पुस्तक समीक्षा

पुस्तक -उपनिषदों का संदेश

पुस्तक -उपनिषदों का संदेश
लेखक -स्वामी रंगनाथानन्द
चतुर्थ पुनर्मुद्रण 29- 9 -2017
प्रकाशक- स्वामी ब्रह्मास्थानन्द
धन्तोली( नागपुर )

मूल्य ₹200

 ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय  पूर्णमेवाव शिष्यते !!

ओम शांति: शांति:

 पूर्ण से ही सब कुछ निकला हुआ पूर्ण है। पूर्ण से ही पूर्ण लेकर भी शेष हमेशा पूर्ण ही रह जाता है। विश्व की परिसीमा में सभ्यता और संस्कृति ने अपनी अस्मिता को कई बार लेखन से, तो कई बार पठन और पाठन से सुरक्षित रखा। भारत देश की सहभागिता को जैसे देवत्व का वरदान है। यह अनोखा देश है, जिसे समय-समय पर आक्रमणकारियों और चुनौतियों का सामना करना पड़ा। इसके बाद भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी में ज्ञान संचित रहा।

लेखन प्रथा कब शुरू हुई?इसका पक्का प्रमाण नहीं है। पहले भोजपत्र फिर ताड़ पत्र आगे चलकर मनुष्य के क्रमिक विकास के साथ ,वाचन शैली का रिकॉर्ड होना ,लेखन शैली का प्रिंट मीडिया तक पहुँचना – यह एक प्रकार की क्रमिक व्यवस्था है।मानसिक विकास ने कितनी तरक्की की भला इसका मापक यंत्र कौन बना पाया? देवभूमि भारतवर्ष का मानचित्र भी बदलता गया, कितनी सभ्यताओं, भाषा ,जाति, धर्म की गवाह रही। यह मिट्टी किस-किस तरह के दुख-दर्द का साक्षी बनी। भारतीय धर्म ग्रंथों की महिमा अतुलनीय है। जिसमें  महायोगी शिव अनंत कोटि ब्रह्मांड के स्वामी, महापालक विष्णु की कितनी ही कथाएँ वेद, उपनिषद् , कल्प-कल्प, छंद, निरुक्त ,ज्योतिष के ऊपर उनके भेद – प्रभेद चौंसठ कलाओं, आयुर्वेद, अर्थशास्त्र और लोककार्य अर्थात् जीवन के अनेक संस्कार जन्म से मृत्यु तक वर्णित है।

 इनके अनुसार पाँचों तत्व, ज्ञानेंद्रिय, कर्मेंद्रिय, आत्मा  स्थिर होकर स्वयं में ही संचरण करती है। उपनिषद् अर्थात् गुरु के समीप रहकर ज्ञान प्राप्त करना है। प्रस्तुत ग्रंथ में ईशोपनिषद, कठोपनिषद,केनोपनिषद का सार तत्व आदरणीय स्वामी रंगनाथानन्द जी ने हम साधारण जनों की सुविधा हेतु उपलब्ध कराया है। उपनिषद कहते हैं ‘हे मानव!! तेजस्वी बनो!! दुर्बलता को त्यागो, (विवेकानंद साहित्य पंचम भाग पृष्ठ 132)’

रामकृष्ण मठ एवं रामकृष्ण मिशन के त्रयोदश अध्यक्ष श्रीमद् स्वामी रंगनाथानन्द जी महाराज यह पुस्तक आधुनिक आवश्यकता और आधुनिक चिंतन की दृष्टि से उपनिषदोक्त आत्मतत्व की व्याख्या की है। स्वामी जी ने पुस्तक अंग्रेजी में लिखा ‘द मैसेज ऑफ़ द उपनिषद’।

इस पुस्तक में ईशोपनिषद और केनोपनिषद का हिंदी अनुवाद डॉक्टर जगदीश प्रसाद शर्मा ने किया और कठोपनिषद का हिंदी अनुवाद आदरणीय श्री ओम बियाणी जी ने किया इसके लिए धन्यवाद ।

‘दूरबोध (टेलीपैथी) का हो सकना कुछ वैज्ञानिक अस्वीकार करते हैं। कहने वालों का तर्क है कि किसी प्रकार की ऊर्जा विनिमय के बिना सूचना एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक नहीं जा सकती। जैसे हम यदि किसी से कुछ कहें तो शब्द तरंगों और स्नायविक उत्पत्ति के बिना उत्पत्ति के लिए ऊर्जा का प्रयोग करना आवश्यक है। दूरबोध में ऊर्जा-विनिमय के लिए कोई स्थान नहीं है इसलिए दूर-बोध की सत्ता ही नहीं है( पृष्ठ 323) विज्ञान, रास्ते में रुककर संतुष्ट नहीं होता उसका स्वभाव है वह दोनों ही प्रकार के अनुभव वस्तुनिष्ठ और आत्मनिष्ठ को तब तक खोजता है जब तक वह अपने अनुभव का भेद न समझ ले । प्रसिद्ध भौतिक शास्त्री अरविन श्रोडिंगर कहते हैं, (व्हाट इस लाइफ पृष्ठ 91)’

“चेतना का अनुभव कभी अनेक में नहीं होता है केवल एक में होता है चेतना एक वचन है जिसका बहुवचन अज्ञात है। वह केवल एक ही वस्तु के भिन्न पहलुओं का अनुक्रमण मात्र है, जो वंचना से उत्पन्न होता है। वेदांत की कुछ गूढ़ उक्तियाँ इस साक्षात्कार के चरम बिंदु का प्रकटीकरण हैं।”

सर्वं खलु इदं ब्रह्म (पृष्ठ 331) यह सब विश्व ब्रह्म सर्वसाधारण के लिए ही तो मंत्रों ने स्वयं अपना रूप पिघला लिया है। स्वामीजी ने आसान से आसान शब्दों में प्रस्तुत भी किया है । शब्द, मनिषियों के टोकन मात्र है वह उनके द्वारा हिसाब चुका लेते हैं। संकेत चिन्ह हैं किंतु मूर्खों के लिए वहाँ रुपया है (पृष्ठ 202) केनोपनिषद में कहा गया है(2.4) ‘आत्मना विन्दते वीर्य विद्यया विन्दतेऽमृतम——

मनुष्य आत्मा द्वारा महान वीर्य प्राप्त करता है और साक्षात्कार द्वारा अमृततत्व’ (पृष्ठ 202)। वर्तमान में मनुष्य के समक्ष उपलब्धता बढ़ गई है। वह देख नहीं पा रहा है। तीर्थ यात्रा पर जाना है, तो सबसे पहले हेलीकॉप्टर की सुविधा, वाई-फाई नेटवर्क और ठहरने की व्यवस्था में ही रुचि दिखाती है। ईश्वरमय होना और ईश्वरमय दिखना बहुत ही ज्यादा अंतर है। गणित विषय में ग्राफ का पेपर सभी लोगों के समझ में नहीं आता है, कुछ लोग ही हैं, जो गणित में भी उपदेश और उपदेश में जीवन का गणित समझ पाते हैं। मार्ग हजारों हैं, कहाँ पहुँचना है? पता भी है तो सोचना क्या है?

 बुद्धदेव मगध (वर्तमान बिहार) की राजधानी में शिष्यों सहित ठहरे थे। उनका शिष्य थेरा (वरिष्ठ) अस्साजी प्रातः कालीन भिक्षाटन के लिए निकला था। दूसरी एक साधक की टोली है जिसका नायक परम नास्तिक गुरु संजय और सारि पुत्र मुग्गल्लान नामक प्रमुख सदस्य थे। दोनों का व्यक्तित्व अनोखा था और उनके अपने-अपने तर्क भी अनोखे और अकाट्य थे। दोनों ने निश्चित किया था कि जिसे पहले ज्ञान की प्राप्ति का एहसास हो वह दूसरे को बतायेगा।

उपनिषदों में कठोपनिषद में प्रस्तुत की गई मृत्यु के देवता यम और ऋषि पुत्र नचिकेता के संवाद के बारे में विभिन्न धारणाएँ भी हैं और वह लोगों को बहुत रुचिकर लगती है क्योंकि वह जीवन के कई आयामों से जुड़ा हुआ है। पुत्र अपने पिता से सवाल करता है और पिता यज्ञ-कार्य में व्यस्त है, इसलिए वह बोल देते हैं कि मैं तुम्हें यम को दूँगा। इतना बोलने भर से उनकी आज्ञा को स्वीकार करके नचिकेता बालक का यमराज की खोज में निकल पड़ना, यमराज के साथ मिलना और वहाँ आशीर्वाद के स्वरूप में वरदान प्राप्त करना, ये घटनाएँ घटती हैं। यमराज ने नचिकेता को तीन वरदान दिए साथ ही अपनी तरफ से भी उन्होंने सुंदर रंगों वाली एक माला भी उपहार स्वरूप प्रदान किया और अग्नि विद्या सिखाई, जो नचिकेत अग्नि के नाम से आज भी जानी जाती है। पर जैसे ही नचिकेता आत्मज्ञान की याचना की,  यमराज हिचकीचाने लगे। जीवन के गूढ़ रहस्य को जानने के लिए ग्रंथ का स्वयं अध्ययन कर आस्वादन लेना बहुत जरूरी है।

