सौन्दर्य एक वैचारिक प्रत्यय है, जो वस्तुनिरपेक्ष, अनन्त एवं सूक्ष्म होता है। इसी अनन्त सौन्दर्य की लौकिक वस्तु-सापेक्ष अभिव्यक्ति को सौन्दर्यबोध कहा जा सकता है। सौन्दर्यबोध, अनुभूति की वह प्रक्रिया है, जो किसी काव्य-कला के अन्तर्निहित उसकी मूल प्रवृत्तियों का उद्घाटन करता है। सौन्दर्यबोध में परम्परा, संस्कृति, मूल्य, आदर्श, नियम, निषेध एवं संस्कार आदि विद्यमान रहते हैं। ये परिवर्तनशील और समय-सापेक्ष हैं। बोध वह वैचारिक अनुभूति है, जिसमें युगानुरूप परिवर्तन परिलक्षित किया जा सकता है। वह अतीत की सीमाओं का अतिक्रमण कर अनुभूति एवं अभिव्यक्ति के नवीन विषयों का संधान करता है।
सौन्दर्य वहीं अपनी चरम सीमा पर पहुँचता है, जहाँ वह निष्काम सहज आनन्द का अनुभव करता है। अतः स्वामी जी की सौन्दर्य-भावना लोकधर्मी तथा विश्व-योगिनी के रूप में दिखाई देती है, जो सदैव उनके साथ रहती है -
"तब लगता है, सुनता हूँ,
मीठे सुर में तुमको कहते चुपके-चुपके -
हृदय को मिल जाती शक्ति, साथ तुम्हारे
मरण सहस्रों, फिर भी निर्भय।
तुम्हीं ध्वनित हो माँ की लोरी में,
जो शिशु की पलकें अलसा देती। "
वे प्रेम द्वारा ईश्वर की उपासना करते हैं। स्वामी विवेकानंद जी ने प्रेम के विराट स्वरूप को व्याख्यायित किया है। सच्चे प्रेम में अपरिमित शक्ति होती है क्योंकि वह मलिनता से परे त्याग और बलिदान की सुदृढ़ नींव पर टिका होता है। चाहे वह प्रेम आत्मा का परमात्मा के लिये हो या शिष्य का गुरु के प्रति हो। यथा -
छोड़ो विद्या, जप-तप का बल, स्वार्थविहीन प्रेम-आधार
एक हृदय का, देखो शिक्षा देता है पतंग का प्यार
अग्निशिखा को आलिंगन कर; रूप-मुग्ध वह कीट अधम
अन्ध और तुम, मत्त प्रेम के, हृदय तुम्हारा उज्ज्वलतम,
प्रेमवत्स! सब स्वार्थ-मलिनता अनलकुण्ड में भस्मीकृत
कर दो......"
यहाँ प्रेम-उपासना अनन्त सौन्दर्य- निधि के रूप में उपस्थित है। इनके लिये सौन्दर्य और ईश्वर भिन्न न होकर अभिन्न है। ध्यातव्य है कि वीरान मंदिर में अतिथि के आगमन पर न कोई स्वागत कर सकता है, न उसके विदा के क्षणों में महत्वपूर्ण अश्रु-प्रवाह कर सकता है। वह प्राणी जिसने ब्रह्म से प्रेम नहीं किया, उसने प्रेम या भक्ति में आनन्द का अनुभव नहीं किया।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें, तो मनुष्य हृदय की उदार, उन्मुक्त प्रवृत्ति के अनुरूप सौन्दर्य का सृजन कर लेता है। तात्पर्य यह है कि जिस व्यक्ति का हृदय जितना उदार एवं विशाल होगा, उसके बोध का स्तर उतना ही विस्तृत होगा। जिसकी चित्तवृत्ति जितनी संकुचित होगी, उसका सौन्दर्यबोध उतना लघु होगा। हमारी सौन्दर्यानुभूति मानसिक वृत्तियों तथा परिस्थितियों से निर्मित होती है। स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार "बाह्य प्रकृति अन्तः प्रकृति का ही विशाल आलेख है। " वे आगे कहते हैं, "तुम्हारी प्रवृत्ति तुम्हारे काम का मापदंड है। "
