉ अवधेश कुमार अवध जी ने बेहतरीन ढंग से किया है। जिसका हर पाठ प्रतिभा संपन्न किंतु हिंदी साहित्य के बड़े मठों से दूर रहने वाले साहित्यकारों ने बड़ी ही सहजता और सरलता से लिखा है। जिसे पढ़ना नई पीढ़ी के लिए न केवल ज्ञानार्जन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है बल्कि हर पुस्तकालय में  इस प्रकार की पुस्तकों की उपस्थिति अपरिहार्य भी है।

संपादकीय से लेकर अंतिम पाठ तक हर अध्याय पठनीय है। संपदाकीय के लिए संपादक की अलग से तारीफ भी बनती है, जिसमें उन्होंने पुस्तक की जरूरत और पूर्वजों की भूमिका पर वृहद लिखा है। संग्रह की सहजता इसकी उत्कृष्टता भी है जिसमें इस देश की महान विभूतियों के बारे में संक्षेप में किंतु दुर्लभ जानकारियाँ उपलब्ध करवाई हैं। बिना किसी अतिरिक्त फैंटेसी और काल्पनिकता का सहारा लिए इस प्रकार संग्रह तैयार करना इसे पाठ्य पुस्तकों की श्रेणी में रखने के लिए पर्याप्त है। उम्मीद है कि सक्षम व समर्थ लोग ध्यान देंगे।

आज के इस अंतर्जालीय युग में ज्ञान जितना सुलभ हुआ है उतना ही सत्य और प्रामाणिकता से दूर भी हुआ है। ऐसे समय में किताबों की अहमियत और बढ़ गई है। इंटरनेट माध्यमों पर लोग कुछ भी लिख दे रहे हैं। ऐसे में सही और गलत का फैसला कर पाना बहुत मुश्किल होता जा रहा है। खासकर नई पीढ़ी के लिए यह समय और भी दुविधापूर्ण है। ऐसे समय में ‘इनसे हैं हम’ जैसी किताबों की उपलब्धता उनके लिए एक मार्गदर्शक का काम कर सकती हैं, जिसे पढ़कर वे सही और गलत का फैसला बड़ी आसानी से कर सकते हैं।

एटा जिले के कासगंज तहसील में जन्मे महावीर सिंह का नाम हममें से ही कई लोग होंगे जिन्होंने सुना भी नहीं होगा।  जिन्होंने बाहर तो छोड़िए जेल में रहकर भी अंग्रेजों की नाक में दम करके रखा था। अंडमान जेल की सुविधाओं के विरोध में आमरण अनशन करते हुए जब जेल अधिकारी उन्हे जमीन पर पटककर नाक में नली डालकर जबरन दूध पिलाने की कोशिश कर रहे थे। इसी समय वह नली उनकी आंतों में न जाकर फेफड़ों में दाखिल हो चुकी थी। अधिकारी उनके फेफड़ों में ही दूध उड़ेलकर दूसरे कैदी के पास चले गए और महावीर सिंह ने वहीं तड़पकर अपना दम तोड दिया। (स्वाधीनता संग्राम के महावीर – डॉ राकेश दत्त मिश्र ‘कंचन’)

बप्पा रावल का नाम तो काफी सुना-सुना सा लगता है लेकिन वो कौन थे कब जन्मे थे उनका अपने इतिहास में क्या योगदान है आदि बातें मुझे प्रस्तुत संग्रह में संग्रहित उनकी जीवनी पढ़कर ही पता चली। इस अध्याय के लेखक डॉ पवन कुमार पांडेय जी हैं।

ऐसे ही वीर कुँवर सिंह और उनके भाई अमर सिंह और उनके रिश्तेदार बेनी सिंह का योगदान इतिहास से ओझल है। (डॉ अवधेश कुमार अवध)।

वीरबाला कनकलता बरुआ के बारे में बहुत कम ही लोग जानते होंगे। जबकि उनका योगदान किसी भी नागरिक का सिर माथे पर बिठा लेने के लिए काफी है। वो असम की पहली महिला थीं जो आजादी की लड़ाई में शहीद हुए थीं। अधिक जानकारी के लिए इस संग्रह में संकलित डॉ रुनू बरुआ जी के लेख को पढ़ा जा सकता है। डॉ अनीता पंडा द्वारा लिखित मेघालय के जयंतिया हिल्स से कियांग नांगबाह का शौय एवं सूझबूझ पठनीय है।

