अपना सामान कैंप में रखने के बाद मैं तरोताजा होकर बाहर निकल गया। ४ बजे शाम का वह दृश्य था, मानो समूचा शहर अंधकार में डूब गया हो। समूचे शहर को बादलों ने अपनी आगोश में ले रखा था। ४ बजे शाम को ऐसा लग रहा था मानो रात के ८ बज रहे हों। शिलांग में सूर्योदय और सूर्यास्त बहुत जल्दी होता है। उस दिन तो मैं इतना थक चुका था कि कहीं घूमने भी नहीं जा सकता था। बगल में ही एक मिठाई की दुकान पर गया जहाँ समोसे और चाय लेने के बाद कैंप वापस लौट गया। रात को जल्दी ही खाना खा कर सो गया।
अगले दिन सुबह ८ बजे उठा और ९ बजे नाश्ता करने के बाद शिलांग की सैर पर निकल पड़ा। मेरे लिए बिल्कुल नई जगह थी, कुछ भी पता नहीं था लेकिन ट्रेन में मैंने जो थोड़ी-बहुत जानकारियाँ लीं थी, वह घूमने के दौरान काम आने वाली थीं। कैंप में मैंने पुलिसवालों से पूछा कि मेरे पास दो दिन हैं और इन दो दिनों में मैं कहाँ-कहाँ घूम सकता हूँ। उनके बताए अनुसार सर्वप्रथम मैं पोलो से बस पकड़ कर पीबी (पुलिस बाज़ार) गया। पीबी शिलांग का व्यस्ततम इलाकों में से एक है। पीबी शिलांग का सर्वाधिक चहल-पहल वाला स्थान है। उसे हार्ट ऑफ दी सिटी कहा जा सकता है। यहाँ सुबह के ५ बजे से ही खाने पीने के ठेले लग जाते हैं और टैक्सी, सूमो वालों की आवाज गोटी…गोटी…गोटी...(गुवाहाटी) कानों में गूंजने लगती है। गोटी अर्थात गुवाहाटी। गुवाहाटी और सिल्चर की गाड़ियाँ यहीं से मिलती हैं। यहाँ पर शॉपिंग के लिए बड़े-बड़े शो रूम्स हैं और रिलायंस स्टोर, विशाल मेगामार्ट जैसे कॉम्प्लेक्स भी। स्वादिष्ट व्यंजनों के लिए भी बहुत सारे रेस्टोरेंट्स हैं। दिल्ली मिष्ठान और बड़े मियाँ का तो जवाब ही नहीं। बड़े मियाँ में मैंने रोल और दिल्ली मिष्ठान की जलेबी का आनन्द लिया। पीबी के आस-पास ही बहुत सारे सिनेमा हॉल भी हैं। पायल, अंजलि और गोल्ड्स, जहाँ अलग-अलग फिल्मों के पोस्टर लगे थे। मुझे आश्चर्य तो तब हुआ जब मैंने देखा कि वहाँ के सिनेमा हॉल में भोजपुरी फिल्में लगी हैं। एक दुकानदार से पूछने पर उसने बताया कि यहाँ हिन्दी, इंग्लिश और खासी फिल्में तो दिखाई ही जाती हैं साथ ही बांग्ला और असमिया भाषा की फिल्में भी दिखाई जाती हैं। शिलांग में बंगाली, असमिया लोगों के बाद सर्वाधिक लोग पूर्वांचल अर्थात भोजपुरिया समाज के ही रहते हैं। वहाँ के सैलून और ढाबे/होटल वाले, टैक्सी वाले और छोटे-मोटे काम करने वाले अधिकांश लोग यूपी और बिहार के ही रहने वाले हैं।
