"अफलातून समझता था
सच बोल ही नहीँ सकता
कोई कवि -
कौन जाने कब
बना दे
राई का पर्वत और दिखा दे हुनर
पहाड को जर्रा बताने का" !
आरपी बोले,
"नहीं रे,
शायर की नजर
ताड़ जाती है
तिल में मौजूद पहाड और
जान जाता है वह
किस समंदर नामधारी की हैसियत
बूंद बराबर भी नहीं "!
"नजर का अंतर,
और फर्क नजरिए का ऐसा कि,
कोई
सुलगती लौ
उग जाती है शायर की जिम्मेदारी लिए
किसी आदमी की जिस्म में
- रोशनी लिए,
- आग लिए
- नव सृजन का संकल्प लिए !
"कवि झूठ नहीं बोलता रे,
उसकी आँख कुछ और होती है, कि,
कुछ और दिखता है उसे!
"पता नहीं
शायर की निगाहों को
कौन जाने कब
मिल जाए
सूरज,
कब करें वह इंतजार चंदा का