युद्धवीर सुकालू, लाचित बरफुकन, सती जयमती, चाफेकर त्रिबंधु, प्रफुल्ल चंद्र चाकी, बलिदानी तिरोत सिंह, मांगी लाल भव्य, मणिराम देवान, रानी नागनिका जैसे कई ऐसे नाम जिनके बारे में पहले कभी नहीं पढ़ा था। पढ़ने सुअवसर उपलब्ध कराने के लिए एक बार फिर से संग्रह के संपादक और उनकी पूरी टीम का बहुत बहुत आभार।

निश्चित रूप से यह संग्रह पठनीय और संग्रहणीय है। एक बार मेरे सर्वकालिक और सर्व प्रिय मित्र ने कहा था कि हमें करोड़ों में बिकने वाली दो-दो टके की अभिनेत्रियों के नाम तो याद हैं लेकिन गणतंत्र परेड में परेड का नेतृत्व करने वाली पहली महिला कमांडर का नाम याद नहीं है। ये इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।

बात भी सही है। लेकिन उनके बारे लिखने या खोजकर पढ़ने का किसी ने शायद जरूरत ही नहीं समझा होगा इसलिए यादों पर धूल जम गई। जरूरी है उस धूल को हटाना ताकि आने वाली पीढ़ी को रास्ता मिल सके। इस हेतु भी इनसे हैं हम एक सार्थक पहल है।

दिवाकर पांडेय “चित्रगुप्त भारतीय सेना में कार्यरत है और खाली समय में लिखने का शौक रखते हैं। इनकी लिखित आलेख, लघु कथा और कविताएं कई पत्रिकाओं में छप चुके हैं

झीनी झीनी बीनी चदरिया : अमरचरित्र ‘मतीन’

वही साहित्य श्रेष्ठ माना जाता है जिसमें सत्यं, हितं, एवं प्रियं का सहज सन्निवेश हो । सत्यं, हितं, एवं प्रियं को ही क्रमशः सत्यं शिवं एवं सुन्दरम् की संज्ञा से अभिहित किया जाता है । सामान्यतः यह माना गया है कि साहित्य के सभी गुण इन तीनों में समाहित है । सत्यं से ही साहित्य में स्वाभाविकता आती है। हितं (शिवं) इस तत्व में लोक-रक्षण की भावना निहित है और जिन विशिष्टताओं के कारण साहित्य अपने पाठकों को आकृष्ट कर अपने में उलझाएँ रखता है उसका प्रियं (सुंदरम्) गुण है । कृति की श्रेष्ठता इन तीन तत्वों के समन्वय में होती है। ऐसी श्रेष्ठ कृतियों में उभरा हुआ चरित्र आदर्श और अमर चरित्र की पंक्ति में समाहित होता है । ऐसे चरित्रों में लोक-रक्षण की भावना सुन्दरं ही नहीं शिवं भी हो, प्रियं ही नहीं हितकर भी होनी चाहिए । जैसे महादेव ने हलाहल प्राशन कर संपूर्ण संसार को अमृत सौन्दर्य दिया जिसके मूल में लोक-सृष्टि का रक्षण कल्याण एवं मंगलकामना ही रही है। समाज में ऐसी मनोवृत्ति वाले चरित्र हिमनग की भांति मानव के अंतस में उभरते हैं ।

‘अमर’ शब्द का संबंध अंशत: अमृत से है। सामान्यतः भारतीय जन-मानस की यह धारणा है कि अमृत सेवन से अमरत्व प्राप्त होता है, जिससे मनुष्य कालजयी बनता है । समुद्र मंथन में निकले अमृत को प्राशन कर राहु-केतु भी देवताओं की पंक्ति में जा बैठे अर्थात् अमर हो गए । साहित्यिक दृष्टि से पौराणिक सन्दर्भ में अमरत्व अलौकिकता को समेटे हुए हैं, तो भौतिक (लौकिक) जगत् के सन्दर्भ में यही अमरत्व उदात्त जगत् के सन्दर्भ में यही अमरत्व उदात्तता की और संकेत करता है। इसप्रकार अमर चरित्र कहने से हमारे सामने सचरित्र, उदात्त एवं कालजयी चरित्र की छवि उभरती है ।