पीबी में काफी देर तक पैदल घूमते-घूमते क्यूनटन रोड पर जेल के पास पहुँच गया और वहाँ मुझे रामकृष्ण मिशन विवेकानन्द सांस्कृतिक केंद्र दिखा। इस केंद्र के बारे में मैंने कभी पढ़ा था कि विवेकानन्द जी ने अपना आखिरी सार्वजनिक भाषण यहीं दिया था। जब वे अस्वस्थ थे, तब स्वास्थ्य लाभ के लिए असम के ठंढे स्थान पर चले गये थे, उस समय शिलांग भी गए थे। तब मेघालय अलग राज्य नहीं बना था और यह असम में ही आता था। यह वही स्थान हैं जहाँ स्वामी विवेकानन्द जी आये थे। केंद्र के अंदर जाने के लिए मैंने अनुरोध किया तब जा कर मुझे प्रवेश दिया गया। परिसर में स्वामी विवेकानन्द जी की एक प्रतिमा स्थापित है, यह उसी स्थान पर निर्मित है जहां २७ अप्रैल, १९०१ को स्वामी जी ने अपना वक्तव्य दिया था। वहाँ जाने के बाद मुझे कई नई जानकारियाँ मिली जैसे कि इस केंद्र पर बच्चों को कम्यूटर प्रशिक्षण, कला प्रशिक्षण, भाषा एवं संचार साथ ही भारतीय संस्कृति और वंचितों को कौशल शिक्षण एवं प्रशिक्षण न्यूनतम शुल्क में प्रदान की जाती है। यहाँ एक पुस्तकालय भी है जहाँ, भाषा, साहित्य, संस्कृति एवं इतिहास से सम्बन्धित हजारों पुस्तकें उपलब्ध हैं। साथ ही यहाँ ध्यान शिविर का भी आयोजन किया जाता है। इस परिसर में मुझे जाने के बाद एक अलग ही एहसास हुआ। थोड़ी देर यहाँ बैठने और लोगों से बातचीत करने के बाद वहाँ से मैं पास में ही एक झील ‘वर्ड्स लेक’ चला गया। जिसके विषय में मुझे कैंप के पुलिस वालों ने पहले ही बता दिया था। बहुत ही मनोरम दृश्य था उस लेक का। १५-२० मिनट तक वहाँ घूमता रहा और लोगों को देखता रहा। बूढ़े, बच्चे, युगल जोड़े सभी थे उस पार्क में। एक तरह से वह फैमिली पार्क था। वहाँ बोटिंग हाउस भी था जहाँ मैंने भी बोटिंग का लुत्फ़ उठाया। मैंने अकेले ही बोटिंग का आनन्द लिया। वहाँ से पीबी टैक्सी स्टैंड गया क्योंकि शिलांग पीक जाने के लिए टैक्सी वहीं से मिलती है। टैक्सी वाला मुझे बाहरी पर्यटक समझ कर ५०० रुपये मांग रहा रहा था जबकि पुलिस वालों ने कैंप में मुझे २५०-३०० रुपये से अधिक किराया देने को मना किया था। टैक्सी वाले नहीं माने फिर मैंने वहाँ जाने का प्लान कैन्सल कर दिया। शिलांग पीक जिस पहाड़ की चोटी पर है वह पहाड़ पीबी के दाएं हिस्से में दिखता है। जहाँ शाम के समय बादल अठखेलियाँ करते हैं जो बहुत ही मनोरम लगता है।
दिन के २ बज चुके थे, मुझे ६ बजे तक कैंप में वापस पहुँचना था। मैंने उसी के हिसाब से अपना आगे का कार्यक्रम भी तय किया। मैं बस से ही बड़ा बाज़ार चला गया। बड़ा बाज़ार वहाँ का प्रमुख व्यापारिक केंद्र और थोक मंडी है। वहाँ सब्जियों से लेकर मांस-मछली, फल-फूल तथा अन्य दैनिक उपयोग की सभी वस्तुएँ सस्ते दामों पर मिलती हैं। भूटिया मार्केट भी वहीं पर है। जिस प्रकार से दिल्ली में मोनेस्ट्री, जनपथ, सरोजिनी नगर, कमला नगर मार्केट है, उसी प्रकार बड़ा बाज़ार का भूटिया मार्केट है। बड़ा बाज़ार घूमने के बाद वहाँ से पैदल पीबी आ गया। वहीं पर एक बहुत बड़ी हैंडिक्राफ्ट की