मराठवाड़ा की पहाड़ियों में बसा वह गाँव बरसों से प्यासा था।
यहाँ बारिश होती थी मगर अक्सर बूँदें टीन की छतों पर टपककर लौट जातीं। ज़मीन तक शायद कोई संदेश पहुँच ही नहीं पाता।
“माँ! पानी नहीं है… आज भी।”
छोटी ने बाल्टी ज़मीन पर रख दी। हवा में धूल भरी उदासी घुली थी, और उसकी साँसें भी सूख गई थीं।
गाँव की पुरानी टंकी अब जंग से भर चुकी थी, और कुएँ ऐसे खामोश खड़े थे जैसे बूढ़े हो गए हों थके हुए, चुप।
यहाँ नमी थी पर सिर्फ आँखों में।
छोटी हर सुबह पाँच किलोमीटर दूर की पगडंडी पर निकलती नींद से लड़ते हुए। दोपहर की आग से जूझते हुए लौटती। उसकी उम्र के बच्चे स्कूलबैग्स टाँगे घूमते, और वह पानी की बाल्टी ढोती — जैसे कोई दूसरा ही पाठ पढ़ रही हो।
कभी-कभी उसकी नज़र स्कूल के दरवाज़े तक जाती थी। वहाँ जहाँ वह सिर्फ एक दिन गई थी।
मास्टरजी ने कहा था, “पढ़ाई के लिए पहले घर का पानी भरो, फिर अक्षर सीखना।”
उस दिन वह लौट आई। तब से उसकी उँगलियाँ बस हँडिया और हताशा पकड़ती रहीं।
एक दिन माँ ने पूछा, “थक जाती है?”
छोटी ने कुछ नहीं कहा।बस माँ के फटे घुटनों को देखा और अपनी हथेली में उगा ताज़ा छाला।
माँ बोली, “मैं भी कभी पढ़ना चाहती थी पर बुआ ने कहा था ‘‘हमारे घर की लड़कियाँ हाथ में किताब नहीं, लोटा उठाती हैं।’’ थोड़ी देर चुप रही, फिर बोली,”अब कोई लड़की यहाँ ब्याहने नहीं आती। लड़कियाँ तो चली जाती हैं पर लड़कों की किस्मत सूखी ज़मीन-सी रह जाती है क्योंकि अब कोई अपनी बेटी वहाँ नहीं भेजता जहाँ प्यास विरासत में मिले।”
छोटी की नज़र छत की खिड़की पर जा टिकी, जहाँ बूँदें गिरती तो थीं पर मटके तक कभी नहीं पहुँचतीं।
अगली सुबह वही पगडंडी थी पर मोड़ पर एक संस्था की गाड़ी खड़ी थी। किताबें बाँटी जा रही थीं।
“तुम पढ़ना चाहती हो,” किसी ने पूछा।
छोटी ने सिर नहीं हिलाया। सिर्फ बाल्टी आगे कर दी।
उसने किताब को बाल्टी में रखा जैसे पानी डाल रही हो।
बाल्टी में आज पानी नहीं था,
पर एक बीज रखा गया था,
जो अब शब्दों से सींचा जाएगा।