‘न जातु काम: कामानाम् उपभोगेन् शाम्यति।

हविषा कृष्णवत्मैव भूय एवाभिवर्धते।।

‘भोग द्वारा काम कभी शांत नहीं होते वह उसके द्वारा केवल अधिक प्रज्वलित होते हैं जैसे घृत में अग्नि’( पृष्ठ है 275)

‘श्रेय और प्रेय मुख्य रूप से ज्ञान के दो मार्ग बताए गए हैं’। (पृष्ठ 283)

पृष्ठ -पृष्ठ हम यात्रा करते जाते हैं और अनेक वेद के उद्धरण के साथ विदेशी विद्वानों की पुस्तकों के रहस्य हमारे उपनिषदों की टीकाओं के माध्यम से प्रस्तुत किये गये हैं। ओंकार जो समस्त सत्य का प्रतीक है, सूचक है।

‘सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति

तपांसि सर्वाणी च यद्वदन्ति

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति

त़त्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्

‘सारे वेद जिस लक्ष्य का वर्णन करते हैं, समस्त तपों को जिसकी प्राप्ति के साधन कहते हैं , जिसकी इच्छा से मुमुक्षु जन ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उस पद को मैं तुमसे संक्षेप में कहता हूँ। ऊँ यही वह पद है’( पृष्ठ 360)

शंकराचार्य कहते हैं ऊँ ध्वनि में भी अर्थ निहित है। इसमें इतनी योग्यता है कि गहरे उतरते जाओ, प्रकाशित होकर प्रकाश में समा जाओगे। कई जन्मों का पूर्ण फलता है तो ही अंगुष्ठ मात्र पुरुषोऽन्तरात्मा(पृष्ठ 518) के प्रति कहीं कुछ समर्पण भाव जागृत होता है। स्वामी रंगनाथानन्द जी की ज्ञान शक्ति, अपनी संस्कृति के प्रति भक्ति, समर्पण अतुलनीय है। उन्हें हृदय से प्रणाम।

तूलिका श्री संप्रति- ऑक्जिलियम कन्वट हाई स्कूल, बड़ौदा में हिदी संकृत की अध्यापिका के रूप में कार्यरत हैं। इन्हे अखिल भारतीय साहित्यकार अभिनंदन समिति मथुरा द्वारा राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय कवि सम्मान प्राप्त हैं और बड़ौदा से प्रकाशित हिदी  त्रैमासिक पत्रिका नारी अस्मिता में समीक्षक हैं।

इनसे हैं हम

पाठ्य पुस्तक के सारे गुण समाहित हैं ‘इनसे हैं हम’ में

मैं बार -बार सोचता हूं कि अगर जगनिक न होते तो आल्हा-ऊदल जैसे वीरों का नाम समय के साथ समाप्त हो गया होता। राजा परमाल का नाम तो इतिहास की किताबों में मिलता है लेकिन आल्हा- ऊदल का नहीं मिलता। इतिहास सिर्फ शासकों का लिखा जाता है। सेनापतियों का लिखा जाता है। वार जनरलों का लिखा जाता है। सारा खेल तो राजा- रानी के इर्द-गिर्द ही घूमता है न? अब उसमे प्यादों, घोड़ों, ऊटों को भला कौन याद रखे? जबकि उनके बिना किसी भी सम्राट का कोई अस्तित्व नहीं। नींव के ईंट कब तक गुमनाम होते रहेंगे!

आज हम जो भी हैं, ऐसे ही नहीं हैं। उसके पीछे प्रत्यक्ष या परोक्ष उन तमाम लोगों की कुर्बानियां हैं जिन्होंने इस धरती को उर्वर रखने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। ये कुर्बानियां सिर्फ खुद को गर्वित महसूस करने के लिए याद रखनी जरूरी नहीं होतीं बल्कि इन्हें पढ़कर और सुनकर अपना आगे का मार्ग प्रशस्त करने में भी सुविधा होती है। भविष्य की गलतियाँ याद करके अपने पूर्वजों को कोसने से बेहतर है, उनके प्रति अहोभाव रखकर उनकी गलतियों से सीखें जिससे उनका दुहराव होने से बचा जा सके।

यह देश दधीचि का देश है जिन्होंने असुरों को मारने के लिए अपनी अस्थियाँ दान कर दी। यह देश गौतम बुद्ध का देश है जिनके एक इशारे पर अंगुलिमाल जैसा डाकू बौद्ध हो गया। यह देश नेताजी का देश है जिनकी गुमनामी भी शत्रुओं के लिए भयावह बनी रही। यह देश भगत सिंह और आजाद का देश है जिनकी जवानी ने खून की होली खेली तो देश में उबाल आ गया। यह देश रानी लक्ष्मीबाई और दुर्गावती का देश है जिन्होंने तलवार उठाया तो अंग्रेजों की चूलें हिल गईं। ये देश पन्ना धाय का देश है जिसने अपने राज्य के युवराज को बचाने के लिए अपने बेटे को तलवार के नीचे रख दिया।

ऐसे ही अपने इक्यावन पूर्वजों की कहानी से सजे हुए संग्रह का नाम है ‘इनसे हैं हम’ जिसका संपादन डॉ अवधेश कुमार अवध जी ने बेहतरीन ढंग से किया है। जिसका हर पाठ प्रतिभा संपन्न किंतु हिंदी साहित्य के बड़े मठों से दूर रहने वाले साहित्यकारों ने बड़ी ही सहजता और सरलता से लिखा है। जिसे पढ़ना नई पीढ़ी के लिए न केवल ज्ञानार्जन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है बल्कि हर पुस्तकालय में  इस प्रकार की पुस्तकों की उपस्थिति अपरिहार्य भी है।

संपादकीय से लेकर अंतिम पाठ तक हर अध्याय पठनीय है। संपदाकीय के लिए संपादक की अलग से तारीफ भी बनती है, जिसमें उन्होंने पुस्तक की जरूरत और पूर्वजों की भूमिका पर वृहद लिखा है। संग्रह की सहजता इसकी उत्कृष्टता भी है जिसमें इस देश की महान विभूतियों के बारे में संक्षेप में किंतु दुर्लभ जानकारियाँ उपलब्ध करवाई हैं। बिना किसी अतिरिक्त फैंटेसी और काल्पनिकता का सहारा लिए इस प्रकार संग्रह तैयार करना इसे पाठ्य पुस्तकों की श्रेणी में रखने के लिए पर्याप्त है। उम्मीद है कि सक्षम व समर्थ लोग ध्यान देंगे।

आज के इस अंतर्जालीय युग में ज्ञान जितना सुलभ हुआ है उतना ही सत्य और प्रामाणिकता से दूर भी हुआ है। ऐसे समय में किताबों की अहमियत और बढ़ गई है। इंटरनेट माध्यमों पर लोग कुछ भी लिख दे रहे हैं। ऐसे में सही और गलत का फैसला कर पाना बहुत मुश्किल होता जा रहा है। खासकर नई पीढ़ी के लिए यह समय और भी दुविधापूर्ण है। ऐसे समय में ‘इनसे हैं हम’ जैसी किताबों की उपलब्धता उनके लिए एक मार्गदर्शक का काम कर सकती हैं, जिसे पढ़कर वे सही और गलत का फैसला बड़ी आसानी से कर सकते हैं।

एटा जिले के कासगंज तहसील में जन्मे महावीर सिंह का नाम हममें से ही कई लोग होंगे जिन्होंने सुना भी नहीं होगा।  जिन्होंने बाहर तो छोड़िए जेल में रहकर भी अंग्रेजों की नाक में दम करके रखा था। अंडमान जेल की सुविधाओं के विरोध में आमरण अनशन करते हुए जब जेल अधिकारी उन्हे जमीन पर पटककर नाक में नली डालकर जबरन दूध पिलाने की कोशिश कर रहे थे। इसी समय वह नली उनकी आंतों में न जाकर फेफड़ों में दाखिल हो चुकी थी। अधिकारी उनके फेफड़ों में ही दूध उड़ेलकर दूसरे कैदी के पास चले गए और महावीर सिंह ने वहीं तड़पकर अपना दम तोड दिया। (स्वाधीनता संग्राम के महावीर – डॉ राकेश दत्त मिश्र ‘कंचन’)

बप्पा रावल का नाम तो काफी सुना-सुना सा लगता है लेकिन वो कौन थे कब जन्मे थे उनका अपने इतिहास में क्या योगदान है आदि बातें मुझे प्रस्तुत संग्रह में संग्रहित उनकी जीवनी पढ़कर ही पता चली। इस अध्याय के लेखक डॉ पवन कुमार पांडेय जी हैं।

