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Poesy - कवितायन

पीटें सभी लकीर

पंकज मिश्र ‘अटल'   |   ISSUE X

शब्द-शब्द से 
टपक रही है 
अंतर्मन की पीर।
दुनियादारी 
तज के हो गए 
अब तो दास कबीर।
मर्म धर्म का 
बांट रहे सब 
मिल चौराहों पर।
जुमलों का ही
पोत रहे सब
मलहम आहों पर।
मानक सारे 
चूर हुए हैं, 
पीटें सभी लकीर।
दूरदृष्टि की 
बात करें क्या 
दृष्टि हुई मैली।
किसी संक्रमण 
जैसी केवल, 
विकृतियां फैलीं।
आज त्रासदी 
के हल की बस 
चर्चाएं गंभीर।
अखबारी 
हेडलाइंस जैसे 
गूंगे हैं अनुबंध। 
ढली शाम 
रद्दी पन्नों में 
सिमट गए संबंध।
संझा की 
खिड़की से झाँकें
रातें खड़ी अधीर।


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पंकज मिश्र ‘अटल'