कुछ कर्मवीर अथक परिश्रम से विषमताओं के सागर पर सेतु का निर्माण कर पार करने में सक्षम हो जाते हैं और हर बंधन से मुक्त हो जाते हैं।
स्वामी विवेकानंद जी ने कविता “मुक्ति” 4 जुलाई 1898 को व्यक्तिगत आयोजन के तहत अमेरिकी स्वतंत्रता की घोषणा की वर्षगाँठ के अवसर पर सुबह नाश्ते पर पढ़ने के लिये लिखी थी। उस समय वे अपने कुछ अमेरिकी शिष्यों के साथ कश्मीर-यात्रा पर थे। यद्यपि यह कविता दासता की जंजीरों से अमेरिका की मुक्ति को दर्शाती है तदपि स्वामी विवेकानंद जी के “मुक्ति” का अभिप्राय व्यापक है।
स्वामी विवेकानंद के अनुसार मुक्ति का अर्थ है स्वतंत्रता। जहाँ स्वतंत्रता मात्र देश की ही नहीं बल्कि विचारों की और जन्म-मृत्यु के बंधन से भी हो। सतत प्रयासरत मानव ही आत्मसाक्षात्कार कर वैचारिक दासता के अंधकार से मुक्त हो सकता है। दासता रूपी तिमिर दूर होते ही सर्वत्र मुक्ति रूपी प्रकाश प्रसरित होता है।
“वह देखो, वे घने बादल छट रहे हैं,
जिन्होंने धरती को रात की अशुभ छाया से ढक लिया था
किंतु तुम्हारा चमत्कार पूर्ण स्पर्श पाते ही विश्व जाग रहा है।”
स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं कि तुमने गुलामी की मजबूत जंजीरों को तोड़ने के लिए जो कठोर प्रयत्न किया था, उसका परिणाम सामने है। शोषण, हिंसा, अत्याचार के विरुद्ध जो क्रान्ति की थी, वह सफल हुई। दासता के काले बादल काली रात की भाँति छाये थे। दुःख, नैराश्य, पीड़ा से सम्पूर्ण धरा कराह रही थी और रात्रि की अशुभ छाया से पूरी धरती ढक गयी थी। अब मुक्ति रूपी सूर्य की स्वर्णिम रश्मियों की छुअन मात्र से सम्पूर्ण विश्व में छायी मलिनता दूर हो गयी। चहुँ ओर नव जीवन का स्फुरण हुआ।
स्वतंत्रता की सुगंध सर्वत्र प्रसरित हो गयी है। सम्पूर्ण प्रकृति ही उल्लासमय हो गयी है। स्वामी विवेकानंद जी के शब्दों में -
“पक्षियों ने सहगान गाये हैं, फूलों ने तारों की भाँति चमकते ओस कणों का मुकुट पहनकर
झुक-झूम कर तुम्हारा सुंदर स्वागत किया है।
झीलों ने प्यार भरा हृदय तुम्हारे लिए खोला है
और अपने सहस्त्र-सहस्त्र कमल नेत्रों के द्वारा
मन की गहराई से
निहार है तुम्हें।”
अर्थात् यह मानव-मन की अनुभूति है, जो पराधीनता के अंधकार से मुक्त हो पूरे परिवेश में नवीनता और अनूठापन अनुभूत कर रहा है। आजादी की सुबह नयी-सी प्रतीत हो रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि नये प्रभात का सत्कार करने के लिए पक्षी सहगान गा रहे हैं। फूलों पर बिखरी ओस-बिन्दुओं पर स्वर्ण-रश्मियाँ पड़ती हैं तो वे मोतियों के सदृश लगती हैं। वे प्रातः कालीन मन्द, शीतल समीर से हिल रही हैं मानों वे तुहिन कणों का मुकुट पहन हौले-हौले झूमते हुए प्रकाश का हृदयवत स्वागत कर रही हैं।
शांत और गम्भीर दिखने वाली झीलें चंचल-सी हो उठी हैं। ऐसा लगता है कि झीलों ने अंतस्तल का प्रेम दर्शाया है। झीलों में खिले हजारों कमल की आँखें झील के नयन बन नये प्रभात को अनुराग अर्थात प्रेम से देख रही हो। दासत्व की काली निशा को स्वातंत्र्य- रश्मियों ने परे कर दिया। पूरी प्रकृति ही मानों मुस्कान भरने लगी। ऐसा ही प्रातःकालीन सौन्दर्य का चित्रण कवि श्याम नारायण पाण्डेय जी के खण्ड काव्य “जौहर” में है। सूर्य के उदय होते ही पूरी प्रकृति में परिवर्तन होता है। यथा -
“अंधकार दूर था
झाँक रहा सूर था।
कमल डोलने लगे
कोष खोलने लगे।।
× × ×
भानु-कर उदित हुए
कंज खिल मुदित हुए
न्याय भी उचित हुए
कुमुद संकुचित हुए।”
- जौहर, श्याम नारायण
पाण्डेय
अर्थात् तिमिर हट रहा है क्योंकि सूर्योदय हो रहा है। सूर्य के उदय होते ही कमल विकसित होने लगे मानों वे सूर्य को देख प्रफुल्लित हों। नभ में लालिमा छा गयी। नव प्रभात की सूचना देने के लिए मुर्ग (मुर्गा) मगन हो बाँग देने लगा।
रात आपने सभासदों के साथ अपना साम्राज्य फैलाये थी। प्रभात होते ही तिरोहित हो गयी। सुबह मुस्कान भरने लगी। कमल खिलने लगे और कुमुदिनी बन्द होने लगी।
“न्याय भी उचित हुए” कहकर कवि सूर्य की किरणों द्वारा धरती पर छायी निशा की कालिमा को मिटाने की प्रक्रिया को न्यायोचित ठहराया है।
वैसे तो प्रतिदिन सौर्य मंडल के केन्द्र में सूर्य देव का उदित होना और पूरी पृथ्वी पर छाये तमस को परे करता है परन्तु स्वतंत्र धरा की सुबह विशेष ऊर्जा का आभास होता है। स्वामी विवेकानंद जी
दिनकर को सम्बोधित करते हुए कहते हैं -
“हे प्रकाश के देवता!