ऐसे ही वीर कुँवर सिंह और उनके भाई अमर सिंह और उनके रिश्तेदार बेनी सिंह का योगदान इतिहास से ओझल है। (डॉ अवधेश कुमार अवध)।

वीरबाला कनकलता बरुआ के बारे में बहुत कम ही लोग जानते होंगे। जबकि उनका योगदान किसी भी नागरिक का सिर माथे पर बिठा लेने के लिए काफी है। वो असम की पहली महिला थीं जो आजादी की लड़ाई में शहीद हुए थीं। अधिक जानकारी के लिए इस संग्रह में संकलित डॉ रुनू बरुआ जी के लेख को पढ़ा जा सकता है। डॉ अनीता पंडा द्वारा लिखित मेघालय के जयंतिया हिल्स से कियांग नांगबाह का शौय एवं सूझबूझ पठनीय है।

युद्धवीर सुकालू, लाचित बरफुकन, सती जयमती, चाफेकर त्रिबंधु, प्रफुल्ल चंद्र चाकी, बलिदानी तिरोत सिंह, मांगी लाल भव्य, मणिराम देवान, रानी नागनिका जैसे कई ऐसे नाम जिनके बारे में पहले कभी नहीं पढ़ा था। पढ़ने सुअवसर उपलब्ध कराने के लिए एक बार फिर से संग्रह के संपादक और उनकी पूरी टीम का बहुत बहुत आभार।

निश्चित रूप से यह संग्रह पठनीय और संग्रहणीय है। एक बार मेरे सर्वकालिक और सर्व प्रिय मित्र ने कहा था कि हमें करोड़ों में बिकने वाली दो-दो टके की अभिनेत्रियों के नाम तो याद हैं लेकिन गणतंत्र परेड में परेड का नेतृत्व करने वाली पहली महिला कमांडर का नाम याद नहीं है। ये इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।

बात भी सही है। लेकिन उनके बारे लिखने या खोजकर पढ़ने का किसी ने शायद जरूरत ही नहीं समझा होगा इसलिए यादों पर धूल जम गई। जरूरी है उस धूल को हटाना ताकि आने वाली पीढ़ी को रास्ता मिल सके। इस हेतु भी इनसे हैं हम एक सार्थक पहल है।

दिवाकर पांडेय “चित्रगुप्त भारतीय सेना में कार्यरत है और खाली समय में लिखने का शौक रखते हैं। इनकी लिखित आलेख, लघु कथा और कविताएं कई पत्रिकाओं में छप चुके हैं

झीनी झीनी बीनी चदरिया : अमरचरित्र ‘मतीन’

वही साहित्य श्रेष्ठ माना जाता है जिसमें सत्यं, हितं, एवं प्रियं का सहज सन्निवेश हो । सत्यं, हितं, एवं प्रियं को ही क्रमशः सत्यं शिवं एवं सुन्दरम् की संज्ञा से अभिहित किया जाता है । सामान्यतः यह माना गया है कि साहित्य के सभी गुण इन तीनों में समाहित है । सत्यं से ही साहित्य में स्वाभाविकता आती है। हितं (शिवं) इस तत्व में लोक-रक्षण की भावना निहित है और जिन विशिष्टताओं के कारण साहित्य अपने पाठकों को आकृष्ट कर अपने में उलझाएँ रखता है उसका प्रियं (सुंदरम्) गुण है । कृति की श्रेष्ठता इन तीन तत्वों के समन्वय में होती है। ऐसी श्रेष्ठ कृतियों में उभरा हुआ चरित्र आदर्श और अमर चरित्र की पंक्ति में समाहित होता है । ऐसे चरित्रों में लोक-रक्षण की भावना सुन्दरं ही नहीं शिवं भी हो, प्रियं ही नहीं हितकर भी होनी चाहिए । जैसे महादेव ने हलाहल प्राशन कर संपूर्ण संसार को अमृत सौन्दर्य दिया जिसके मूल में लोक-सृष्टि का रक्षण कल्याण एवं मंगलकामना ही रही है। समाज में ऐसी मनोवृत्ति वाले चरित्र हिमनग की भांति मानव के अंतस में उभरते हैं ।

‘अमर’ शब्द का संबंध अंशत: अमृत से है। सामान्यतः भारतीय जन-मानस की यह धारणा है कि अमृत सेवन से अमरत्व प्राप्त होता है, जिससे मनुष्य कालजयी बनता है । समुद्र मंथन में निकले अमृत को प्राशन कर राहु-केतु भी देवताओं की पंक्ति में जा बैठे अर्थात् अमर हो गए । साहित्यिक दृष्टि से पौराणिक सन्दर्भ में अमरत्व अलौकिकता को समेटे हुए हैं, तो भौतिक (लौकिक) जगत् के सन्दर्भ में यही अमरत्व उदात्त जगत् के सन्दर्भ में यही अमरत्व उदात्तता की और संकेत करता है। इसप्रकार अमर चरित्र कहने से हमारे सामने सचरित्र, उदात्त एवं कालजयी चरित्र की छवि उभरती है ।

परिवर्तन सृष्टि का शाश्वत नियम है । परिणामस्वरूप साहित्य में भी स्थल-काल सापेक्ष परिवर्तन होता रहता है । वैश्वीकरण के इस युग में अमर चरित्र की संकल्पना में काफी मात्रा में परिवर्तन हुआ है। आज अमर चरित्रों में उन सभी चरित्रों को समाहित किया जाता है, जो आदर्श या उदात्त नहीं प्रत्युत तामसी वृत्ति से चरित्र के संखलन के कारण वितेषणा, दारेषणा और लोकेषणा का शिकार होकर खलनायक के रूप में सामने आते हैं और आदर्श चरित्रों के प्रतिकूल दिखाई देते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि आज खलनायक या खलनायिका को भी अमरता की श्रेणी में रखा जाने लगा है । मात्र प्रसिद्धि ही इस अमरता की पृष्ठभूमी है । ये चरित्र अपने कृत्यों-कुकृत्यों से प्रसिद्ध हो जाते हैं और स्थल-काल सापेक्ष निरंतर उभरते हैं। जैसे ‘राम’ तथा ‘पांडवों’ के सन्दर्भ आते ही क्रमश: ‘रावण’ और ‘दुर्योधन’ का चरित्र भी उभर आता है। क्योंकि ‘रावण’ का ‘रावणत्व’ में तथा ‘दुर्योधन’ का ‘दुर्योधनत्व’ के विरोध में ही क्रमश: ‘राम’ का ‘रामत्व’ और ‘पांडवों’ का ‘पांडवत्व’ है । अर्थात् ‘असत्’ पर ‘सत्’ की, ‘अधर्म’ पर ‘धर्म’ की विजय दिखाई देती है । आजकल हिंदी साहित्य में अमर चरित्रों की एक और श्रेणी दिखाई देती है । इनमें उन चरित्रों का समावेश होता है जो जीजिविषा हेतु संघर्षरत है, जो शोषण के प्रति जाग्रत हैं, जो अन्याय और अत्याचार के विरोध में आवाज उठाने की क्षमता रखतें हैं। इतना ही नहीं वे पीड़ित, शोषितों के प्रति सहानुभूति से पेश आकर शोषणकर्ताओं के प्रति कड़ा रुख अपनाकर संघटित होकर संघर्ष तो करते ही हैं, साथ ही संघटित होने पर बल देते दिखाई देते हैं। इसके पीछे जन-सामान्य के कल्याण एवं मंगलकामना की भावना प्रमुख होती है। ऐसे चरित्र भले ही लौकिक हो किन्तु वे अपने आदर्श कार्य के कारण अलौकिकता को प्राप्त करते दिखाई देते हैं

