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बी विद अ बीकन’ - एक शाम डॉ मुक्ता के साथ

Ka Jingshai-The Light   |   Autumn 2025

का जिंग्शाई - द लाइट’ /‘का जिंग्शाई - द लाइट’ / ज्योति पत्रिका अंतर्गत ‘बी विद अ बीकन’ श्रृंखला में आज साहित्य तथा सामाजिक कार्य क्षेत्र की जानी-मानी हस्ती  प्रसिद्ध विदुषी डॉक्टर मुक्ता उपस्थित हैं। डॉक्टर मुक्ता एक प्रसिद्ध हिंदी लेखिका हैं, जिनकी २० से भी अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। जिसमें कविता, कहानियाँ, निबंध,जीवनी और संपादित पुस्तकें शामिल हैं। एन सी आर टी के पाठ्यक्रम में भी उनकी कविता शामिल हैं और कहानियाँ पढ़ी  विश्वविद्यालय में पढ़ाई जा रही हैं। उनकी कहानियाँ  और कविताएं कई भाषाओं में अनुवादित हुई हैं। उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान पुरस्कार, सिंधु देवी रथ पुरस्कार और राष्ट्रीय भाषा गौरव सम्मान , महामहोपाध्य सम्मान , अंतरराष्ट्रीय हिंदी सेवा पदक सहित कई पुरस्कार और सम्मान मिल चुका है। उन्होंने विश्व स्तर पर भी साहित्यिक चर्चाओं में भाग लिया है और आज हमारे लिये  उन्होंने अपना मूल्यवान समय निकाला है।

का जिंग्शाई - मुक्ता जी आपका स्वागत है।

मुक्ता  - धन्यवाद।

का जिंग्शाई - तो सबसे पहले रामकृष्ण मिशन की ओर से आपको नमस्कार। हमारे साथ कई दर्शक जुड़े हुए हैं। हमारे साथ वे भी आपसे कुछ न कुछ पूछना चाहेंगे। सबसे पहले मैं जानना चाहूँगी कि रामकृष्ण, विवेकानंद तथा रामकृष्ण मिशन के साथ आपका क्या संबंध रहा है?

मुक्ता - रामकृष्ण परमहंस पर मेरी  बचपन से श्रद्धा थी। मुझे याद है कि  मेरे पिताजी के कमरे में जो चित्र हुआ करते थे उसमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल के चित्र के अतिरिक्त हनुमान जी, राम दरबार और रामकृष्ण परमहंस के चित्र थे। रामकृष्ण में श्रद्धा होने के कारण दक्षिणेश्वर की यात्रा तो मैंने अनगिनत बार की है। मैं उस समय दक्षिणेश्वर गई थी, जब वह अपने प्राकृतिक रूप में था। जब वहाँ दुकानें वगैरह  बिल्कुल नहीं थीं। अब तो वह पहले वाला रम्य वातावरण नहीं रहा। मैंने  रामकृष्ण परमहंस की  पूरी जीवनी पढ़ी है। उसमें विवेकानंद से जो उनका संवाद होता था, उसने मुझे बहुत प्रभावित किया। उसमें सबसे बड़ी विशेषता यह है कि हम जिस धर्म की बात करते हैं, उसका संपूर्ण  रूप मुझे रामकृष्ण परमहंस में दिखाई देता है। उन्होंने हर धर्म की  साधनाएँ कीं।  साधना करते समय अपनी धर्म-पद्धति को बिल्कुल छोड़ कर अन्य धर्म में रमने के बाद  देखा कि ईश्वर तो एक ही है।

       अगर आज हमने धर्म और आध्यात्म वास्तविक  अर्थों में  समझ लिया तो हम सांप्रदायिकता को भूल जाएँगे। समझ में आ जाएगा कि हमारा देश कितना समृद्ध देश है। हमारे देश के  गुरुओं की वाणी ही वास्तव में सही पथ है और वही जीवन दर्शन है। इसे अगर समझना हो तो रामकृष्ण परमहंस का पूरा जीवन इसका आदर्श उदाहरण है।

