समर में जॉं पे खेल कर अजब कमाल कर गए।
कि आने वाली पीढ़ियों के हित मिसाल कर गए।
चढ़े हरेक चोटी पर जहाँ कोई चढ़ा न था,
हथेली पर ले सर वो पेश इक धमाल कर गए।
चुका दिए हैं फ़र्ज़, जान की कभी न फ़िक्र की,
वसुंधरा को खून से रंग कर निहाल कर गए।
पटी पड़ी धरा भी दुश्मनों के रुंड-मुंड से,
यूँ दुश्मनों के दिल जिगर में भय बहाल कर गए।
निभा के फ़र्ज़ ख़ुद लिपट के आ गये तिरंगा में,
सदा तिरंगा ऊँचा रख के नभ विशाल कर गए।
-कालजयी घनश्याम, नई दिल्ली