हिंदी साहित्य पर एक नजर डालने से पता चलता है कि कबीर जैसे महान संत की कार्य- प्रणाली इसका प्रमाण है। कबीर ने अपने जीवनकाल में धर्म-निरपेक्ष और मानवता का समर्थन किया, सांप्रदायिकता से ऊपर उठकर सामजिक अन्याय, अत्याचार, शोषण, अंधविश्वास, कुरीतियों एवं सभी कुप्रथाओं का कड़ा विरोध किया, जिसके फलस्वरूप कबीर, महात्मा कबीर बने । अब्दुल बिस्मिल्लाह का ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास पर कबीर के ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ का अर्थात् ब्रह्मा, जीव और जगत् का दार्शनिक प्रभाव दिखाई देता है। विषय विकारों के मखमली लिहाफ में लिपटे जगत् में कर्तव्य-अकर्तव्य, क्रिया-प्रतिक्रया के चक्र में घूमता हुआ जीव ‘ब्रह्म’ अर्थात् परम तत्व मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है। उसी ब्रह्म की ओर जिसने जीवात्मा को जीवन रूपी ताने-बाने से बीनी हुई चदरिया ओढ़कर इस मायावी जगत् में भेजा है । कबीर के इसी दार्शनिक चिंतन का प्रभाव परोक्ष रूप से उपन्यास पर परिलक्षित होता है । मानव ( मतीन का चरित्र) अर्थात् जीव का जीवन, जीवन की विविध गतिविधियों, उतार-चढाओं के ताने-बाने से बुना हुआ जगत् अर्थात् समाज में निरंतर संघर्षशील रहता है । इसका लक्ष्य केवल ‘ब्रह्म’ अर्थात् अपना लक्ष्य, आदर्श, सच्चाई, शोषण मुक्ति आदि को प्राप्त करना रहा है । स्पष्टत: यह कहा जा सकता है कि उपन्यास के प्रमुख चरित्र ‘मतीन’ पर अप्रत्यक्ष रूप से कबीर दर्शन का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है जो संपूर्ण उपन्यास में मतीन के जीवन दर्शन के रूप में प्रतिबिंबित हुआ है। इस विशिष्ट जीवन दर्शन के द्वारा उपन्यासकार अब्दुल बिस्मिल्लाह ने पथ-प्रदर्शन का कार्य करते हुए मतीन के माध्यम से बुनकरों के विद्रोह और जीवन के मुक्ति संघर्ष के जीवंत दस्तावेज प्रस्तुत कर बदलते भाव-बोध को दर्शाने का सफल प्रयास किया है वर्तमान की युवा पीढी प्रत्येक क्षेत्र में बदलते परिवेश और जीवन-सन्दर्भों के प्रति सजग दिखाई देती है। आज की पीढी को परंपरा की लीक पर चलना स्वीकार नहीं है क्योंकि जीवन की हर समस्या उनके लिए प्रश्नचिन्हं बन जाती है ।

‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास में बुनकरों के मुक्ति संघर्ष का जीवंत दस्तावेज प्रस्तुत है । प्रस्तुत उपन्यास में बुनकरों की अभावग्रस्त और रोग जर्जर दुनिया में हम मतीन, अलीमुन और नन्हें इकबाल के सहारे प्रवेश करते हैं जहां उपस्थित है रऊफ चाचा, नजबुनिया, नसीबन बुआ, रेहाना, कमरून, लतीफ़, बशीर और अल्ताफ जैसे अनेक चरित्र, जो टूटते हुए भी हालात से समझौता करना नहीं चाहते । बावजूद इसके उनसे लड़ना और उन्हें बदलना चाहते हैं और मजबूत है । वे अंतत: अपनी इस चाहत को जनाधिकारों के प्रति जागरुक अगली पीढ़ी के इकबाल को सौंप देते हैं । इस प्रक्रिया में लेखक ने शोषण के उस पुरे तंत्र को भी बड़ी बारीकी से बेनकाब किया है जिसके एक छोर पर है गिरस्ता और कोठीवाल, तो दूसरे छोर पर भ्रष्ट राजनितिक हथखंडे और सरकार की तथाकथित कल्याणकारी योजनाएं हैं। साथ ही बुनकर-बिरादरी के आर्थिक शोषण में सहायक उसी की अस्वस्थ परंपराओं, सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक जड़वाद और साम्प्रदायिक नजरिये को भी अनदेखा नहीं किया है

उपन्यास का नायक मतीन है, जो पेशे से बुनकर है । बुनकर शोषण के शिकार हैं । मतीन बुनकरों पर हो रहे अन्याय, अत्याचार और शोषण के विरूद्ध आवाज उठाता है लेकिन शोषकों द्वारा उसकी आवाज दबाई जाती है । शोषण के विरुद्ध उसके प्रयास असफल हो जाते हैं किन्तु अपनी बिरादरी पर हो रहे अन्याय अत्याचार के खिलाफ अपने समाज को सचेत और जागृत करने में मतीन सफल हो जाता है । मतीन के व्यक्तित्व का एक पहलू यह भी है कि पराजित होने के बाद, उसकी लड़ने की इच्छाशक्ति और अधिक प्रबल हो जाती है ।

मतीन के माता-पिता बचपन में खो जाते हैं; इसलिए वह अत्यंत कम उम्र में ही रोजी-रोटी के लिए काम करना शुरू कर देता है । मतीन एक सामान्य बुनकर के रूप में पाठकों के समक्ष उभरता है । जैसे-जैसे वह अपने काम में कुशल हो जाता है वैसे ही वह अन्य बुनकरों के समान शोषण की दोहरी चक्की में पिसता जाता है। एक ओर गिरस्त तो दूसरी ओर कोठीवालों द्वारा शोषण का शिकार हो जाता है । अर्थाभाव के कारण वह अपनी खुद की कतान नहीं खरीद सकता इसलिए दूसरों की बानी पर ही बीनने के लिए मजबूर होता है । मतीन गिरस्त हाजी साहब से कतान लेता है यहीं से उसका जीवन हाजी साहब जैसे सेठ पर निर्भर रहने लगता है। कड़ी मेहनत करने पर उसे एक हप्ते बाद मात्र नब्बे रुपये मिलते हैं। इसमें भी कई प्रकार की कटौतियां होती हैं जैसे – “गिरस्त जो है साड़ी  में ऐब दिखाता है ।” प्रका. २००३ : पृ. क्र. १७) पत्नी अल्मुनिया क्षयरोग (टीबी) से ग्रसित है । पत्नी के इलाज के लिए हो रहे खर्च के कारण खाने के लाले पड़े है । इसलिए दुबारा हाजीसाहब जैसे सेठ से ऋण लेना पड़ता है । मतीन जीवनभर कर्ज में डूबा रहता है । उसका जीवन केवल ऋण चुकाने में ही व्यतीत होता है । ऐसी परस्थिति में भी मतीन अपने बेटे को पढ़ा-लिखाकर बड़ा बाबू बनाना चाहता है क्योंकि उसे ऐसा लगता है कि बेटा अगर पढ़-लिखकर बड़ा बाबू बनेगा तो अपना जीवन ऋणमुक्त होकर समाज की उन्नत्ति और कल्याण के काम आयेगा ।

बुनकर मतीन कड़ी मेहनत से साड़ियाँ बुनकर तैयार करता है लेकिन बदले में क्या मिलता है- “सिर्फ एक लुंगी, भैंस का गोष्त और नंग धडंग जाहिल बच्चे ।” (अब्दुल बिस्मिल्लाह : ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ प्रका. २००३ पृ. क्र. ५४) लगभग सभी बुनकरों की यही स्थिति है इसप्रकार बुनकरों पर हो रहे अन्याय, अत्याचार और शोषण के निवारण हेतु तथा मुक्ति के लिए संघटन (सोसायटी) बनाकर शोषकों का मात्र विरोध करना ही नहीं चाहता बल्कि संघटन के माध्यम से सरकार से अपील कर आर्थिक सहायता हेतु गुहार लगाना चाहता है । मतीन को लागता है कि संघटन के माध्यम से सरकार से गुहार करने पर आर्थिक सहायता मिलेगी तो कतान खरीदकर संघटन के नाम पर साड़ियाँ बुनने का कारखाना आरंभ किया जा सकता है जिससे बुनकरों की आर्थिक स्थिति में सुधार आ सकता है। यह सपना लेकर संघटन आरंभ करने हेतु तीस सदस्य और सदस्य शुल्क जुटाता है । सदस्य शुल्क जुटाने के बाद बैंक पहुँचने पर पता चलता है कि इन लोगों के नाम पर पहले ही फर्जी संघटन गठित हो चुका है। इस सन्दर्भ में बैंक मेनेजर मतीन को सलाह देते हुए कहता है कि  “जनाब अब्दुल मतीन अंसारी साहब, जाइए और चुपचाप अपनी साड़ी बिनिये। फ्राड करना बहुत बड़ा जुर्म है ।” (अब्दुल बिस्मिल्लाह : ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ प्रका. २००३ : पृ. क्र. १०३) फर्जी संघटन बनानेवाले हाजी अमीरल्लाह के खिलाफ लड़ने में मतीन अपने आप को असमर्थ पाता है क्योंकि इन गिरस्तों की बहुत लम्बी पहुँच है ।

इसप्रकार मतीन इस लड़ाई में पराजित होता है । उसका सपना टूट जाता है बावजूद इसके वह बनारस की जिन्दगी से समझौता नहीं करना चाहता और कुछ बेहतर बनने के लिए तथा अच्छी परिस्थिति में काम करने के लिए बनारस छोड़कर मऊ चला जाता है। मऊ आने पर मतीन को पता चलता है कि यहाँ की परिस्थिति और बनारस की परिस्थिति में कोई अंतर नहीं है । अर्थात अन्याय, अत्याचार और शोषण में कोई फर्क नहीं है । इस सन्दर्भ में मतीन का कहना है कि “मऊ और – बनारस में फर्क ही क्या है ? गरीब तो हर जगह एक जैसे है ।” (अब्दुल बिस्मिल्लाह : ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ प्रका. २००३ पृ. क्र. १४४) अतः यह कहना अनुचित नहीं होगा कि बनारस हो या मऊ या फिर देश का कोई और शहर गरीबों पर अन्याय, अत्याचार होता ही रहता है । भारत में मजदूरों का शोषण होना आम बात है, फिर चाहे वह मजदूर कल-कारखानों का हो या फिर खेत में काम करनेवाला हो । इतिहास साक्षी है कि अपने देश में शोषित, पीड़ित, अत्याचारित समाज कितना भी संघर्ष करें देश की सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था इतनी मजबूत है कि वह विजयी नहीं हो सकता ।

‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास का केन्द्रीय पात्र मतीन शोषकों का विरोध करने में अपने आपको असमर्थ पाता है । परिणामतः मतीन मुक्ति संघर्ष की लड़ाई में पराजित होता है । किन्तु फिर भी मतीन के व्यक्तित अपने आपको असमर्थ पाता है । परिणामतः मतीन मुक्ति संघर्ष की लड़ाई में पराजित होता है। किन्तु फिर भी मतीन के व्यक्तित्व की यह ख़ास विशेषता रही है कि कई बार संघर्ष की लड़ाई हारने पर भी मतीन निराशा की गर्त में जीवन जीना नहीं चाहता बल्कि वह बार-बार संघर्ष कर जीत हासील करना चाहता है । कई बार टूटने पर भी मतीन में विद्यमान व्यवस्था के खिलाफ लड़ने की इच्छा -शक्ति जाग्रत होती रहती है ।

‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास बनारस के साड़ी  बुनकरों के कठिन संघर्ष का बयान है । प्रस्तुत उपन्यास केवल बुनकरों के मुक्ति संघर्ष की कथा नहीं है बल्कि देश के समस्त शोषित वर्ग के मुक्ति संघर्ष की यशोगाथा है। उस फिनिक्स पक्षी के सामान शोषित वर्ग नया जीवन जीना चाहता है किन्तु भारतीय व्यवस्था उन्हें उड़ने (जीने नहीं देती यह भारतीय समाज की त्रासदी है। ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास में चित्रित मतीन का संघर्ष बुनकरों के जीवन का अर्थ भी है और सौन्दर्य भी।

सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि, प्रस्तुत उपन्यास का प्रमुख पात्र मतीन अपने त्रासदी भरे जीवन में आदर्श समेटे हुए है जो उसे कालजयी बनाने में सहायता प्रदान करता है । शोषण चक्र में निरंतर पिसते हुए भी मतीन का जीवन के प्रति दृष्टिकोण अत्यधिक सकारात्मक रहा है बावजूद इसके वह आगामी पीढ़ी की चिंता करते नजर आता है। मतीन ने अपने जीवन में कभी सांप्रदायिकता को महत्त्व नहीं दिया । मतीन सांप्रदायिकता के संकुचित दायरे से बाहर आकर एकजुट होकर अराजक सामंती व्यवस्था के प्रति केवल आक्रोश व्यक्त नहीं करता बल्कि शोषण चक्र में पिसते हुए असाहाय्य गरीब मजदूरों, बुनकरों का जीवन संवारने का काम करता हैं, वह एक प्रतिमान के रूप में खड़ा होता है । अतः यह कहना अनुचित नहीं होगा कि मतीन गरीब मजदूरों, बुनकरों को अपने हक के लिए लड़ने की ताकत ही नहीं देता बल्कि उन्हें प्रेरित भी करता है । अपने अधिकार के प्रति उन्हें सचेत ही नहीं करता बल्कि दीपस्तंभ के रूप में खड़ा होता है । अतः मतीन समकालीन पीढ़ी के लिए आदर्श तो है ही साथ ही आनेवाली पीढी के लिए भी आदर्श एवं प्रेरणास्रोत बना रहेगा । अत: यह कहना अनुचित नहीं होगा कि मतीन का जीवन-दर्शन युवा चेतना के लिए पथ-प्रदर्शक का पर्याय है

डॉ. मधुकर देशमुख अध्यक्ष, हिंदी विभाग इंद्रायणी महाविद्यालय के अध्यक्ष हैं। इन्होंने सात खंडों में प्रकाशित कवि महेंद्र भटनागर की कविताओं का संपादन किया है। अनेकों लेख हो सहित इनकी 3 पुस्तकें प्रकाशित हैं।

पुस्तक समीक्षा २: ‘नई सुबह’


गीता लिम्बू
पुस्तक- ‘नई सुबह’
लेखन – रीता सिंह ‘सर्जना’
प्रकाशक – बुक्सक्लिनिक पब्लिशिंग, बिलासपुर
प्रकाशन वर्ष – जुलाई 2022
मूल्य -190

पूर्वोत्तर भारतकी सशक्त लेखिका रीता सिंह ‘सर्जना’ की प्रथम कहानी संग्रह ‘नई सुबह’ के आवरण पृष्ठ में शीर्षक नाम के साथ सकारात्मक भाव जगाती ‘उम्मीदों का एक खूबसूरत एहसास-’ इस खूबसूरत पंक्तिको रखा गया है। उगता सूरज, हरी पत्तियों से पूर्ण वृक्ष, रास्ते में आगे बढ़ती गाड़ी, बच्चों से साथ आगे बढ़ती माँ ये सभी नई उम्मीद लेकर प्रगति की राह पर चल रहे हैं और शीर्षक नाम का सार्थक करता हुआ आवरण है।
माँ वीणापाणि की वंदना और समर्पण से अंतस पृष्ठों की शुरूवात हुई है। डाॅ भगवान स्वरूप चैतन्य की भूमिका तथा प्रबुद्ध जनों क शुभकामनाऔं में ही कहानियों का सार्थक विश्लेषण हुआ है।
कुल सोलह कहानियों में से पहली कहानी है ‘तोहफा’। ये इम्पोर्टेड हैं, एन आर आई दामाद है, कहकर फूले नहीं समानेवाले कुछ लोग हमारे समाज में हैं। जिनकी दृष्टि से देखा जाय तो अपने देशकी हर चीज विदेशी चीजों की तुलना में तुच्छ है , और तो और इंसान भी। ऐसी ही मानसिकता रखने वाला किरदार को लेकर कहानी गढ़ी गयी है।
युग के साथ बदलती सामाजिक पारिवारिक तथा जीवनधारण की व्यवस्थाओं के साथ समझौता करते इंसान की कहानी है। आजकाल बहू-बेटे, पोते-पोतियों से भरापूरा, चहलपहल वाला संयुक्त परिवार कम ही देखा जाता। बेटे के साथ-साथ नौकरी वाली बहू को घर से बाहर रहना पड़ता है, जिसके कारण घरके बूजूर्ग एकाकी जीवन बिताते हैं। इस एकाकीपन में समय मानों गुजरता ही नहीं ठहर जाता है। ऐसे में पति-पत्नी एक दूसरे की भावनाओं और चाहतों को सम्झे तो जीवन सुखद बनता है। इसी दिशा को निर्देश करती ‘सुलह’ एक मीठी सी सुखांत कहानी है।
‘ममतालय’ में मजहबी संघर्ष और मानव प्रेम दो विपरीत दिशाओं को दर्शाया गया है। मजहबी संघर्ष का परिणाम पतन ही है और मानव प्रेम का ठिकाना है ममतालय। इसीसे मिलती जुलती कहानी है ‘अलंकार’। ‘अलंकार’ में मानव प्रेम को सर्वश्रेष्ठ अलंकार घोषित किया गया है। मानवीय अनुभूतियों तथा प्रेम की सुंदर अभिव्यक्ति है ‘आशीर्वाद’।
बाहरी दुनिया से बेखबर रहकर केवल उदर पूर्ति के लिए काम करने वाले सोरेन जैसे लोगों को शिक्षा और सुधार की आवश्यकता है यही ‘सोरेन’ कहानी का निहित उद्देश्य है।
‘नई सुबह’ शीर्षक कहानी है जो नशा उन्मूलन की और दिशा निर्देश करती है।
‘मंगरू का सपना’ एक ऐसा सपना है जिसे संसार भर के माता-पिता अपनी संतान के सुखद भविष्यत को लेकर अपनी हैसियत के अनुसार देखते हैं। लेकिन कभी कभी संतान के कारण ही सपना टूटकर बिखर जाता है। गरीब कमजोर लोगों को दबानेवाला, ठगने वाला स्वार्थी वर्ग की हृदय हीनता का एक स्पष्ट चित्र भी कहानी में उकेरा गया है। ‘अभिलाषा’ कहानी भी इसी विषय वस्तु को केंद्र में रखकर बुनी गई है।
संविधान में सभी अधिकार प्राप्त होने के बावजूद समाज द्वारा उपेक्षित, माता पिता तथा अपनों के स्नेह से वंचित किन्नरों की व्यथा कथा है ‘क्या मेरा कुसूर है?’ बर्बादी , खूनखराबी, धोखा, पिछड़ेपन, आतंकीउपद्रवों को झेलता एक त्रासदपूर्ण अंचल की झांकी देखी जाती है कहानी ‘दंगा’ में। उजड़ी बस्ती को देखकर मंगल का दिल कराह उठता है लेकिन वह फिर नयी झोपड़ी खड़ी करने का उद्यम लेकर अपनी धुन में बाँस छिलने लगता है। कहानीकार ने यहाँ जीवन और जिजीविषा का सार्थक बिंब खींचा है।
‘थैला’ विपरीत परिस्थिति से संघर्ष करती एक सशक्त महिला मरमी बा का थैला है। ’. . . जानती हो मेरे इस थेला में मेरे परिवार की खुशियाँ समाई हुई है’ इसी संवाद में कहानी का निचोड़ है। ’ वो ‘थैला’ जो आजीविका का साधन ढोता है वो यहाँ आजीविका तथा जीवन संघर्ष का प्रतीक बना है।
‘सबिया’, ’अलविदा’, ‘पाषाण हृदय’ अलग अलग तरीके से प्रताड़ित स्त्रियों की व्यथा कथाएं हैं।
‘रिश्ता’ कहानी का पहला भाग समाज को दीमक की तरह चाट रही जात बिरादरी और दहेज प्रथा पर कठोर प्रहार करता है। अंत में
वात्सल्य कहानीमें वह करूणा है जो माँ और संतान के अटूट रिश्ते को बाँध कर रखती है।
वस्तुतः सारी कहानियाँ समाज की विसंगतियाँ, बिड़म्बनाएँ , त्रासदीयाँ आदि जटिल समस्याओं को लेकर कहानियाँ गढ़ी गई है जो सत्य के धरातल के ही उपज हैं और उसी धरातल के किरदारों के माध्यम से प्रस्तुत की गई है
व्यक्ति मनोभावों को सहज संवादों तथा सरल भाषा में सम्प्रेषित किया गया है। इसी कारण ये कहानियाँ प्रत्येक वर्ग के पाठक आत्मसात कर सकता है। घटनाओं की धाराप्रवाह गति पाठक को अंत तक कहानियों के साथ ले चलती हैं। जीवन के यथार्थ को उद्घाटित करती है ।
मैं आशा करती हूं, भविष्यत में लेखिका इस सुंदर सृजनों से भी अधिक सुंदर सृजनाएँ पाठकों को उपहारमें देंगी
मैं लेखिका को इस अनुपम कृति के लिए शुभकामनाएँ एवं साधुवाद देती हूं आशा करती हूं कि भविष्य में आप अपनी लेखनी द्वारा साहित्य संसार को समृद्ध करेंगी
गीता लिम्बू, शिलांग की प्रतिष्ठित लेखिका

