अक्षय हूँ, अक्षर हूँ, अनश्वर हूँ।
जो हूँ, पर विधाता का अंश हूँ।।
जल, थल, नभ, वायु, अगन में हूँ।
इसी लिए आदि और अंत भी हूँ।।
क्षिति, जल, पावक, गगन समीर।
इन सब तत्वों में समाहित हूँ मैं।।
हर युग का काल पुरुष हूँ मैं।
इसी लिए सदैव, महादेव हूँ मैं।।
ब्रह्म है, ब्रह्मांड है, सनातन है।
इसी संस्कृति का गान हूँ मैं।।
स्नेह रखता हूँ, पर बंधन नहीं।
इसी द्वैत और अद्वैत से परे हूँ मैं।।
भय भी हूँ, भय भंजक भी हूँ।
जीत और हार का प्रतिकार भी हूँ।।
ना कोई आदि, ना कोई अंत है।
पूर्व, पश्चात और वर्तमान हूँ मैं।।
वेद, दर्शन, उपनिषद, मीमांसा
पुराण और आख्यान सब मैं हूँ।।
इडा, पिंगला, सुषुम्ना में ही नहीं।
हर स्वांस, ऊस्वांस में, मैं ही मैं हूँ।।
आओ, सब समा जाओ मुझ में।
जीवन और मृत्यु का आधार हूँ मैं।।
चन्द्र शेखर शर्मा ‘चन्द्रेश’, जयपुर