दुकान थी, जहाँ से मैंने बहुत सारी ख़रीदारी की। लकड़ियों और बाँस से बने हुए बैग, बच्चों के छोटे-छोटे खिलौने, की-रिंग साथ ही और भी बहुत कुछ। ५ बजे चुके थे और मैं काफी थक भी चुका था। उसके बाद मैं वापस कैंप लौट गया। दिन की यात्रा समाप्त हो गई। पीबी से पोलो आने के दौरान ऊपर से बहुत ही मनोरम दृश्य दिखाई दे रहा था। पूरा पहाड़ कृत्रिम रोशनी से जगमगा रहा था। जिस प्रकार से हिन्दी फिल्मों में लंदन, पेरिस और न्यूयॉर्क को दूधिया रोशनी में जगमगाते देखा था, ठीक उसी प्रकार का जीवंत दृश्य शिलांग का अपनी आँखों से देख रहा था।
अगले दिन ५ दिसंबर को सुबह नाश्ते के बाद पोलो में ही स्थित स्टेडियम घूमने गया। यहीं पर दो बड़े-बड़े स्टेडियम हैं और एक गोल्फ लिंक भी नजदीक में ही है। स्टेडियम में फुटबॉल मैच चल रहा था, जहाँ मैं भी बैठ कर मैच देखने लगा। अमूमन मैं क्रिकेट का खिलाड़ी और प्रशंसक हूँ और फुटबॉल मैच में मेरी कोई विशेष रुचि नहीं रही है, परंतु बिना टिकट के मैच देखने को मिल गया था वो भी स्टेडियम में, तो भला मैं वो मौका कैसे छोड़ सकता था? जिस प्रकार से हिन्दी क्षेत्र में क्रिकेट को लेकर लोगों में विशेष रूप से बच्चों में दीवानगी रहती है, उसी प्रकार से पूर्वोत्तर भारत में फुटबॉल के प्रति। यहाँ का बच्चा-बच्चा फुटबॉल का मास्टर होता है। बाइचुंग भूटिया को कौन नहीं जानता, भारतीय फुटबॉल के का ये बादशाह सिक्किम के अर्थात पूर्वोत्तर के ही रहने वाले है। भारतीय फुटबॉल टीम के वर्तमान कप्तान सुनील छेत्री भी सिक्किम के हैं। वर्तमान में भारतीय फुटबाल टीम में अनेक खिलाड़ी पूर्वोत्तर भारत के किसी न किसी राज्य के हैं। लगभग एक घंटे तक मैच देखने के बाद मैं वहाँ से मावलई में स्थित डॉन बॉसको म्यूजियम देखने निकल गया। मैं पहली बार इतना वैविध्यपूर्ण म्यूजियम का भ्रमण कर रहा था। यह संग्रहालय शिलांग का एक प्रमुख पर्यटन केंद्र है, जो पूर्वोत्तर भारत के मूल निवासियों की समृद्ध एवं बहु-सांस्कृतिक जीवन शैली की झलक प्रदान करता है। यहाँ पूर्वोत्तर के सभी ८ राज्यों के अलावे बांग्लादेश, भूटान, म्यांमार और नेपाल की पूरी संस्कृति और इतिहास मानो मेरे आँखों के सामने प्रत्यक्ष दिख रहा था। मुझे ऐसा लग रहा था मानो मैं उस इतिहास को जी रहा हूँ, जिसे किताबों में पढ़ता रहा हूँ। छः मंज़िलें इस म्यूजियम में पूर्वोत्तर और उसके पड़ोसी देशों की विविध संस्कृतियों की सम्पूर्ण झलकियाँ भी दिखती हैं। यह एक डिजिटल ऑटोमेटेड म्यूजियम है। हॉल में जाते ही सारी लाईट खुद से जल जाती हैं और निकलने पर खुद से ही बंद भी। डॉन बॉसको इतना बड़ा म्यूजियम है कि एक दिन में घूमना/देखना संभव ही नहीं है। सबसे ऊपरी मंजिल पर एक व्यू-पॉइंट बना है, जहाँ से शिलांग का आधे से भी अधिक हिस्सा दिखाई देता है। उस स्थान से हम शिलांग के बेहतरीन नज़ारे देख सकते हैं। म्यूजियम के सबसे नीचे वाले तल पर एक हैंडिक्राफ्ट की दुकान है, जहाँ से मैंने कुछ ख़रीदारी की। मैं थोड़ी जल्दी में था क्योंकि अंधेरा हो गया था और मुझे कैंप भी वापस जाना था। कैंप का जिक्र बार-बार इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि उसकी वजह से ही मैं सब कुछ निर्धारित समय पर कर पा रहा था। कैंप में तय समय पर ही सब कुछ होता है। समय का पालन उनसे अधिक कौन पालन करता है? थोड़ी देर भी विलंब होने पर वहाँ खाना मिलना मुश्किल हो जाता है। इसलिए मेरी हमेशा यही कोशिश होती थी कि मेस बंद होने से पहले वहाँ पहुँच जाऊँ। म्यूजियम से बाहर निकलते ही ऐसा आभास हुआ मानो मैं किसी दूसरी दुनियाँ से बाहर लौटा हूँ। मैं संग्रहालय से बाहर आ कर भी खुद को संग्रहालय में ही महसूस कर रहा था। उस म्यूजियम ने मुझे पूर्वोत्तर भारत के इतने करीब ला दिया मानो वहाँ मैं वर्षों से रह रहा हूँ। उन ३-४ दिनों में मैंने पूर्वोत्तर को इतने करीब से अनुभव किया कि पूर्व की सभी सुनी सुनाई बातें/भ्रांतियाँ धरी रह गईं। उस दिन मुझे एहसास हुआ कि हिन्दी भाषी लोग जिस नॉर्थ ईस्ट को जानते हैं, वह तो उससे बिल्कुल ही भिन्न, अद्भुत और अनोखा एकदम अलग है। जो हमसे भी अधिक भारतीय हैं हम उनको ही चीनी कैसे कह देते हैं? प्रकृति का असली रूप और सुन्दरता यहीं है। मैं उन तीन-चार दिनों में न तो पूरा शिलांग ही घूम पाया न मेघालय और न ही नॉर्थ ईस्ट के बाकी ७ राज्य, परंतु उन तीन दिनों में ही एक राज्य और वह भी उसका एक छोटा सा हिस्सा घूम कर मैं नॉर्थ ईस्ट का फैन हो गया। मानो नॉर्थ ईस्ट मेरे हृदय मे बस गया। मुझे एहसास होने लगा कि मैं किस भारत में जी रहा हूँ, असली भारत तो यहाँ है। उस दिन मैं मन ही मन यह प्रार्थना भी कर रहा था कि मेरा एम.फिल में एडमिशन हो जाए और ऐसा हुआ भी। इन्हीं सुन्दरताओं की वजह से शिलांग को पूरब का स्कॉटलैंड कहा जाता है। उस दिन मैं म्यूजियम की दुनिया में खोए खोए सो गया। अगले दिन सुबह मेरी दिल्ली की ट्रेन गुवाहाटी से थी। मैं ७ बजे शिलांग से गुवाहाटी के लिए सूमो में बैठ गया। इस प्रकार से मेघालय की मेरी वह पहली अविस्मरणीय यात्रा समाप्त हो गयी।
मैं आपसे भी यही कहना चाहूँगा कि अगर आप नॉर्थ ईस्ट के निवासी नहीं हैं तो कृपया एक बार वहाँ अवश्य जाएं। वास्तव में अगर आपको प्रकृति से लगाव है और प्रकृति का शुद्धतम रूप देखना हो तो एक बार नॉर्थ ईस्ट जाएं। अगर आपको, शान्ति, एकान्त, शालीनता, ठहराव पसन्द है, साथ ही व्यावहारिकता, सामाजिकता, अपनी माटी, भाषा और संस्कृति से प्रेम देखना है तो एक बार यहाँ जरूर जाएँ।