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पुस्तक समीक्षा १: ‘ख्वाहिशों का आसमा’

तूलिका श्री
पुस्तक- ‘ख्वाहिशों का आसमा’
लेखन – कंचन शर्मा
प्रकाशक – नवनिर्माण साहित्य, गुवाहाटी
प्रकाशन वर्ष – जुलाई 2021
मूल्य -251

हरि अनंत हरि कथा अनंता
कह़ही सुनही बहु सिंधी सब संता
ईश्वर और उनकी आस्था से जुड़ी कथा कहानियों का फैलावा अनंत है। अनेक प्रकार से समाज में कही सुनी जाती हैं माया जाल है, यह सारी दुनिया। इंसान हैं , क्रियाएं हैं, प्रतिक्रियाएं हैं, सब कुछ गतिमान है प्रकृति हर पल बदलती जा रही है हम हर पल नए होते जा रहे हैं। कुछ दैवीय गुणों से भरी हुई सजग आंखें हैं जो तेजी से इन्हें पहचान लेती हैं। सतर्क होकर आगे का रास्ता तय कर रही हैं और कुछ, को यद् भविष्यति -जो होगा देखा जाएगा – इसी से फुर्सत नहीं है! गतिमान जीवन में कुछ प्रतिशत ही लक्ष्य हासिल हो पाते हैं। जहां एक-एक करके असफलता है फिर भी जुझारूपन बना रहता है तो वहां झरने को अपना रुख बदलना ही होता है। आज के दिन में महिलाएं अपने स्नेह , कर्तव्य , संघर्ष , चुनौती ताप एवं अनंत संवेदना सहित फिर से उपस्थित हैं चाहे अक्षरों द्वारा पदों पर प्रतिष्ठित होकर सेवा द्वारा या सहयोगी बनकर इन्हीं तथ्यों पर रोशनी डालती लघुकथा संग्रह ख्वाहिशों का आसमा उपस्थित हुई है कई कथाओं की यात्रा करते हुए घर का चिराग में मन रुक गया माँ फिर एक काम कर मुझे मालकिन के पास गिरवी रख दे और जो पैसे मिलेंगे उससे दिवाली के दिन बहुत सारे दिए जलाना (पृष्ठ 112) मन की खुशियों के लिए हम सब भटकते रहते हैं और जो मन में विद्यमान है उसे ही बाहर आने से रोक देते हैं ! ! ! दरवाजे बंद करने से भला धूप की इच्छा करने वाले को कैसे समझाया जाए परिस्थितियों हेतु ग्रहण शीलता अत्यावश्यक है सत्संग कहानी संदेश देती है कि वर्तमान में जीना बहुत जरूरी है बहू के भाई की सगाई है सो मैंने कहा कि’ मैं बिटिया को संभालती हूं( पृष्ठ 83) लेखिका कंचन जी ने जीवन को बहुत ही सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है जिंदगी हमें अपने आप स्वयं को संभालना स्वयं ही संभालना होता है किस राह पर चलकर कैसा व्यक्तित्व धारण कर बढ़ना है इसकी जिम्मेदारी हमारी होती है सहन तो करना है लेकिन किस हद तक यह वक्त ही तय करता है
तो गुरु जी अब मुझे एक शिष्य का धर्म निभाने दें , कृपया मेरी गुरु दक्षिणा स्वीकार कीजिए। (गुरु दक्षिणा, पृष्ठ 62 )
परिवार पहले संस्था है जहां हमारे व्यक्तित्व को हर पल आयाम मिलता है। बोली व्यवहार सीखते हैं हम, चुनौतियों का सामना करने की ताकत प्राप्त करते हैं।
हां ठीक कहा आपने हमारा बच्चा बहुत ही स्पेशल है आपके बच्चे इसकी बातें नहीं समझेंगे। (पूर्ण विराम, पृष्ठ 44)
जाति पाती की परेशानियां हमेशा से ही हमें तंग करती रही हैं ऊंची जाति -नीची जाति, संत रविदास के भजन गाकर सर्वश्रेष्ठ गायक का पदक जीतेंगे, माता शबरी के बेर का जिक्र करेंगे राम भक्तों की चर्चा करेंगे! ! ! जाने किस जाति के मजदूर घर बना कर गए जाते भी पूछ लेते , अरे रे रे मूर्तिकार की जाति रह गई महालक्ष्मी की या राम जी की आराधना कृष्ण की, चंदन , इत्र , गुलाल ज्यादा कर अलग समाज की जातियां बनाती है यही तो कहना चाहती हैं कंचन जी (रक्तदान पृष्ठ 23) के माध्यम से
जा गिरधारी, ‘बुला ला ! ! ! उस छोरे को , कहना खून की कोई जात नहीं होती है। ‘आगे की बहुत सारी लघुकथाएं जोकि हर रोज हर पल हमें कुछ न कुछ सिखा रहीं हैं। तार्किक एवं विवेचनात्मक दृष्टि से लेखिका ने अनेकों घटनाओं को आत्मसात किया है। कहानी , एजुकेटेड इंडियन , उम्मीद, मंजिल, कर्तव्य सहज ही प्रशंसनीय हैं। कंचन जी की पुस्तक का हर एक शब्द ग्रहणीय है। अंतिम कहानी जो पुस्तक का नाम भी है , ’ख्वाहिशों का आसमान’ अपनी पूर्ण गरिमा का परिचय देता है ! बहुत कम ही होता है कि एक स्त्री दूसरे को सहारा देती है। यहां सुंदरी ने पंखुड़ी को सहारा दिया और वह दलदल में से निकलने की हिम्मत कर पाई।
डॉक्टर अन्नपूर्णा जी ने बहुत ही आवश्यक जानकारी भेजा है लघु कथा के नियमों के बारे में। उनका बहुत धन्यवाद है। कंचन जी असली हकदार( पृष्ठ 103)जैसी कथाएं लिखकर निद्रा में से रिश्तों को जगाती हैं। उन्हें शुभकामनाएं
तूलिका श्री : बड़ौदा से प्रकाशित हिंदी त्रैमासिक पत्रिका नारी अस्मिता में समीक्षक के रूप में कार्यरत। अखिल भारतीय साहित्यकार अभिनंदन समिति मथुरा द्वारा राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय कवि का सम्मान प्राप्त। संप्रति- ऑक्जिलियम कन्वेंट हाई स्कूल, बड़ौदा में हिंदी संस्कृत की अध्यापिका के रूप में कार्यरत।