मैं जब उत्तरकाशी में गवर्नमेंट पॉलीटेक्निक में लेक्चरर थी र तब वहाँ एक बड़ी अच्छी लाइब्रेरी  योग निकेतन में थी।वहाँ बहुत सारी आध्यात्मिक किताबें थी।  मैंने उस मौक़े का लाभ उठाकर योग वाशिष्ट,ऋग्वेद, यजुर्वेद  आदि वेदों का अध्ययन किया ।  इससे मैं बहुत समृद्ध हुई और इसका प्रभाव भी मेरे लेखन पर  पड़ा। शायद तब मैंने रामकृष्ण परमहंस को और भी ज्यादा समझा। जीवनी तो मैं बहुत पहले ही पढ़ चुकी थी लेकिन जब मैंने वेदों को पढ़ा, योग वाशिष्ट पढ़ा तब मुझे रामकृष्ण भी समझ में आए और सूफिज्म भी समझ में आया क्योंकि सूफीज्म भी मुझे प्रभावित करता है।

का जिंग्शाई- आपकी लेखनी में बहुत समृद्ध हैं।  फिलहाल आपने कौन-सी कविताएँ या कहानियाँ लिखी हैं?

मुक्ता - अभी बिल्कुल नया जो मेरा संग्रह है वह है ' भोंपू बाजा और उदास लड़की' जिसकी कहानियां पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के बाद ही चर्चा में आ गई थीं। जैसा की मैंने बताया कि यूनिवर्सिटी तथा एनसीआरटी में भी मेरी कविताएँ  और कहानियाँ पढ़ाई जा रही हैं। मेरी कविता एन सी ई आर टी के पाठ्यक्रम में हैं और 2 कहानियाँ मंगलौर विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल हैं। मेरा एक कहानियों का अनुवादित संग्रह 'शोहर जोल कि छे 'बांग्ला में है।  इसके अलावा उर्दू ,अंग्रेजी, उड़िया, मराठी, गुजराती और पंजाबी भाषाओं में मेरी कहानियों  एवम् कविताओं के अनुवाद हो चुके हैं। लेकिन बांग्ला में सबसे ज्यादा हुआ है।

का जिंग्शाई  –  जो अनुवादक हैं वे क्या आपकी स्वीकृति लेते हैं?

मुक्ता - जी हाँ। अभी हाल में एक मराठी लेखिका ने मेरी कहानी ' जनम दुख' का अनुवाद किया और उन्होंने  मुझसे स्वीकृति भी ली। दिलचस्प बात यह है कि, मेरी यही कहानी मराठी में दो बार अनूदित हुई।

का जिंग्शाई – आप खुद को क्या कहलाना चाहेंगी फिल्म मेकर, कहानीकार या साहित्यकार?

मुक्ता - मैं एक साहित्यकार हूँ और फिर कहानीकार  और कवि हूँ। वैसे तो बचपन में सबसे पहले जो लिखा वे कविताएँ ही थीं लेकिन बाद में मेरी कहानियों को ज्यादा लोकप्रियता मिली। साथ ही  मैं फिल्म मेकर भी हूँ। मैंने दूरदर्शन के राष्ट्रीय नेटवर्क के लिये फिल्मों का निर्माण किया है।   सुप्रसिद्ध आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल पर ग्रेट मास्टर्स श्रृंखला के अंर्तगत सन 1993 में फिल्म का निर्माण किया। डॉ विद्यानिवास मिश्र के जीवन पर आधारित फिल्म ‘छितवन की छाँह’  डी डी भारती के लिये थी, जिसकी परिकल्पना, स्क्रिप्ट व निर्देशन मेरा था। इसके अलावा बहुत से सामाजिक मुद्दे, जैसे मानसिक विकलांग बच्चों पर या आदिवासियों पर ऐसे करीब ग्यारह डॉक्यूमेंट्री फिल्में मैंने बनाई हैं ।दूरदर्शन के राष्ट्रीय नेटवर्क के लिये "कमीशंड" फ़िल्म  "आचार्य रामचंद्र शुक्ल" आज भी अपने ढंग की अकेली फिल्म मानी जाती है। उस फिल्म को बनाने के संदर्भ में  मैं एकबार उज्जैन गई थी। उस फिल्म में मैंने आचार्य शुक्ल के  शिष्य शिवमगल सिंह सुमन जी का साक्षात्कार उज्जैन जाकर किया था।  फ़िल्म में डॉ जगन्नाथ शर्मा, सीताराम चतुर्वेदी, आचार्य शुक्ल की पुत्रवधू मेरी नानी चंद्रावती शुक्ल (मेरी नानी)के अलावा डॉ रामविलास शर्मा का मेरे द्वारा लिया गया साक्षात्कार है।