सभी तुम्हारे स्वागत में संलग्न हैं।
आज तुम्हारा नव स्वागत है।
हे सूर्य! तुम आज मुक्ति ज्योति फैलाते हो।”
हे प्रकाश पुंज! सूर्य तुम्हारा विशेष रूप से स्वागत है क्योंकि आज तुम परतंत्र धरा पर नहीं, स्वतंत्र देश पर अपनी किरणें बिखेर रहे हो। ऐसा लगता है कि तुम चारो ओर मुक्ति का प्रकाश फैला रहे हो।
स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार मानव जन्म से ही स्वतंत्र है परन्तु अज्ञानता के गहन अंधकार के कारण बंधन में बँधा हुआ है। मानवीय विकार - लोभ, मोह, मद आदि के कारण उसे मुक्ति नहीं मिलती। जब वह ध्यान, भक्ति द्वारा वह अपने अंदर की गहराई में उतरता है, उसे परम सत्ता का आभास होता है। उसकी अज्ञानता दूर हो जाती है और वह आजाद हो जाता है। ऐसा ही भाव साम्य भक्त कवि कबीरदास जी के दोहे में है। वे कहते हैं कि
“जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
सब अंधियारा मिट गया, दीपक देखा माहिं।”
अर्थात जब तक मेरे अंतर्मन में अहम् या अंहकार रूपी अंधकार था तब तक मुझे ईश्वर की अनुभूति नहीं हुई थी। कारण मैं स्वयं को कर्ता मान गर्वित हो रहा था। अतः मैं हरि से दूर था परन्तु आत्मसाक्षात्कार होने पर यह ज्ञात हो गया है कि कर्ता-धरता परमेश्वर ही है। अब सब कुछ परम सत्ता ही है, मैं मात्र उसके द्वारा संचालित हूँ। जिस प्रकार दीपक की रोशनी गहन अँधेरे को भी चीर देती है, उसी प्रकार ज्ञान का प्रकाश अज्ञानता, वैचारिक दासता तथा जन्म-मृत्यु के बंधन से आत्मा को मुक्त कर देता है। स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार निष्काम कर्म हमें कर्म-बंधन से मुक्त करता है। दूसरों की सेवा से हम अंहकार से मुक्त हो जाते हैं और हमें परम शांति की अनुभूति होती है। स्वामी विवेकानंद जी जन्म- जन्मान्तर से चली आ रही जीव की मुक्ति की बात करते हैं। मृगतृष्णा में भ्रमित जीव विकारों में बद्ध स्वतंत्रता का आस्वादन नहीं कर पाता। ज्ञान की प्राप्ति के उपरांत वह संसार रूपी कारागाह से आजाद हो जाता है।
श्रीमद्भगवदगीता के अट्ठारहवें अध्याय, श्लोक तिरपन (53) में श्री कृष्ण मुक्ति प्राप्ति के योग्य किस प्रकार बन सकते हैं? पार्थ अर्जुन को व्याख्यायित करते हुए कहते हैं कि
“अहंकार बलं दर्प कामं क्रोधं परिग्रहं।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयायः कल्पते।।”
अभिप्राय यह है कि अहंकार, बल अर्थात् कामना तथा आसक्ति से युक्त शक्ति, गर्व, काम, क्रोध तथा परिग्रह यानि दूसरों से कुछ ग्रहण करना त्यागकर ममत्व रहित तथा शांत होकर मनुष्य ब्रह्म (स्वरूप) या परम मुक्ति प्राप्त करने के योग्य बनता है।
निष्कर्षतः स्वामी विवेकानंद जी के मतानुसार मानव का जन्म ही मुक्ति हेतु हुआ है। ज्ञान, कर्मनिष्ठा, ध्यान, सेवा एवं भक्ति द्वारा मुक्ति का मार्ग सहज हो जाता है। मनुष्य जन्मतः स्वतंत्र है और मुक्ति उसके जीवन का लक्ष्य है।