पुस्तक - हिन्दू धर्म की रूपरेखा : एक आकलन
पुस्तक - हिन्दू धर्म की रूपरेखा
मूल लेखक - स्वामी निर्वेदानन्द
अनुवादक - स्वामी विदेहात्मानन्द
प्रकाशक - अद्वैत आश्रम, कोलकाता
मूल्य ₹200
अब, जबकि धर्म, सम्प्रदाय, मजहब, पंथ और रिलीजन को अपने फायदे के अनुसार कभी पर्याय और कभी अपर्याय मानने का चलन शुरू हो गया तब किसी ऐसी पुस्तक की आवश्यकता अपरिहार्य हो जाती है जो नीर-क्षीर विवेक से न्याय कर सके। धर्म के यथार्थ स्वरूप को समझा सके। कबीर के साधु सरिस सूप की भूमिका निभाते हुए परिष्करण कर सके। अज्ञानतावश धर्म पर उठती अंगुलियों की इंगित की दिशा मोड़ सके। सनातन की वैश्विक पहुँच से विभिन्न परिक्षेत्रों में निःसृत विविध शाखाओं को पहचान सके। हिन्दू धर्म से ममत्व और अन्तर्सम्बन्ध को बतला सके। इसके लिए आवश्यक हो जाता है हिन्दू धर्म दर्शन को समझना और सरलीकृत करके दूसरों को समझाना। इसे समझने और समझाने के लिए आज एक पुस्तक उपलब्ध है जिसके बारे में चर्चा करने का मोह संवरण नहीं कर पा रहा हूं। कदाचित इसको मेरा कर्तव्य बोध भी कहा जा सकता है। यह पुस्तक है " हिन्दू धर्म की रूप रेखा"।
वैश्विक धरातल पर द्वितीय विश्वयुद्ध अन्तहीन सा प्रतीत हो रहा था। ब्रिटिश अपने उपनिवेश छोड़ने को विवश थे। भारत में जहां पूरी शक्ति अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ने में लगनी चाहिए थी किंतु दुर्भाग्यवश मजहबी ताकतें हिन्दू धर्म को निशाने पर रखकर भारत के टुकड़े करने पर उद्यत थीं। उसी संशयात्मक परिवेश में सन् 1944 में आंग्ल भाषा में भविष्यद्रष्टा स्वामी निर्वेदानन्दजी ने "Hinduism at a Glance" की रचना की। इस पुस्तक को बांग्ला सहित कई अन्य भाषाओं में भी प्रकाशित कर जिज्ञासुओं ने लाभ उठाए। स्वामी विदेहात्मानन्दजी ने सन् 2009 में हिन्दी भाषा में इस पुस्तक को अनूदित कर प्रकाशित कराया। पुनः 2015 में द्वितीय संस्करण प्रकाशित हुआ।
188 पृष्ठों में विनिर्मित यह पुस्तक किसी सुनियोजित पाठ्यक्रम का आभास कराती है। न केवल लेखन अपितु इसके अध्यायों का क्रमशः व्यवस्थापन भी सिद्धि को दर्शाता है। यह पुस्तक दो भागों में संकलित है। जैसा कि ‘लेखक के दो शब्द’ में उद्धृत है "इस पुस्तक के प्रथम भाग में हिन्दुओं की साधना का लक्ष्य, क्रम तथा विभिन्न पद्धतियों पर चर्चा की गई है और द्वितीय भाग में परमार्थ - तत्व, पुराण- कथा, कर्मकांडों की सार्थकता और जीवन के प्रति हिन्दुओं के दृष्टिकोण पर प्रकाश डाला गया है। " अपौरुषेय श्रुति वेद, वेदांग, उपनिषद्, पुराण, गीता, रामायण आदि समस्त पुराकालीन आदि हिन्दू धर्म एवं शास्त्र की संक्षिप्त चर्चा की गई है इस पुस्तक में। आत्मा, परमात्मा और प्रकृति भी लेखक से छूटे नहीं हैं। मुक्ति मार्ग और योग को भी शामिल किया गया है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें ‘हिन्दुओं का दृष्टिकोण’ भी समझाया गया है। मुझे नहीं लगता कि समझने की चाह रखने वाला यहां से निराश लौटेगा!
‘प्रकाशकीय’ में ही इस पुस्तक के उद्देश्य की ओर ध्यानाकर्षित किया गया है। गोस्वामी तुलसीदास की जन विदित पंक्ति "बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती" के आलोक में सुधी लोगों को आगाह किया गया है। जाने बिना प्रेम नहीं होता अतः यदि हम चाहते हैं कि हिन्दुओं की वर्तमान तथा भावी पीढ़ियां अपने धर्म से प्रेम करें तो पहले उन्हें हिन्दू धर्म क्या है- इसकी सहज रूप से ठोस जानकारी देनी होगी। इस संदर्भ में स्वामी विवेकानन्द जी का उद्धरण विशेष उल्लेखनीय है, "आधुनिक विज्ञान के नवीनतम आविष्कार जिसकी केवल प्रतिध्वनि मात्र है, ऐसे वेदान्त के अत्युच्च भाव से लेकर सामान्य मूर्ति पूजा एवं तदानुषंगिक अनेकानेक पौराणिक दन्त कथाओं और इतना ही नहीं बल्कि बौद्धों के अज्ञेयवाद तथा जैनों के निरीश्वरवाद- इनमें से प्रत्येक के लिए हिन्दू धर्म में स्थान है। "
लेखक को हिन्दू धर्म के गूढ़ एवं सरल तथ्यों का पूरा ज्ञान है। किसी भी विषय को प्रतिपादित करते हुए लेखक ने सामान्य पाठक की समझ के स्तर को सदैव ध्यान में रखा है। हर गूढ़ तत्व को सहज एवं सरल रूप से प्रस्तुत करने में लेखक को विशेष दक्षता प्राप्त है। उदाहरणार्थ - "क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा। पंच रचित यह अधम सरीरा। " इन पांच तत्वों और इनकी एक -दूसरे में उपस्थिति एवं अन्तर्सम्बन्ध को समझाते लिए लेखक ने स्वयं को आप जन के स्तर पर उतार लिया है। पृथ्वी में 1/2 भाग पृथ्वी और 1/8 भाग अन्य चार उपादानों की भागीदारी हिंदुत्व तत्व दर्शन की वस्तुनिष्ठता और कालजयिता को समझने के लिए पर्याप्त है।
स्वामी विवेकानन्दजी का यह कथन कि, "मुझको ऐसे धर्मावलंबी होने का गौरव है जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सब धर्मों को मान्यता प्रदान करने की शिक्षा दी है। हम लोग (हिन्दू) सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मानकर ग्रहण करते हैं। मुझे आपसे निवेदन करते गर्व होता है कि मैं ऐसे धर्म का अनुयायी हूं जिसकी पवित्र भाषा संस्कृत में अंग्रेजी शब्द एक्सक्लूजन का कोई पर्यायवाची नहीं। " अर्थात् सब कुछ समाहित है हिन्दू धर्म एवं हिन्दुत्व में।
सदियों से कोहरे के धुंध में आच्छादित हिन्दू धर्म को स्वामी विवेकानन्द जी से पुनः विश्व के समक्ष रखा। भारत ही नहीं अपितु विश्व ने फिर से हिन्दू धर्म को जाना और समझा। जैसे धर्म की स्थापना के लिए भगवान बार-बार धरती पर अवतरित होते हैं, वैसे ही धर्म पर छाए धुंध को झाड़ने के लिए ऋषि लोग आते हैं। इसी कड़ी में उन्नसवीं शताब्दी में विवेकानन्द जी आए। यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि इस पुस्तक के लेखक स्वामी निर्वेदानन्दजी भी इसी श्रृंखला की अगली कड़ी थे। उनके तदनन्तर स्वामी विदेहात्मानन्दजी ने भी विश्व की सबसे बड़ी भाषा हिन्दी में अनुवाद करके स्तुत्य कार्य किया। आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि ऐसा सत्कर्म आवश्यकतानुसार आगे भी होता रहेगा। यह इसलिए भी जरूरी है कि दुनिया का सबसे प्राचीन, सबसे बड़ा और सबसे अधिक वैज्ञानिक धर्म को वास्तविक रूप में दुनिया जाने और गर्व भी करे।
आज का समय साम्प्रदायिक प्रदूषण से ओतप्रोत है। हर धर्म, हर पंथ और हर सम्प्रदाय अपने को श्रेष्ठ व दूसरों को गौण साबित करने में लगा है। सभी को अपने में अच्छाई और दूसरों में बुराई दिखती है। भारत में निहित समन्वय एवं हिन्दुत्व की आत्मा सहिष्णुता की भावना की ओट में दूसरे धर्म/पंथ के लोग सदियों से यहां अपने लिए भूमि तलाशते रहे। उनका कुत्सित अभियान अनवरत जारी है। अपनी बड़बोली अच्छाई बताते -बताते हिन्दुत्व की बुराई करने लगे हैं। हिन्दू धर्म पर असहिष्णु एवं हिंसक होने का भी मिथ्या आरोप थोपने लगे हैं। ऐसे विधर्मियों को आईना दिखाकर सही राह पर लाने के लिए हिन्दू धर्म और उसके दर्शन को जानना सबके लिए जरूरी है। अब चूंकि समस्त हिन्दू धर्म ग्रंथ देवभाषा संस्कृत में लिखित है और संस्कृत पूरी तरह से लोकभाषा बन नहीं पाई है। इसलिए आम जन न संस्कृत को पढ़-समझ सकता है न धर्मग्रंथ का निष्णात बन सकता है। तब आवश्यक हो जाती है "हिन्दू धर्म की रूपरेखा" या इसके जैसी ही पुस्तक जो आम जन को हिन्दू धर्म की वास्तविकता से परिचित करा सके। स्वयं को सीख दे सके और विधर्मियों या भटके लोगों का समुचित मार्गदर्शन कर सके। इस हेतु यह पुस्तक किसी रामबाण के समान उपयोगी है। पुस्तक में किसी भी पूर्वाग्रह की उपस्थिति नहीं है। भाषा शैली एवं धारणाएं सुस्पष्ट हैं। हर उदाहरण सहज और सरल है। शब्दों का चयन धार्मिक विषय के अनुरूप है। इस पुस्तक को पढ़कर प्यास मरती नहीं बल्कि और तीव्र लग जाती है। यह भी इस पुस्तक की उल्लेखनीय विशेषता है।
आदरणीय लेखक ने समय की नब्ज़ को समय रहते पकड़ा और इतनी सारगर्भित पुस्तक को लिखा इस हेतु वे विशेष सम्मान के पात्र हैं। अनुवादक महोदय ने हिन्दी भाषा में अनुवाद करके आमजन को पढ़ने और समझने का अवसर प्रदान किया इसलिए उनके प्रति हम आभारी हैं। प्रकाशक का साहसिक कदम भी सराहनीय है जिससे इसे पुस्तक का स्वरूप मिला।