का जिंग्शाई  – अपने  बचपन के बारे मे कुछ बताएँ। आचार्य जी से आप बचपन से ही कैसे प्रभावित हुईँ?

मुक्ता - हम लोगों का जमाना ऐसा था कि, पहले से हमारी भूमिकाएँ तय होती थीं। बेटा हुआ तो उसे इंजीनियर बनाना और बेटी हुई तो उसे डॉक्टर बनाना है। लेकिन जब भी मुझे टाइम या छुट्टी मिलती तो जितना हो सके बांग्ला साहित्य के रवींद्र नाथ टैगोर, बंकिम चंद्र, शरद चंद्र सबके अनुवाद पढ़ डालती थी।

 इस तरह माँ  मेरा रुझान  देख रही थीं। माँ तो खुद ही साहित्य से संबंध रखती थी। हजारी प्रसाद द्विवेदी की शिष्या मेरी माँ कुसुम चतुर्वेदी डायरेक्टर एजुकेशन होकर रिटायर हुईं पर सबसे ज्यादा प्रेरणा मुझे अपनी नानी से मिलती थी। मेरी नानी सोलह वर्ष की आयु में आचार्य रामचंद्र शुक्ल की छोटी बहू बनकर आईं। मैंने उनसे कहानियों की तरह ही आचार्य शुक्ल भी  की पूरी जीवनी सुनी। किसी ससुर के प्रति किसी बहू की ऐसी श्रद्धा मैंने देखी नहीं जैसी मैंने उनकी देखी। वे  आचार्य शुक्ल की ही बातें किया करती थीं। मैंने उनको बिल्कुल अपने बचपन से आत्मसात कर लिया और तब से शुक्ल जी का जीवन ही मेरी प्रेरणा रहा। मैं उसी घर पली बढ़ी हूँ, जिसमें आचार्य शुक्ल रहते थे। मेरी माँ बारह वर्ष की थी जब आचार्य रामचंद्र शुक्ल छप्पन वर्ष की आयु में दिवंगत हो गए थे। मेरे उनको देखने का कोई सवाल ही नहीं था लेकिन मैंने उनके विषय में सुना तो बहुत था। बाद में मैंने उनकी जीवनी लिखी। वह जीवनी मेरे और मेरी माँ का संयुक्त काम है।

आचार्य शुक्ल के जीवन के बहुत से संस्मरण तो मेरी नानी जिन्हें हम अम्मा कहते थे, उनसे ही सुनने को मिले । इसके अलावा आचार्य शुक्ल के बहुत शिष्यों से भी संग्रह किया। वैसे आचार्य रामचंद्र शुक्ल पर पहली जीवनी उनके भतीजे चंद्रशेखर शुक्ल जी ने लिखी थी। चंद्रशेखर शुक्ल की भी बहुत कम उम्र में मृत्यु हो गई थी। वे जब अंतिम अध्याय लिख ही रहे थे कि उनका देहांत हो गया। इसलिए भी बहुत सी चीजें छूट गई थीं उस जीवनी में।