परिवर्तन सृष्टि का शाश्वत नियम है । परिणामस्वरूप साहित्य में भी स्थल-काल सापेक्ष परिवर्तन होता रहता है । वैश्वीकरण के इस युग में अमर चरित्र की संकल्पना में काफी मात्रा में परिवर्तन हुआ है। आज अमर चरित्रों में उन सभी चरित्रों को समाहित किया जाता है, जो आदर्श या उदात्त नहीं प्रत्युत तामसी वृत्ति से चरित्र के संखलन के कारण वितेषणा, दारेषणा और लोकेषणा का शिकार होकर खलनायक के रूप में सामने आते हैं और आदर्श चरित्रों के प्रतिकूल दिखाई देते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि आज खलनायक या खलनायिका को भी अमरता की श्रेणी में रखा जाने लगा है । मात्र प्रसिद्धि ही इस अमरता की पृष्ठभूमी है । ये चरित्र अपने कृत्यों-कुकृत्यों से प्रसिद्ध हो जाते हैं और स्थल-काल सापेक्ष निरंतर उभरते हैं। जैसे ‘राम’ तथा ‘पांडवों’ के सन्दर्भ आते ही क्रमश: ‘रावण’ और ‘दुर्योधन’ का चरित्र भी उभर आता है। क्योंकि ‘रावण’ का ‘रावणत्व’ में तथा ‘दुर्योधन’ का ‘दुर्योधनत्व’ के विरोध में ही क्रमश: ‘राम’ का ‘रामत्व’ और ‘पांडवों’ का ‘पांडवत्व’ है । अर्थात् ‘असत्’ पर ‘सत्’ की, ‘अधर्म’ पर ‘धर्म’ की विजय दिखाई देती है । आजकल हिंदी साहित्य में अमर चरित्रों की एक और श्रेणी दिखाई देती है । इनमें उन चरित्रों का समावेश होता है जो जीजिविषा हेतु संघर्षरत है, जो शोषण के प्रति जाग्रत हैं, जो अन्याय और अत्याचार के विरोध में आवाज उठाने की क्षमता रखतें हैं। इतना ही नहीं वे पीड़ित, शोषितों के प्रति सहानुभूति से पेश आकर शोषणकर्ताओं के प्रति कड़ा रुख अपनाकर संघटित होकर संघर्ष तो करते ही हैं, साथ ही संघटित होने पर बल देते दिखाई देते हैं। इसके पीछे जन-सामान्य के कल्याण एवं मंगलकामना की भावना प्रमुख होती है। ऐसे चरित्र भले ही लौकिक हो किन्तु वे अपने आदर्श कार्य के कारण अलौकिकता को प्राप्त करते दिखाई देते हैं

हिंदी साहित्य पर एक नजर डालने से पता चलता है कि कबीर जैसे महान संत की कार्य- प्रणाली इसका प्रमाण है। कबीर ने अपने जीवनकाल में धर्म-निरपेक्ष और मानवता का समर्थन किया, सांप्रदायिकता से ऊपर उठकर सामजिक अन्याय, अत्याचार, शोषण, अंधविश्वास, कुरीतियों एवं सभी कुप्रथाओं का कड़ा विरोध किया, जिसके फलस्वरूप कबीर, महात्मा कबीर बने । अब्दुल बिस्मिल्लाह का ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास पर कबीर के ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ का अर्थात् ब्रह्मा, जीव और जगत् का दार्शनिक प्रभाव दिखाई देता है। विषय विकारों के मखमली लिहाफ में लिपटे जगत् में कर्तव्य-अकर्तव्य, क्रिया-प्रतिक्रया के चक्र में घूमता हुआ जीव ‘ब्रह्म’ अर्थात् परम तत्व मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है। उसी ब्रह्म की ओर जिसने जीवात्मा को जीवन रूपी ताने-बाने से बीनी हुई चदरिया ओढ़कर इस मायावी जगत् में भेजा है । कबीर के इसी दार्शनिक चिंतन का प्रभाव परोक्ष रूप से उपन्यास पर परिलक्षित होता है । मानव ( मतीन का चरित्र) अर्थात् जीव का जीवन, जीवन की विविध गतिविधियों, उतार-चढाओं के ताने-बाने से बुना हुआ जगत् अर्थात् समाज में निरंतर संघर्षशील रहता है । इसका लक्ष्य केवल ‘ब्रह्म’ अर्थात् अपना लक्ष्य, आदर्श, सच्चाई, शोषण मुक्ति आदि को प्राप्त करना रहा है । स्पष्टत: यह कहा जा सकता है कि उपन्यास के प्रमुख चरित्र ‘मतीन’ पर अप्रत्यक्ष रूप से कबीर दर्शन का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है जो संपूर्ण उपन्यास में मतीन के जीवन दर्शन के रूप में प्रतिबिंबित हुआ है। इस विशिष्ट जीवन दर्शन के द्वारा उपन्यासकार अब्दुल बिस्मिल्लाह ने पथ-प्रदर्शन का कार्य करते हुए मतीन के माध्यम से बुनकरों के विद्रोह और जीवन के मुक्ति संघर्ष के जीवंत दस्तावेज प्रस्तुत कर बदलते भाव-बोध को दर्शाने का सफल प्रयास किया है वर्तमान की युवा पीढी प्रत्येक क्षेत्र में बदलते परिवेश और जीवन-सन्दर्भों के प्रति सजग दिखाई देती है। आज की पीढी को परंपरा की लीक पर चलना स्वीकार नहीं है क्योंकि जीवन की हर समस्या उनके लिए प्रश्नचिन्हं बन जाती है ।

‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास में बुनकरों के मुक्ति संघर्ष का जीवंत दस्तावेज प्रस्तुत है । प्रस्तुत उपन्यास में बुनकरों की अभावग्रस्त और रोग जर्जर दुनिया में हम मतीन, अलीमुन और नन्हें इकबाल के सहारे प्रवेश करते हैं जहां उपस्थित है रऊफ चाचा, नजबुनिया, नसीबन बुआ, रेहाना, कमरून, लतीफ़, बशीर और अल्ताफ जैसे अनेक चरित्र, जो टूटते हुए भी हालात से समझौता करना नहीं चाहते । बावजूद इसके उनसे लड़ना और उन्हें बदलना चाहते हैं और मजबूत है । वे अंतत: अपनी इस चाहत को जनाधिकारों के प्रति जागरुक अगली पीढ़ी के इकबाल को सौंप देते हैं । इस प्रक्रिया में लेखक ने शोषण के उस पुरे तंत्र को भी बड़ी बारीकी से बेनकाब किया है जिसके एक छोर पर है गिरस्ता और कोठीवाल, तो दूसरे छोर पर भ्रष्ट राजनितिक हथखंडे और सरकार की तथाकथित कल्याणकारी योजनाएं हैं। साथ ही बुनकर-बिरादरी के आर्थिक शोषण में सहायक उसी की अस्वस्थ परंपराओं, सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक जड़वाद और साम्प्रदायिक नजरिये को भी अनदेखा नहीं किया है

उपन्यास का नायक मतीन है, जो पेशे से बुनकर है । बुनकर शोषण के शिकार हैं । मतीन बुनकरों पर हो रहे अन्याय, अत्याचार और शोषण के विरूद्ध आवाज उठाता है लेकिन शोषकों द्वारा उसकी आवाज दबाई जाती है । शोषण के विरुद्ध उसके प्रयास असफल हो जाते हैं किन्तु अपनी बिरादरी पर हो रहे अन्याय अत्याचार के खिलाफ अपने समाज को सचेत और जागृत करने में मतीन सफल हो जाता है । मतीन के व्यक्तित्व का एक पहलू यह भी है कि पराजित होने के बाद, उसकी लड़ने की इच्छाशक्ति और अधिक प्रबल हो जाती है ।