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पुस्तक समीक्ष

नीतू थापा पुस्तक- ‘विक्रमवीर थापा मेरा आँखीझ्यालबाट’ लेखन – विशाल के सी प्रकाशक – भारतीय साहित्य प्रतिष्ठान, तेजपुर। प्रकाशन वर्ष – जुलाई 2021

‘हिन्दी’ एवं ‘नेपाली’ साहित्य जगत के लिए सैनिक कवि ‘विशाल के सी’ उभरते हुए ध्रुव के समान हैं। जो अपनी पकड़ लगातार हिन्दी एवं नेपाली साहित्य जगत में बनाए हुए हैं। मूलतः विशाल के सी भारत के सबसे पुराने अर्ध सैनिक बल (आसाम राइफल) में सैनिक के पद पर सेवारत हैं, किन्तु उन्हें केवल बन्दूक पकड़कर देश की सेवा करना गवारा नहींं, बल्कि वे कलम लेकर साहित्य के रणभूमि में हिन्दी एवं नेपाली भाषा के प्रचार प्रसार एवं सामाजिक उत्थान के लिए भी उतर पड़े हैं। विभिन्न सम्मानों से सम्मानित विशाल के सी की हिन्दी एवं नेपाली में कई रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं- ‘सम्झना’ (नेपाली-2013), ‘आमा’ (नेपाली-2014), ‘शहीद’ (हिन्दी-2015), ‘पोस्टर’ (हिन्दी-2017), ‘चटयाङ्ग’ (नेपाली-2019), तथा cc नेपाली भाषा में है जो हाल (2021) में प्रकाशित हुई है।
संबन्धित पुस्तक ‘विक्रमवीर थापा मेरा आँखीझ्यालबाट’ अर्थात् ‘विक्रमवीर थापा मेरे आँखों के झरोकों से’ पूर्वोत्तर भारत के वरिष्ठ साहित्यकार ‘विक्रमवीर थापा’ के आलेखों, अनुभूतियों, साक्षात्कार तथा उनके कृतियों को आधार बनाकर नेपाली भाषा में लिखी गई है। जो एक शोधपरक पुस्तक है। यह पुस्तक वर्तमान में नेपाली साहित्य जगत में चर्चा का विषय बनी हुई है। पुस्तक के चर्चा में होने का विशेष कारण स्वयं विक्रमवीर थापा हैं जो अपनी कृति ‘बीसौं शताब्दीको मोनालिसा’(नेपाली) सन् 1999 में साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत है। हाल विशाल के सी द्वारा लिखित पुस्तक न केवल भारत में बल्कि यूके एवं पड़ोसी देश नेपाल में भी चर्चित है। जिसके लिए विशाल के सी को रेडियो तथा अन्य संघ संस्थानों द्वारा साक्षात्कार के लिए भी निमंत्रण दिये गए।
पूर्वोत्तर भारत के वरिष्ठ साहित्यकार ‘विक्रमवीर थापा’ अति मिलनसार तथा ज्ञान के धनी हैं। किन्तु शिक्षा के संबंध में वे स्वयं स्वीकारते हैं कि उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त नहींं की बावजूद इसके उन्होंने नेपाली साहित्य जगत को ‘सात’ अनमोल कृतियाँ प्रदान की जिनमें से एक कृति ‘टिस्टादेखि सतलजसम्म’ उत्तर बंग विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर के पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता है। कम शिक्षित होने के बावजूद साहित्य में उनकी पकड़ गहरी होने के विषय में वे रामकृष्ण परमहंस का उदाहरण देते हुए कहते हैं- “सर्वप्रथम अध्ययनशील होना आवश्यक है। पढ़ने के लिए विद्यालयी शिक्षा की आवश्यकता नहींं। इच्छा शक्ति प्रबल हो तो घर में ही शिक्षा प्राप्त किया जा सकता है। नौकरी के लिए डिग्री की आवश्यकता है। साहित्य के लिए नहींं। साहित्य के लिए अध्ययनशीलता एवं अनुभूति चाहिए। किसी भी कार्य में मन लगाकर कार्य करने से अनुभव बढ़ता है जिस कारण आप अपने कार्य से सभी का विश्वास जीत सकते हैं। उदाहरण परमहंस रामकृष्ण को ले सकते हैं।”1 अपनी शिक्षा से संबन्धित विक्रमवीर थापा के उत्तर प्रति उत्तर जो भी रहे हो किन्तु बचपन से लेकर बुढ़ापे तक संघर्ष ने उनका साथ कभी नहींं छोड़ा।
‘विक्रमवीर थापा’ को न पहचानने वालों को यह जानकार आश्चर्य होगा कि वे भारत के भूतपूर्व सैनिक रह चुके हैं। एक सैनिक का सफल रचनाकार होना आश्चर्य में डालता है किन्तु सत्य तो यही है कि वे जितनी वीरता से सन् 1972 में बांग्लादेश के युद्ध में राइफल लेकर देश की सेवा में डटे रहें उतनी ही सिद्दत से कलम भी चलाया और सन् 1999 में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कर नेपाली साहित्य जगत के पन्नों में ऐतिहासिक घटना को मूर्त रूप दिया। ‘विक्रमवीर थापा मेरा आँखीझ्यालबाट’ के लेखक विशाल के सी स्वयं एक सिपाही होने के नाते कहते हैं कि फौज में होने तक सैनिक को याद रखा जाता है अवकाश प्राप्ति के पश्चात् वे नाम भुला दिये जाते हैं। किन्तु विक्रमवीर थापा का नाम आज भी फौज में उतने ही सम्मान पूर्वक लिया जाता है कारण उनकी रचना ‘बीसौं शताब्दीको मोनालिसा’ है। मेजर जनरल इयान कारडोजो द्वारा लिखित पुस्तक “The fifth Gorkha Rifle frontier force” के पृष्ट संख्या-65 में लिखा है – June 2000 however brought in happy tidings. Rifleman Bikram Bir Thapa (Retired) was honoured with ‘Sahitya Akademi Award’ for the Year 1999 for his Book ‘The Monalisa Of the 20th Century”2 अवकाश प्राप्ति के पश्चात् भी फौज के मेजर जनरल द्वारा लिखित पुस्तक में स्वयं को सुसज्जित होते पाना किसी जंग जीतने से कम नहींं, भले ही वह साहित्यिक जंग क्यों न हो? (नोट- इस पुस्तक के लेखक Major General Ian Cardozo वही व्यक्ति हैं जिन्होंने Gorkha Regiment का नेतृत्व किया था एवं वर्तमान में उन्हें केंद्र में रखकर हिन्दी फिल्म Gorkha फिल्माया जा रहा है जिसके अभिनेता अक्षय कुमार हैं।)
विक्रमवीर थापा वरिष्ठ साहित्यकार के साथ ही साथ अच्छे चित्रकार भी हैं। अभी तक वे लगभग तीन सौ चित्र अंकित कर चुके हैं। वे अपने चित्रकला में स्थूल में भी सुंदरता की खोज करते हैं, चित्रकारी के संबंध में उनका मानना है कि यह कला उन्हें जन्मजात प्राप्त हुई। इसीलिए वे कला के संबंध में स्वयं को चित्रकार के रूप में प्रथम तथा साहित्य के क्षेत्र में द्वितीय स्थान पर रखते हैं। किन्तु उनका नाम साहित्यकार के रूप में अधिक चर्चित हुआ। किन्तु दुःख की बात है कि साहित्य के क्षेत्र में उनका नाम जीतना चर्चा में हैं, अपने समाज में वे उतना ही गुमनाम है।—कारण, वे स्वयं स्वीकारते हैं उनका स्वयं का निर्धन होना। स्वाभाविक है कि साहित्य रचने का उद्देश्य केवल पैसा कमाना नहींं। साहित्य का उद्देश्य अपने समाज, भाषा अपने लोगों को सशक्त बनाना है किन्तु विक्रमवीर थापा यहीं हार जाते हैं और कहते हैं- “मेरा सुझाव है कि यदि आपके पास पैसे नहींं है तो कुछ नहींं है क्योंकि मैंने स्वयं इसे भोगा है। यदि आज मेरे पास पैसे होते तो मेरे कमरे में लोगों का तांता लगा होता। मेरे पास पैसे नहींं है इसीलिए कोई मेरी खबर भी नहींं लेता।”3 एक साहित्यकार होने के नाते विक्रमवीर थापा हमेशा अपने समाज को उन ऊँचाइयों में देखना चाहते हैं जहाँ हर व्यक्ति पहुँचने के सपने देखता है, किन्तु कई बार वे ठीक इसके विपरीत देखते हैं। जिस कारण उनके मन में हमेशा टीस रहती—है और कभी-कभार यह टीस सामाजिक संजाल में आलेख के रूप में फुट पड़ता है। इनके इसी शिकायत के कारण कई लोग, संघ-सभाएँ स्वयं को इनसे दूर रखते हैं। पुस्तक से ही संदर्भ देख लीजिए- “लेकिन आजकल समय के चक्र के साथ वर्तमान साहित्यकार अपने साहित्यिक पन्ने से विक्रमवीर थापा का नाम मिटाते जा रहे हैं, जिसका जीवन्त उदाहरण है ‘संयुक्त अधिवेशन’ जैसे सभा का विक्रमवीर थापा को आमंत्रण न करना।”4 पूर्वोत्तर भारत में रहकर अपने जाति, भाषा, साहित्य तथा समाज प्रति सजग होना, समाज को चेतनाशील होने का संदेश देना एक साहित्यकार का धर्म होता है। किन्तु समाज के कुछ पक्षपाती व्यक्ति ऐसे सजग साहित्यकार को बार-बार चोट देकर समाज से काटने का प्रयत्न करते हैं। ऐसे अवहेलना तथा चोट के पंक्ति में केवल विक्रमवीर थापा ही नहींं अन्य नाम भी जुड़े हैं।