लेकिन जब मैंने ह अपने घर के परिवार के सब लोगों ने मिलकर अलग बातें की और सबको संग्रहीत किया तो पता चला कि, बहुत सी चीजें उस जीवनी में नहीं दी गई हैं। उस ज़माने में परिवार की प्रतिष्ठा के नाम पर बहुत-सी चीजें छुपाई जाती थीं। मुझे लगा कि नहीं जो चीजें छूटी है वो बहुत जरूरी हैं। मेरी माँ ने भी मेरी बात का समर्थन किया।

का जिंग्शाई– जी शुक्ल जी के लेखनी के अलावा आप पर और किन लेखकों का प्रभाव रहा?

मुक्ता -  कहानियों में अगर कहा जाए तो चेखव। चेखव का पूरा साहित्य मैंने पढ़ा है, नाटक से लेकर कहानी तक।  भारत की बात करें तो प्रेमचंद हैं। प्रेमचंद का प्रभाव तो है ही, लेकिन रवींद्रनाथ ठाकुर की कहानियाँ भी मुझे बहुत प्रभावित करती हैं  । मेरा पूरा आलेख उनकी कहानियों पर है जो मेरी पुस्तक 'पाठ समानांतर' में प्रकाशित है।

का जिंग्शाई – बनारस बाज, बनारसीपन और उसकी भाषा जिसमें एक अपनापन झलकता है, कहा जाता है की वही बनारस की विशेषता है। इसमें आपका क्या कहना है?

मुक्ता -  वही बनारसीपन है - यहाँ की अड़ी। अड़ी अर्थात्‌ चौराहों पर लोग चाय की दुकान पर बैठ के पूरे विश्व की चर्चा करते  हैं। इस तरह से बनारसीपन में सांप्रदायिक सौहार्द्र है, गंगा जमुनी संस्कृति है। वह भी बनारसीपन ही है। वह बनी रहनी चाहिए। यहाँ की आत्मा है। 'बनारसी बाज संगीत में तबले में बनारस की विशिष्ट शैली है । कंठे महाराज और किशन महाराज जिसके मर्मज्ञ थे।

का जिंग्शाई – आपकी कोई ऐसी रचना जिसमें इस भाषा का उपयोग हुआ हो?

मुक्ता -  काशिका कहते हैं बनारसी बोली को। काशिका में मैंने रचना तो नहीं की, पर मेरी कहानियों में इसका व्यवहार बहुत है। जैसे ' चंदुवा सट्टी' कहानी । एक मोहल्ला है बनारस  का। हमारे घर के पास जहाँ पर सब्जी बाजार लगता है। उसमें सारा का सारा जो वार्तालाप है, वह करीब करीब बनारसी है। हमने संवाद वही रखें हैं क्योंकि संवाद ही कहानी की  आत्मा होती है।

का जिंग्शाई – बिल्कुल! तो चलते चलते आचार्य रामचंद्र शुक्ल शोध संस्थान के बारे मे बात करते हैं। इसकी स्थापना जब हुई तब वह किस उद्देश्य से हुई और आप इसको आगे क्या रूप देना चाहते हैं?

मुक्ता - इसकी स्थापना सन 1972 में हुई थी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के कनिष्ठ पुत्र गोकुलचंद्र शुक्ल ने इसकी स्थापना की। अपनी जो भी पूंजी थी उसको उन्होंने संस्थान को दान किया और उसी से उसकी स्थापना हुई। बाद में सरकार ने 20 लाख दिए जिससे उसकी बिल्डिंग का निर्माण हुआ। मेरे पिताजी ज्ञान दत्त चतुर्वेदी तब अवकाश-प्राप्त जिलाधीश थे। उन्होंने फिर अपना पूरा जीवन उसके निर्माण में लगाया। वे भी इस संस्थान के मंत्री रहे। इसमें  पूरा साहित्यिक कार्य करती रहीं मेरी माँ। मैं उस समय दिल्ली मे रहती थी और वहीं से सहयोग  देती थी  । हम दोनों मिलकर  आलोचना की पत्रिका' नया मानदंड का संपादन कर रहे थे आलोचना विधा पर दिया जाने वाला 'गोकुल चंद्र शुक्ल पुरस्कार सम्मान डॉ रामविलास शर्मा, डॉ नामवर सिंह , डॉ मैनेजर पांडेय , डॉ शिवकुमार मिश्र आदि को अर्पित किया गया था आज भी राष्ट्रीय संगोष्ठियों का क्रम जारी है।

