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Poesy - कवितायन

जड़ों में धड़कतीं ऋतुएँ

भरत प्रसाद   |   Spring 2025

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कितनी छटपटाती आवाजें पीना जरूरी था
कानों के संस्कार के लिए।
जरूरी था-
पल, पल रुक-रुक कर निरखना
हर नाचीज़ को
आँखे निरर्थक सिद्ध होने के लिए।

हमारे मतलबपरस्त पैर
लाखों पीड़ाओं की ओर दौड़ पड़ना
कहाँ सीख पाए?
मिट्टी की गोद में मिटकर सोना
सीख लेना था, जीते-जी
यहीं बस यहीं दबा है
जीवन का कोई अनमोल अर्थ।

अहक उठती है, लहर जैसी
पेड़ों के पास जाते ही आदमी रहूँ,
खुद से तत्क्षण अलग हो जाऊँ
एक-एक चीज से बतियाते हुए।
मनुष्य की तरह जीने के लिए
वस्तुएँ हो जाना कितना जरूरी है?
क्यों मचलता है हृदय?

निर्जीव की धड़कनें सुनने के लिए
दरख्तों के आँसू पीने के लिए।
कितनी आत्मघाती खुशी थी
अपने सुखों को सहलाते रहना।
अपनी धड़कनों के आगे
हमने उपेक्षित कर दिया
जड़ों में धड़कतीं ऋतुएँ।

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author
भरत प्रसाद