मतीन के माता-पिता बचपन में खो जाते हैं; इसलिए वह अत्यंत कम उम्र में ही रोजी-रोटी के लिए काम करना शुरू कर देता है । मतीन एक सामान्य बुनकर के रूप में पाठकों के समक्ष उभरता है । जैसे-जैसे वह अपने काम में कुशल हो जाता है वैसे ही वह अन्य बुनकरों के समान शोषण की दोहरी चक्की में पिसता जाता है। एक ओर गिरस्त तो दूसरी ओर कोठीवालों द्वारा शोषण का शिकार हो जाता है । अर्थाभाव के कारण वह अपनी खुद की कतान नहीं खरीद सकता इसलिए दूसरों की बानी पर ही बीनने के लिए मजबूर होता है । मतीन गिरस्त हाजी साहब से कतान लेता है यहीं से उसका जीवन हाजी साहब जैसे सेठ पर निर्भर रहने लगता है। कड़ी मेहनत करने पर उसे एक हप्ते बाद मात्र नब्बे रुपये मिलते हैं। इसमें भी कई प्रकार की कटौतियां होती हैं जैसे – “गिरस्त जो है साड़ी  में ऐब दिखाता है ।” प्रका. २००३ : पृ. क्र. १७) पत्नी अल्मुनिया क्षयरोग (टीबी) से ग्रसित है । पत्नी के इलाज के लिए हो रहे खर्च के कारण खाने के लाले पड़े है । इसलिए दुबारा हाजीसाहब जैसे सेठ से ऋण लेना पड़ता है । मतीन जीवनभर कर्ज में डूबा रहता है । उसका जीवन केवल ऋण चुकाने में ही व्यतीत होता है । ऐसी परस्थिति में भी मतीन अपने बेटे को पढ़ा-लिखाकर बड़ा बाबू बनाना चाहता है क्योंकि उसे ऐसा लगता है कि बेटा अगर पढ़-लिखकर बड़ा बाबू बनेगा तो अपना जीवन ऋणमुक्त होकर समाज की उन्नत्ति और कल्याण के काम आयेगा ।

बुनकर मतीन कड़ी मेहनत से साड़ियाँ बुनकर तैयार करता है लेकिन बदले में क्या मिलता है- “सिर्फ एक लुंगी, भैंस का गोष्त और नंग धडंग जाहिल बच्चे ।” (अब्दुल बिस्मिल्लाह : ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ प्रका. २००३ पृ. क्र. ५४) लगभग सभी बुनकरों की यही स्थिति है इसप्रकार बुनकरों पर हो रहे अन्याय, अत्याचार और शोषण के निवारण हेतु तथा मुक्ति के लिए संघटन (सोसायटी) बनाकर शोषकों का मात्र विरोध करना ही नहीं चाहता बल्कि संघटन के माध्यम से सरकार से अपील कर आर्थिक सहायता हेतु गुहार लगाना चाहता है । मतीन को लागता है कि संघटन के माध्यम से सरकार से गुहार करने पर आर्थिक सहायता मिलेगी तो कतान खरीदकर संघटन के नाम पर साड़ियाँ बुनने का कारखाना आरंभ किया जा सकता है जिससे बुनकरों की आर्थिक स्थिति में सुधार आ सकता है। यह सपना लेकर संघटन आरंभ करने हेतु तीस सदस्य और सदस्य शुल्क जुटाता है । सदस्य शुल्क जुटाने के बाद बैंक पहुँचने पर पता चलता है कि इन लोगों के नाम पर पहले ही फर्जी संघटन गठित हो चुका है। इस सन्दर्भ में बैंक मेनेजर मतीन को सलाह देते हुए कहता है कि  “जनाब अब्दुल मतीन अंसारी साहब, जाइए और चुपचाप अपनी साड़ी बिनिये। फ्राड करना बहुत बड़ा जुर्म है ।” (अब्दुल बिस्मिल्लाह : ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ प्रका. २००३ : पृ. क्र. १०३) फर्जी संघटन बनानेवाले हाजी अमीरल्लाह के खिलाफ लड़ने में मतीन अपने आप को असमर्थ पाता है क्योंकि इन गिरस्तों की बहुत लम्बी पहुँच है ।

इसप्रकार मतीन इस लड़ाई में पराजित होता है । उसका सपना टूट जाता है बावजूद इसके वह बनारस की जिन्दगी से समझौता नहीं करना चाहता और कुछ बेहतर बनने के लिए तथा अच्छी परिस्थिति में काम करने के लिए बनारस छोड़कर मऊ चला जाता है। मऊ आने पर मतीन को पता चलता है कि यहाँ की परिस्थिति और बनारस की परिस्थिति में कोई अंतर नहीं है । अर्थात अन्याय, अत्याचार और शोषण में कोई फर्क नहीं है । इस सन्दर्भ में मतीन का कहना है कि “मऊ और – बनारस में फर्क ही क्या है ? गरीब तो हर जगह एक जैसे है ।” (अब्दुल बिस्मिल्लाह : ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ प्रका. २००३ पृ. क्र. १४४) अतः यह कहना अनुचित नहीं होगा कि बनारस हो या मऊ या फिर देश का कोई और शहर गरीबों पर अन्याय, अत्याचार होता ही रहता है । भारत में मजदूरों का शोषण होना आम बात है, फिर चाहे वह मजदूर कल-कारखानों का हो या फिर खेत में काम करनेवाला हो । इतिहास साक्षी है कि अपने देश में शोषित, पीड़ित, अत्याचारित समाज कितना भी संघर्ष करें देश की सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था इतनी मजबूत है कि वह विजयी नहीं हो सकता ।

‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास का केन्द्रीय पात्र मतीन शोषकों का विरोध करने में अपने आपको असमर्थ पाता है । परिणामतः मतीन मुक्ति संघर्ष की लड़ाई में पराजित होता है । किन्तु फिर भी मतीन के व्यक्तित अपने आपको असमर्थ पाता है । परिणामतः मतीन मुक्ति संघर्ष की लड़ाई में पराजित होता है। किन्तु फिर भी मतीन के व्यक्तित्व की यह ख़ास विशेषता रही है कि कई बार संघर्ष की लड़ाई हारने पर भी मतीन निराशा की गर्त में जीवन जीना नहीं चाहता बल्कि वह बार-बार संघर्ष कर जीत हासील करना चाहता है । कई बार टूटने पर भी मतीन में विद्यमान व्यवस्था के खिलाफ लड़ने की इच्छा -शक्ति जाग्रत होती रहती है ।

‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास बनारस के साड़ी  बुनकरों के कठिन संघर्ष का बयान है । प्रस्तुत उपन्यास केवल बुनकरों के मुक्ति संघर्ष की कथा नहीं है बल्कि देश के समस्त शोषित वर्ग के मुक्ति संघर्ष की यशोगाथा है। उस फिनिक्स पक्षी के सामान शोषित वर्ग नया जीवन जीना चाहता है किन्तु भारतीय व्यवस्था उन्हें उड़ने (जीने नहीं देती यह भारतीय समाज की त्रासदी है। ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास में चित्रित मतीन का संघर्ष बुनकरों के जीवन का अर्थ भी है और सौन्दर्य भी।

सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि, प्रस्तुत उपन्यास का प्रमुख पात्र मतीन अपने त्रासदी भरे जीवन में आदर्श समेटे हुए है जो उसे कालजयी बनाने में सहायता प्रदान करता है । शोषण चक्र में निरंतर पिसते हुए भी मतीन का जीवन के प्रति दृष्टिकोण अत्यधिक सकारात्मक रहा है बावजूद इसके वह आगामी पीढ़ी की चिंता करते नजर आता है। मतीन ने अपने जीवन में कभी सांप्रदायिकता को महत्त्व नहीं दिया । मतीन सांप्रदायिकता के संकुचित दायरे से बाहर आकर एकजुट होकर अराजक सामंती व्यवस्था के प्रति केवल आक्रोश व्यक्त नहीं करता बल्कि शोषण चक्र में पिसते हुए असाहाय्य गरीब मजदूरों, बुनकरों का जीवन संवारने का काम करता हैं, वह एक प्रतिमान के रूप में खड़ा होता है । अतः यह कहना अनुचित नहीं होगा कि मतीन गरीब मजदूरों, बुनकरों को अपने हक के लिए लड़ने की ताकत ही नहीं देता बल्कि उन्हें प्रेरित भी करता है । अपने अधिकार के प्रति उन्हें सचेत ही नहीं करता बल्कि दीपस्तंभ के रूप में खड़ा होता है । अतः मतीन समकालीन पीढ़ी के लिए आदर्श तो है ही साथ ही आनेवाली पीढी के लिए भी आदर्श एवं प्रेरणास्रोत बना रहेगा । अत: यह कहना अनुचित नहीं होगा कि मतीन का जीवन-दर्शन युवा चेतना के लिए पथ-प्रदर्शक का पर्याय है

डॉ. मधुकर देशमुख अध्यक्ष, हिंदी विभाग इंद्रायणी महाविद्यालय के अध्यक्ष हैं। इन्होंने सात खंडों में प्रकाशित कवि महेंद्र भटनागर की कविताओं का संपादन किया है। अनेकों लेख हो सहित इनकी 3 पुस्तकें प्रकाशित हैं।