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लघुकथा

नया कलेवर

नलिनी श्रीवास्तव ‘नील’ (Nalini Shrivastav)   |   Autumn 2025

“सुनो! क्या कर रहे हो? “

  “कुछ नहीं, बस इन्तज़ार कर रहा हूँ अपने मालिक का। वे कब वह आयें और मुझे प्यार से निहार कर मन में उतार लें पर तुम इतनी उदास क्यों हो ?”

“बस यूँ ही,” वह अनमनी-सी बोल पड़ी।

“बताओ न,” उसका साथी पुन: बोला।

 

     “क्या कहूँ? मुझे तो अब घर में कोई आँख उठा कर देखता भी नहीं। सजी हुई घर के एक कोने में चुपचाप बैठी रहती हूँ। वक़्त-वक़्त की बात है … एक समय था जब मैं इन सबके बेहद क़रीब थी। घर के छोटे बड़े सभी मेरा बहुत मान-ध्यान रखते थे। पर आज …” रुआँसी हो कर वह बोल पड़ी।

“ओहो! उदास न हो सुन तो … अब तू नए कलेवर में बदल गई है और बहुत संभाल कर रखी गयी है, ये शायद तुझे पता नहीं।

 “नहीं तो… क्या सच्ची, ऐसा…! मैं तो समझी थी कि अब मेरा अस्तित्व ही समाप्त हो रहा है,” दुःखी हो उसने कहा।

तब वह हँसकर बोला, “अरे! नहीं रे पगली! तुझे प्यार करने वाले आज भी बहुत हैं और कल भी रहेंगे। अब तो तेरा स्वरूप बहुत विस्तार पा चुका है। एक राज़ की बात बताऊँ?”

“क्या?”

“अब तू न पुरानी होगी, न फटेगी और न तुझे दीमक ही लगेगी क्योंकि अब तू इण्टरनेट पर पूरी तरह सुरक्षित है…,” हँसते हुए लैपटॉप ने किताब से कहा।”

 

 

 


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नलिनी श्रीवास्तव ‘नील’ (Nalini Shrivastav)