का जिंग्शाई  – अब दर्शकों का सवाल, आज के डिजिटल युग में, एआई के जमाने में, कहीं किसी को लगता है कि जैसे रचनात्मकता नदारद हो गई हो या संदर्भ कहीं खो-सा जा रहा है। एक तरफ कि आज सब छपना चाहते हैं, पाठक कोई नहीं बनना चाहता, इसका क्या कारण है? पाठकों की कमी से भी उभरते हुए लेखकों को आगे बढ़ने की प्रेरणा नहीं मिलती हैं और मेरी चिंता वह है कि ये एआई पर जिस प्रकार अनुवाद हो रहे हैं इस पर आपका क्या अनुभव है? आप भावी पीढ़ी को आगे कैसे देखना चाहेंगी?

मुक्ता -  ऐसा है कि फेसबुक पर तो आप सब लोग हैं और आप लोगों के मित्र भी होंगे। मेरी एक कोरिया की मित्र हैं। मैं  उनकी कोरियन कविता पढ़ने के लिए जब मैं फेसबुक की ट्रांसलेशन पर उसको क्लिक करती हूँ तो वह अनुवाद तो हो जाता है लेकिन उसका ना सिर है, ना पैर।

 मैं हताश होकर मैंने यहबात मित्र कोरियन कवि को अंग्रेज़ी में लिख के भेजी। फिर उन्होंने कहीं से उसका  बेहतरीन अनुवाद कराके उस कविता को भेजा। वह पढ़कर मुझे लगा कि, यह कितना बड़ा अन्याय है किसी कवि के साथ कि उसकी कविता  को पूरी तरह बिगाड़ के सामने रखा जाता है। इसी से समझ लीजिए कि एआई के अनुवाद का क्या होता है?

का जिंग्शाई  – एक और प्रश्न हैं कि ये आज के साहित्य और साहित्यकारों में और पहले के  साहित्यकारों में आप क्या अंतर देखती हैं?

मुक्ता -  देखिए आज भी बहुत अच्छे साहित्यकार हैं।आज एक खुलापन है लेखन में। पहले जो बहुत कुछ ढक-ढक कर लिखा जा रहा था। आज  बहुत खुलापन और संप्रेषणीयता भी है, अच्छा लिखा जा रहा है।  मैं तो बहुत आशावादी हूँ। इसलिए मुझे लगता है कि साहित्य का भविष्य बहुत सुरक्षित है।  अच्छे-अच्छे साहित्यकार आ रहे हैं लेकिन नए लोगों में शीघ्र ही चर्चित और प्रसिद्धि पा लेने की एक प्रवृत्ति दिखाई दे रही है, जिससे बचना चाहिए। साहित्य सतत साधना। परिपक्व होने पर परिणाम स्वयं सामने आ जाता है।

का जिंग्शाई –  लगता है कि आपसे बस बातें करते रहे लेकिन समय हो गया है। हमें इस बी विन सीरीज के इस कड़ी को अब  विराम देना होगा।

 मुक्ता जी से बातें करके लगा ही नहीं कब समय बीत गया। कितनी सारी और बातें करनी थी लेकिन अब समय हो चला है फिर कभी आपस में बैठकर एक चाय के प्याली के साथ फिर से बहुत सारी बातें करेंगे। नमस्कार!

मुक्ता -  बहुत धन्यवाद! बहुत अच्छा लगा आपसे मिलकर। आप बनारस आइए, हम बनारस आपको आमंत्रित कर रहे हैं।


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