कहा जाता हैं कि कला का ज्ञान रखने वाला व्यक्ति न केवल वर्तमान बल्कि भविष्यद्रष्टा भी होता है और अपने कला के माध्यम से मनुष्य-मनुष्य को जोड़े रखता है। अतः विक्रमवीर थापा द्वारा चित्रित चित्र ‘सन् 1999 को कार्गिल युद्ध’ के संदर्भ में वे स्वयं कहते हैं- “यह चित्र हिन्दू-मुस्लिम या अन्य जाति का व्यक्तिगत परिचय नहींं अपितु भारतभूमि में निवास करने वाली जनता की एकता का प्रतीक है। शत्रु द्वारा जितना भी आक्रमण किया जाए हम सभी एक ही रहेंगे। हमें कोई अलग नहींं कर सकता क्योंकि हम भारतीय है और संसार का कोई शत्रु हमें अलग नहींं कर सकता बल्कि संकट आने पर उसे कैसे दूर करना है हमें आता है।”5 साहित्यकार अपने समाज के सुधार-जागरूकता के लिए जितनी कठोरता तथा व्यंग्य से अपनी कलम उठाता है उसका हृदय उससे अधिक कोमलता, अपनेपन से भरा रहता है। वह साहित्य भी रचता है तो केवल अपने समाज अपने लोगों के हित के लिए।
साहित्य समाज का दर्पण होता है जहाँ समाज में हो रहे घटनाओं को विभिन्न विधाओं के माध्यम से उजागर किया जाता है। समाज के बिना मनुष्य का निर्माण असंभव है। समाज की व्यवस्था परिवार से उसमें रहने वाले लोगों से बनता है तथा उस परिवार में एक पुरुष की जितनी अहमियत होती है स्त्री की भी अहम भूमिका होती है। प्राचीन काल से हमारे समाज में स्त्री को देवी और कई रूपों से पूजा जाता है। सम्मान दिया जाता है। इसे प्रसाद की इस पंक्ति से जानते हुए आगे बढ़ते हैं-
‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास रजत नग पगतल में
पीयूष स्रोत से बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में’
प्रस्तुत पंक्ति यह स्पष्ट करती हैकि नारी का सम्मान साहित्य में भी उतना ही है जितना शास्त्रों में। विक्रमवीर थापा के जीवन में दिया छेत्री, तुलसी छेत्री, कमला बहिनी आदि अनेक स्त्रियों का आगमन बहन-बेटी के रूप में हुआ। किन्तु जीवन संगिनी के रूप में जिसे उन्होंने चाहा वह कभी उसे पा न सके और वह ईश्वर को प्यारी हो गयी।
संबन्धित पुस्तक में विक्रमवीर थापा अपनी मुँह—बोली बहन तुलसी छेत्री को याद करते हुए बहुत सुंदर घटना का उल्लेख करते हैं जिसके कारण उन्हें ‘माटो बोलदो हो’ उपन्यास लिखने की प्रेरणा मिली – “बहन, मांग में सिंदूर भरने के पश्चात् बेटी पराई धन हो जाती है, इसीलिए जब बेटी का विवाह हो जाता है फिर मायके के मिट्टी से उसका कोई संबंध नहींं रह जाता। किन्तु अभी तक तुम्हारे मांग में सिंदूर भरा नहींं गया है इसीलिए तुम अभी मायके के मिट्टी से पराई नहींं हुई हो। तुम्हारे जन्मभूमि, तुम्हारे लालन-पालन हुए स्थान से तुम्हारा नाता टूटा नहींं है, न जीवनभर टूटेगा। जीवनभर अपने जन्मभूमि से तुम्हारा नाता बना रहे इसीलिए तुम्हारे लिए में तुम्हारे जन्मभूमि की मिट्टी लेकर आया हूँ। तुम्हारा गरीब भाई तुम्हें हीरे-मोती, या सोफ़ासेट नहींं दे सकता, दे सकता है तो- गोड़धुवा के रूप में तुम्हारी जन्मभूमि की मिट्टी।”6 (गोड़धुआ अर्थात् विवाह से पूर्व लड़की के मायके वाले उसके पैरों को जल से धोते हैं।) इस घटना से यह जान पड़ता है कि विक्रमवीर थापा स्त्री जाति के प्रति सहृदय हैं। वे नारी अस्मिता के प्रति सम्मान देते हुये कहते हैं “नारी अस्मिता के प्रति में क्यों सचेत हूँ या विश्वास करता हूँ इसका कारण मेरी माँ है। मेरे जन्म के पश्चात् माँ के दुग्धपान से मैं पला-बढ़ा। इसी कारण में सर्वप्रथम एक स्त्री में अपनी माँ का स्वरूप देखता हूँ तत् पश्चात् और। इसी कारण मैं नारी-अस्मिता के प्रति सचेत हूँ।”7 शास्त्रों एवं साहित्य में भी अंकित है कि जहाँ स्त्री का सम्मान होता है वहाँ देवता निवास करते हैं। इसे ऐसे ले कि वर्तमान में जिस समाज में स्त्री का सम्मान होता है वह समाज सम्पन्न, शिक्षित तथा उनमें सद्भाव बना रहता है।
निष्कर्षतः पुस्तक का अध्ययन कर यह स्पष्ट होता है कि विशाल के सी ने इस पुस्तक में विक्रमवीर थापा के विचारों को, जीवन में घटित उनके तमाम अनुभूतियों को, अपने समाज के प्रति उनके जागरूकता को, उनके बौद्धिक ज्ञान के साथ-साथ उनके कला को केंद्र में रखा है। जिसे कलाहिन व्यक्ति या यों कहे की एक भीड़ उनके कला को समझ नहींं पाता और तमाम तरह के आक्षेप लगाता जाता है किन्तु उसी भीड़ में विशाल के सी जैसे साहित्यकार और अन्य व्यक्ति भी हैं जो उन्हें समझते हैं उनके साहित्य, कला, ज्ञान की सराहना भी करते हैं जिसका सबसे बड़ा उदाहरण यह पुस्तक है। अंततः साहित्य लिखना सभी के बस का नहींं उसके लिए प्रतिभा का होना आवश्यक है और लेखन का बुलंद होना आवश्यक है। लेखक जो भी लिखे उससे समाज का हित हो न की केवल कागजों की ढ़ेर। अन्यथा अर्थ का अनर्थ होते समय नहींं लगता।
संदर्भ सूची
विशाल के सी, विक्रमवीर थापा मेरा आँखीझ्यालबाट, (तेजपुर: भारतीय साहित्य प्रतिष्ठान, 2021),107
विशाल के सी, विक्रमवीर थापा मेरा आँखीझ्यालबाट, (तेजपुर: भारतीय साहित्य प्रतिष्ठान, 2021),37
विशाल के सी, विक्रमवीर थापा मेरा आँखीझ्यालबाट, (तेजपुर: भारतीय साहित्य प्रतिष्ठान, 2021),34
विशाल के सी, विक्रमवीर थापा मेरा आँखीझ्यालबाट, (तेजपुर: भारतीय साहित्य प्रतिष्ठान, 2021),19
विशाल के सी, विक्रमवीर थापा मेरा आँखीझ्यालबाट, (तेजपुर: भारतीय साहित्य प्रतिष्ठान, 2021),31
विशाल के सी, विक्रमवीर थापा मेरा आँखीझ्यालबाट, (तेजपुर: भारतीय साहित्य प्रतिष्ठान, 2021),64
विशाल के सी, विक्रमवीर थापा मेरा आँखीझ्यालबाट, (तेजपुर: भारतीय साहित्य प्रतिष्ठान, 2021),103
नीतू थापा: एम.फिल (महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा), पीएचडी शोधार्थी-पूर्वोतर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग

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