स्वामी विवेकानंद जी की कविताओं में सतत संघर्षशील रहने की प्रेरणा मिलती है। घोर आराजकता के इस युग में आज का मानव बौद्धिक विसंगतियों में जी रहा है। वह इतना निराश हो गया है कि वह अपनी पहचान एवं आत्मविश्वास खो बैठा है। बाह्य संघर्षों, द्वंद्वों और आघातों ने उसे अन्दर ही अन्दर सिमटने के लिए विवश कर दिया है। उसके मन में भविष्य के प्रति कोई आस्था और आशा नहीं है। ऐसे में स्वामी विवेकानंद जी आम मनुष्यों के अंतर्मन को जागृत करते हैं और कहते हैं -
"मनुष्य की ही यह शक्ति है। ऐसे कि वह
भाग्य से संघर्ष कर उसे जीत सकता है
और नियम-बन्धनों से ऊपर उठ सकता है। "
जीवन संघर्ष एवं चुनौतियों से भरा एक ऐसा मार्ग हैं, जिसे सभी को पार करना होता है। मार्ग की अपनी सीमा होती है। वहाँ तक पहुँच कर यात्री को क्या अचानक रुक जाना चाहिए या अपने अस्तित्व की खोज में सीमाओं को पार कर स्वयं नयी राह का निर्माण करना चाहिए? एक निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचकर या पराजित हो रुक जाना जीवन का उद्देश्य या आदर्श नहीं हो सकता। माना कि मृत्यु जीवन की एक सीमा है, जहाँ सभी चिर विराम लेते हैं परन्तु कर्मठ अपनी सीमा यहाँ तक नहीं मानते। वे धैर्य के साथ आगे बढ़ते हैं क्योंकि प्रगति पर उनका अटूट विश्वास होता है। वे निरन्तर आगे बढ़ते रहते हैं, जब तक कि उन्हें लक्ष्य न प्राप्त हो। ऐसे में स्वामी विवेकानंद जी थकित हृदय को सांत्वना देते हुए नयी ऊर्जा का संचार करते हैं। वे संदेश देते हैं -
"भले ही तुम्हारा सूर्य बादलों से ढक जाय,
आकाश उदास दिखाई दे,
फिर भी धैर्य धरो हे वीर हृदय!
तुम्हारी विजय अवश्यंभावी है। "
ऐसी आध्यात्म का जीवन-पथ है, जो निस्सीम है। यहाँ जीवन नहीं रुकता। राहों की चुनौतियों का सामना करते हुए साधक ऐसी अनन्त-यात्रा में निकल जाता है, जहाँ प्रगति ही प्रगति है, आनन्द ही आनन्द है। यहाँ उसकी मृत्यु नहीं होती अपितु उसका अस्तित्व अमर हो जाता है।
ज्ञान के प्रकाश से अन्तर्मन में छाया अंधकार दूर हो जाता है। स्वामी जी के शब्दों में -
"एक चमक ने आलोकित कर दी मेरी आत्मा,
अंतरतम के द्वार हो गए मुक्त।
कितना हर्ष, कितना आनन्द-----6
यहाँ मानव आम जीवन के संघर्ष में सतत् प्रयासरत रह क्षणिक आनन्द से परमानंद की प्राप्ति कर लेता है। बोध के स्तर पर संघर्ष में सौन्दर्य की अनुभूति होती है क्योंकि जो नित्य सुन्दर है, वही आनन्द की पराकाष्ठा है। वहाँ आत्मा किंकर्तव्यविमूढ़ आत्मा परम सौन्दर्य की अनुभूति करती है और "परमानंद-विमोहित मग्न" समाधिस्थ हो जाता है।
जब सौन्दर्य अपनी चरम सीमा पर पहुँचता है, तब उसे निष्काम, सहज आनन्द की प्राप्ति होती है। स्वामी विवेकानंद जी के काव्य ने संघर्षों द्वारा विषमताओं को दूर कर शांति एवं संतुलन की स्थापना कर असीम सौन्दर्य की प्राप्ति का मूल मंत्र दिया है। वे कर्मठ योगी है। वे परमेश्वर की उपासना अनन्त सौन्दर्य-निधि के रूप में करते हैं। अनुभूति के धरातल पर सौन्दर्य एवं आनन्द एकाकार हो जाते हैं। स्वामी जी के काव्य में सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् का समन्वय व्याख्यायित होता है। सौन्दर्य स्थूल से सूक्ष्म, लौकिक से अलौकिक की यात्रा तय करता है।